Migration Crisis India: जमींदार और जातिवाद ने बोए पलायन के बीज – बिहार के विधानसभा चुनाव में हर बार की तरह इस बार भी पलायन का मुद्दा गायब रहा. सभी दलों ने गाहेबगाहे इस पर बात तो की मगर इस मुद्दे को जोरशोर से किसी दल ने अपनी मुहिम का हिस्सा नहीं बनाया. पलायन आज की समस्या नहीं बल्कि अंगरेजी हुकूमत के समय से है, जो आज भी ठीक नहीं हो पाई. इस समस्या की जड़ में सिर्फ बेरोजगारी नहीं है. यहां पेश है बिहार से बिहारियों के पलायन के पीछे की हकीकत की पड़ताल करती एक विश्लेषणात्मक रिपोर्ट.
बिहार का नाम असल में बौद्ध विहारों से निकला हुआ शब्द है. सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म का प्रचार सब से अधिक बिहार में किया था. विहार, बौद्ध मठों को कहा जाता था. उस समय बिहार राज्य बौद्ध धर्म का केंद्र था. इसी वजह से विहार नाम प्रचलन में आया, जो समय के साथ बदल कर बिहार बन गया. समय के साथ बिहार में बहुतकुछ बदला लेकिन पलायन की जो समस्या 1830 से शुरू हुई वह अभी तक जारी है. पहले गिरमिटिया मजदूर मौरिशस, फिजी, गुयाना कमाई के लिए गए थे और आज लोग दिल्ली, मुंबई, सऊदी अरब और दुबई वगैरह जा रहे हैं.
बिहार को बुद्ध और महावीर की धरती कहा जाता है. सम्राट अशोक ने इसी भूमि से पूरे भारत को जोड़ा था. मौर्यकाल से ले कर हर्षवर्धन के समय तक इन हजार वर्षों के बीच भारत की राजनीति के केंद्र में बिहार ही रहा. मुगलकाल में भी बिहार की सामाजिक, आर्थिक और प्रशासनिक स्थिति मजबूत रही. इतने उन्नत और समृद्ध इतिहास के बावजूद बिहार आज सब से बीमार राज्य कैसे बन गया? इस से भी अहम बात यह कि पलायन बिहार से ही ज्यादा क्यों होता है? इस समस्या को समझने के लिए बिहार के अतीत से होते वर्तमान तक का सफ़र करें तो समझ आता है कि पलायन हमेशा से ही बिहारियों की नियति रहा है.
पलायन का मुद्दा बहुत गुत्थमगुत्था सा है. आज देश का कोई भी राज्य या शहर ऐसा नहीं है जहां बिहार के लोग न हों. बेरोजगारी देश के सभी राज्यों में है और अवसरों की तलाश में सभी राज्यों के लोग अपने राज्य को छोड़ कर इधर से उधर जाते हैं. यही कारण है कि नौर्थईस्ट के लोग साउथ में मिल जाएंगे और साउथ के लोग नौर्थईस्ट में. लेकिन बिहार की बात अलग है जो हर मोरचे पर पिछड़ा हुआ है.
पंजाब खेती में आगे है तो गुजरात इंडस्ट्री में अव्वल है लेकिन बिहार ऐसा राज्य है जो पूरे देश को सस्ते मजदूर मुहैया करवाने में नंबर वन है. यही कारण है कि पलायन बिहार की सब से बड़ी त्रासदी बन गई है. सवाल यह है कि बिहार में पलायन की यह त्रासदी क्यों है? (भारतीय संविधान में किस नियम के तहत पलायन का अधिकार है, देखें बौक्स 1).
बिहार को जमींदारी प्रथा ने बरबाद किया
बिहार से पलायन करने की दास्तान के पीछे जमींदारी प्रथा का बहुत बड़ा योगदान है. इस से ऊंची जातियां जमीन की मालिक बनीं और निचली जातियां भूमिहीन बन कर दरदर भटकने को मजबूर कर दी गईं. बिहार में जमींदारी प्रथा तो मुगलों के दौर से चली आ रही थी लेकिन तब जमींदारों का काम अपने इलाके से लगान वसूल कर दरबार तक पहुंचाना होता था. यह सिलसिला 1793 के स्थाई बंदोबस्त तक यों ही चलता रहा.
परमानैंट सैटलमैंट इस फसाद की जड़ नजर आता है जिसे ब्रिटिश सरकार ने साल 1793 में लागू किया था. इस के लागू होने के बाद जमींदारों को भूमि का लगभग मालिकाना हक मिल गया. इस के तहत सरकार और जमींदार के बीच भूमि राजस्व का स्थाई निर्धारण कर दिया गया था.
हुआ यह भी कि जमींदार भूमि स्वामी हो गया और किसान उस के किराएदार बन गए. मुगलों के समय से ही जमींदारी प्रथा चल रही थी. लेकिन इस की जड़ में थी वर्णव्यवस्था जो मनु स्मृति की देन है. मनसबदारी ऊंची जातियों के पास थी. मुगलों को बिहार के इस हिंदू जातीय वर्चस्ववाद से कोई सरोकार नहीं था. उन्हें सिर्फ और सिर्फ अपने लगान से मतलब था और लगान वसूलने के लिए दबंग जातियों की जरूरत थी, इसलिए बिहार की उच्च जातियां मुगलकाल में ताकतवर हुईं.
यही कारण है कि बिहार में मुगलकाल से ही राजपूत, भूमिहार, ब्राह्मण और कायस्थ ही जमींदार रहे. कई इलाकों में जागीरदारी मुसलिमों के पास भी थी. ये मुसलिम जमींदार अशरफ मुसलमान थे. सामाजिक तौर पर जो जाति जितना ऊपर थी, प्रशासन में भी उस जाति का उतना ही वर्चस्व था. यही कारण है कि बिहार में जमींदारी प्रथा के दौरान आर्थिक शोषण और सामाजिक शोषण का आधार जाति ही थी. जमींदारों ने अपनी उच्च जाति को हथियार बना कर निचली जातियों पर नियंत्रण कायम किया. बिहार के सब से बड़े जमींदार दरभंगा राज, बेतिया राज, हथवा राज ये सभी राजपूत परिवारों से थे. वे खुद को ‘भूमि का स्वामी’ कहते थे. पटना, गया, शाहबाद और टिकारी राज के जमींदार भूमिहार जाति के थे और बिहार के कुछ जमींदार ब्राह्मण भी थे. बिहार में कायस्थ समाज की भूमिका प्रशासनिक सेवा में अहम रही.
दीघाघाट जैसे इलाकों के जमींदार कायस्थ थे. डुमरांव राज के जमींदार मुसलिम थे जो मुसलिम की अशरफ जाति शेख परिवार से आते थे. बिहार में उच्च जातियों के इस वर्चस्व ने निचली जातियों को खेतिहर मजदूर और बंटाईदार बना कर छोड़ दिया. बिहार में गांवों में जातिगत पंचायतों ने भी निचली जातियों के शोषण में कोई कमी नहीं छोड़ी. इन पंचायतों में ऊंची जातियों के यानी धार्मिक नियम चलते थे जिस से निचली जातियों के साथ उत्पीड़न, सामाजिक बहिष्कार, हत्याएं और बलात्कार लगातार होते रहे. इन सब के कारण भी लोग पलायन को मजबूर हुए.
जाति व्यवस्था का असर यह रहा कि जमीन का मालिक केवल ऊंची जाति का व्यक्ति ही हो सकता था. निचली जाति के लोग ऊंची जाति की जमीनों पर आश्रय ले कर उन के रहमोकरम पर जिंदा रह सकते थे. इस तरह बिहार का बहुसंख्यक वर्ग भूमिहीन हो कर रह गया. बिहार लैंड रिफौर्म्स रिपोर्ट के अनुसार, 1930 के दशक में 90 फीसदी से अधिक जमींदार उच्च जाति के थे. हालांकि 10 प्रतिशत छोटे जमींदार कुर्मी, यादव और तेली जैसी पिछड़ी जातियों से भी थे लेकिन इन की सामाजिक हैसियत उच्च जातियों जैसी नहीं थी.
ऊंची जाति के जमींदारों की जमीनों पर यादव, कुर्मी, कोइरी जैसी पिछड़ी जातियां सिर्फ बटाईदार थीं. ये बटाईदार ही अपनी मेहनत से खेतों को सींचते और फसल उगाते लेकिन इस श्रम के बदले इन्हें हासिल कुछ न होता था. सूखे और बाढ़ के चलते फसलें बरबाद होने पर इन्हें कोई मुआवजा नहीं मिलता था. सारा मुनाफा जमींदार हड़प जाते थे और बटाईदार मुंह ताकते रह जाते थे. वर्णव्यवस्था के बाहर की दलित जातियां ज्यादातर बंधुआ मजदूरी करती थीं. कर्ज न चुका पाने के कारण पिछड़ी शूद्र जातियों के कई लोग जीवनभर बंधुआ मजदूर बन कर रह जाते थे या बेगारी खटते थे. बेगारी प्रथा में निचली जातियां मुफ्त में काम करने को मजबूर की जाती थीं. निचली जातियों पर जातिगत हिंसा आम बात थी.
आजादी के बाद जवाहरलाल नेहरू की केंद्र सरकार ने सभी राज्यों में 1950 में जमींदारी उन्मूलन अधिनियम लागू कराए जिस से कागजों पर तो जमींदारी खत्म हुई लेकिन सामाजिक तौर पर जातिगत असमानता बनी रही. इस बदलते दौर में उच्च जातियों के जमींदार बन गए ‘मालिक किसान’ और निचली जातियां मजदूर हो कर रह गईं. यही मजदूर बिहार से बाहर निकलने पर मजबूर हुए क्योंकि बिहार में उन्हें मेहनत के मुताबिक पैसा नहीं मिलता था, तिस पर आएदिन की हिंसा और प्रताड़ना से भी इतने त्रस्त थे कि उन्हें अपना देश, अपनी जमीन, अपना गांव और घरबार सब छोड़ कर भागना फायदे का सौदा नजर आने लगा. अफ़सोस इस बात का भी कि यह सिलसिला आज तक कायम है.
आज के बिहार की भी जमीनी हकीकत यही है कि भूमिहार-राजपूत अभी भी बड़े भूस्वामी हैं. और दलित व महादलित आज भी भूमिहीन ही हैं. यह बात कृषि जनगणना के आंकड़ों से उजागर भी होती है जो साल 2021 में जारी किए गए थे. इन के मुताबिक, भूमिहारों के पास कुल जमीन का लगभग 25 फीसदी, क्षत्रिय राजपूतों के पास 20 फीसदी, ब्राह्मणों और कायस्थों के पास लगभग 10 फीसदी जमीनें हैं. कुर्मियों के पास 10 और यादवों के पास 15 फीसदी जमीनें हैं. दलितों के पास महज 5 फीसदी जमीने हैं और लगभग इतनी ही मुसलमानों के पास हैं
जमींदारों ने जाति को हथियार बना कर निचली जातियों को गुलाम बनाया और इस शोषण को धार्मिक व सामाजिक तौर पर मान्यता दी. स्वतंत्रता के बाद कानूनी रूप से जाति आधारित शोषण तो खत्म हुआ लेकिन इस शोषण के पीछे की सामाजिक जड़ें बेहद गहरी हैं जिन्हें खत्म करना आसान नहीं है.
पलायन के पीछे की दूसरी ऐतिहासिक वजहें
बिहार में पलायन की त्रासदी के पीछे की एक ऐतिहासिक वजह यह भी रही कि मुसलिम शासकों ने बिहारबंगाल की नीची जातियों के लोगों को सेना में शामिल नहीं किया. मुगलों या नवाबों का मानना था की नीची जाति के लोग बुद्धि और शरीर से कमजोर होते हैं, इसलिए सेना या प्रशासन में उन की जरूरत नहीं. यही कारण था कि अंगरेजी राज से पहले भी सेना और प्रशासनिक सेवाओं में भारत की ऊंची जातियां हावी रहीं.
ईस्ट इंडिया कंपनी ने भी ब्राह्मणों और राजपूतों को ही सेना के योग्य समझा जिस की वजह से ब्रिटिश काल में ऊंची जाति से डेढ़दो लाख लोग सेना में पहुंच गए. ये ट्रेंड किए सिपाही जमींदारों के साथ भी काम करने लगे. सामाजिक तौर पर वर्चस्व रखने वाली जातियों को मुगलों, नवाबों और अंगरेजों के प्रशासन में भारी वर्चस्व हासिल हुआ जिस से सामाजिक तौर पर अग्रणी जातियां आर्थिक तौर पर और मजबूत स्थिति में बनी रहीं लेकिन साधारण लोग, पिछड़े और जमीन जोतने वाले अंगरेजों की बेगारी करने को मजबूर रहे.
यही लोग गिरमिटिया मजदूर बने और पहले समुद्र पर अनजाने देशों में और फिर दिल्ली, मुंबई, पंजाब जाने लगे. पलायन के पीछे भूख और कमजोर बदन भी एक महत्त्वपूर्ण कारण रहा है. भूख और कमजोर बदन के पीछे भी जातिवाद छिपा था.
बिहार की मिट्टी हमेशा से उपजाऊ रही है, इसी कारण प्राचीन काल से ही बिहार की अर्थव्यवस्था खेती पर आधारित थी. शेरशाह सूरी (1540-1545) के 5 साल के शासन ने बिहार को एक मजबूत प्रशासनिक केंद्र बनाया, जिस का असर मुगलकाल में भी रहा. मुगल शासकों ने बिहार में जागीरदारी और मनसबदारी की शुरुआत की. अकबर के शासनकाल में बिहार में टैक्स जमा करने के लिए टोडरमल की राजस्व प्रणाली लागू की गई.
18वीं सदी में मुगल साम्राज्य के कमजोर होने पर बिहार में स्थानीय शासकों और नवाबों का प्रभाव बढ़ा. 1757 तक बिहार के ज्यादातर सूबे बंगाल के नवाब सिराजुददौला के अधीन थे. ईस्ट इंडिया कंपनी ने 1757 में रौबर्ट क्लाइव के नेतृत्व में 2,500 से 3,000 की फौज ने बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला की 50 हजार से 2 लाख की फौज को हराया और मीर जाफर को नवाब बनाया. इस से ईस्ट इंडिया कंपनी को बंगाल, बिहार और ओडिशा में टैक्स कलैक्शन के अधिकार मिल गए. यहीं से बिहार के और ज्यादा बुरे दिन शुरू हो गए. बंगाल, बिहार और ओडिशा से टैक्स कलैक्शन बढ़ाने के लिए कंपनी ने जमींदारों पर दबाव बनाना शुरू किया. इस का असर आम किसानों पर पड़ा.
22 अक्टूबर, 1764 को बक्सर युद्ध में कंपनी की जीत के बाद ही इलाहाबाद की संधि हुई जिस में दिल्ली से साम्राज्य चला रहे मुगल बादशाह शाहआलम ने कंपनी को बंगाल-बिहार-ओडिशा की दिवानी सौंप दी. ईस्ट इंडिया कंपनी की इस ऐतिहासिक जीत ने बिहार की जमींदारी व्यवस्था पर गहरा असर डाला. जमींदार और जमीन जोतने वाले जमींदार अब पूरी तरह कंपनी के अधीन हो गए. वे पहले नवाबों को खिराज देते थे लेकिन अब उन्हें ब्रिटिश रैजीडैंट को लगान देना पड़ा.
जमींदारों से टैक्स कलैक्ट करने के लिए कंपनी की ओर से कलैक्टर नियुक्त किए गए जिन में ज्यादातर भ्रष्ट और क्रूर थे. अकाल पड़ने या ज्यादा बरसात से फसल नष्ट होने के बाद भी गरीब जमीन जोतने वालों को लगान में कोई रियायत नहीं मिलती थी. भ्रष्ट और क्रूर सिस्टम में बिचौलिए जमींदार भी भ्रष्ट और क्रूर होते गए.
जमींदारों ने अपने मुनाफे को बढ़ाने के लिए गरीब और मजबूर लोगों को बंधुआ मजदूर बनने पर मजबूर किया. फिर भी लगान वसूल करने वाले जमींदारों से कलैक्टर खुश नहीं थे. 1770 तक जमींदारों और कलैक्टरों के बीच का यह अंतर्विरोध आंदोलन विद्रोह की स्थिति तक पहुंच गया. ईस्ट इंडिया कंपनी ने इस समस्या के समाधान के लिए वारेन हेस्टिंग्स को जिम्मेदारी सौंपी.
बिहार की बरबादी का दस्तावेज ‘परमानैंट सैटलममैंट’
मुगलों और नवाबों के दौर में जमींदार टैक्स इकट्ठा करते थे. वे एक तरह से नवाब के प्रतिनिधि थे जो कमीशन पर काम करते थे लेकिन उन्हें जमीन का मालिकाना हक हासिल नहीं था. 1770 में वारेन हेस्टिंग्स ने जमींदारों के लिए 5 साल के बंदोबस्त की व्यवस्था की और 1790 में यह 10 साल का बंदोबस्त कर दिया गया. इस के तहत 10 साल का टैक्स एक ही बार में कंपनी वसूल लेती थी, बदले में जमींदार को भी 10 साल के लिए जमीन के बंदोबस्त की सहूलियत मिल जाती थी. यानी, 10 सालों के लिए जमींदार जमीन का मालिक बन जाता था.
वारेन हेस्टिंग्स के इस प्रयोग की सफलता को देखते हुए ईस्ट इंडिया कंपनी के गवर्नर जनरल लौर्ड कार्नवालिस ने परमानैंट सैलटलमैंट की व्यवस्था की और उस ने 1793 को पूरे बंगाल प्रैजिडैंसी में परमानैंट सैटलमैंट को लागू कर दिया. बिहार भी तब बंगाल प्रैजिडैंटसी का हिस्सा था, इसलिए यह व्यवस्था बिहार में भी लागू हो गई.
जमींदारों के लिए टैक्स तय कर दिया गया. जमींदारों को जमीन का मालिकाना हक तो मिल गया लेकिन उन्हें कंपनी को जमीन की आमदनी का लगभग 90 फीसदी हिस्सा देना पड़ता था. ‘सनसेट ला’ के तहत समय पर टैक्स न देने पर जमीन नीलाम हो जाती थी. मालिकाना हक मिलने के बाद जमींदारों को किसी तरह अपने मुनाफे को बढ़ाना था ताकि कंपनी को तय लगान दे कर सनसेट क़ानून से बचा जा सके.
यहीं से बिहार की आम जनता के भयावह शोषण की दास्तान की शुरुआत हुई. देशी जमींदारों ने अपने फायदे के लिए गरीब जनता का जम कर शोषण शुरू कर दिया. इस से आम जनता बुरी तरह बरबाद हुई. जमींदारों ने अपनी जमीनें छोटे किसानों को किराए पर दीं और कंपनी को तय राशि चुकाने के दबाव में वे किसानों से ऊंचा किराया वसूलने लगे. अंगरेज शासकों को सिर्फ जमींदारों से आने वाले पैसे से मतलब था. कानून व्यवस्था और न्याय पर जमींदारों का कब्जा हो गया.
अपनी समझ कर जमीन जोतने वाले किसान अब सिर्फ मजदूर बन कर रह गए. किसानों को पट्टा (लीज एग्रीमैंट) देने का नियम था, लेकिन अकसर यह नहीं दिया जाता, जिस से किसानों पर जमींदारों की मनमानी बढ़ी. ज्यादा मुनाफे के लालच में किसानों को नील और कपास जैसी नकदी फसलें उगाने के लिए मजबूर किया गया. इन नकदी फसलों ने जीवन निर्वाह करने बाली जरूरी फसलों, मसलन धान, गेंहू, चना वगैरह की जगह ले लीं जिस से बिहार में लगातार अकाल पड़ने लगे. ये दोनों नकदी फसलें अंगरेज व्यापारी यूरोप ले जाने के लिए हाथोंहाथ खरीद ले जाते थे. इन्हें सालभर नहीं रखना पड़ता था.
जमींदारों द्वारा किसानों का दमन शुरू हुआ और यहीं से पलायन की मजबूरी भी शुरू हुई. जो किसान मजदूर अकाल या खराब फसलों के कारण बरबाद हो जाते थे उन के पास इलाके को छोड़ कर दरबदर होने के अलावा और कोई रास्ता ही नहीं बचता था.
परमानैंट सैटलमैंट जमींदारों के लिए एक ऐतिहासिक सैटलमैंट था जिस से बिहार के जमींदार अंगरेजों की कंपनी के प्रति वफादार बन गए. हालांकि, कुछ जमींदारों को इस सैटलमैंट से काफी नुकसान भी हुआ. अंगरेजों द्वारा तय किया गया लगान बेहद ज्यादा था, सूखे-बाढ़ या आपदा की स्थिति होने पर लगान में कोई छूट नहीं थी, इस से कई जमींदारों की जमीनें नीलाम कर दी गईं और वे बरबाद हो गए. उन की जमींदारी बिकने लगी और वहींकहीं सेठ भी ये जमींदारी खरीदने लगे.
परमानैंट सैटलमैंट से कंपनी ने कुछ दशकों जबरदस्त फायदा उठाया लेकिन बिहार में बुनियादी ढांचे के लिए कुछ नहीं किया. इस दौरान शिक्षा या उद्योग का भी कोई विकास नहीं हुआ. इस सैटलमैंट के लागू होने के एक दशक के भीतर ही बिहार की आम जनता भुखमरी की कगार पर पहुंच गई.
गिरमिटिया मजदूरों की त्रासदी
19वीं सदी आतेआते बिहार की खेती पर आधारित अर्थव्यवस्था पूरी तरह बरबाद हो चुकी थी. बिहार बंधुआ मजदूरों का सब से बड़ा केंद्र बन गया. इन मजदूरों की तस्करी करने वाले गिरोह सक्रिय हुए जो अंगरेजों और जमींदारों को बंधुआ मजदूर मुहैया करवाते थे. यह ट्रेड अमेरिका के अफ्रीका से जहाज़ों में मवेशियों की तरह लाए गए अश्वेतों की गुलामी जैसा ही था. इन मजदूरों को ‘गिरमिटिया मजदूर’ कहा जाता था जिन्हें बिहार से ब्रिटिश उपनिवेश के दूसरे देशों तक ले जाया जाता. 1838 से शुरू हो कर 1917 तक करीब 10 लाख बिहारी मजदूरों को मौरिशस, फिजी, गुयाना, दक्षिण अफ्रीका, कैरिबियन जैसी ब्रिटिश कालोनियों में एग्रीमैंट के नाम पर भेजा गया. एक तरह से कहा गया कि ये गुलाम नहीं हैं पर असल में जहाज पर चढ़ते ही ये भी गुलाम बन कर रह जाते थे.
1830-40 के दशक से ब्रिटिश व्यापारियों ने बिहार के चंपारण क्षेत्र में नील की जबरन खेती शुरू कराई. नील की जरूरत यूरोप के कपड़ा उद्योग को होती थी. इस से मिट्टी बंजर हुई और किसान कर्जदार बने. इस से लोकल रोजगार खत्म हो गया और मजदूर बंगाल व असम की चाय बागानों या पंजाब व गुजरात के खेतों में रोजगार के लिए पलायन करने लगे. 1881 की जनगणना से पलायन के आंकड़े दिखने लगे. यह दौर पलायन की त्रासदी की शुरुआत का प्रतीक है क्योंकि यह मजबूरी की ऐसी यात्रा थी जिस में निकले ज्यादातर मजदूर कभी घर वापस नहीं लौट पाए चाहे वे भारत में ही रह रहे या विदेशों में जा कर हमेशा के लिए बस गए.
1947 में देश के बंटवारे के वक़्त बिहार दंगों में 30,000 से अधिक मुसलिम बिहारियों की हत्या हुई. इस दौरान सांप्रदायिक दंगे भड़के जिस से लाखों हिंदीभाषी मुसलिम मजदूर पूर्वी पाकिस्तान चले गए.
केंद्र सरकार ने बिहार का सत्यानाश करने के लिए 1952 के फ्रेट इक्वलाइजेशन पौलिसी के तहत बिहार के खनिज संसाधनों को भी सस्ता बना कर बेचा और बिहार के बचेखुचे उद्योगों को दिल्ली-मुंबई में ले जाया गया. आजादी के बाद के दशकों में बिहार की आबादी थोड़ी स्वास्थ्य सुविधाओं के कारण तेजी से बढ़ी लेकिन इस के साथ ही पलायन भी तेजी से बढ़ा. हर साल के बाढ़ और सूखे ने बिहार के पलायन को और तेज किया. 1960-70 के दशक में दिल्ली, मुंबई, पंजाब की ओर तेजी से पलायन हुआ. 2011 जनगणना के वक़्त 83 लाख बिहारी दूसरे राज्यों में थे. आज तकरीबन 2 करोड़ से ज्यादा लोग बिहार से बाहर हैं.
अंगरेजों के शासनकाल में बिहार उन के लिए महज आर्थिक स्रोत था. बिहार को सीधे तौर पर ईस्ट इंडिया कंपनी और फिर क्राउन का प्रतिनिधि यानी गवर्नर जनरल के जरिए अंगरेज सरकार नियंत्रित करती थी. राजस्व और संसाधनों की दृष्टि से बिहार बहुत महत्त्वपूर्ण था. इस के बाद भी बिहार का कोई स्वतंत्र ढांचा नहीं था. यह कोलकाता से नियंत्रित होता था. यही वजह थी कि बिहार पूरी तरह उपेक्षित था. बिहार कृषि और राजस्व वसूली का प्रमुख केंद्र था. यहां धान, गन्ना, नील और तंबाकू की पर्याप्त मात्रा में खेती होती थी.
ईस्ट इंडिया कंपनी जमींदारों के जरिए राजस्व वसूल करती थी. इस से किसानों पर भारी आर्थिक बोझ बढ़ा और वे भुखमरी की कगार पर आ गए थे. बिहार की संस्कृति और शिक्षा का कोई खयाल नहीं रखा जा रहा था. तब बिहार में अलग पहचान की मांग बढ़ी. इस के बाद 22 मार्च, 1912 को बिहार की अलग प्रोविंस की तरह स्थापना हुई. 1936 में बिहार प्रोविंस से ओडिशा को अलग कर के अलग प्रोविंस बना दिया गया था.
पलायन बिहार का मुद्दा क्यों नहीं बना
2025 के विधानसभा चुनाव में पलायन का मुद्दा सभी दलों और नेताओं द्वारा उठाया गया. सब से बड़ी बात यह थी कि किसी दल और नेता के पास इस समस्या का कोई हल नहीं है और न ही इस समस्या का कारण किसी को पता है. साधारणतौर पर गरीबी, बेरोजगारी, बाढ़ और अपराधों को इस का कारण मान लिया जाता है. सवाल उठता है कि ये परेशानियां किस राज्य में नहीं हैं. 1947 में जब देश का बंटवारा हुआ तो सब से बड़ा झटका पंजाब और आसपास के प्रदेशों में रहने वालों को उठाना पड़ा. हजारों की संख्या में वे रिफ्यूजी बन कर आए और देश के अलगअलगहिस्सों में बस गए. उन लोगों ने 50 साल में ही अपनी अलग पहचान बना ली. वे सेठ और बड़े बिजनैसमेन व बड़े किसान बन गए.
बिहार के लोग यह काम नहीं कर पाए. वे सालोंसाल अपनी गिरमिटिया मजदूर की पहचान नहीं बदल पाए. वे जिन देशों और जगहों पर गए वहां की हालत तो बदल कर रख दी, वहां का विकास बिहारियों के दम पर हुआ जबकि उन का मूल जन्मस्थान बिहार जस का तस रहा. सवाल यह कि जिन बिहारी लोगों ने दूसरी जगहों को बदल दिया वे अपने बिहार को क्यों नहीं बदल पाए?
एक दौर में केंद्र सरकार के दफ्तरों में बड़ी और छोटी नौकरियों पर बिहार के लोगों का कब्जा था. बड़े लेखक बिहार से आते थे. राजनीति में बिहार के लोगों का दबदबा था. उत्तर प्रदेश के मुलायम सिंह यादव एक दौर में प्रधानमंत्री बनने वाले थे लेकिन बिहार के लालू प्रसाद यादव का समर्थन न मिलने से वे प्रधानमंत्री नहीं बन पाए.
1973 में कांग्रेस की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के खिलाफ गद्दी छोड़ो आंदोलन बिहार से ही शुरू हुआ था. जयप्रकाश नारायण के जेपी आंदोलन से इंदिरा गांधी की कुरसी हिलने लगी.
उस से पहले जब देश आजाद हुआ था तो देश के पहले राष्ट्रपति डाक्टर राजेंद्र प्रसाद बिहार के रहने ही वाले थे. ऐसे में बिहार अभी भी पलायन की परेशानी से निकल नहीं पा सका.
बिहार के कितने लोग पलायन कर के दूसरे देशविदेशों में रह रहे हैं, इस का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि अब छठपूजा के दौरान बिहार के लोगों को बिहार आने के लिए 2025 में 12 हजार से अधिक रेलगाड़ियां सरकार को चलानी पड़ीं. कोरोनाकाल में जब सरकार रेल और बसों का इंतजाम नहीं कर पाई तो सड़क पर पैदल चलने वालों की संख्या सब से अधिक बिहार जा रही थी.
नाटकों, उपन्यासों, फिल्मों में ही नहीं बल्कि भोजपुरी गानों में पलायन का दर्द खूब दिखाया जाता है. शारदा सिन्हा से ले कर भोजपुरी के तमाम गायकों ने पलायन और बिरह को अपने गीतों में खूब उकेरा है. पलायन को राजनीति से भी जोड़ते हुए गाने बने हैं. एक गाना है- ‘कब ले पलायन के दुख लोग झेले, कब ले सुतल रहिहें एमपी-एमएलए’ 2025 के विधानसभा चुनाव में खूब बज रहा था. पलायन के गीतों में पतिपत्नी विछोह को दिखाते हुए बहुत ही समझ में आने वाला गीत कहता है- ‘सेज पर किस के साथ लडूं, सैयां अरब गए‘.
आजादी के बाद भी पलायन की समस्या
आजादी के बाद 26 जनवरी, 1950 को बिहार के रहने वाले डाक्टर राजेंद्र प्रसाद देश के पहले राष्ट्रपति बने. वे 13 मई, 1962 तक पद पर रहे. राष्ट्रपति बनने से पहले वे अंतरिम सरकार में खाद्य एवं कृषि मंत्री रहे. वे संविधान सभा के अध्यक्ष भी रहे थे. इस के जरिए यह समझा जा सकता है कि बिहार का देश की राजनीति में कितना महत्त्व था. बिहार में ईमानदार और मेहनती नेताओं की कमी नहीं रही. समाजवादी आंदोलन भी वहीं से शुरू हुआ.
लेकिन ये सब नेता बिहार का इस्तेमाल अपनी राजनीति चमकाने के लिए करते रहे. ये अंगरेजों पर उन के बनाए जमींदारों से भी ज्यादा थूथू के हकदार हैं, हार पहनाने लायक नहीं.
चुनावी वादा बन कर रह जाती है पलायन की समस्या
आजादी के बाद चुनावदरचुनाव पलायन की समस्या पर बात होती है. इस के बाद भी यह चुनाव के बाद भुला दी जाती है. 2025 के विधानसभा चुनाव में यह मुद्दा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सहित तेजस्वी यादव, प्रशांत किशोर और कई नेताओं ने उठाया. देखना यह है कि चुनाव के बाद इस पर कितना काम होता है. बेरोजगारी और पलायन बिहार की सब से बड़ी चुनौती है. 2011 की जनगणना बताती है कि 74.54 लाख बिहारी राज्य से बाहर पलायन कर चुके थे. जिन में 22.65 लाख लोग रोजगार की तलाश में गए. इस का मतलब यह हुआ कि बिहार छोड़ कर बाहर जाने वाले कुल लोगों में से 30 फीसदी लोग रोजगार की तलाश में राज्य छोड़ कर जाते हैं. आज भी यह बदस्तूर जारी है. केंद्र सरकार के ईश्रम पोर्टल पर बिहार से 3.16 करोड़ से अधिक लोगों ने पंजीकरण कराया है.
2022-23 में बिहार की बेरोजगारी दर 3.9 फीसदी थी, जो कि राष्ट्रीय औसत 3.2 फीसदी से अधिक है. बेरोजगारी का यह आंकड़ा एकदम भ्रम में डालने वाला है क्योंकि जो व्यक्ति खाने का जुगाड़ कर लेता है, केंद्र सरकार का सांख्यिकी विभाग उसे रोजगार प्राप्त मान लेता है. जिन्होंने कहीं अपने को बेरोजगार दर्ज कराया वही बेरोजगार माने जाते हैं. फिर भी 2024 में बिहार के शहरी युवा बेरोजगारी 23.2 फीसदी तक पहुंच गई. यह भी राष्ट्रीय औसत 15.9 फीसदी से कहीं अधिक है. यह बेरोजगारी पलायन को जन्म देती है. बिहार का युवा दिल्ली, पंजाब, सूरत, बेंगलुरु और मुंबई की फैक्ट्रियों में मजदूरी करता है.
बिहार में तीनों मोरचों (एनडीए, महागठबंधन और जन सुराज) ने अब इसे चुनावी मुद्दा बनाया है. महागठबंधन का कहना है कि बदलाव का वक्त आ गया है. इस ने ‘हर परिवार को एक सरकारी नौकरी’ देने की घोषणा की है. प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी ने बिहार के पलायन और बेरोजगारी संकट को अपनी राजनीति के केंद्र में रखते हुए यह वादा किया है कि राज्य में ऐसा माहौल बनाया जाएगा जहां युवाओं को जीविका के लिए अपना गांव और अपना प्रदेश न छोड़ना पड़े. बिहार की अर्थव्यवस्था कागजों में बहुत चमकदार है. ये सब वादे हैं, कोई कुछ करेगा नहीं.
गंगा नदी किनारे बसे गांवों में है प्रवास कल्चर
जनसंख्या विज्ञान संस्थान यानी आईआईपीएस द्वारा किए गए एक सर्वे के अनुसार बिहार के आधे से अधिक परिवार पलायन के शिकार हैं. ये परिवार बाहर से आने वाले पैसों पर निर्भर हैं. इन के घरों के लोग बाहर मजदूरी कर के इन को पैसा भेजते हैं. 36 गांवों और 2,270 परिवारों को इस सर्वे शामिल किया गया था. इस क्षेत्र में बिना परिवार के पुरुषों द्वारा पलायन किया जाता है. सारण, मुंगेर, दरभंगा, कोसी, तिरहुत और पूर्णिया के आसपास से सब से अधिक पलायन होता है. ओबीसी, एससी और एसटी समुदाय के लोगों का दूसरे वर्ग से अधिक पलायन होता है.
इस सर्वे में मध्य गंगा मैदान के हिस्सों को शामिल किया गया था. यह पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के 64 जिलों को कवर करता है. जिस गंगा को जीवनदायनी माना जाता है वह भी इस क्षेत्र के लोगों का उद्धार नहीं कर पाई. गंगा किनारे बसने वाले गांवों में प्रवास की संस्कृति अधिक होती है. ये लोग बिना परिवार के प्रवास करने के यानी कहीं आनेजाने के आदी होते हैं. पलायन करने वालों में भूमिहीन समूह और एकल परिवारों की संख्या सब से अधिक है. इन में प्रवासियों की औसत आयु 32 साल है. 80 प्रतिशत प्रवासी भूमिहीन हैं या उन के पास एक एकड़ से भी कम जमीन है और उन में से 85 फीसदी ने 10वीं कक्षा ही उत्तीर्ण की है.
90 प्रतिशत प्रवासी निजी कारखानों में श्रमिक के रूप में काम करते हैं. बिहार में एक प्रवासी द्वारा औसत 26,020 रुपए और पूर्वी उत्तर प्रदेश में 38,061 रुपए प्रति वर्ष अपने घरों को भेजा जाता है. प्रवासियों के घरों में महिलाओं की स्थिति का सवाल है, तो 47 फीसदी महिलाए साक्षर हैं और उन में से 22 फीसदी मजदूरी पर जाती हैं. अधिकतर ये महिलाएं एकल परिवार में रहती हैं. तीनचौथाई ये महिलाएं रोजाना अपने पति से मोबाइल पर बात करती हैं. केवल 29 फीसदी महिलाएं स्वयं सहायता समूहों की सदस्य हैं. 80 फीसदी महिलाओं के पास अपना बैंक खाता है. इन का मानना है कि उन के पतियों के प्रवास के बाद उन की आर्थिक स्थिति, जीवनशैली, स्वायत्तता, बच्चों की शिक्षा और स्वास्थ्य में सुधार होता है.
1950 के बाद कांग्रेस सरकारों द्वारा सामाजिक उद्धार के लिए लाए गए जमींदारी उन्मूलन अधिनियम का लाभ यादव, कुर्मी, कोइरी और भूमिहार जैसी जातियों को मिला. ये नए तरह के जमींदार बन कर उभरे. अफ़सोस यह है कि इन का व्यवहार एससी और एसटी के साथ वैसा ही होने लगा जैसे पहले के सवर्ण जमींदारों का होता था. 1970 के दशक में इंदिरा गांधी के विरोध के बाद और 1990 में मंडल कमीशन लागू होने के बाद बिहार पर ऊंची जातियों का प्रभाव कम हुआ. इस के उलट, पिछड़ों में अगड़े खासकर यादव वर्ग ने लालू प्रसाद यादव के सहारे बिहार में जो सुधार किया था उस पर कुर्मी नेता नीतीश कुमार, जो भारतीय जनता पार्टी के घोषित मुरीद रहे हैं और सदा बिहार की वर्णव्यवस्था को मजबूती देते रहे हैं, की अगुआई में ऊंची जातियों के लिए वापसी का रास्ता खुल गया.
जिसे भी बिहार की जमींदारी उन्मूलन के बाद पलायन पर काम करना था वह नेता जातीय बदला लेने में उतर आया. इसी ने नक्सलवाद को जन्म दिया. बिहार के पिछड़े नेता खुद को एससी और एसटी जातियों के साथ कभी जोड़ नहीं पाए क्योंकि धर्मजनित हिंदू व्यवस्था हावी रही. 1970 के बाद बिहार की राजनीति में कांग्रेस का ब्राहमणवाद खत्म हुआ तो 3 गुट बन गए. अगड़ी जातियां बहुत ही चालाकी से नीतीश कुमार के साथ, एससीएसटी जातियां रामविलास पासवान और ओबीसी लालू प्रसाद यादव के साथ जुड़ गईं.
लालू प्रसाद यादव ओबीसी में अति पिछड़ी जातियों, मुसलमानों और अछूतों को अपने साथ रख कर नहीं चल पाए. वे अपनी जाति और परिवार से अलग किसी और समुदाय को अपने साथ जोड़ नहीं पाए. उन की जाति नई तरह की दबंग बन कर उभरी, जिस को अब लालू का जंगल राज कहा जा रहा है. वे कभी अपने करीबी रहे रामविलास पासवान और नीतीश कुमार को जोड़ कर नहीं चल पाए. उन में दूसरों को पटाने की वह कला नहीं थी जो ब्राह्मण और कायस्थ नेताओं में है.
जमींदारी भले ही बिहार में खत्म हो गई मगर इन तरीकों से नए पैदा हुए जमींदारों ने बिहार को आगे नहीं बढ़ने दिया. जिस के कारण नीतीश कुमार प्रभावी हो गए और लालू राज को खत्म कर 20 साल बिहार के मुख्यमंत्री रहे. 2025 के चुनाव में नीतीश और रामविलास पासवान के बेटे और लोक जनशक्ति पार्टी के नेता केंद्र में मंत्री चिराग पासवान के एक मंच पर आने का असर दिख रहा है. यह वर्णव्यवस्था के हामी नेताओं की सफलता है.
पलायन के मुद्दे को सतही तौर पर सभी दलों ने छूने भर का काम किया है. बिहार में 30 साल से ऊपर की उम्र के जो लोग हैं वे नहीं चाहते कि उन के लड़केलड़कियां बिहार में रह कर काम करें. वे मानते हैं कि बिहार में चुनाव के समय बदलाव की बात होगी पर चुनाव हमेशा की तरह जाति और दंबगई पर लड़ा जा रहा है.
राष्ट्रीय जनता दल की कमान युवा तेजस्वी यादव के हाथ में होने के बाद विधानसभा चुनाव में राजद ने 50 फीसदी टिकट यादवों को दिए. बाकी ओबीसी केवल वोट देने भर के लिए हैं. उस के बाद बड़ी संख्या मुसलिमों की है. जनता देख रही है कि बात पलायन की होती है और काम जाति पर होता है. ऐसे में पुरानी पीढ़ी कुछ बदलते देख नहीं रही है. इस कारण वह अपने बच्चों को प्रवासी बना कर खुशी महसूस करती है.
पलायन की त्रासदी का समाधान क्या है?
बिहार से पलायन की त्रासदी 19वीं शताब्दी से चली आ रही है जो आज भी जारी है, जिसे रोकना नामुमकिन है. आजादी के बाद की सरकारों ने बिहार की इस समस्या को समझा ही नहीं. यही कारण है की पलायन की समस्या कभी भी बिहार चुनावों का मुद्दा नहीं रही.
हालांकि इस बार के विधानसभा चुनाव के दौरान सभी दलों ने पलायन की इस त्रासदी को मुद्दा जरूर बनाया है लेकिन समाधान उन के पास भी नहीं है. सच तो यह है कि आज बिहार के लोगों ने पलायन की हकीकत को स्वीकार कर लिया है. बिहार से पलायन भारतीय इतिहास का एक दर्दनाक अध्याय तो है ही, साथ ही, यह वर्तमान की सब से बड़ी त्रासदी भी है. बिहार का यह पलायन केवल एक घटना नहीं, बल्कि सदियों पुरानी प्रक्रिया है, जो जातिवाद, मजदूरों के शोषण और भ्रष्टाचार की दर्दनाक कहानी बयान करती है.
भारतीय संविधान में पलायन का अधिकार
भारतीय संविधान में पलायन (प्रवासन) का अधिकार अनुच्छेद 19(1)(डी) के तहत दिया गया है. इस के तहत देशभर में आनेजाने और रहने की आजादी दी गई है. यह अधिकार भारत के किसी भी हिस्से में घूमने, रहने और अपनी पसंद का पेशा करने की आजादी देता है. अनुच्छेद 19(1)(डी) भारत के पूरे क्षेत्र में स्वतंत्र रूप से आवागमन का अधिकार देता है. अनुच्छेद 19(1)(ई) के तहत भारत के किसी भी हिस्से में निवास करने और बसने का अधिकार प्रदान करता है. अनुच्छेद 19(1)(जी) अपनी पसंद का कोई भी पेशा, व्यवसाय, व्यापार या कारोबार करने की स्वतंत्रता देता है. यह बात और है कि यह अधिकार असीमित नहीं है और इस के कुछ प्रतिबंध भी हैं.
अनुच्छेद 19(5) के तहत सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता और जनजातियों के हितों की रक्षा के लिए इन अधिकारों पर उचित प्रतिबंध लगाए जा सकते हैं. भारतीय संविधान सभी नागरिकों को यह गारंटी प्रदान करता है कि किसी भी नागरिक के साथ भेदभाव नहीं किया जाएगा. इस के बाद भी अलगअलग राज्यों में भेदभाव होते हैं. दक्षिण भारत में उत्तर भारतीय लोगों के साथ भेदभाव होते हैं.
नौर्थईस्ट में रहने वाले तमाम लोग देश के अलगअलग राज्यों में नौकरी करते हैं. इस के बाद भी उन के साथ भेदभाव होता है. मारपीट कर उन को भगाया जाता है. महाराष्ट्र में उत्तर प्रदेश और बिहार के लोगों के साथ भेदभाव होता है. पंजाब में ओडिशा और बिहार के मजदूरों के साथ इसी तरह का भेदभाव होता है जो संविधान की मूल भावना के खिलाफ है. इन को कहीं ‘बाहरी’ कहीं ‘बिहारी’ कहीं ‘भइया’ तो कहीं ‘चिंकी’ जैसे नामों से पुकारा जाता है.
आधार और ड्राइविंग लाइसैंस प्रवासियों के मौलिक अधिकार आर ग्रहण
संविधान देश के अंदर कहीं भी मजदूरी और कारोबार करने की आजादी देता है. जबकि, आधार कार्ड और ड्राइविंग लाइसैंस के नियम मौलिक अधिकारों को रोकने का काम करते हैं. इन के नियम प्रावासियों के मौलिक अधिकारों को रोकने का काम करते हैं. जब भी किसी को बैंक में खाता खोलना होता है तो आधार और पैन कार्ड की जरूरत पड़ती है. ऐसे में ज्यादातर लोग जहां के मूल निवासी होते हैं वहां के बैंक में खाता खोलते हैं. नैट बैंकिंग के जरिए पैसा निकालने और जमा करने का काम कहीं से भी हो जाता है. लेकिन जैसे ही दूसरे काम करने होते है, जिन में बैंक शाखा जाना होता है, तब परेशानी होती है.
इस के अलावा चैक, पासबुक या एटीएम कार्ड घर के पते पर ही आते हैं. जो बैंक के रिकौर्ड में दर्ज होता है. अगर मूल निवास वाली जगह पर कोई न रह रहा हो तो दिक्कत होती है. ऐसे में आधार समस्या बन जाता है. नियम यह होना चाहिए कि खाता खोलने वाले व्यक्ति को यह आजादी होनी चाहिए कि वह जहां रहे उस बैंक में खाता खोल सके.
इसी तरह से ड्राइविंग लाइसैंस में भी आधार और मूल निवास प्रमाणपत्र की जरूरत पड़ती है. यह बात अपनी जगह ठीक है कि पूरे भारत में यह मान्य होता है. अगर इस का रीन्यूअल कराना हो या कोई और काम करना हो तो जहां से लाइसैंस बना है वहीं आना होगा. सरकार कहती है कि यातायात नियमों को तोड़ने पर लाइसैंस कैंसिल हो जाएगा. यह गलत नियम है. यातायात नियम तोड़ने पर सजा या जुर्माना तो ठीक है लेकिन लाइसैंस रदद करना तो मौलिक अधिकार का हनन हुआ.
मोटर वाहन अधिनियम 1988 के अनुसार ट्रैफिक नियम तोड़ने पर सजा के तौर पर जुर्माना, जेल और ड्राइविंग लाइसैंस को निलंबित या रद्द किया जा सकता है. नए नियमों के अनुसार, कुछ उल्लंघनों के लिए 25,000 रुपए तक का भारी जुर्माना और 3 साल तक की जेल हो सकती है. यही नहीं, लाइसैंस को 3 महीने के लिए निलंबित किया जा सकता है. बारबार उल्लंघन करने वाले वाहन चालकों के लिए लाइसैंस को स्थाई रूप से रद्द भी किया जा सकता है. अगर किसी प्रवासी का लाइसैंस रदद हो जाएगा तो वह अपना कामधंधा नहीं कर पाएगा. यह उस के मौलिक अधिकारों का हनन होगा.
पलायन पति का, पीड़ा पत्नी की
एक पुरुष जब रोजीरोटी की जुगाड़ में अपना घर, गांव, जिला और राज्य छोड़ कर दूर किसी बड़े शहर में जाता है तो उस के मन में दुख और अपनों से बिछुड़ने के गम से ज्यादा ख़ुशी और जोश इस बात का होता है कि वह शहर में दिनरात हाड़तोड़ मेहनत कर पैसा कमाएगा. कच्चापक्का जैसा भी हो, अपना एक छोटा सा आशियाना बनाएगा और वे ढेरों खुशियां व सहूलियतें अपने बीवीबच्चों को मयस्सर कराएगा जिन के सपने वह होश संभालते ही देखता रहा है.
बच्चों को अच्छे स्कूल में पढ़ालिखा कर बड़ा आदमी बनाएगा और पत्नी को रानी की तरह भले ही न रख पाए लेकिन नौकरानी की तरह तो नहीं रहने देगा. ट्रेन के डब्बे में चढ़ते ही उस का संघर्ष और सफर शुरू हो जाते हैं.
लेकिन गांव में रह रही पत्नी विरह में जलती, बस, मन्नतें मांगती रहती है कि पति को जल्द ही वह सबकुछ मिले जिस की बातें वे दोनों रातरात भर जाग कर करते रहे थे. पहली रात जब वह बिना पति के बिस्तर पर सोती है तो सैकड़ों संदेह और दुश्चिंताएं उस के दिलोदिमाग में कब्ज़ा किए होते हैं. उस की आंखों में नींद नहीं होती और निगाह बारबार पास पड़े मोबाइल फोन पर जाती है कि अब उन का फोन या मैसेज आता होगा कि चिंता मत करना पगली, मैं फलां स्टेशन पर पहुंच गया हूं, खाना खा लिया है, ट्रेन में भीड़ बहुत है लेकिन थोड़ी जगह मिल गई है, सो अब सोऊंगा. तू अपना व घरवालों और बच्चों का खयाल रखना. कोई परेशानी आए तो तुरंत फोन करना. जल्द ही मैं पैसे ट्रांसफर करना शुरू कर दूंगा.
पत्नी भरोसा करती है और न जाने क्याक्या सोचती आंखों में नमी या आंसू लिए सो जाती है, सुबह से उसे भी बगैर पति के एक नई लड़ाई जो लड़ना है. बच्चों के लिए अब वह मां और बाप दोनों हो गई है. सासससुर के लिए सिर्फ बहू नहीं रह गई है बल्कि बेटा भी हो गई है.
फिर धीरेधीरे वह वाकई में पुरुष होती जाती है. बूढ़े सासससुर की सेवाशुमार करती है, बच्चों के स्कूल जाने का इंतजाम करती है. सुबहशाम किचेन में खटती है और दिनभर मेहनतमजूरी कर चार पैसे कमाती है. लेकिन सब को खिलापिला कर सुलाने के बाद रात जैसे काटने को दौड़ती है तो अपनी इच्छाओं को नियंत्रित करने की चुनौती से निबटने में उसे पसीने छूट जाते हैं. मोबाइल फोन पर पति से की गई रोमांटिक बातें करते वक्त तो गुदगुदाती हैं लेकिन वे पति के पहलू में होने की जरूरत पूरी नहीं कर पातीं.
सजनेसंवरने पर हालांकि कोई बंदिश नहीं है लेकिन वह सोचती है कि किस के लिए, किसे दिखाऊंगी यह सब. फिर वह दिन गिनने लगती है कि कब दीवाली, होली और छठ आएंगे और वह शहर से पति की लाई साड़ी पहनेगी, मेकअप करेगी और दोनों, कुछ दिन ही सही, जम कर मस्ती और मनमानी करते महीनों की कसर हफ्तेभर में निकालने की कोशिश करते रहेंगे. इसी दौरान पति शहर के अपनी जद्दोजेहद के किस्से सुनाएगा और वह गांव में झेली गई अपनी दुश्वारियां बताएगी. कुछ दिनों बाद पति फिर ट्रेन के डब्बे में घुस कर शहर की भीड़ में अपनी जगह बनाने को चल देगा और वह फिर तनहा हो जाएगी, क्या यही जिंदगी है- आधीअधूरी, टैंपरेरी, सधवा और श्रापित सी.
यह सिलसिला कब तक चलेगा, उसे नहीं मालूम. कितने चुनाव आए और चले गए लेकिन किसी पार्टी या नेता ने यहीं रोजगार देने का अपना वादा कभी पूरा नहीं किया. लेकिन उम्मीद पर दुनिया कायम है वाली तर्ज पर जीते वह फिर जुट जाती है. खेत में मजदूरी पर आतेजाते कई मर्दों की निगाहें उस के जिस्म पर चस्पां होती हैं जिन से बचने के लिए कितने जतन करने पड़ते हैं, यह वह पति को भी यह सोचते नहीं बता पाती कि क्या फायदा, कहीं वे और ज्यादा टैंशन में न आ जाएं या मन में शक का रोग न पाल बैठें. शक तो उसे भी कभीकभी होता है कि क्या ठिकाना कहीं इन्होंने ही शहर में दूसरी न कर ली हो. फलांनी के पति ने तो यही किया था.
ऐसा कईयों के साथ हुआ है कि बाकी सब घरगृहस्थी, बच्चे, रिश्तेदारी तो पत्नियों ने बखूबी संभाल ली लेकिन शरीर की जरूरत नहीं संभाल पाईं और फिसल गईं. इसलिए वह खामोश रहते उस दिन का इंतजार करती रहती है जिस दिन पति फोन पर यह खुशखबरी सुनाएगा कि तैयार रहना, घरगृहस्थी का सारा सामन बांध लेना, सारे इंतजाम कर लिए हैं. इस बार तुझे और बच्चों को भी यहीं ले आऊंगा. पत्नी मुद्दत से पति के इस फोन का इंतजार कर रही है.
-भारत भूषण श्रीवास्तव
बाढ़ की वजह से भी पलायन को मजबूर लोग
उत्तर बिहार के 73 फीसदी हिस्से हर साल बाढ़ से प्रभावित होते हैं. हर साल आने वाली यह बाढ़ फसलों को नष्ट कर किसानों की आजीविका छीन लेती है, जिस से लोग पलायन को मजबूर होते हैं. बिहार का 68,800 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र हर साल बाढ़ से डूब जाता है. कोसी, गंडक, बागमती और गंगा जैसी नदियां बरसात में विकराल रूप धारण कर लेती हैं.
नेपाल के पहाड़ी हिस्सों से आने वाला पानी भी बिहार में तबाही मचा देता है. 2024 में ही बिहार के 19 जिलों में 12 लाख से अधिक लोग बाढ़ से प्रभावित हुए थे. बाढ़ से सालाना 1,000 करोड़ रुपए का खर्च राज्य सरकार पर पड़ता है. धान और गेंहू जैसी फसलें नष्ट होने से किसानों की आमदनी 50-70 फीसदी तक कम हो जाती है, जिस से कर्ज बढ़ता है और लोग पलायन को मजबूर होते हैं. 2008 की कोसी बाढ़ ने ही तकरीबन 35 लाख लोगों को विस्थापित किया था.
बिहार के सहरसा, दरभंगा और सुपौल जैसे जिलों में बाढ़ से हर साल लगभग 76 प्रतिशत आबादी प्रभावित होती है. बाढ़ से महिलाएं और बच्चे सब से ज्यादा प्रभावित होते हैं क्योंकि पुरुष पलायन कर दिल्ली, मुंबई या पंजाब चले जाते हैं. एक रिपोर्ट के मुताबिक, बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों में तकरीबन 40 फीसदी लोग पलायन कर जाते हैं.
बिहार का एक मुख्यमंत्री ऐसा भी
बात उन दिनों की है जब बिहार के मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर थे. जयप्रकाश नारायण के जन्मदिन पर एक भव्य कार्यक्रम आयोजित हुआ था. देशभर के बड़ेबड़े नेता उस समारोह में आए थे. बिहार के मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर भी वहां पहुंचे थे. उन का पहनावा सब का ध्यान खींच रहा था क्योंकि वे फटा हुआ कुरता, पुरानी धोती और टूटी हुई चप्पल पहने हुए थे. उन्हें देख कर लोग हैरान थे कि एक मुख्यमंत्री इस हालत में कैसे रह सकता है.
समाजवादी नेता और बाद में देश के प्रधानमंत्री बने चंद्रशेखर ने कर्पूरी ठाकुर को इस हालत में देखा तो हंसते हुए मंच पर कहा कि ‘चलो, हम सब मिल कर कर्पूरी ठाकुर के कुरता फंड में कुछ योगदान दें.’ नेताओं ने मजाक में पैसे इकट्ठे किए और ठाकुरजी को दे दिए ताकि वे नया कुरता खरीद सकें. कर्पूरी ठाकुर ने मुसकराते हुए वह पैसा ले लिया और बोले, ‘जनता का पैसा जनता की भलाई के काम आना चाहिए. यह पैसा जनता की भलाई के लिए है, मेरे कपड़ों के लिए नहीं.’ यह कह कर उन्होंने पूरा पैसा मुख्यमंत्री राहत कोष में जमा करवा दिया. पूरे देश में ऐसे उदाहरण नहीं मिलते हैं. वे भी बिहार से पलायन की समस्या को खत्म नहीं कर पाए.
प्रवासी बिहारियों का पैसा राज्य में
बिहार में 90 फीसदी मजदूर मौसमी प्रवासी विहार करते हैं. साल के कुछ माह नौकरी कर के ये कुछ समय के लिए वापस बिहार के अपने घर में आते हैं. इन में से 31 फीसदी पंजाब और 24 फीसदी मुंबई जाते हैं. 46 फीसदी मजदूर महीने के अंत में नकदी लाते हैं और 48 फीसदी इंटरनैट के जरिए अपना पैसा भेजते हैं. 75 फीसदी प्रवासियों ने अपने लौटने के बाद अपने परिवार की आय, पारिवारिक बंधन और सामाजिक स्थिति में सुधार महसूस किया.
घर लौट कर आने वालों में से केवल 25 फीसदी फिर से प्रवास करना चाहते हैं. बाकी अपने बच्चों को रोजगार के लिए प्रवास करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं.
प्रवास का सब से बड़ा कारण पैसा भेजना होता है. इस पैसे से ही परिवार की संपत्ति में वृद्धि होती है. यही पैसा प्रदेश की जीडीपी को बढ़ाता है. अगर बाहर से भेजे गए पैसों को जीडीपी से घटा दें तो बिहार की कलई खुल जाए. देश की प्रगति का राज भी यहीं छिपा है. Migration Crisis India.





