कुछ प्रतिरूप
मेरी कल्पना में विचरते हैं
कुछ क्षणभंगुर
ख्वाब बन कर बिखरते हैं

हौले से बढ़ कर जब
नाकामियां गले लगाती हैं
जिंदगी दर्द से थोड़ी सी
छटपटाती है

तन कर खड़ी होती
फिर साहस जुटा कर
नई दिशा की ओर
पग फिर चहकते हैं

जीवन नए तानेबाने बुनता
अपने अंदर नए अनुभव चुनता
कुछ करने की आरजू लिए
बीज दांवपेंच के बिखरते हैं

मंजिल पर सुकूं सा
आभास होता है
थोड़ा पाया, ज्यादा खोने का
एहसास होता है

फिर पीड़ा मन की
जलने लगती है
फिर हासिल की
चाह पलने लगती है

तब शुरू होता है
एक कमजोर संघर्ष
जिस में लड़ते हुए
काया के रूप बिखरते हैं

कुछ प्रतिरूप
मेरी कल्पना में विचरते हैं
कुछ क्षणभंगुर
ख्वाब बन कर बिखरते हैं.

– सिद्धू शेंडे

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