‘मैरी कोम’ भारत की एकमात्र स्वर्ण पदक विजेता मुक्केबाज मैरी कोम के जीवन संघर्ष पर आधारित है. सफल लोगों के संघर्ष पर बनने वाली फिल्मों में से यह एक है और प्रियंका चोपड़ा की परफौर्मेंस में उस का मैरी कोम के किरदार को जीवंत बनाने का जज्बा दिखता है.
हमारे देश में स्पोर्ट्स पर बहुत ही कम फिल्में बनी हैं. ‘चक दे इंडिया’ हौकी पर थी पर नकली कहानी थी. ‘भाग मिल्खा भाग’ असल बायोपिक पर थी. ये दोनों फिल्में खूब चलीं और इन्होंने वाहवाही लूटी. ‘मैरी कोम’ में इन दोनों फिल्मों की तरह तीखापन तो नहीं है पर इस में मैरी कोम के जीवन की सचाई को सामने सफलता से लाया गया है. निर्देशक ओमंग कुमार ने लगभग 2 घंटे की इस फिल्म में मणिपुर की मुक्केबाज मैरी कोम की बचपन से ले कर विश्व चैंपियन बनने तक की कहानी बयां की है. ओमंग कुमार द्वारा निर्देशित यह पहली फिल्म है.
‘मैरी कोम’ में सिर्फ बौक्ंसग ही नहीं है, इमोशंस भी हैं, पतिपत्नी का प्यार भी. नायिका को हालात से लड़ते हुए ऊंचाइयों तक पहुंचते हुए दिखाया गया है. उस का पिता उसे बाप और बौक्ंिसग में से किसी एक को चुनने को कहता है तो वह अपने पिता के बजाय बौक्ंिसग को चुनती है.
पूरी फिल्म में प्रियंका चोपड़ा ने बहुत मेहनत की है. नैचुरल लगने के लिए उस ने बौक्ंसग सीखी और जिम में जा कर कईकई घंटों तक रोजाना वर्कआउट किया. नतीजा यह है फिल्म को देखते वक्त दर्शकों के दिमाग पर मुक्केबाज मैरी कोम ही हावी रहती है. ठीक है कि प्रियंका चोपड़ा की बौडी लैंग्वेज ऐसी है कि वह मैरी कोम की तरह हार्ड नहीं लगती पर वह मैरी कोम को परदे पर सदा के लिए अमर कर गई है. फिल्म को प्रियंका चोपड़ा की परफौर्मेंस के कारण देखा जाना चाहिए कि साधारण घर की लड़की संघर्ष कर के क्या नहीं कर सकती.
मुक्केबाजी में 5 बार वर्ल्ड चैंपियन रही मुक्केबाज मैरी कोम की कहानी इंफाल से शुरू होती है. शहर दंगों की चपेट में है. मैरी कोम का पति ओनलर (दर्शन कुमार) अपनी पत्नी को डिलीवरी के लिए अस्पताल ले कर जा रहा है.
यहां कहानी फ्लैशबैक में चली जाती है. मैरी कोम के स्कूली दिनों से ले कर पिता से विद्रोह कर के बौक्ंसग कोच थापा (सुनील थापा) की एकेडमी तक पहुंचने की कहानी है. वह सफल मुक्केबाज बन जाती है और कई पदक पा लेती है. मुक्केबाज बनने का उस का सपना पूरा होता है. एक दिन उस का दोस्त ओनलर उस के सामने शादी का प्रस्ताव रखता है तो वह ना नहीं कर पाती. उस की शादी हो जाती है और वह 2 जुड़वां बच्चों की मां बन जाती है. अब उस में वह ऊर्जा नहीं रह पाती. उस का पति उसे दोबारा मुक्केबाजी के लिए प्रेरित करता है. वह कमबैक करती है. परंतु खेल प्रशासन की बेरुखी के कारण उसे बारबार अपमान का सामना करना पड़ता है. आखिरकार वह खेल प्रशासन से माफी मांगती है और वर्ल्ड चैंपियनशिप मुकाबले में भाग लेती है. वह यह चैंपियनशिप जीत कर स्वर्ण पदक विजेता बनती है.
फिल्म की कहानी कुछ हद तक दर्शकों को बांधे रखती है. निर्देशक ने मैरी कोम की जीवनी को सीधेसीधे फिल्माया है. उस ने सिनेमेटिक लिबर्टी नहीं ली है. प्रियंका चोपड़ा के कैरियर के लिए यह एक अहम फिल्म है. इस से पहले उस ने ‘बरफी’ फिल्म में दर्शकों की वाहवाही लूटी थी. इस फिल्म में फाइटिंग सीन्स में उस ने डुप्लीकेट का इस्तेमाल नहीं किया है.
फिल्म में फाइट सीन काफी लंबे खींचे गए हैं. मध्यांतर से पहले फ्लैशबैक से आए सीन कहानी में ब्रेक लगाते प्रतीत होते हैं. मध्यांतर से पहले का भाग काफी धीमा है और कुछ ऊब पैदा करता है. लेकिन मध्यांतर के बाद का हिस्सा फिल्म में तेजी लाता है. हां, क्लाइमैक्स में वह जोश पैदा नहीं हो पाता जो ‘चक दे इंडिया’ और ‘भाग मिल्खा भाग’ में क्रिएट हुआ था.
फिल्म में मैरी कोम के किरदार के माध्यम से भारतीय खेल प्रशासन द्वारा की जा रही धांधलियों और बेईमानियों का परदाफाश करते हुए दिखाया गया है. आज ऊंचेऊंचे पदों पर बैठे ऊंची जातियों के खेल अधिकारी किस तरह निचले व पिछड़े वर्ग से आए खिलाडि़यों का शोषण करते हैं, उस की पोल खोली गई है. खिलाडि़यों को सिर्फ चाय और केला दिया जाता है और डोरमेट्री में सोने की जगह दी जाती है जबकि अधिकारी खुद फाइवस्टार होटलों में लजीज खाना खाते हैं और ठाट से रहते हैं, इस का खुलासा भी है. शाबाश मैरी कोम.