नक्सली हमले, विरोध प्रदर्शन और दंगों के दरमियान सरकार और हिंसक गुटों के बीच की मारामारी में खून निर्दोष जनता का बहता है. हिंसा और सरकार की ज्यादती के खिलाफ जनता की प्रतिक्रिया किस तरह हिंसक आंदोलन को जन्म देती है, बता रहे हैं कंवल भारती.

क्या लोकतंत्र में हिंसा उचित है? शायद ही कोई इस का जवाब हां में देना चाहेगा. लेकिन फिर भी हिंसा लगातार जारी है. भारत का कोई भी राज्य हिंसा से अछूता नहीं है. यह अब आम समस्या हो गई है. लेकिन लोकतंत्र के प्रहरियों ने कभी भी इस पर कारगर तरीके से विचार नहीं किया. यह विषय मुख्य रूप से चर्चा के केंद्र में तभी आता है जब हिंसा के शिकार बड़े नेता होते हैं.

यह हिंसा लाखों निर्दोष लोगों की जान ले चुकी है, कभी गोलियों से तो कभी बम विस्फोट से, कभी धर्म के नाम पर तो कभी भाषा के नाम पर और कभी जाति के नाम पर गुमराह लोगों की हिंसा से तो कभी उस के विरोध में सरकार की प्रतिहिंसा से. हिंसा की कुछ दिन चर्चा होती है, फिर सब शांत. किंतु अब जब शांति मार्च (सलवा जुडूम) के अगुआ कांग्रेसी नेता महेंद्र कर्मा और अन्य प्रतिनिधि नेताओं की नक्सलियों ने हत्या कर दी तो पूरा सत्तातंत्र विचलित नजर आने लगा है. सभी राजनीतिक पार्टियां नक्सलवाद और माओवादियों के खिलाफ लामबंद हो गई हैं कि बस, अब वे उन का खात्मा कर के ही रहेंगे. विडंबना यह है कि उन की यह खात्मायोजना भी प्रतिहिंसा के सिवा कुछ नहीं है.

आइए, कुछ सवालों पर विचार करें. राजनीतिक पार्टियां कह रही हैं कि छत्तीसगढ़ में माओवादियों का हमला लोकतंत्र पर प्रहार है. केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश कह रहे हैं कि वे आतंकवादी हैं और उन के विरुद्ध वैसी ही कार्यवाही होनी चाहिए जैसी आतंकवादियों के खिलाफ की जाती है, क्योंकि वे संविधान, लोकतंत्र और लोकतांत्रिक संस्थाओं में कोई आस्था नहीं रखते हैं. उधर, माओवादियों का कहना है कि लोकतंत्र और संविधान के नाम पर चलाया जा रहा महेंद्र कर्मा का सलवा जुडूम आदिवासियों की तबाही का मार्च था.

गांव के गांव पुलिस ने जला कर राख कर दिए थे, हजारों लोग घर से बेघर हो गए, पुलिस वाले लड़कियों और औरतों को घरों से खींच कर ले जाते थे, उन के साथ बलात्कार कर के उन की हत्याएं कर देते थे, बर्बरता की सारी हदें पार करते हुए पुलिस ने डेढ़ साल के एक बच्चे का हाथ काट दिया था और एक महिला के गुप्तांग में पत्थर भर दिए थे. क्या यह किसी आतंक से कम था? क्या इसी को लोकतंत्र कहते हैं? यह सब किस संविधान और लोकतंत्र के तहत किया गया था? यह कैसा शांति मार्च (सलवा जुडूम) था जो आदिवासियों पर कहर ढा रहा था? कल्याण और योजनाओं के नाम पर वहां शोषण और लूट का धंधा चल रहा था. महेंद्र कर्मा आदिवासी जनता के नहीं, पूंजीपतियों के हितैषी थे और उन्हीं के लिए आदिवासियों को जंगलजमीन से बेदखल करने का काम कर रहे थे.

सलवा जुडूम आदिवासियों के लिए आतंक का पर्याय बन गया था. कहते हैं कि महेंद्र कर्मा के इशारे पर लोग पुलिस की हैवानियत का शिकार होते थे. जब कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं ने सारे सुबूत एकत्र कर के सलवा जुडूम के खिलाफ अदालत का दरवाजा खटखटाया और सुप्रीम कोर्ट ने हकीकत जानने के बाद सरकार को फटकार लगाई, तब जा कर सलवा जुडूम बंद हुआ पर पुलिस के आदिवासियों पर अत्याचार फिर भी बंद नहीं हुए. यह कहानी है महेंद्र कर्मा और उन के सलवा जुडूम की. क्या इसे जायज ठहराया जा सकता है?

निसंदेह, हिंसा का रास्ता गलत है. हिंसा में अकसर निर्दोष लोग ही मारे जाते हैं, दोषी और अपराधी लोग बहुत कम इस के शिकार होते हैं. इसलिए हिंसा का समर्थन कभी नहीं किया जा सकता. माओवादी भी एकदम हिंसा के रास्ते पर नहीं आए होंगे. नक्सलवादी भी शुरू में अहिंसक ही थे. हिंसा का रास्ता उन्होंने बाद में अपनाया होगा, जब वे मजबूर हुए होंगे. सवाल यह है कि लोग अहिंसक क्यों नहीं बने रह सकते? उन्हें कौन मजबूर करता है हिंसा के लिए? इस का एक ही जवाब है कि उन्हें हिंसा के लिए राज्य मजबूर करता है.

राज्य का मतलब सरकार. हमारे भारतीय लोकतंत्र में सरकार भले ही जनता के द्वारा जनता के लिए चुनी जाती है और कहा भी उसे जनता की सरकार ही जाता है पर जनता सब से ज्यादा असंतुष्ट अपनी इसी सरकार से होती है.

गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी, अशिक्षा, आवास, बिजली, पानी और चिकित्सा आदि न जाने कितनी ढेर सारी समस्याएं हैं, जिन से जनता बराबर जूझ रही है. दूसरी तरफ जनता का खून चूसने वाले पूंजीपति, शोषक, दलाल, ठेकेदार और हर क्षेत्र के माफिया दिनदूनी रातचौगुनी रफ्तार से बढ़ते जा रहे हैं.

जब जनता अपनी समस्या के समाधान के लिए लोकतांत्रिक तरीके से मांग करती है, शांतिपूर्ण प्रदर्शन करती है तो पुलिस उन्हें रोकती है, उन्हें सरकार के मुखिया से नहीं मिलने देती और जब जनता मुखिया तक पहुंचने के लिए आगे बढ़ती है तो पुलिस उन पर बल प्रयोग करती है, उन पर लाठियां बरसाती है, जरूरत पड़ती है तो गोलियां भी चलाती है, जिस में जनता के हाथपैर टूटते हैं, सिर भी फूटते हैं और वे मरते भी हैं. तब जनता को पता चलता है कि उस ने जो सरकार चुनी है वह जनता के लिए काम ही नहीं करती, वह तो उन का खून चूसने वाले पूंजीपतियों, बड़े व्यापारियों, दलालों और माफियाओं के लिए काम करती है. तभी उसे यह भी पता चलता है कि पुलिस भी जनता की नहीं, उसी सरकार की रक्षा करती है जो उस का शोषण करती है.

यहां हिंसा की शुरुआत किस ने की? स्पष्ट है कि सरकार ने की. अब जनता को लगता है कि वह ठगी गई है. सरकार और जनता की समस्याओं के बीच में पुलिस, पीएसी, सीआरपीएफ और फौज खड़ी है. वह हरगिज जनता को सरकार तक नहीं पहुंचने देगी. अगर ये न रहें तो जनता एक मिनट में सरकार  से निबट ले. लेकिन जनता डरती है पुलिस से जो उस की लाशें बिछा देगी.

इसलिए यह सच है कि जनता की हिंसा में इतने लोग नहीं मरते जितने ज्यादा लोग राज्य की हिंसा में मरते हैं. 1987 में पीएसी ने मेरठ में 27 लोगों को हिंडन नदी के किनारे ले जा कर गोलियों से भून दिया था. उन का क्या कुसूर था? राज्य की ऐसी दरिंदगी की प्रतिक्रिया में लोगों को हिंसक होने से कैसे रोका जा सकता है?

राज्य की हिंसा का एक और खतरनाक रूप है, सिविलियन जनता को आत्मरक्षा के नाम पर निजी हथियार रखने का अधिकार यानी लाइसैंस देना. इस अधिकार के तहत धनाढ्य और दबंग वर्ग को कमजोरों को दबा कर रखने का लाइसैंस मिल गया. इसी ने सत्ता पक्ष के लिए वैकल्पिक पुलिस का भी काम किया. चुनावों के समय यह वैकल्पिक पुलिस क्या नहीं करती?

बूथ कैप्चरिंग से ले कर, अपहरण और हत्याएं तक करती है. सरकार के इसी सामंती निर्णय से गांवगांव में पक्षप्रतिपक्ष में खून की होली खेली जाने लगी. इस से आतंकित जनता भेड़ की तरह सत्तापक्ष के दबंगों के पीछे चलती है और उन को आश्रय देने वाले नेता उन के बल पर अपना किला मजबूत करते हैं. बहुत से लोगों ने तो शौकिया ही बंदूकें ले ली हैं, जिन की जरूरत उन्हें कभी नहीं पड़ती. वे घर में पड़ेपड़े जंग खाती हैं या शादीविवाह के मौकों पर ‘हर्षफायरिंग’ में चलती हैं, और कभीकभी निशाना चूकने पर ये फायरिंग भी निर्दोष लोगों की जान ले लेती है.

किसी भी नेता ने यह सवाल नहीं उठाया कि सिविलियन को हथियार देने की क्या जरूरत है? वे क्यों उठाएं?  विधायकसांसद को तो छोडि़ए, छुटभैये नेता तक हथियारों से लैस रहते हैं और मंत्रियों का तो कहना ही क्या? वे तो सशस्त्र कमांडो के घेरे में ही चलते हैं. यह सारा उपक्रम इसलिए है कि जनता के प्रतिनिधि जनता से दूर रहें. जब प्रतिनिधि ही जनता से दूरी बना कर रहेंगे तो फिर सवाल है कि लोकतंत्र में वे किस का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं? तब क्या वे जनाक्रोश और हिंसा को रोक पाएंगे? और रोकेंगे, तो हिंसा से ही.

मैं यहां एक उदाहरण अपने शहर का देता हूं. पिछले 50 सालों में हमारी जनसंख्या में इस कदर वृद्धि हुई है कि छोटे शहरों में भी घनी आबादी हो गई है. चप्पेचप्पे पर मकान बन गए हैं. जहां खेत हुआ करते थे वहां भी इमारतें खड़ी हो गई हैं. फुटपाथों पर सब्जियां बिकती हैं, अब से नहीं, 25-30 साल से बिकती हैं.

10 साल पहले नगरपालिका परिषद ने नाले पर 22 दुकानें बनवा दी थीं, हालांकि नाला पाटा नहीं गया था, उस पर स्लैब डाला गया था. सत्तापलट में अब समाजवादी पार्टी की सरकार बन गई. शहर के एक विधायक सरकार में दूसरे दरजे के कद्दावर मंत्री बन गए. मंत्री बनते ही उन्हें शहर को खूबसूरत बनाने की सनक सवार हो गई. इसलिए शहर में तोड़फोड़ शुरू हो गई. अवैध कब्जों के नाम पर तमाम गरीबों के मकान तोड़ दिए गए, नाले पर बनी 22 दुकानें तोड़ दी गईं, और 25-30 साल पुरानी सब्जीमंडी उजाड़ दी गई. रोती आंखों से वे

गरीब, असहाय, मजलूम लोग अपने आशियाने, अपने रोजगार उजड़ते हुए देखते रहे, वे विरोध में कुछ कर नहीं सकते थे, क्योंकि उन की लाशें बिछाने के लिए वहां सरकार की सशस्त्र पुलिस मौजूद थी.

मजलूमों की उस भीड़ में क्या किसी का भी मन बगावत करने का न हुआ होगा? जरूर हुआ होगा, पर पुलिस बल के डर ने उसे चुप करा दिया होगा. क्या यही लोकतंत्र है? यही समाजवाद है? एक समाजवादी सरकार का यही काम है कि वह लोगों के घर और रोजगार उजाड़े? सरकार की तरफ से तो हिंसा हो ही गई, जिसे ‘अतिक्रमण औपरेशन’ का वैधानिक नाम भी दे दिया गया पर यदि इस तथाकथित औपरेशन के वक्त कोई मजलूम एक पत्थर भी हाथ में उठा लेता, तो क्या होता? सरकार की हिंसा इस कदर भयानक हो जाती कि पता नहीं कितने मजलूम उस की गिरफ्त में आते और पता नहीं वे कितनी संगीन धाराओं में जेल में सड़ रहे होते. सरकार की हिंसा के खिलाफ जनता का उठाया गया पत्थर ही तो नक्सलवाद जैसे हिंसक आंदोलनों की आधारशिला रखता है.      

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