रेवती की परेशानी दिनोंदिन बढ़ती जा रही है. पहले तो उस की बेटी बबली काम के साथसाथ बड़ों का आदर करती थी, गलती हो जाने पर किसी से माफी भी मांग लेती थी, लेकिन कुछ समय से न जाने क्या हुआ है कि समझना और मानना तो दूर, डांटनेफटकारने, यहां तक कि पिटाई करने के बावजूद वह न तो मेहमानों को नमस्ते कहती है और न ही अपनी गलती पर किसी से माफी मांगती है.

शिखा बेटे की कारगुजारियों से परेशान है. वह कुछ ज्यादा ही बिगड़ चुका है. न जाने क्यों उस ने चोरी करनी भी शुरू कर दी है. एक बार पकड़े जाने पर शिखा ने उस की पिटाई भी की थी, लेकिन अपनी गलती के लिए उस ने माफी नहीं मांगी. क्या आप भी बच्चों के ऐसे व्यवहार से परेशान हैं? समझ नहीं पा रहे हैं कि क्या करें?

परिवार की संरचना

समाज में न्यूक्लियर फैमिली का चलन बढ़ता जा रहा है, जहां बच्चे केवल मातापिता का साथ पा कर पलबढ़ रहे हैं. ऐेसे परिवारों में पेरैंट्स अपने बच्चों को ले कर ओवरकंसंर्ड हो जाते हैं. बच्चों का जरूरत से ज्यादा ध्यान रखते हैं. उन की हर चाहीअनचाही मांग पूरी करते हैं. जिस से बच्चों में  छोटीबड़ी हर डिमांड की पूरी होने की आदत हो जाती है. कुछ समय बाद उन्हें इस बात का घमंड होने लगता है कि वे जो भी चाहते हैं वह पूरा हो जाता है.

चाइल्ड साइकोलौजिस्ट डा. धीरेंद्र कुमार कहते हैं, ‘‘बच्चों को गर्व और घमंड के बीच का अंतर मालूम नहीं होता और उन्हें यह अंतर समझा पाना आसान भी नहीं होता. व्यस्त दिनचर्या की वजह से पेरैंट्स उन्हें ज्यादा समय नहीं दे पाते या पेरैंटिंग स्किल्स की कमी की वजह से बच्चों को वे इस बारे में समझा नहीं पाते. टीचर्स की नैतिक जिम्मेदारी होती है या यों कहें कि उन का कर्तव्य होता है कि बच्चों को इस बारे में समझाएं, लेकिन लापरवाही या फिर क्लास में बच्चों की अधिक संख्या की वजह से शिक्षक इस ओर ध्यान नहीं दे पाते.’’

क्या करें

मातापिता को पेरैंटिंग स्किल्स की क्लासेस लेनी चाहिए या चाइल्ड साइकोलौजिस्ट से मिल कर अपनी परेशानियों का हल निकालने की कोशिश करनी चाहिए. इस से बच्चों की मानसिकता को न सिर्फ समझने में उन्हें आसानी होगी बल्कि वे उन्हें अच्छी तरह हैंडल भी कर पाएंगे. शिक्षकों को चाहिए कि समयसमय पर स्कूल में लाइफ स्किल्स प्रोग्राम चलाएं. ऐसे कार्यक्रमों के दौरान एक ही क्लास के बच्चों को कई अलगअलग ग्रुप्स में बांट दिया जाता है ताकि हर बच्चे पर वे पूरापूरा ध्यान दे सकें.

मीडिया

आज टैलीविजन, रेडियो, इंटरनैट व पत्रपत्रिकाओं के जरिए बच्चों को इतना मीडिया ऐक्सपोजर दिया जाने लगा है कि उन्हें पढ़ने और देखने वाले पेरैंट्स अपने बच्चों को भी ऐसी ही जगह देखने की चाहत पालने लगे हैं. डा. धीरेंद्र कुमार आगे कहते हैं, ‘‘ऐसी चाहत मातापिता को अपने बच्चों को हर तरह की जानकारी से लबरेज कर देने की कोशिश में लगा देती है क्योंकि इस से समाज में उन्हें वैल्यू मिलती है. कम उम्र में ही बच्चों को बड़ों की तरह व्यवहार करने के लिए उन के साथ जबरदस्ती भी की जाने लगती है. नतीजतन, कम उम्र में ही बच्चे बड़ों की तरह व्यवहार करने लगते हैं, जो कभी तो हमें आश्चर्यजनक खुशी देता है लेकिन कभीकभार बुरी तरह से परेशान भी कर देता है.’’

इस बाबत जानेमाने मनोवैज्ञानिक डा. समीर पारिख कहते हैं, ‘‘बच्चे कहीं न कहीं बड़ों से ही सीखते हैं या फिर आसपास के माहौल से. मीडिया भी इस में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है. कई बार हमें मालूम भी नहीं होता, लेकिन टैलीविजन पर प्रसारित किए जा रहे कार्यक्रमों या फिल्मों से बच्चे बहुतकुछ सीखने लगते हैं.

यहीं से कब उन में घमंड की प्रवृत्ति आ जाती है, हमें पता भी नहीं चल पाता. घमंड की वजह से इस कारण धीरेधीरे उन के दोस्त भी कम होते जाते हैं. किसी से उन की बनती नहीं और ज्यादातर लोगों से उन का झगड़ा हो जाता है.

‘‘घमंड की वजह से बच्चा ओवरकौन्फिडैंट होता जाता और मेहनत कम करने लगता है. यही वजह है कि काफी हद तक आज के बच्चों के घमंडी होने के लिए मैं फिल्मों को दोषी मानता हूं. बच्चों में फिल्में देखने की प्रवृत्ति को भी मैं सही नहीं मानता.’’

क्या करें

बच्चों से बातचीत करें. उन का व्यवहार रियलिस्टिक बनाएं. उन्हें सहीगलत का अंतर समझाएं, बताएं कि उन से कहां और क्या गलती हुई है. गलतियों से बचने के उपाय सुझाएं और गलती हो जाने पर क्या करें, यह भी बताएं.

दोहरी प्रवृत्ति

मीडिया ऐक्सपोजर के परिणामस्वरूप पेरैंट्स खुद अपने बच्चों में बनावटीपन भरने लगे हैं. विशेषज्ञों के मुताबिक समाज के इस बदलते स्वरूप की वजह से अपने बच्चों को हम आज के माहौल के मुताबिक बनाने की जुगत में भिड़ गए हैं. कम उम्र में ही बच्चों को बड़ों की तरह व्यवहार करना सिखाने लगे हैं, जैसे कैमरे या दूसरों के सामने सीधे खड़े रहना, जोर से मत बोलना, दांत दिखा कर नहीं हंसना वगैरह. जबकि घर पर सभी लोग इस अंदाज से अलग मस्त हो कर रहते हैं और रिलैक्स हो कर जीते हैं. बच्चों को यह दोगलापन कुछ उलझा देता है.

इस तरह ज्यादा या बेहतर दिखाने की कोशिश में मातापिता अपने बच्चों से कई चीजें छिपाने के लिए कहते हैं. ये बातें बच्चों के मन में घर करने लगती हैं. उन्हें समझते देर नहीं लगती कि सिचुएशन के हिसाब से उन्हें कभी कुछ तो कभी कुछ और नजर आना सीखना या जानना है.

डा. धीरेंद्र कुमार कहते हैं, ‘‘ऐसी बातों का असर उन पर इतना ज्यादा होता है कि 2 अलगअलग जगहों पर वे 2 अलगअलग तरीके से व्यवहार करने लगते हैं, जो अपनेआप में डिफरैंट टास्क हैं. उन्हें यह बात समझ आ चुकी होती है कि उन्हें खुद को दूसरों से बेहतर साबित कर के दिखाना है. नतीजतन, अपने नए स्कूल, नए दोस्त या किसी भी नई जगह पर वे खुद को औरों से बेहतर दिखाने की कोशिश में कई बार कुछ गलत काम करने से भी नहीं हिचकते. इस तरह अपने आत्मसम्मान यानी इमेज को बचाए रखने के लिए बच्चे खुद को ओवरशो करने लगते हैं. वे कुछ इस तरह से व्यवहार करने लगते हैं, जो उन्हें नहीं करना चाहिए जिस का कई बार परिणाम घातक देखने को मिलता है.

‘‘बच्चों में धीरेधीरे घमंड आने लगता है. खुद को कहीं भी कमतर आंकना उन्हें रास नहीं आता. मुश्किलें तब आती हैं जब पहली बार कोई दूसरा उन्हें कमतर साबित कर देता है, चाहे परीक्षा में उन से ज्यादा नंबर्स ला कर हो या फिर गेम्स में उन से बेहतर कर के. अपनी इमेज को इतना बड़ा धक्का लगता देख वे खुद पर कंट्रोल नहीं कर पाते, जिस के दो बहुत बुरे परिणाम देखने को मिलते हैं, या तो वे आत्महत्या तक कर लेते हैं या फिर मारपीट और झगड़े पर उतारू हो जाते हैं.’’

खुद को सब से बेहतर साबित करने की होड़ में औरों के बीच वे इतना झूठ बोल चुके होते हैं कि कभीकभार उन्हें शक होने लगता है कि किस के पास उन्होंने कौन सा झूठ कहा था या फिर अपनी साख बचाए रखने के लिए वे सभी झूठ को अच्छी तरह याद रखना शुरू कर देते हैं.

दरअसल, कहीं न कहीं वे असुरक्षा की भावना से ग्रस्त रहते हैं. उन्हें डर रहता है कि उन की पोल न खुल जाए. इस वजह से अकसर उन का दिमाग कुछ भी क्रिएटिव करने के बजाय गलत चीजों या बातों को व्यवस्थित करने में ही व्यस्त रहने लगता है. कहीं न कहीं इस का प्रभाव उन की पर्सनैलिटी डैवलपमैंट और लाइफ पर भी देखने को मिलता है.

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