Ladakh Protest: लद्दाख के लोग लम्बे समय से राज्य के दर्जे की मांग कर रहे हैं. जिसे शांतिपूर्वक तरीके से मशहूर भारतीय वैज्ञानिक व शिक्षक सोनम वांगचुक नेतृत्व कर रहे थे. मगर हाल में लद्दाख में हुए हिंसक विरोध के बाद सोनम वांगचुक को कथित देश विरोधी गतिविधियों के आधार पर गिरफ्तार कर लिया गया. इस से हालात बिगड़ सकते हैं.
24 सितंबर को लेह लद्दाख में भड़की हिंसा के बाद शिक्षा के क्षेत्र में योगदान के लिए रेमन मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित, एक इंजीनियर, इनोवेटर, शिक्षाविद और जलवायु परिवर्तन के दुष्परिणामों से दुनिया को सचेत करने वाले एक्टिविस्ट सोनम वांगचुक को गिरफ्तार कर लिया गया. वही सोनम वांगचुक, जिन का सपना था लद्दाख को सुरक्षित और आत्मनिर्भर बनाना, जिन की शिक्षा की सोच ने हजारों स्टूडैंट्स का भविष्य बदला और जिन के ‘आइस स्तूप’ जैसे अनोखे प्रयोगों ने पूरी दुनिया में भारत का नाम ऊंचा किया.
वही सोनम वांगचुक जिन के ज्ञान और जिन की जुझारू जिंदगी से प्रेरित हो कर बौलीवुड ने ‘थ्री ईडियट्स’ जैसी सफलतम फिल्म बनाई थी. लेकिन प्रशासन ने लद्दाख के अस्तित्व के लिए शांतिपूर्ण आंदोलन का नेतृत्व करने वाले सोनम वांगचुक को जेल की सलाखों के पीछे भेज दिया. लद्दाख को पूर्ण राज्य का दर्जा और छठे शेड्यूल में शामिल करने की मांग वाले आंदोलन को ले कर सरकार ने सीधेसीधे वांगचुक को हिंसा भड़काने का दोषी ठहरा दिया, जबकि वांगचुक आमरण अनशन पर थे.
पिछले कुछ दिनों से लद्दाख में केंद्र सरकार के खिलाफ भारी विरोध-प्रदर्शन हो रहा है. पूर्ण राज्य का दर्जा दिए जाने को ले कर मोदी सरकार द्वारा बातचीत के लिए तारीख पर तारीख देने के कारण लोगों के सब्र का बांध अब टूट रहा है. इसी के चलते लोग सड़कों पर उतर आए, जिस में बड़ी संख्या युवाओं की थी. इसी बीच हिंसा भड़की और 4 लोगों की मौत हो गई. वांगचुक जो पिछले 15 दिनों से अनशन पर थे उन्होंने तुरंत अपना अनशन तोड़ा और लोगों से शांति की गुहार लगाई.
24 तारीख की दोपहर 2:30 बजे वे प्रेस कान्फ्रेंस करने वाले थे, लेकिन उस से पहले ही पुलिस ने उन्हें रासुका (राष्ट्रीय सुरक्षा कानून) के तहत गिरफ्तार कर लिया और लद्दाख से दूर राजस्थान की जयपुर जेल ले गई. लेह एपेक्स बौडी द्वारा बुलाए गए पूर्ण बंद के बीच यह हिंसा उस समय हुई जब आंदोलन अपने 15वें दिन में था और उसे 10 दिन और चलना था. सवाल यह है कि क्या सोनम वांगचुक की गिरफ्तारी सचमुच कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए है, या फिर यह आवाज दबाने की कोशिश है?
24 सितंबर को भड़की हिंसा के बाद राष्ट्रीय स्तर पर लद्दाख की स्थिति को ले कर नए सिरे से बहस छिड़ गई है. विपक्ष का कहना है कि लद्दाख को पूर्ण राज्य का दर्जा देने और चीन द्वारा लगातार कब्जाई जा रही जमीनों को ले कर लम्बे समय से आंदोलनरत सोनम वांगचुक को गिरफ्तार कर मोदी सरकार ने एक बार फिर अपने झूठ और निकम्मेपन को ढांपने की कोशिश की है.
बीते साल मार्च में वांगचुक ने लद्दाख को पूर्ण राज्य का दर्जा देने और इसे छठवीं अनुसूची में शामिल करने के लिए 21 दिनों तक भूख हड़ताल की थी. वहीं अक्तूबर 2024 में ही इसी मांग को ले कर उन्होंने लद्दाख से दिल्ली तक पैदल मार्च निकाला था. हालांकि दिल्ली पुलिस ने सिंघु बौर्डर पर उन्हें हिरासत में ले लिया था. अब की बार 35 दिन की उन की भूख हड़ताल के 15वें दिन ही लेह में आंदोलन हिंसक हो गया.
हाल के इतिहास में लद्दाख में पहली बार इतने बड़े पैमाने पर हिंसक झड़पें हुईं, जिन में 4 लोगों की मौत और 70 से अधिक लोग घायल हो गए. हिंसा के दौरान वहां उग्र युवाओं ने कई सरकारी इमारतों को आग के हवाले कर दिया, जिस में भाजपा कार्यालय भी शामिल है. आखिर क्या वजह रही कि ज़मीन, नौकरियों और स्वायत्तता की मांग को ले कर चल रहा शांतिपूर्ण आंदोलन अचानक उग्र हो उठा? और क्या वांगचुक को गिरफ्तार कर के सरकार लेह में उठ रही असंतोष की आग को ठंडा कर लेगी और जारी आंदोलनों को रोक लेगी? स्थानीय निवासियों की मानें तो जो आवाजें लेह लद्दाख की बर्फीली वादियों में बुलंद हो रही हैं, उन्हें रोक पाना अब संभव नहीं होगा.
लद्दाख लम्बे समय से अपने अस्तित्व के लड़ रहा है. भाजपा ने 2020 के लेह पर्वतीय परिषद के चुनावों में इस क्षेत्र को छठी अनुसूची के तहत शामिल करने का वादा किया था, मगर अब वह अपने वादे से मुकर गई है. केंद्र इस बात का दावा करता है कि उस ने लद्दाख को वृहद जम्मू-कश्मीर से स्वायत्तता दी है, लेकिन वास्तव में उस ने इस केंद्र शासित प्रदेश में लोकतंत्र के सभी पहलुओं को समाप्त कर दिया है.
गौरतलब है कि साल 2019 में केंद्र सरकार ने अनुच्छेद 370 को खत्म कर के जम्मू-कश्मीर राज्य को दो अलगअलग केंद्र शासित प्रदेशों जम्मूकश्मीर और लद्दाख में बांट दिया था. लद्दाख की अधिकतर जनता ने इस फैसले का स्वागत किया था क्योंकि जम्मूकश्मीर से अलग होने की उन की काफी पुरानी मांग थी. इस फैसले का स्वागत सोनम वांगचुक ने भी किया था. उन्होंने सोशल मीडिया पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उन के कार्यालय को इस फैसले के लिए धन्यवाद किया था. उन्होंने लिखा था, “शुक्रिया प्रधानमंत्री. लद्दाख के लिए लंबे समय से देखे जा रहे ख़्वाब को पूरा करने के लिए लद्दाख प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और प्रधानमंत्री कार्यालय का शुक्रिया करता है. पूरे 30 साल पहले अगस्त 1989 में केंद्र शासित प्रदेश के दर्जे को लेकर लद्दाखी नेताओं ने आंदोलन की शुरुआत की थी. इस लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण में मदद करने वाले सभी लोगों का शुक्रिया.”
अब जबकि सोनम वांगचुक को गिरफ्तार कर लद्दाख से दूर जयपुर सेंट्रल जेल में कैद कर दिया गया है, लेह अपेक्स बौडी (एलएबी) ने मोदी सरकार की आलोचना करते हुए कहा कि इस से लद्दाख में स्थिति और खराब होगी. सरकार लोगों को डरा रही है जिस से अविश्वास पैदा हो रहा है. वांगचुक की गिरफ्तारी केंद्र सरकार की घबराहट दिखाती है पर इस से उन का आंदोलन नहीं रुकेगा. प्रशासन का उन को गिरफ्तार करने का फैसला दुर्भाग्यपूर्ण और गलत फैसला है. हिंसा में उन का कोई हाथ नहीं था और न है. उस दिन जो हुआ, वह अचानक हुआ क्योंकि लद्दाख का नौजवान बहुत गुस्से में है. बिना किसी आधार के वांगचुक की गिरफ्तारी से लद्दाख के लोगों को भावनात्मक रूप से चोट पहुंची है, और अब यह मामला अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जाने वाला है.
अपेक्स बौडी के कानूनी सलाहकार हाजी गुलाम मुस्तफा का कहना है कि लद्दाख में शिक्षा, समाज और पर्यावरण के क्षेत्र में वांगचुक के योगदान के लिए पूरी दुनिया उन का सम्मान करती है, उन की गिरफ्तारी से आप इस देश के लोगों को और दुनिया को क्या संदेश देना चाहते हैं कि आप किसी को भी गिरफ्तार कर जेल में डाल देंगे.
उन्होंने कहा कि सोनम वांगचुक की गिरफ्तारी के जरिए केंद्र सरकार लद्दाख आंदोलन को नुकसान पहुंचाने के साथसाथ, एलएबी (लेह अपेक्स बौडी) व केडीए (करगिल डेमोक्रेटिक अलायंस) के साथ जारी बातचीत की प्रक्रिया को भी पटरी से उतारना चाहती ही. केंद्र चाहता है कि बातचीत में रुकावट के लिए उस पर कोई आरोप न लगे. सारा दोष वांगचुक के सिर मढ़ कर वह बातचीत की तारीख और आगे खिसका दें.
एलएबी के एक घटक अंजुमन-ए-मोइनुल इसलाम के उपाध्यक्ष मोहम्मद रमजान कहते हैं कि सोनम वांगचुक की गिरफ्तारी एक सुनियोजित षड्यंत्र का हिस्सा है. पहले उन्हें बदनाम किया गया, फिर उन पर विदेश से चंदा लेने का आरोप लगाया गया और फिर हिंसा के लिए युवाओं को उकसाने का इल्जाम लगा कर उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया. वह हमारे हीरो हैं, एक ऐसा नेता जो गांधीवादी जीवन शैली का पालन करता है और भारत के संविधान में दृढ़ विश्वास रखता है. वह भूख हड़ताल से शांतिपूर्वक आंदोलन का नेतृत्व कर रहे थे. उन्होंने लेह से दिल्ली तक पैदल मार्च भी किया था. केंद्र सरकार लद्दाख में हमारे नेतृत्व को दबाने के लिए दूसरी जगहों पर अपनाई गई नीतियों का प्रयोग यहां कर रही है. इस कदम से क्षेत्र में हालात सामान्य होने की बजाय और बिगड़ेंगे.
लेह लद्दाख का इतिहास
लेह-लद्दाख का इतिहास बहुत ही रोचक और विविधताओं से भरा हुआ है. यह इलाका हिमालय और काराकोरम की ऊंची पर्वत श्रृंखलाओं के बीच बसा है और प्राचीन काल से ही भारत, तिब्बत, मध्य एशिया और चीन के बीच व्यापार, संस्कृति और धर्म का संगम रहा है. लद्दाख क्षेत्र को प्राचीन काल में ‘मेरी-युल’ (अंधेरे की भूमि) के नाम से जाना जाता था. यहां प्राचीन काल से ही बौद्ध धर्म का गहरा प्रभाव रहा. तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व से बौद्ध भिक्षु यहां आतेजाते रहे.
लद्दाख को “लिटिल तिब्बत” भी कहा जाता है क्योंकि यहां की संस्कृति तिब्बत से काफी मिलतीजुलती है. लेह-लद्दाख व्यापार, धर्म और रणनीति का केंद्र रहा है. यह भारत-तिब्बत-केन्द्रीय एशिया की संस्कृतियों का संगम स्थल है और सामरिक दृष्टि से भारत के लिए बेहद महत्वपूर्ण क्षेत्र है. सिल्क रूट का हिस्सा होने के कारण यह इलाका भारत, तिब्बत और मध्य एशिया के व्यापार का बड़ा केंद्र था. ऊन, नमक, पशु और रेशम का व्यापार यहीं से होकर गुजरता था.
7वीं शताब्दी में तिब्बत के राजा सोन्ग्सेन गम्पो ने इस इलाके में बौद्ध धर्म को बढ़ावा दिया. तिब्बती संस्कृति, भाषा और धर्म का यहां के लोगों पर गहरा प्रभाव पड़ा, जो आज भी लद्दाख की जीवनशैली में दिखता है. लगभग 10वीं शताब्दी में ल्हा-चेन पालगिगोन ने लद्दाख को स्वतंत्र राज्य के रूप में स्थापित किया. इस के बाद कई सदियों तक लद्दाख पर स्थानीय राजाओं का शासन रहा. लेह पैलेस और कई मठ, जैसे थिकसे, हेमिस, अलची आदि इन्हीं शासकों ने बनवाए. 17वीं शताब्दी में लद्दाख के राजा सेनगे नामग्याल जिन को “लायन किंग” कहा जाता है, ने लेह पैलेस और हेमिस मठ का निर्माण कराया.
1834 में जम्मू के डोगरा सेनापति जनरल जुरावर सिंह ने लद्दाख को जीत कर जम्मूकश्मीर की रियासत में मिला दिया. इस के बाद लद्दाख जम्मूकश्मीर का हिस्सा बन गया. ब्रिटिश शासन के दौरान लद्दाख सिल्क रूट और मध्य एशिया की ओर जाने वाला सामरिक दरवाजा बना. 1947 में भारत की आजादी के बाद यह जम्मूकश्मीर राज्य के अधीन रहा.
1947 में पाकिस्तान ने जब कबायलियों के जरिए लद्दाख पर हमला किया तब भारतीय सेना ने लद्दाख को बचाया. 1962 के भारतचीन युद्ध में लद्दाख अहम युद्धक्षेत्र रहा. काराकोरम और गलवान घाटी जैसे इलाके आज भी सामरिक दृष्टि से बेहद संवेदनशील हैं. 2019 में अनुच्छेद 370 हटने के बाद, लद्दाख को जम्मूकश्मीर से अलग कर केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा दिया गया.
‘भारत के नेपोलियन’ डोगरा योद्धा जोरावर सिंह
लद्दाख के जम्मू कश्मीर में विलय की कहानी भी दिलचस्प है. उसे जानने के लिए लद्दाख, तिब्बत, बाल्टिस्तान जैसे क्षेत्रों को जीतने वाले महान सेनापति जोरावर सिंह कहलुरिया को जानना बेहद जरूरी है. डोगरा योद्धा जोरावर सिंह कहलुरिया को ‘भारत का नपोलियन’ भी कहा जाता है, क्योंकि उन्होंने देश की सीमाओं का चीन के बौर्डर तक विस्तार किया. जोरावर सिंह सिर्फ एक योद्धा ही नहीं थे, बल्कि वह पंजाब की आजादी और क्षेत्रीय सुरक्षा के लिए समर्पित महान देशभक्त भी थे. उन का योगदान पंजाब के इतिहास में अमूल्य है. आज भी उन्हें पंजाब के इतिहास में गर्व के साथ याद किया जाता है.
उत्तर भारत के साम्राज्य को विस्तार देने में जोरावर सिंह का बड़ा योगदान है. उन का जन्म 1784 में हिमाचल के कांगड़ा जिले के एक गांव में हुआ था. उन का गांव कहलुर नाम की एक रियासत का हिस्सा था और इसी वजह से उन का नाम जोरावर सिंह कहलुरिया पड़ा. परिवार में जमीन विवाद की वजह से उन्होंने अपना गांव छोड़ दिया और रोजगार की तलाश में हरिद्वार चले गए. हरिद्वार में उन की मुलाकात राणा जसवंत सिंह से हुई, जो जम्मू कश्मीर में एक जमींदार थे. राणा जसवंत सिंह के साथ ही उन्होंने जम्मूकश्मीर में युद्ध के कौशल सीखे और जल्द ही इस प्रशिक्षण को आजमाने का वक्त भी आ गया.
साल 1800 में महाराजा रणजीत सिंह ने सिखों के एक साम्राज्य की स्थापना कर ली थी. उन्हें अब योद्धाओं की जरूरत थी. जोरावर सिंह ने पहले रणजीत सिंह की सेना में नौकरी की और बाद में वह कांगड़ा के राजा संसार चंद के साथ चले गए. साल 1817 में जोरावर सिंह की जिंदगी में एक बड़ा बदलाव आया, जब उन्हें जम्मू के डोगरा सरदार मिया किशोर सिंह जमवाल की सेवा में जाने का मौका मिला. महाराजा रणजीत सिंह ने साल 1808 जम्मू पर जीत हासिल कर उसे अपनी रियासत बना लिया था और वहां की सत्ता किशोर सिंह को सौंप दी थी.
किशोर सिंह के बेटे गुलाब सिंह की नजर जोरावर सिंह पर पड़ी और उन्होंने जोरावर को भीमगढ़ नाम के किले का नेतृत्व सौंप दिया. साल 1819 में जोरावर सिंह के कंधे पर एक और बड़ी जिम्मेदारी आई. महाराजा रणजीत सिंह ने कश्मीर का एक बड़ा इलाका गुलाब सिंह के सुपुर्द कर दिया और गुलाब सिंह राजा बन गए. उन्होंने अपने सब से खास जोरावर सिंह को किश्तवाड़ सहित कई जागीरों का गवर्नर बना दिया. वह डोगरा रियासत में राजा के बाद सब से ताकतवर शख्स बन गए. कमान संभालते ही जोरावर सिंह ने अपनी सीमाओं का विस्तार करने की योजना बनाई.
जोरावर सिंह को अपनी पहली बड़ी जीत लद्दाख में मिली. उस से पहले तक लद्दाख में बौद्धों का शासन था और वह तिब्बत को टैक्स चुकाया करते थे. लद्दाख तब काफी अहम होता था, क्योंकि तिब्बत से अफगानिस्तान तक जाने वाला ट्रेड रूट लद्दाख से होकर जाता था. यहां मिलने वाली ऊनी शौल की दुनिया भर में काफी मांग थी. कश्मीर के राजा गुलाब सिंह लंबे वक्त से लद्दाख को डोगरा शासन के अधीन लाना चाहते थे. यह मौका उन्हें 1834 में मिला.
उस साल लद्दाख के स्थानीय गवर्नर ने स्थानीय शासक से बगावत कर दी और उस ने गुलाब सिंह से मदद मांगी. गुलाब सिंह के लिए यह लद्दाख में पैर जमाने का बड़ा मौका था. इसलिए उन्होंने जोरावर सिंह की अगुवाई में लद्दाख के लिए डोगरा फौज को रवाना कर दिया. 5000 फौजी ले कर जोरावर सिंह करगिल तक पहुंचे. यहां हुई एक लंबी लड़ाई के बाद डोगरा फौज ने जीत हासिल की. युद्ध के बाद हुई एक संधि के तहत लद्दाख के शासक ने राजा गुलाब सिंह की अधीनता को स्वीकार कर लिया और इस तरह लद्दाख डोगरा शासन और सिख साम्राज्य के अधीन आ गया.
हालांकि जोरावर जब लद्दाख में जीत का झंडा लहरा रहे थे, ठीक इस समय कश्मीर में उन के खिलाफ एक साजिश की शुरुआत हो रही थी. कश्मीर के गवर्नर मियां सिंह की गुलाब सिंह के साथ रंजिश थी. जोरावर की जीत से हताश हो कर उन्होंने लद्दाख में डोगरा शासन के खिलाफ विद्रोह भड़काना शुरू कर दिया. इस का नतीजा था कि अगले 5 साल में कारगिल से ले कर लेह तक गुलाब सिंह के खिलाफ बगावत शुरू हो गई. किलों पर कब्जा कर डोगरा फौजियों को मार डाला गया. इस बात से गुस्सा हो कर जोरावर सिंह ने 3000 सैनिकों को इकट्ठा किया और लद्दाख पर एक बार फिर हमला कर दिया.
इस बार उन्होंने लद्दाख को जागीर नहीं रहने दिया, उस का पूरी तरह जम्मू कश्मीर में विलय कर दिया. लद्दाख जीतने के कारण जोरावर सिंह का पूरे सिख साम्राज्य में नाम हो चुका था. हालांकि वह यहीं पर नहीं रुके. साल 1840 में उन्होंने काराकोरम के पार बाल्टिस्तान का रुख किया. यहां भी शाही परिवार में हुई बगावत ने जोरावर सिंह को मौका दिया. आखिर में बाल्टिस्तान भी डोगरा राजाओं के शासन के अधीन आ गया. इस के बाद उन्होंने तिब्बत के कई इलाकों पर अपना साम्राज्य स्थापित किया.
12 दिसंबर 1841 को जोरावर सिंह तिब्बतियों के खिलाफ अपनी आखिरी लड़ाई लड़ रहे थे, तभी उन के कंधे में एक गोली लगी. बावजूद इस के योद्धा ने लड़ना जारी रखा. फिर एक तिब्बती कमांडर ने जोरावर सिंह पर भाले से वार किया और उन्हें वीरगति हासिल हुई. जोरावर सिंह की बहादुरी देख दुश्मन ने भी सम्मान के साथ उन का अंतिम संस्कार किया. तिब्बतियों ने तकलाकोट पर उन की समाधि बनाई और उन के नाम पर एक स्मारक भी बनवाया. आज जब लद्दाख हिंसा की आग में सुलग रहा है तो हमें जोरावर सिंह जैसे महान योद्धा के बलिदान को नहीं भूलना चाहिए. डोगरा सेनापति के पराक्रम और युद्ध कौशल की वजह से ही लद्दाख भारत का हिस्सा बना था. Ladakh Protest





