Social Story In Hindi : यहां बात इंसानों के बीच लड़ाई की नहीं, कुत्तों के बीच की लड़ाई की थी, लेकिन उन कुत्तों के मालिक तो इंसान थे न. और इंसान कुत्ते की तरह वफादार नहीं होता.

‘‘वह क्या है कि जब युधिष्ठिर अपने भाइयों और द्रौपदी संग जीवित ही हिमालय के रास्ते दुनिया से प्रस्थान कर गए तो उन्हें छोड़ बाकी सभी हिमालय की भयानक ठंड से एक-एक कर गल कर मृत्यु को प्राप्त हो गए. एकमात्र धर्मराज युधिष्ठिर ही थे जो हिमालय की चोटी पर स्थित एक विशेष दरवाजे पर पहुंचने में कामयाब हुए थे,’’ रामजी सिंह ने कथा कहते हुए थोड़ी देर सांस ली, फिर अपने कुत्ते शेरू को सहलाया. वह पुलक भरते अगराने और अपनी पूंछ उन की देह से रगड़ने लगा. उस की अगराहट काबिल-ए-तारीफ थी.

रामजी खुद भले मांस-मछली न खाएं मगर शेरू के लिए उस का इंतजाम जरूर करते थे. दरअसल उन के हिमालय वाले बाबा ने जब से उन्हें गुरु मंत्र दिया था, वे शाकाहारी हो गए थे.

उन के चुप होते ही अर्जुन सिंह अधीर होने लगे. उन्हें मिथकों, पुराण कथाओं में अत्यंत रुचि थी और रामजी सिंह ठहरे बनारस के निवासी. उन्हें पुराण कथा न पता होता तो किसे पता होता. ‘‘अब आगे की कथा सुनाइए महाराज,’’ अर्जुन सिंह शेरू को दूर से ही निहारते हुए बोले, ‘‘जब युधिष्ठिर विशेष दरवाजे पर पहुंचे तो अंदर बड़ा सत्कार हुआ होगा?’’

‘‘अरे नहीं महाराज, देवदूत तो उन की अगवानी में खड़ा था लेकिन युधिष्ठिर के साथ तो वह कुत्ता राजधानी हस्तिनापुर से ही साथ चला आ रहा था. देवदूत ने कुत्ते को अंदर नहीं आने दिया. युधिष्ठिर अड़ गए कि वह भी उन के साथ अंदर जाएगा. पत्नी और भाइयों तक ने आखिरकार उन का साथ छोड़ दिया लेकिन इस कुत्ते ने अंत तक उन का साथ दिया है, सो वे उसे ऐसे कैसे छोड़ दें?

‘‘उन की जिद देख कर देवदूत घबरा गया. तभी वह कुत्ता एक देवता में बदल गया. वे बोले कि, ‘हे धीरपुरुष युधिष्ठिर, तुम ने अंत तक धर्म का साथ नहीं छोड़ा, इसलिए तुम महान हो. मैं कुत्ता नहीं, धर्म ही हूं. चलो, मैं तुम्हें स्वर्ग में साथ लिए चलता हूं, तो सम झ गए न अर्जुन बाबू, मेरा शेरू भी मेरे लिए धर्म के समान ही है. इसलिए मैं इस का हमेशा खास खयाल रखता हूं.’’

अर्जुन सिंह गदगद हो गए. वैसे भी, वे रामजी के गजब के फैन हैं, प्रशंसक हैं. आदमी हो तो रामजी जैसा, फिर उन का शेरू तो वाकई में शेर है ही. मजाल कि उस के रहते कालोनी में कोई कुत्ता घुस जाए. अनजान आदमी, भिखारी, कूड़ा बटोरने वाले, ठेले-खोमचे से ले कर फेरी करने वाले उधर का रुख बड़ी ही सावधानी से किया करते थे. शेरू अपनी ऊंची, तीखी आवाज में आसमान-पाताल एक कर दिया करता था. शायद यही कारण रहा हो कि इधर चोरी-चकारी की घटनाएं नहीं घटती थीं. इधर का कुत्ता पुराण सुन-सुन कर सभी आतंकित भी थे. जो कहीं धर लिया उस ने तो मोटी सूइयां भोंकवाते फिरो.

अर्जुन सिंह उन के मातहत हेल्पर ठहरे, सो, शेरू उन्हें पहचानता था और कभी-कभार उन के प्रति भी अपना प्यार प्रदर्शित करता था, जिसे थोड़े भय के साथ वे उसे स्वीकार करते थे. क्या करें, मजबूरी थी. उस्ताद की हां में हां मिलाना उन के कर्तव्यों में शामिल था. ‘नौकरी में नौ काम, दसवां काम हां जी’ उन के पिताश्री ने सफल नौकरी का यह अचूक फार्मूला बहुत पहले ही उन्हें बता दिया था. इसलिए वे हमेशा अपने उस्ताद के हामी रहे. फिर भी, वे यह भी जानते थे कि कुत्ते से दूरी बनाना ही ज्यादा अच्छा, रहीम के शब्दों में, ‘चाटे-काटे श्वान के, दोनों ही स्थितियों में दुर्गति है. सो, इस से बचने में ही भलाई है.’

अर्जुन सिंह सजग श्रोता ही नहीं, कुशल वक्ता भी थे. बस, उस्ताद के सामने थोड़ा बच कर बोलते थे और इस श्वान-पुराण से बचने के लिए वे कबीर की सूक्ति ‘कबीरा कूता राम का मुतिया मेरा नाऊं’ रामजी सिंह को सुनाते. फिर उस का अर्थ बताते कि कबीर तो खुद को राम का कुत्ता ही मानते हैं, जिस का नाम मोती है और यह कुत्ता जंजीर से बंधा हुआ वहीं जाता है जहां राम उसे ले जाते हैं. तात्पर्य यह कि कुत्ता ईश्वर को भी प्रिय है. इस का अर्थ यह है कि ईश्वर हमें जैसे रखे, वैसे ही हमें रहना चाहिए. जो कुछ भी खाने को दे, वही खा लेना चाहिए.

‘‘हम अपने शेरा को कुछ भी खाने को नहीं दे देते, अर्जुन बाबू,’’ राम जी तैश में कहते, ‘‘इस की हर दूसरे दिन की खुराकी में भरपूर मीट-मछली इस को खिलाता हूं. आध किलो दूध तो खास इस के लिए आता है, जो इसे रोटी के साथ मिला कर खाने को देता हूं और इस के रहने का इंतजाम देख लीजिए. एक कोने में इस के लिए कंबल पड़ा है. हां, कभी-कभार मल-मूत्र त्याग कर देता है तो मुश्किल होती है. फिर भी, बिना घिनाए उसे धो देता हूं. आखिर, इस में भी तो जीव है. तो, उस से घिन क्या करना. वैसे भी, यह शरीर तो मलमूत्र से ही भरा पड़ा है. है कि नहीं, अर्जुन भाय?’’

अर्जुन भाय को उन से असहमत होने का कोई कारण नहीं था. मगर उन्हें मालूम था कि चाहे जो हो, अपना बचाव खुद करना ही चाहिए.

अब इत्तफाक की बात रामजी सिंह का बगल वाला क्वार्टर खाली हुआ था, जो रामजी यादव को मिला था. उस से बड़ा इत्तफाक यह कि रामजी यादव के पास भी टाइगर नामक कद्दावर कुत्ता था. ये दोनों कुत्ते पहले अपनी-अपनी जंजीरों से जकड़े मौखिक ही वाकयुद्ध करते थे. उन के वाकयुद्ध से पूरी कालोनी परेशान थी. दूसरे, सुबह-सुबह ही ये दोनों कहीं भी, कभी भी मल-मूत्र विसर्जन कर आते थे. मूत्र तो मूत्र है, पानी है. चलो, कोई बात नहीं. मगर मल से मुश्किल तो आती ही है.

कंपनी का स्वीपर कहता, ‘हम स्वीपर हैं, डोम नहीं, जो मल-मूत्र उठाते फिरें.’ सो यह सफाई भी प्रकृति के हवा-पानी के भरोसे होती थी. मगर किसी को यह कहने का साहस नहीं था कि वे लोग श्वान शौचालय की व्यवस्था क्यों नहीं करते या इस श्वान वाकयुद्ध को बंद क्यों नहीं कराते. रामजी सिंह वर्कर्स यूनियन के धाकड़ नेता थे तो रामजी यादव भी प्रतिद्वंद्वी यूनियन मजदूर संघ के पुराने नेता थे.

कुत्तों का यह वाकयुद्ध बंद तब होता जब उन में से कोई एक घर के अंदर या पिछवाड़े कहीं दुबक न जाए.

समय का कालचक्र चलना ही है, सो चलता ही रहता है. अब दोनों कुत्ते भी सम झ गए थे कि शांतिपूर्ण सहअस्तित्व के साथ, सामने वाले को  झेलने में ही भलाई है. सो, यह भूंकना-भौंकना काफी कम हो गया था. अलबत्ता, कभी-कभार जीभ की खुजली मिटाने के लिए भौंक युद्ध चल ही जाता था. आमतौर पर देखा तो यही गया कि अपने मालिक के सामने आते ही वह बिलकुल बाघ-शेर बन कर गुर्राते थे. जैसे कि रामजी सिंह के रहते शेरू ‘शेर’ होता था तो रामजी यादव के साथ बाहर होते ही टाइगर ‘बाघ’ हो जाता था. वरना, वे आमतौर पर कुत्ते ही बने रहते थे.

रामजी यादव बक्सर के थे और बनारस के रामजी सिंह. भले ही प्रतिद्वंद्वी यूनियन के हों, दोनों में पहले काफी याराना था. आमतौर पर मैनेजमैंट से लड़ाई के दौरान दोनों को एक होना ही होता था. अब मैनेजमेंट तो मैनेजमेंट ठहरा, सारे मजदूरों-कार्मिकों की मांगों को मानने का मतलब था कि कारखाने का बंटाधार हो जाना. सो, यह अलिखित सम झौता था कि सभी की मांगों के बजाय नेता श्री की मांग मान ली जाए और यही कारण था कि जो सुविधाएं डायरेक्टर स्तर पर मिलतीं वे उन्हें भी मिल जाती थीं.

जैसे, उन के क्वार्टरों के आगे पक्का चबूतरा बना देना, दिवाली में उन के क्वार्टरों की पुताई करवा देना आदि. बिजली-पानी के मिस्त्रियों को विशेष हिदायत थी कि भले ही प्रबंधन स्तर के लोगों का काम अधूरा ही क्यों न रह जाए, नेताओं के घरों के मेंटेनेंस वर्क पहले पूरे किए जाएं. अघोषित रूप से उन्हें ओवरटाइम भी अच्छा मिल जाता था. तर्क तो उन का जोरदार था ही कि महंगाई बहुत बढ़ गई है और आदमी तो खैर दाल-रोटी खा भी ले मगर बेचारे कुत्ते मछली-मांस के बिना कैसे रह सकते हैं?

ठेकेदार भी कोई कम नहीं होते. वे यूनियन नेताओं की महिमा जानते हैं. सो, वे गाहे-बगाहे मीट-मछली से ले कर बोतल-सोतल तक की सप्लाई कर दिया करते थे, क्योंकि यह कोई छिपी बात नहीं कि ठेकेदारी लेने या हथियाने में उन नेता जी की भी प्रमुख भूमिका रहती थी.

वैसे तो सब कुछ ठीक-ठाक ही चल रहा था, दोनों घरों में काफी पहले से ही काफी याराना व आना-जाना भी था मगर जब से ये दोनों बगलगीर हुए, मुश्किल आन पड़ी थी. नहीं-नहीं, कोई पार्टी, दल अथवा विचारधारा वगैरह की वजह से ईर्ष्या द्वेष या प्रतिस्पर्धा नहीं थी. बात दरअसल, इसी स्वर्गारोहण कर चुके कुत्ते की थी.

अब शेरा और टाइगर भी तो बगलगीर थे. पहले तो अपनी-अपनी जंजीरों से बंधे भूंकते और एक-दूसरे को ललकारते थे. शेरा का यहां एकछत्र राज था, जिसे टाइगर लगातार चुनौती दे रहा था और वे दोनों अपने प्रतिद्वंद्वी को अपनी ताकत का एहसास कराना चाहते थे. संयोगवश वह मौका मिल ही गया था जब दोनों ही अपने-अपने बाड़े में जंजीर से मुक्त हो घूम रहे थे. तभी एक कुतिया कहीं से आ गई और उधर से निकलने लगी तो शेरा ने अपनी आदत के वशीभूत ऊंची आवाज में भौंकना शुरू कर दिया. वह क्वार्टर के बाड़े के एक कमजोर हिस्से को तोड़ बाहर फलांग गया, जो अब तक उस के लिए चीन की दीवार बना हुआ था.

अब एक कुत्ता चिल्लाए तो दूसरा कुत्ता चुप कैसे रहे? सो, टाइगर भी अपनी पूरी ताकत से भौंक लगाने लगा और अपने बाड़े के कमजोर हिस्से की ओर बढ़ चला. एक हलके धक्के से वह टूटा तो वह भी बाहर निकल आया.

वह कुतिया तो तब तक खतरा भांप अपनी पूरी ताकत से दौड़ लगाती कहीं और खिसक चुकी थी. मगर अब सामने शेरा और टाइगर थे. दोनों ने पहले गरमागरम भौंक में अपनी शक्ति का प्रदर्शन किया. मगर मामला इतनी जल्दी निपट कैसे जाए, दोनों ही एक-दूसरे पर टूट पड़े.

संयोगवश बच्चे स्कूलों में थे. रामजी सिंह और रामजी यादव दोनों ही सुबह की पालियों में कारखाने में थे. उन की पत्नियां घरेलू कामों में मसरूफ थीं. सो, इस मल्ल-युद्ध को छुड़ाने वाला कोई नहीं था. लेकिन मोहल्ले में तमाशबीनों की कमी भी नहीं थी. टाइगर और शेरा के इस खूनी खेल को वे पूरे आनंद के साथ देखने में मशगूल थे. बल्कि कुछ तो ललकारने में भी लगे थे. मोहल्ले में ऐसी घटनाएं कम ही घटती थीं. मगर जब घटती थीं तो सभी के खून में गर्मी आती थी.

लिहाजा, इस निशुल्क तमाशे को कोई क्यों न देखे. यहां शेरा मजबूत है कि टाइगर, इस का फैसला हो ही जाने वाला था. जिस का कुत्ता जीते, वही मजबूत है. बाकी तो जबानी जमा-खर्च है. दोनों पड़ोसी अपने-अपने कुत्ते की जो प्रशंसा नहीं करते अघाते, उस का फैसला हो ही जाए तो रार कटे.

लगभग आधे घंटे की इस खूनी लड़ाई में दोनों ही कुत्ते लहूलुहान हो चुके थे. मगर पीछे हटने को कोई तैयार न था. अचानक रामजी सिंह की पत्नी घर का कूड़ा फेंकने बाहर आईं तो इस लड़ाई को देख उन का कलेजा मुँह को आ गया.

उन्होंने पहले रामजी यादव की पत्नी को हांक लगाई. फिर घर के कोने में पड़ी लाठी निकाल उन दोनों कुत्तों को अलग करने में लग गईं. शेरा अपनी मालकिन को देख और शेर हो गया और दूने जोश में टाइगर पर पिल पड़ा लेकिन टाइगर भी कम नहीं था. अचानक उस की गिरफ्त में शेरा की गर्दन आ गई थी, जिसे पकड़ कर वह उसे भंभोड़ने लगा था. शेरा की मालकिन ने आव देखा न ताव, टाइगर पर तान कर लाठी चलाई तो शेरा की जान में जान आई और वह अपने घर की ओर भागा.

टाइगर अपने दुश्मन को यों हाथ से निकलते देख गुस्से में आ गया और शेरा की मालकिन पर ही  झपट्टा मार बैठा. वह तो गनीमत थी कि तब तक पड़ोसी नजदीक आ चुके थे, जिन्होंने ढेले-पत्थर फेंकने शुरू कर दिए. वे भी गिरते-पड़ते अपने घर की ओर भागी. मगर इस चक्कर में उन की साड़ी फट चुकी थी. पिछले ही सावन में उन्होंने यह साड़ी पूरे हजार रुपए में खरीदी थी, जो उन्हें बहुत ही प्रिय थी और वह भागने के क्रम में फट-चिट चुकी थी.

तब तक टाइगर की मालकिन भी बाहर आ चुकी थीं और उन्होंने मैदान में आ कर टाइगर को हांक लगा घर के अंदर किया. हालांकि, अब टाइगर भी घर जाने के ही मूड में था. वह भी इस द्वंद्वयुद्ध में अनेक घाव खा चुका था और लहूलुहान था, तथापि विजेता की मुद्रा में था.

जैसा कि ऐसे समय में जो स्थिति भारतीय जनता के बीच बनती है, वही हुआ. मोहल्ले के लोग दो गुटों में बंट चुके थे. कोई टाइगर को तो कोई शेरा को भला-बुरा कहता. मगर एक बात तो तय है कि हम विजेता के प्रति प्रशंसित और पराजित के प्रति सहानुभूति रखते हैं. सो, भरे कलश की भांति यही भाव छलक-छलक कर बाहर आ रहा था. रामजी सिंह अपने कुत्ते शेरा के संबंध में बड़का-बड़का बोल बोलता था. कुछ शिकायत करो तो हंस कर टाल जाता और मन ही मन पुलकता था. आखिरकार, आज पता चल ही गया कि उस का यह कुत्ता शेर नहीं, सियार है. देखे नहीं, कैसे अपने पिछवाड़े पूंछ दबाए भाग रहा था.

शाम को जब रामजी सिंह आए तो अपने कुत्ते की दुर्दशा देख उन का कलेजा मुँह को आ गया. उन का बस चलता तो अभी के अभी रामजी यादव के घर में घुस कर उस कुत्ते की जान ले लेते. मगर रामजी यादव भी तो ड्यूटी से वापस लौट चुके थे. ऐसे में ऐसा कर पाना जोखिम मोल लेना होता. समय-समय की बात है. बच्चू टाइगर भाग कर जाएगा कहां? अभी तो बस शेरू को मरहम-पट्टी की जरूरत है. पहली बार उन्हें अफसोस हुआ कि कारखानेदार ने कालोनी में इंसानों का अस्पताल बनाया, मगर मवेशी अस्पताल की जरूरत नहीं सम झी. वे इस मामले को अपनी यूनियन के माध्यम से ऊपर तक पहुंचाएंगे.

मगर यह तो बाद की बात ठहरी. फिलहाल तो उन्हें मवेशी अस्पताल जाना होगा, जो कसबे से दूर शहर में है और इसलिए शेरा को रिक्शे में बिठा एक वेटनरी डॉक्टर के पास ले गए जिन्होंने उस की मरहम-पट्टी की, दवाएं दीं. इस चक्कर में उन के 3 हजार रुपए खर्च हो गए. चलो, इस खर्च की तो कोई बात नहीं. पैसा हाथ का मैल है, जिस की भरपाई वे ओवरटाइम से पूरी कर लेंगे. मगर इस टाइगर का तो इंतजाम करना ही होगा. कमबख्त ने उन के शेरू से तो नोंचाखसोटी की ही, उन की पत्नी पर भी  झपट्टा मारा, जिस से उस की साड़ी तार-तार हो गई थी. इस का बदला तो लेना ही है.

सब से दुखद बात तो यह कि इस घटना के बाद अब शेरा वाकई टाइगर से डरने लगा था. पहले की तरह भौंकता नहीं था, बल्कि कभी-कभार भौंक भर लेता था और यदि कहीं उस ने टाइगर को देख लिया तो उस की सिट्टी-पिट्टी गुम हो जाती थी. अपनी पूंछ पिछवाड़े में सटा लेता था और यह रामजी सिंह को गवारा नहीं था. मजाल कि मोहल्ले में कोई उन की बात काट दे. राजनीति में वे अच्छी दखल रखते थे. सूबे के बड़े नेताओं के साथ उन की जान-पहचान थी और सभी राजनीतिक दलों की पोलपट्टी का इतिहास उन की जबान पर था. इसी कारण प्रबंधक भी उन की बातों के कायल थे. निंदकों का तो यहां तक कहना था कि वे सारी रिपोर्ट वहां तक बिना नागा पहुंचाते हैं. पहले तो वे औफिस में बेधड़क जा वहां घंटों बैठते थे.

मोबाइल के आने से यह और आसान हुआ था. बल्कि रील व मीम वगैरह भी वायरल होने के पहले प्रबंधक श्री के पास उन के सौजन्य से पहुंच जाते थे. मैनेजमेंट के इस सूत्र ‘इन्फौर्मेशन इज मनी एंड मनी इज पावर’ का वे पूरी तरह पालन करते थे. कारखाने में वे औरों पर, अब तो इस के लिए और भी, अपने सहकर्मियों पर अपनी बतकुच्चन से भारी पड़ते थे. सभी का बायोडाटा उन की जबान पर होता था. कारखाने में कमजोर वही होता है जो अपने घर में भी कमजोर है. रामजी सिंह यादव दूसरे मामलों में लाख भारी-भरकम हों, अपनी पत्नी से हर मामले में हलके थे. यही कमजोरी उन के मजाक का सबब भी थी.

रामजी सिंह इस बात को जानते थे. मगर बात यहां कुत्ते की थी और दुनिया देख चुकी थी कि उन का कुत्ता कितना कमजोर है, क्योंकि टाइगर अब कभी-कभार अपने बाड़े के बाहर भी घूम लेता था. ऐसे में रामजी सिंह जैसे ही उसे अकेले देखते, उसे लाठी ले दौड़ा लेते. टाइगर जानता था कि कुत्ते से लड़ना तो फिर भी ठीक है, मगर आदमी से लड़ना जानवरों को हमेशा महंगा पड़ा है.

आदमी ने जब हिंसक जीवों को अपने इशारे पर नचा लिया, हाथी जैसे भारी-भरकम जीव की सवारी कर ली तो उस की क्या औकात है. सो, वह उन्हें देखते ही घर में दुबक जाता. जो बाहर होता तो बाहर ही भाग छूटता. चाहे कुत्ता ही क्यों न हो, आखिर जान सब को प्यारी होती है. मोहल्ले वाले देखते कि रामजी सिंह लाठी लिए उस के पीछे भागे जा रहे हैं और टाइगर जो है, अपनी जान बचाने के लिए मोहल्लों में इधर-उधर भागता फिर रहा है. इस बात पर दोनों घरों में नोंक झोंक भी हुई. मगर बात दब कर मोहल्ले में कानफुसकियों तक ही सिमट कर रह गई.

चूहे-बिल्ली के इस खेल का आखिरकार अंत होना ही था, सो हुआ. महीना बीतते टाइगर जो गायब हुआ, सो गायब ही हो गया. टाइगर फिर रामजी यादव के दरवाजे नहीं लौटा. उन्होंने कई जगह खोज की. लोगों से पूछताछ के अलावा आसपास के जंगलों में खोज की. मगर उसे नहीं मिलना था, नहीं मिला. मगर अब रामजी सिंह का शेरा अपनी पुरानी लय में आने लगा था. अब वह भौंकता नहीं था, बल्कि पुराने तेवर के साथ भौंकता था. इसे सुन कर रामजी यादव का परिवार कुढ़ता और रामजी सिंह को परोक्ष रूप से कोसता था कि उन्होंने उस के धर्म के प्रतीक प्रिय कुत्ते को भगा दिया. मगर सामने बोलने की कूवत न थी. कोई सबूत वगैरह भी तो नहीं था. वैसे भी, जाने वाला तो चला गया, अब उस के लिए महल्ले में लड़ाई रखने से क्या फायदा.

फिर भी शेरा की भौंक उन्हें शूल की तरह चुभती तो थी ही. अब शेरा खुलेआम सड़क पर निर्द्वंद्व हो घूमता और हर आने-जाने वाले को खदेड़ देने के पुराने खेल में फिर शामिल था. मजाल कि उस के रहते कोई दूसरा कुत्ता उस इलाके में चला आए. रामजी सिंह उस के साथ खेलते-दुलराते और भांति-भांति के वेज-नॉनवेज भोज्य पदार्थ का भोग लगाते, जिस से रामजी यादव की कुढ़न स्वाभाविक थी.

और, ऐसे ही एक दिन पता चला कि शेरा भी गायब है. रामजी सिंह की आंखों से तो नींद ही उड़ गई. कितना अच्छा, कितना प्यारा कुत्ता था, उन की एक आवाज पर दौड़ा चला आता और अगरातेदुलराते उन के शरीर पर ही लहालोट हो जाता था. वे उसे स्पैशल साबुन से नहलाते थे और उस के बालों के जुएं तथा कानों में टंग चुके कीड़ों तक को अपने हाथों से चुन कर निकालते थे. कहां मिलेगा ऐसा कुत्ता. अब उसे खोजने की बारी रामजी सिंह की थी. पागल-विक्षिप्तों की तरह ‘शेराशेरा’ की आवाज देते पूरे कस्बे में ही नहीं, निकटवर्ती जंगलों में भी वे घूम आए. मगर वह उन्हें नहीं मिला.

लोग उन्हें देखते और मन ही मन हंसते थे, हालांकि, प्रत्यक्षतः तो यही कहते कि उन के साथ बुरा हुआ. कितना दमदार, तेज-तर्रार ही नहीं, लहीम-शहीम कुत्ता था. सारे अवांछित और असामाजिक तत्त्व मोहल्ले से दूर ही रहते थे और तब वे अपनी आशंकाओं की पोटली खोल देते कि किन बुरे लोगों ने उन के शेरा को गायब किया हो सकता है. उन की आशंकाओं में उसे जहर देने या मरवा डालने की भी आशंका होती. मगर कोई सुराग, कोई सबूत उन के पास तो था नहीं, जो खुद खुलेआम मैदान में आ उतरते.

उन के प्रबंधक श्री ने उन के विलाप को सुन कर एक दिन कह दिया कि वे थाने में कुत्ते के खो जाने की एफआईआर दर्ज क्यों नहीं करा देते. विगत वर्ष ही फलां शहर के एक व्यापारी ने अपनी बेटी के प्यारे कुत्ते की गुमशुदगी की एफआईआर दर्ज कराई थी तो पुलिस ने उन के कुत्ते को ढूंढ निकाला था. इसी प्रकार एक प्रदेश के मंत्री ने अपनी भैंस के गुम होने की रपट दर्ज कराई तो पुलिस ने वह काम तत्परता से पूर्ण किया था. रामजी सिंह अपने बारे में जानते थे कि वे न करोड़पति हैं, न सत्तासीन हैं. सो, शिकायत दर्ज कराने पर भी कोई उन की नहीं सुनने वाला. सो, एक कुत्ते के खो जाने की रपट लिखाना उन्हें गवारा नहीं था.

फिर भी डियर ही नहीं, डियरेस्ट था वह कुत्ता. मन में एक हूक रह-रह कर उठती ही थी. दुखी आदमी को देख तरस तो आता ही है. यदि आप ने कहीं शेरा को देखा हो तो उस का पता उन्हें जरूर बता देना.

एक इंसान का भला हो जाएगा. Social Story In Hindi :

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