यह एक राजनीतिक फिल्म है जिस में भ्रष्टाचारी खलनायक है. सत्ता में बैठे अफसर, नौकरशाह और राजनीतिबाज एक के बाद एक घोटाले किए जा रहे हैं. 2जी स्पैक्ट्रम घोटाला, कौमनवैल्थ घोटाला, कोयला घोटाला और अब एनएसईएल (शेयर बाजार) घोटालों ने भ्रष्टाचार की सारी सीमाएं तोड़ दी हैं.

आज जनता भ्रष्टाचार से भूख, गरीबी व महंगाई से भी ज्यादा परेशान है. जिस का सरकारी दफ्तर से वास्ता पड़ जाए उस का दिल डूब जाता है  कि न जाने इस भव्य भवन के अंधे काले गलियारों में उस का क्या होगा. हाथ में फाइल दबाए वह सरकारी शेरों के सामने मेमने की तरह दुबकता घूमता है.

प्रकाश झा ने इस फिल्म के माध्यम से भ्रष्टाचार के खिलाफ एक मुहिम छेड़ी है. फिल्म में भारत की एक ऐसी तसवीर पेश की गई है जहां हर सरकारी दफ्तर में रिश्वतखोर मौजूद हैं.

प्रकाश झा की यह खासीयत है कि वे जिन मुद्दों को उठाते हैं उन का ट्रीटमैंट खास तरह से करते हैं. ‘सत्याग्रह’ में उन्होंने सरकारी तंत्र के खिलाफ युवाओं के आक्रोश को दिखाया है. यह फिल्म अन्ना हजारे के आंदोलन से प्रेरित है और फिल्म के कई दृश्य अन्ना हजारे की मूवमैंट के दौरान दिल्ली के रामलीला मैदान के दोहराव हैं.

कहानी देश के एक कतिपय शहर अंबिकापुर की है, जहां एक रिटायर्ड प्रिंसिपल द्वारका आनंद (अमिताभ बच्चन) अपने बेटे अखिलेश और बहू सुमित्रा (अमृता राव) के साथ रहता है. वह सिद्धांतवादी है और देश को भ्रष्टाचार की दलदल से बाहर निकालने की कोशिश में लगा है. अखिलेश जिले में बन रहे एक फ्लाईओवर प्रोजैक्ट में इंजीनियर है और फ्लाईओवर के निर्माण में चल रहे घपले को उजागर करना चाहता है, तभी एक दुर्घटना में उस की मौत हो जाती है.

मंत्री बलराम सिंह (मनोज वाजपेयी) 25 लाख रुपए के मुआवजे का ऐलान करता है. 3 महीने बाद भी जब अखिलेश की पत्नी को मुआवजा नहीं मिल पाता तो द्वारका आनंद भ्रष्ट डीएम को थप्पड़ मार देता है. पुलिस उसे पकड़ कर जेल में डाल देती है, तो वह भ्रष्टाचार के खिलाफ एक आंदोलन छेड़ देता है. उस के इस आंदोलन में दिल्ली में एक टैलीकौम कंपनी चला रहा बिजनैस टायकून मानव राघवेंद्र (अजय देवगन) भी शामिल हो जाता है. वह पता लगाता है कि अखिलेश को मंत्री बलराम सिंह ने ही मरवाया था. वह अपने साथ एक छात्र नेता अर्जुन (अर्जुन रामपाल) और एक टीवी चैनल की पत्रकार यास्मीन (करीना कपूर) को भी मिला लेता है. वह पूरे जिले के लोगों को भी इस आंदोलन के साथ जोड़ता है. बलराम सिंह झुक जाता है और द्वारका आनंद को रिहा कर देता है.

जेल से छूटने के बाद द्वारका आनंद बलराम सिंह को 7 दिनों के अंदर सिस्टम को दुरुस्त करने की चेतावनी देता?है. वह आमरण अनशन पर बैठ जाता है और यह आंदोलन बड़े जन सत्याग्रह में तबदील हो जाता है. सोशल मीडिया इस आंदोलन को आगे बढ़ाने में मददगार साबित होता है लेकिन भ्रष्ट मंत्री बलराम सिंह, द्वारका आनंद को मरवा देता है. जनता उग्र हो जाती है और बलराम सिंह को मारने पर उतारू हो जाती है परंतु मानव जनता को शांत कर बलराम सिंह को कानून के हवाले कर देता है.

फिल्म की कहानी में झोल ही झोल हैं.  अन्ना हजारे मूवमैंट के अरविंद केजरीवाल का पार्ट अदा कर रहे मानव (अजय देवगन) ने 3 साल में 6 हजार करोड़ कैसे कमा लिए, यह बताया ही नहीं गया. वह अखिलेश से आखिर इतना लगाव क्यों रखता था कि उस ने 6 हजार करोड़ की कमाई संपत्ति बांट दी. सिद्धांतवादी द्वारका आनंद ने आखिर 25 लाख रुपए मंत्री की घोषणा पर ले क्यों लिए जबकि मंत्री बेईमान है. मुआवजा सरकार देती है, मंत्री नहीं. फिर इस मुआवजे के लिए सुमित्रा जिस दफ्तर में बारबार जाती है वह करता क्या है और उस दफ्तर का औचित्य क्या है?

प्रकाश झा की फिल्मकथा नुक्कड़ नाटक जैसी लगती है जिस में भाषण देने के अलावा किसी को कुछ आताजाता नहीं. आज के युवा इस फिल्म को खुद से जोड़ कर देख रहे हैं क्योंकि अब उन्हें समझ में आने लगा है कि अगर मंत्री, प्रधानमंत्री ठीक ढंग से काम नहीं कर रहे हैं तो उन्हें सत्ता से बाहर करने का अधिकार उन के पास है.

इस विषय पर जितनी फिल्में बन रही हैं उन में नेताओं और अफसरों का ट्रीटमैंट उसी तरह का है जैसा 1970 से 1990 तक के दशकों में माफिया गैंगों या डौनों का होता था. मध्यांतर से पहले फिल्म की रफ्तार धीमी है. फिल्म का निर्देशन अच्छा है परंतु भ्रष्टाचार पर फोकस की गई इस फिल्म में लव ऐंगल और आइटम सौंग डालने की भला क्या तुक थी? करीना कपूर और अजय देवगन के लिप टु लिप किस सीन की भी कतई जरूरत नहीं थी.

अमिताभ बच्चन ने एक बार फिर साबित कर दिया है कि उस का मुकाबला कोई नहीं कर सकता. द्वारका आनंद के किरदार में उस ने जान डाल दी है. अजय देवगन का किरदार भी दमदार है. उस के किरदार में कई शेड्स हैं. वह आज के युवाओं की तरह सोचता है. हमेशा सही समय पर सही फैसले लेता है परंतु फिर भी कहींकहीं गलतियां कर बैठता है.

करीना कपूर पत्रकार की भूमिका में बिलकुल भी फिट नहीं बैठी. भ्रष्ट नेता के किरदार में मनोज वाजपेयी के अभिनय में पुराना घिसापिटापन है. अगर फिल्म की विशेषता है तो यह कि इस विषय पर फिल्में बनने लगी हैं जिस में रिश्वतखोरी से लड़ते आम नागरिक की व्यथा ज्यादा दिखाई गई है. प्रकाश झा अगर सराहनीय हैं तो केवल इसलिए.

फिल्म में 2 गाने हैं- ‘जनता का राज’ और ‘रघुपति राघव राजाराम’ दोनों ही गाने सिचुएशन के अनुसार फिट किए गए हैं. छायांकन अच्छा है. छायाकार ने हजारों लोगों की भीड़ के दृश्यों को कुशलता से फिल्माया है.

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