उत्तर प्रदेश में मुजफ्फरनगर के बाशिंदों के दंगों से मिले जख्म भर ही रहे थे कि कड़कती ठंड के कहर और सियासी नमक ने उन्हें फिर से हरा कर दिया. मुख्यमंत्री का गांव ग्लैमर की चाशनी में डूबा था तो इधर बेबस जिंदगियां मदद की गुहार लगा रही थीं. सड़क के किनारे मदद की आस में बैठे पीडि़तों का दर्द बयां कर रहे हैं शैलेंद्र सिंह.
दंगे आम लोगों के जीवन पर कैसे प्रभाव डालते हैं, यह देखना हो तो मुजफ्फरनगर के राहत शिविरों में रह रहे लोगों की दयनीय हालत को देख कर समझा जा सकता है. सर्द रातें इन शिविरों पर कहर बन कर टूट रही हैं. सरकार की फाइलों में राहत शिविर भले ही खत्म हो चुके हैं पर लोग अभी भी यहां पर टैंट के नीचे रहने को मजबूर हैं. उत्तर प्रदेश की जिस अखिलेश सरकार को राहत शिविरों में रह रहे पीडि़तों के लिए इंतजाम करने थे, वह सैफई महोत्सव के रंग में डूबी रही. वह टैंट डाल कर रह रहे लोगों को जमीन पर अवैध कब्जा करने वाला मान कर उन के खिलाफ मुकदमे कायम कर रही है. सरकार ने राहत के नाम पर 1,800 लोगों को 5-5 लाख रुपए दे कर उन का मुंह बंद करने का काम किया है. दंगा पीडि़त बाकी 3 हजार लोग कहां जाएं, इस का कोई जवाब उस के पास नहीं है. दंगों के बाद इन पीडि़तों की जिंदगी बेबस, बेहाल और लाचार नजर आती है. यहां के हालात देख कर ऐसा लगता है जैसे सरकार राहत नहीं खैरात दे रही हो.
मुजफ्फरनगर के 4 गांव लोई, जोला, शाहपुर और बसीकला के राहत शिविरों के हालात देखने पर यहां के रहने वालों का दर्द समझ में आ जाता है. 27 दिसंबर, 2013 तक इन गांवों के राहत शिविरों में 1200 लोग रह रहे थे. मुजफ्फरनगर से शाहपुर 30 किलोमीटर, जोला 60 किलोमीटर, लोई 60 किलोमीटर और बसीकला 35 किलोमीटर के करीब बसे हैं. यहां राहत शिविर में रहने वालों के लिए पहले गांव के किनारे सड़क के पास ऊंची जमीन देख कर टैंट लगाए गए थे.
सही माने में देखें तो यहां लोग रह नहीं रहे थे, बल्कि वे अपनी जिंदगी से जंग लड़ रहे थे. राहत शिविरों के पास कूडे़ के ढेर लगे थे. कई जगहों पर गड्ढों में गंदा पानी भरा था. टैंट से पानी निकास का कोई इंतजाम न था. शिविर के आसपास किसी भी तरह के शौचालय की व्यवस्था नहीं की गई थी. दूर से देखने पर यह राहत शिविर किसी झुग्गीझोंपड़ी बस्ती से नजर आते थे.
खाने के लिए जरूरतभर सामान नहीं मिल रहा था. ऐसे में परिवार के बडे़ लोग अपने बच्चों के लिए रोटियां बचा कर रख लेते थे. खुद भूखे पेट गुजारा कर रहे थे. लोई कैंप में उस समय 72 महिलाएं गर्भवती थीं. उन में से 8-9 तो ऐसी थीं जिन को किसी भी वक्त पर प्रसव हो सकता था. गर्भवती महिलाओं के लिए सुरक्षित प्रसव कराने के लिए कोई खास इंतजाम न था. यहां बने स्वास्थ्य केंद्रों पर डाक्टर कुछ समय के लिए ही आते थे. यहां किसी भी तरह की एंबुलैंस भी देखने को नहीं मिली थी. दवा लेने के लिए लोगों को लाइनें लगानी पड़ती हैं.
यहां रहने वाली फातिमा ने बताया कि अगर दिन में कोई जरूरत पडे़ तो शहर से एंबुलैंस आ जाती है. रात के लिए कोई इंतजाम नहीं है. 20 दिन के बच्चे की मां रेहाना कहती हैं, ‘‘मुझे तो कैंप में ही बच्चा हो गया था. हमें पूरी मात्रा में दूध नहीं मिलता. मेरा बच्चा मेरा दूध पीता है. मुझे अपनी नहीं, बच्चे की चिंता है. इस सर्दी में कहां जाएं समझ नहीं आता है,’’ सब से मुश्किल यहां रहने वाली जवान बहू और लड़कियों के सामने होती है. उन को नहाने के लिए खुली जगह का ही उपयोग करना पड़ता है.
राहत शिविरों की बदहाली
सर्दी के मौसम के बावजूद बच्चों और बूढ़ों के लिए अलग से कोई इंतजाम नहीं किए गए थे. इसी तरह नवजात शिशुओं और महिलाओं के लिए दूध या दूसरे पौष्टिक खाने का इंतजाम नहीं था. सर्दी से बचने के लिए आग जलाने को लकड़ी आती थी पर वह जल्द ही जल कर खत्म हो जाती थी. ऐसे में पूरी रात ठंडक में काटनी पड़ती थी. शिविर में गद्दा और रजाई ऐसे थे जिन से जाड़े का बचाव संभव न था.
सब से बड़ी परेशानी उन बच्चों के लिए थी जो स्कूल पढ़ने जाते थे. झगडे़ के डर से ये बच्चे अपने स्कूल नहीं जा पा रहे थे. हाईस्कूल और इंटरमीडिएट की बोर्ड परीक्षाओं के मद्देनजर सरकार ने राहत शिविरों के आसपास किसी भी तरह के परीक्षा केंद्रों की स्थापना भी नहीं की गई है. ऐसे में ये बच्चे अपने पुराने स्कूलों में जा कर परीक्षा देने का साहस नहीं कर पाएंगे.
जोला के राहत शिविर में रहने वाले कक्षा 10 के छात्र दानिश कुरैशी कहते हैं, ‘‘मेरा स्कूल गांव के अंदर है. हम पिछले 5 माह से पढ़ने स्कूल नहीं गए हैं. हमारे स्कूल का परीक्षा सैंटर भी पास के दूसरे स्कूल में है. मेरे घर वाले कह रहे हैं कि हम वहां परीक्षा देने नहीं जा सक ते. हम वहां जाएंगे तो दंगा करने वाले लोग हम से बदला ले सकते हैं.’’
राहत शिविरों में रहने वाली महिलाओं और लड़कियों के साथ बदसलूकी की घटनाएं भी घटीं. प्रशासन ने इन को दबाने का काम किया. औल इंडिया प्रोग्रैसिव वूमेन एसोसिएशन की राष्ट्रीय अध्यक्ष कविता कृष्णनन कहती हैं, ‘‘दंगों के दौरान और बाद में महिलाओं के साथ हुई यौन हिंसा में सरकार ने कोई प्रभावी कदम नहीं उठाया है. बलात्कार के कई मामले ऐसे हैं जिन में मुकदमा कायम होने के बाद भी दोषियों को पकड़ा नहीं गया है. बहुत सारे ऐसे मामले भी हैं जिन में कोई मुकदमा तक कायम नहीं हुआ है.’’
मुआवजे के साथ जुड़ी शर्तें
सरकार ने दंगा पीडि़तों को जो मुआवजा बांटा है उस को ले कर तमाम तरह के सवाल उठ रहे हैं. मुआवजा सभी दंगापीडि़तों को नहीं मिला है. जिन को दिया गया है उन से शपथपत्र ले लिया गया कि अब वे अपने गांव नहीं जाएंगे और अपनी किसी जायदाद का दावा नहीं करेंगे. इन मुआवजा पाने वालों ने यह भी जिला प्रशासन को लिख कर दे दिया है कि ये लोग किसी राहत शिविर में नहीं रहेंगे.
मुजफ्फरनगर के रहने वाले इमरान अली कहते हैं, ‘‘मुआवजे के लिए ऐसी शर्तें रख कर सरकार ने पीडि़तों के जख्मों पर नमक छिड़कने का काम किया है.’’ इमरान खुद भी दंगा पीडि़त हैं.
मैगसेसे अवार्ड पाने वाले समाजसेवी डाक्टर संदीप पांडेय कहते हैं, ‘‘पुनर्वास का मतलब मुआवजा भर नहीं होना चाहिए. सरकार ने राहत शिविरों में रहने वालों के साथ जिस तरह से व्यवहार किया है वह ठीक नहीं है. सरकार को ऐसे इंतजाम करने चाहिए कि शामली और मुजफ्फरनगर जैसी घटनाएं दोबारा न घटें. राहत शिविरों में रहने वालों का सही माने में पुनर्वास होना चाहिए. केवल मुआवजा दे कर अपनी जिम्मेदारी से नहीं बचना चाहिए. सरकार को चाहिए कि वह दंगा पीडि़तों को घर और खेती के लिए जमीन दे ताकि वे अपना जीवन गुजरबसर कर सकें.’’
किस से करें फरियाद
शिविर में ऐसे लोग भी थे जो आसपास जमीन खरीद कर अब अपना मकान बनाने की योजना में हैं. सरकारी राहत शिविर खत्म होने के बाद भी ये टैंट के नीचे रहने को मजबूर हैं क्योकि इन के पास रहने को छत नहीं है. जो 5 लाख रुपया इन को सरकार की ओर से दिए भी गए थे उस का बड़ा हिस्सा जमीन खरीदने में ही चला गया. अब घर कहां से बने, यह इन को समझ नहीं आ रहा है. ऐसे में ये लोग टैंट के नीचे रहने को मजबूर हैं.
दरअसल, सरकार ने मुआवजे के लिए केवल 9 गांवों को ही चुना है जहां पर दंगा ज्यादा फैला था. सचाई यह है कि दंगे ने आसपास के 144 गांवों में लोगों को बेघर कर दिया था. सरकार ने इन सब की कोई सुध नहीं ली है. मुजफ्फरनगर के शामली के फुगना गांव में रहने वाली हदीसा बताती हैं, ‘‘जिस दिन दंगा भड़का उस दिन हमारे गांव में 2 शादियां थीं. अचानक घर के बाहर गोलियां चलने लगीं. घरों को जलाया जाने लगा. हमारे घरों में लूटपाट शुरू हो गई. मुझे भी चोट लगी. मेरा हाथ टूट गया. अब मेरे हाथ ने काम करना बंद कर दिया है. मुझे इलाज के लिए सरकारी मदद भी नहीं मिली.’’
कुरबा गांव के रहने वाले कगू कहते हैं, ‘‘हमारी जमीन पर गांव के दूसरे लोगों ने कब्जा कर रखा है. हमारी सुनने वाला कोई नहीं है. हमें किसी तरह की मदद नहीं दी गई. हम बेघर हो चुके हैं. हमारे पास कुछ नहीं है. हम अकेले नहीं हैं.’’
खरट से आए शमशाद चौधरी कहते हैं, ‘‘जिस जमीन की कीमत दंगे से पहले 5 लाख रुपए थी अब उस की कीमत घट कर आधी रह गई है. ऐसे में हम अपनी जमीन बेच कर दूसरी जगह जमीन कैसे ले सकते हैं. सरकार ने ऐसे लोगों को दंगापीडि़त नहीं माना है जो बेघर हो गए हैं.’’
सरकार ने मुआवजा बांट कर जिस तरह से दंगापीडि़तों का घर और जमीन छीन ली है वह पूरी तरह से गलत है.
लखनऊ दिखा सुस्त
मुजफ्फरनगर की दिल्ली से दूरी 104 किलोमीटर और लखनऊ से 517 किलोमीटर है. शायद यही वजह रही होगी कि राहत शिविरों के हालात देखने दिल्ली से नेता पहुंचने लगे पर लखनऊ के लोग वहां तक नहीं पहुंच पाए. कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी और राष्ट्रीय जनता दल के मुखिया लालू प्रसाद यादव के मुजफ्फरनगर पहुंचने से राहत शिविरों के हालात खुल कर सामने आने लगे. सर्दियों की शुरुआत होते ही राहत शिविरों में बच्चों के मरने की घटनाओं का खुलासा हो गया. तब पता चला कि अलगअलग राहत शिविरों में 40 बच्चों की सर्दी लगने से मौत हो गई थी. यह बात लखनऊ में बैठे सत्ताधारी समाजवादी पार्टी के नेताओं और सरकारी अफसरों को अच्छी नहीं लगी. मामले को राजनीतिक रंग देने का काम शुरू कर दिया गया.
दूसरी ओर कुछ सामाजिक संगठनों ने भी राहत शिविरों में जा कर वहां के हालात देखने शुरू कर दिए. जौइंट सिटिजन इनिशिएटिव यानी जेसीआई ने भी मुजफ्फरनगर और शामली के राहत शिविरों को देखा और वहां की जरूरतों को समझा. जेसीआई के पुनीत गोयल कहते हैं, ‘‘करीब 15 हजार लोग बेघर हैं. इन में से वे लोग भी हैं जिन को सरकार ने 5 लाख रुपए का मुआवजा दे दिया है. इन लोगों को सरकार ने स्थायी रूप से विस्थापित माना है. ये लोग अपने गांव वापस नहीं जा सकते. अपने मकानजमीन पर कब्जे की मांग नहीं कर सकते. यह बात सरकार ने इन लोगों से शपथपत्र में लिखवा ली है. यह शपथपत्र देने के बाद ही उन को 5 लाख रुपए का मुआवजा दिया गया.’’
बहरहाल, सरकार और प्रशासन अपनीअपनी धुन में व्यस्त हैं. नौकरशाह वही करते हैं, जो उन के आका कहते हैं. दर्द तो ये दंगा पीडि़त झेल रहे हैं जिन की सुध लेने वाला कोई नहीं है.