India China Relations : अमेरिका और भारत की खींचतान अब नहीं बल्कि डोनाल्ड ट्रंप के राष्ट्रपति बनने से ही शुरू हो गई थी. वही ट्रंप जो कभी प्रधानमंत्री मोदी के जिगरी दोस्त कहे जाते थे. बेशक यह दो देशों की नहीं बल्कि उन के शीर्ष नेताओं की अकड़ है जिसे दोनों देशों की जनता भुगत रही है. मगर इस का त्वरित अंजाम भारत का चीन के करीब आने का दांव समझ से परे है. यह वही चीन है जिसे हमारा प्रतियोगी माना जाता है. आखिर चीन के करीब जा कर भारत क्या हासिल कर पाएगा?

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की टैरिफ नीति ने पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था पर असर डाला है. ट्रंप के टैरिफरूपी बम ने वैश्विक व्यापार को तो अस्थिर किया ही है, कई देशों के सामने एकदूसरे के नजदीक आने की मजबूरी भी पैदा की है, जो पहले कई मसलों पर एकदूसरे के विरोधी रहे हैं. अमेरिकी टैरिफ नीति के चलते भारत अपने प्रतिद्वंद्वी चीन के आगे दोस्ती का हाथ बढ़ाने के लिए मजबूर दिख रहा है. मोदी सरकार को लग रहा है कि यदि वे चीन के साथ सहयोग बढ़ाएंगे तो शायद वे अमेरिकी दबाव को संतुलित कर लेंगे लेकिन शायद वे भूल गए कि चीन के साथ हमारा भू-राजनीतिक तनाव, सुरक्षा चुनौतियां और एशिया में रणनीतिक वर्चस्व की होड़ लंबे समय से जारी है.

दोनों देशों में एकदूसरे के प्रति घोर अविश्वास भी है और चीन की हमारे दुश्मन देश पाकिस्तान से नजदीकियां भी हमारे लिए नुकसानदायक साबित होती रही हैं. ऐसे में भारत ट्रंप के टैरिफ से डर कर चीन से गलबहियां करने लगे तो यह कोई अच्छी सम?ा की निशानी नहीं है. इस ‘दोस्ती’ से जहां अमेरिका के साथ हमारी बात पूरी तरह बिगड़ जाएगी वहीं व्यापार के मामले में चीन को फायदा होगा जबकि भारत को नुकसान ही होगा. भारत और चीन के रिश्तों में मजबूती और विश्वास पैदा होना बिलकुल अविश्वसनीय बात है. सवाल यह भी है कि क्या चीन ने पूर्वी लद्दाख में 5 साल से कब्जाए क्षेत्र को खाली कर दिया है? जवाब है नहीं. तो फिर, बीजिंग के साथ नई दिल्ली का व्यवहार सामान्य और मजबूत कैसे हो सकता है?

किसी भी स्थिति में पाकिस्तान का सदाबहार साथी चीन भारत के लिए कभी भी इतना उदार नहीं होगा कि वह अमेरिका से होने वाले भारतीय निर्यात के नुकसान की भरपाई कर सके. केवल यूरोपीय संघ ही ऐसा कर सकता है, लेकिन उस में भी अच्छाखासा वक्त लगेगा और मोदी ब्रुसेल्स के साथ आर्थिक संबंधों को उस स्तर पर ले जाने के करीब भी नहीं हैं.

अमेरिका है भारत का बड़ा ट्रेड पार्टनर

गौरतलब है कि पिछले 4 सालों से अमेरिका भारत का सब से बड़ा ट्रेड पार्टनर रहा है. 2024-25 में भारत का अमेरिका के साथ द्विपक्षीय व्यापार 131.84 अरब डौलर का था. मगर अब अमेरिका में प्रवेश करने वाले भारतीय सामान पर 50 फीसद का टैरिफ भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए बड़ा झटका है. मोदी सरकार ने इस बाबत पहले से कोई तैयारी नहीं की थी जबकि राष्ट्रपति के रूप में अपने पहले कार्यकाल के दौरान ट्रंप के अनिश्चित व्यवहार को देखते हुए कई देशों ने अपने निर्यात में विविधता लानी शुरू कर दी थी और उन्होंने नए बाजार देख लिए थे. मोदी को ऐसी कोई युक्ति नहीं सू?ा क्योंकि वे तो ट्रंप के साथ कभी खत्म न होने वाली दोस्ती के सपने में खोए हुए थे.

अब अगर अमेरिका के साथ इतना बड़ा व्यापार बाधित होता है तो भारत की अर्थव्यवस्था पर असर पड़ना लाजिमी है. ऐसे में भारत के सामने 2 विकल्प हैं, पहला कि वह अमेरिका के साथ संबंध सुधारे और दूसरा, वह नए बाजार की तलाश करे. फिलहाल मोदी सरकार ने दूसरे विकल्प को चुना है. उस ने अमेरिका से संबंध सुधारने के बजाय चीन की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ा दिया है.

ब्लूमबर्ग ने अपनी एक रिपोर्ट में लिखा है, ‘‘अमेरिका दुनिया की सब से बड़ी अर्थव्यवस्था है और चीन दूसरे पायदान पर है. भारत भी एक उभरती हुई अर्थव्यवस्था है. ऐसे में अमेरिका और चीन दोनों से भारत को अच्छे संबंध रखने चाहिए. भारत अगर डिप्लोमैसी के बदले अमेरिका के सामने ?ाकने से इनकार करना चुनता है तो उसे अपना सब से बड़ा ट्रेड पार्टनर और दुनिया का सब से बड़ा कंज्यूमर मार्केट खोना पड़ सकता है.

‘‘चीन के साथ भाईचारा बढ़ाना या देश में आर्थिक सुधार जैसे कदम अच्छे हैं लेकिन इस से अमेरिका की जगह की भरपाई नहीं हो पाएगी.’’ अमेरिका की अर्थव्यवस्था 35 से 40 ट्रिलियन डौलर है, चीन की 19 से 20 और भारत की 4 ट्रिलियन डौलर के आसपास. ट्रंप की नाराजगी

ट्रंप की नाराजगी दरअसल निजी है और उन का निशाना मोदी हैं लेकिन इस का असर भारत देश पर पड़ा है. ट्रंप इस बात से नाराज हैं कि मोदी सितंबर 2024 में अपनी अमेरिकी यात्रा के दौरान उन से मिलने नहीं गए. इस साल फरवरी में ट्रंप के दोबारा राष्ट्रपति चुने जाने पर पहले तो मोदी को इनविटेशन ही नहीं मिला, बाद में मोदी ने दोस्ती निभाने की कोशिश की और वे व्हाइट हाउस भी गए, लेकिन इस का कोई फायदा नहीं हुआ. इस के बाद पाकिस्तान के साथ हुई सैन्य ?ाड़प के बाद जब मोदी ने संघर्ष विराम कराने में अमेरिकी राष्ट्रपति की भूमिका होने की बात नहीं मानी तो ट्रंप का अहं आहत हो गया.

ट्रंप ने 2 दर्जन से ज्यादा बार यह कहा कि भारत व पाक युद्ध उन के कारण रुका, मगर मोदी ने एक बार भी यह बात स्वीकार नहीं की. जबकि, पाकिस्तान ने मोदी द्वारा ‘प्रदान’ किए गए अवसर का फायदा उठाया और अमेरिका के साथ अपने पुराने सैन्य संबंधों को फिर से जीवित करते हुए औपरेशन सिंदूर रुकवाने के लिए ट्रंप का हार्दिक धन्यवाद किया. यही नहीं, मोदी और भारत को चिढ़ाने के लिए पाकिस्तान ने ट्रंप को नोबेल शांति पुरस्कार के लिए नामांकित भी किया.

12 अगस्त को अमेरिकी विदेश विभाग की प्रवक्ता टैमी ब्रूस ने कहा, ‘‘हम ने महसूस किया कि भारत और पाकिस्तान का संघर्ष काफी भयानक रूप ले सकता था. यह चिंता का विषय था और उपराष्ट्रपति, राष्ट्रपति और विदेश मंत्री ने तत्काल कार्रवाई की. हम ने फोनकौल की प्रकृति, हमलों को रोकने के लिए किए गए हमारे काम और फिर सभी पक्षों को एकसाथ लाने के बारे में बताया, ताकि हम एक स्थायी परिणाम प्राप्त कर सकें. यह एक बहुत ही गर्व का क्षण है और इस बात का बेहतरीन उदाहरण है कि हमारे विदेश मंत्री रुबियो और उपराष्ट्रपति वेंस इस बात के लिए प्रतिबद्ध हैं. इस देश के शीर्ष नेता उस संभावित तबाही को रोकने में शामिल थे.’’

उधर, मोदी ने वेंस के फोनकौल की बात तो स्वीकार की मगर इस बात से इनकार किया कि उन्होंने किसी दबाव में आ कर औपरेशन सिंदूर को खत्म किया. मोदी ने इस सच से कन्नी इसलिए भी काटी कि कहीं उन की सरकार पर बट्टा न लगे, उन की 56 इंच की छाती और लाल आंखों पर विपक्ष सवाल न उठाए. हकीकत यही है कि उन्होंने दबाव में आ कर औपरेशन सिंदूर को रोका और यह सच दुनिया से छिप भी न सका.

युद्ध रुकवाने का क्रैडिट किसे

गौरतलब है कि तीसरे पक्ष की मध्यस्थता को स्वीकार करना तकनीकी रूप से 1972 के इंदिरा गांधी और जुल्फिकार अली भुट्टो के बीच हुए शिमला सम?ाते का उल्लंघन है, जो भारत और पाकिस्तान को अपने मतभेदों को द्विपक्षीय रूप से सुल?ाने के लिए प्रतिबद्ध करता है. इस सम?ाते का उल्लंघन भारत और पाकिस्तान दोनों ने किया परंतु पाकिस्तान ने जहां ट्रंप की भूमिका को स्वीकार कर अमेरिका के साथ संबंध कुछ ठीक कर लिए, वहीं मोदी ने इस बात से इनकार कर संबंध बिगाड़ लिए.

भारत के लिए और भी असुविधाजनक बात यह रही कि बू्रस ने यह भी खुलासा कर दिया कि हाल ही में इसलामाबाद में ‘अमेरिका व पाकिस्तान आतंकवादरोधी बातचीत’ हुई. उन्होंने कहा कि इस मौके पर ‘अमेरिका और पाकिस्तान ने आतंकवादी खतरों से निबटने के लिए सहयोग बढ़ाने के तरीकों पर चर्चा की.’ दूसरे शब्दों में, अमेरिका ने पाकिस्तान को आतंकवाद फैलाने वाला देश मानने के बजाय उसे आतंकवाद से लड़ने में एक सहयोग देने वाला बताया. साफ है, पाकिस्तान के बारे में मोदी की बातें वाशिंगटन ने पूरी तरह अनसुनी कर दीं.

चीन से नजदीकियों के मायने

अब चीन के साथ भारत की जो गलबहियां चल रही हैं उस ने आग में घी डालने का ही काम किया है. इस में दोराय नहीं कि मोदी सरकार के इस रवैए का खमियाजा भारतीय किसान और व्यापारियों को बहुत बुरा भुगतना पड़ेगा. इस के अलावा इंडो-पैसिफिक रणनीति पर भी इस का बुरा असर होगा क्योंकि अमेरिका भारत को चीन के बढ़ते प्रभाव को संतुलित करने वाला सा?ोदार मानता रहा है. भारत अगर चीन के करीब जाएगा तो अमेरिका की इस रणनीति को ?ाटका लगेगा और वह उस का बदला भारत से जरूर लेगा. बड़ी बात यह है कि अमेरिका और चीन के बीच ‘ठंडी जंग’ जैसी स्थिति बन रही है. ऐसे में भारत का ?ाकाव चीन की तरफ होने पर अमेरिका को यह अपने खिलाफ एक कदम लगेगा.

भारत व चीन की नजदीकी ‘क्वाड’ की मजबूती को भी कमजोर करेगी. अमेरिका, जापान, आस्ट्रेलिया और भारत मिल कर क्वाड के जरिए चीन को चुनौती देते हैं. भारत का चीन की तरफ ?ाकाव इस मंच की एकजुटता को कमजोर कर देगा. भारत और अमेरिका के बीच हाल के वर्षों में कई रक्षा सम?ाते, हथियारों की खरीद और टैक्नोलौजी सा?ोदारी भी तेज हुई थी, मगर अब चीन से दोस्ती होने पर अमेरिका इन सम?ातों को धीमा कर सकता है.

इस के अतिरिक्त अमेरिका भारत में भारी निवेश करता है और टैक्नोलौजी क्षेत्र में वह हमारा बड़ा सहयोगी है. अगर भारत चीन की तरफ ज्यादा ?ाकेगा तो अमेरिका निवेश व व्यापार नीतियों में सख्ती ला सकता है. इन तमाम संकटों की तरफ से मोदी सरकार आंखें मूंदे हुए है.

अमेरिका से मनमुटाव के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चीन के तियानजिन में 31 अगस्त से एक सितंबर तक आयोजित एससीओ यानी शंघाई कोऔपरेशन और्गनाइजेशन समिट में शामिल हुए. प्रधानमंत्री मोदी 7 साल बाद चीन गए. मोदी का यह दौरा ऐसे माहौल में हुआ जब पूर्वी लद्दाख में अप्रैल 2020 से पहले की यथास्थिति बहाल नहीं हो पाई है. चीन ने 2020 के बाद कई बार अरुणाचल प्रदेश के कई इलाकों का मंदारिन में नामकरण किया है. चीन अरुणाचल प्रदेश को दक्षिणी तिब्बत कहता है. फिर 2022 में जब भारत में जी-20 समिट हुआ तो उस में चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग शामिल नहीं हुए. इन सब मुद्दों को मोदी नजरअंदाज कर रहे हैं. इसलिए मोदी की चीन यात्रा को अमेरिका के साथ भारत के खराब होते संबंधों से जोड़ कर ही देखा जा रहा है.

हालांकि, इस समय भारत को रणनीतिक संतुलन बनाए रखने की बहुत जरूरत है. यानी, बढ़े टैरिफ के बावजूद अमेरिका के साथ सा?ोदारी और चीन के साथ सीमित सहयोग, ताकि किसी एक देश को पूरी तरह न नाराज किया जाए. सच तो यह है कि इन तीनों देशों के रिश्तों की नींव रणनीतिक हितों और आर्थिक जरूरतों पर टिकी है, न कि भावनात्मक या गहरी वैचारिक निकटता पर.

मतलबपरस्ती के संबंध

अमेरिका और चीन दोनों के साथ ही भारत के संबंधों में गरमजोशी नहीं है. जो है वह खालिस मतलबपरस्ती है. ऐसा तब है जब अमेरिका और चीन दोनों ही भारत के शीर्ष के कारोबारी सा?ोदार हैं. ऐसे में भारत को अपनी कूटनीति में यह संतुलन बनाए रखना चाहिए ताकि आर्थिक फायदे भी मिलते रहें और सुरक्षा के मोरचे पर भी कोई बड़ा खतरा न खड़ा हो.

अमेरिका को नाराज कर के चीन से दोस्ती दिखाना भारत को भारी आर्थिक मुसीबत में डालने वाला कदम है. चीन के लिए भारत बहुत बड़ा बाजार है, जबकि भारत ऐसी वस्तुएं बहुत कम बनाता है जो चीन के बाजारों में खप सकें. इस असंतुलन का सीधा फायदा चीन को होगा. इस कारण भारत हमेशा कमजोर स्थिति में रहेगा. यह अंधी दोस्ती भविष्य में भारतीय व्यापारियों और उद्योगों के लिए खतरा बन जाएगी. माल न खपने पर मांग कम होगी, बड़ी संख्या में उद्योगधंधे बंद हो जाएंगे और लोग अपनी नौकरियां खो देंगे.

चीन के साथ अविश्वास से भरा इतिहास

थोड़ा ही पीछे जाएं तो हम देखेंगे कि भारत व चीन संबंधों का इतिहास संघर्षों और अविश्वास से भरा रहा है. 1962 का युद्ध, सीमा विवाद और गलवान जैसी घटनाएं हमारे सामने हैं. चीन राजनीतिक और सैन्य दबाव बनाने में माहिर है. 1947 में भारत की आजादी और 1949 में चीन की साम्यवादी क्रांति के बाद दोनों देशों ने ‘हिंदी चीनी भाईभाई’ का नारा अवश्य दिया था पर सीमा विवाद और तिब्बत का मुद्दा दोनों के रिश्तों में तनाव का कारण बन गया. भारत व चीन संबंधों में सब से बड़ा मोड़ 1962 का युद्ध रहा. यह युद्ध सीमा विवाद, अक्साई चिन और अरुणाचल प्रदेश को ले कर हुआ और भारत को हार का सामना करना पड़ा. इस के बाद दोनों देशों के रिश्तों में गहरी दरार पड़ गई.

भारत व चीन सीमा पर वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर अकसर तनाव देखने को मिलता है. 2017 का डोकलाम विवाद और 2020 की गलवान घाटी की ?ाड़प हमारे समक्ष बड़े उदाहरण हैं और अब पाकिस्तान से चीन की दोस्ती भारत को लगातार परेशान कर रही है. हालिया भारत व पाक युद्ध में पाकिस्तान को चीन की मदद मिली. चीन ने भारत से लड़ने के लिए पाकिस्तान को अपने हथियार दिए.

चीन का ‘बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव’ और पाकिस्तान से उस की निकटता किसी से छिपी नहीं है. चीन लगातार सीमा पर सड़कें, हवाई पट्टियां और सैन्य ठिकाने बना रहा है, जिस से भारत की सुरक्षा संकट में है. चीन का पाकिस्तान-चीन आर्थिक कौरिडोर (सीपीईसी), जो पाक अधिकृत कश्मीर (पीओके) से गुजरता है, भारत की संप्रभुता को चुनौती देता है. पाकिस्तान को चीन की सैन्य और परमाणु तकनीक मदद भारत के लिए दोहरा खतरा है.

गौरतलब है कि चीन ‘स्ंिट्रग औफ पर्ल्स’ रणनीति के तहत श्रीलंका, म्यांमार, मालदीव और बंगलादेश में बंदरगाह बना रहा है. इस से हिंद महासागर में भारत की पारंपरिक बढ़त को चुनौती मिलती है. चीन संयुक्त राष्ट्र और अन्य अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर पाकिस्तान के पक्ष में खड़ा रहता है, जैसे कश्मीर के मुद्दे पर. चीन का उद्देश्य भारत को एशिया में संतुलित शक्ति बनने से रोकना है.

कहना गलत न होगा कि सीमा सुरक्षा, आर्थिक प्रतिस्पर्धा, समुद्र्री घेराबंदी और कूटनीतिक दबाव के अंतर्गत भारत के लिए चीन एक बहुआयामी चुनौती है. ऐसे में सिर्फ टैरिफ के डर से अमेरिका से दूरी और चीन से निकटता बनाना भारत के दीर्घकालिक हित में नहीं है. जो दोस्ती भरोसे की नींव पर नहीं बल्कि आर्थिक मजबूरी के कारण बनाई जा रही है उस दोस्ती का दूर तक निभना मुश्किल है. ऐसे में भारत को संतुलित रणनीति अपनानी चाहिए. अमेरिका और यूरोप जैसे बड़े बाजारों को बनाए रखना और चीन पर निर्भरता कम करना ही ज्यादा उचित होगा.

भारत का किस के साथ फायदा

गौरतलब है कि चीन भारत को इलैक्ट्रौनिक्स, मशीनरी, दवाओं के कच्चे पदार्थ आदि निर्यात करता है, जबकि भारत चीन को लौहअयस्क, कपास और केवल कच्चा माल भेजता है. वहीं, टैक्नोलौजी, रक्षा, निवेश, आईटी सैक्टर को ले कर भारत व अमेरिका के संबंध मजबूत हैं. अमेरिका आईटी, रक्षा, ऊर्जा और उच्च तकनीक में सब से बड़ा सहयोगी बन सकता है. क्वाड यानी भारत, अमेरिका, जापान, आस्ट्रेलिया सहयोग के जरिए इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में चीन को बैलेंस कर के रखा जा सकता है.

अमेरिका के साथ मजबूत रिश्ते से भारत की अंतर्राष्ट्रीय स्थिति और कूटनीतिक ताकत भी बढ़ती है. जबकि, चीन पाकिस्तान का सब से बड़ा सहयोगी है, वह पाकिस्तान के हित में भारत पर किसी भी प्रकार का दबाव बना सकता है. सो, भारत की चिंताएं और बढ़ सकती हैं. चीन से व्यापार घाटा बहुत बड़ा है. भारत की इंडस्ट्री चीनी सामान पर और ज्यादा निर्भर हो सकती है. इस के इतर मैन्युफैक्चरिंग इंडस्ट्री व तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था में हम चीन से काफी पीछे हैं. इस के कई कारण हैं. सब से बड़ा कारण चीनी नागरिकों की सोच है.

चीनी युवा कुशल, कर्मठ और राष्ट्रवादी

भारत और चीन दोनों देशों के युवा आबादी का बड़ा हिस्सा हैं और भविष्य की दिशा तय करते हैं. लेकिन ये युवा कई मामलों में काफी अलग हैं. यह फर्क मुख्य रूप से समाज, शिक्षा, राजनीति, रोजगार, संस्कृति, सोच और धर्म के क्षेत्र में है.

भारत में शिक्षा का स्तर असमान है. आईआईटी और आईआईएम जैसे टौप संस्थान तो विश्वस्तरीय हैं लेकिन ग्रामीण व सामान्य सरकारी शिक्षा का ढांचा बहुत कमजोर है. युवाओं में प्रतियोगी परीक्षाओं का दबाव बहुत है. वहीं चीन की शिक्षा प्रणाली बेहद अनुशासित और कठोर है. वहां ‘गोओकाओ एग्जाम’ बहुत कठिन माना जाता है. चीन के युवा तकनीक और विज्ञान शिक्षा में आगे हैं.

रोजगार और कैरियर के क्षेत्र में भारतीय युवा नौकरी की कमी से जू?ा रहे हैं क्योंकि सरकार नौकरी देने में सक्षम नहीं है. लिहाजा, युवाओं का सारा ध्यान जानबू?ा कर धर्म की ओर मोड़ा जा रहा है. वे कांवड़ यात्राओं को प्रोत्साहित करते हैं. कांवडि़यों पर पुष्पवर्षा करते हैं, उन के चरण पखारते हैं, मानो वे कोई अंतरिक्षयान उड़ाने जा रहे हों. धार्मिक पर्यटन को महिमामंडित किया जाता है जबकि हर साल सैकड़ों घटनाओं में धार्मिक यात्री अपनी जान से हाथ धो रहे हैं. युवाओं के पास करने को कामधंधा नहीं है तो वे कर्ज ले कर नए स्टार्टअप खोल रहे हैं और सालदोसाल में सारी पूंजी गंवा कर बड़े कर्जे में डूब रहे हैं. कौशल की कमी के कारण अवसाद बढ़ रहा है, आत्महत्या के मामले बढ़ रहे हैं. दूसरी ओर चीन में राज्य नियंत्रित औद्योगिक ढांचा बहुत मजबूत है.

मैन्युफैक्चरिंग और टैक्नोलौजी कंपनियां ज्यादा हैं. वहां स्किल की कमी नहीं है. बचपन से ही बच्चों को पढ़ाई के साथ किसी न किसी स्किल में माहिर बना दिया जाता है. इस के अलावा उन की सेहत पर पूरा ध्यान दिया जाता है. वे ऊर्जावान हैं. आशावादी हैं. कोई भी समस्या हो उस का समाधान ढूंढ़ते हैं, हमारे युवाओं की तरह भगवान को दोष नहीं देते, न ही व्रत, पूजा, आरती कर भगवान को खुश करने की कोशिश करते हैं. न ही काम बनाने के लिए भगवान को रिश्वत की पेशकश करते हैं. भारतीय युवा समाज, परिवार और परंपराओं से बंधे हुए हैं. शादी, बच्चे, धर्म और जाति का असर हम पर इतना गहरा है कि हम इस से इतर कुछ सोच ही नहीं पाते जबकि चीन में परंपराओं की तुलना में आधुनिकता, स्किल डैवलपमैंट और ‘राज्यनिष्ठा’ ज्यादा है. युवाओं पर ‘कंपनी और देश के प्रति वफादारी’ का दबाव ज्यादा है. चीनी युवा काफी प्रैक्टिकल और अनुशासित हैं. वे सामूहिक सफलता को व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षाओं से ऊपर रखते हैं.

भारतीय युवा परंपराओं और धर्म से जुड़े हैं. उन का अधिकांश समय, रुपया और ऊर्जा धार्मिक कर्मकांडों, ?ाड़पों और दिखावों में बीतता है, जबकि चीनी युवा अधिक अनुशासित, कर्मठ, टैक्नोलौजी उन्मुख और राष्ट्रवादी हैं. उधर, अमेरिका चीन के बढ़ते वर्चस्व से हमेशा खार खाता है, खासकर, कोरोना महामारी के बाद तो वह चीन से खासा नाराज है और उस को औकात में रखना चाहता है. अतीत के वर्षों में शंघाई और अन्य बंदरगाहों में अमेरिका की कोलोनियल चौकियां भी रही हैं.

अमेरिका सदियों से चीनी गतिविधियों पर गहरी नजर जमाए हुए है. कोलोनियल चौकियों में अमेरिकी व्यापारियों और सैनिकों को वहां विशेषाधिकार प्राप्त थे और ये क्षेत्र चीनी संप्रभुता से बाहर हो कर विदेशी शक्तियों के नियंत्रण में चलते थे. इसे इतिहास में ‘चीन में अमेरिकी कोलोनियल चौकियां’ भी कहा जाता है. 1844 की वांग्हिया संधि के बाद अमेरिका को चीन में व्यापार करने का अधिकार मिल गया था तब अमेरिका के व्यापारियों और मिशनरियों ने चीन के कई बंदरगाहों- कैंटन, शंघाई, टियानजिन आदि में अपनी कोलोनियल चौकियां स्थापित कर ली थीं. उन में वहां अमेरिकी व्यापारी, मिशनरी और सैनिक मौजूद रहते थे और यह इलाका चीनी कानून से बाहर था और वहां विदेशी पुलिस व प्रशासन चलता था. यानी, अमेरिकी नागरिक चीन में चीनी कानून के बजाय अमेरिकी कानून के अधीन रहते थे. अमेरिकी कौंसुलेट ही उन के लिए न्याय और प्रशासन का केंद्र था.

वर्ष 1900 के बौक्सर विद्रोह के समय अमेरिका ने अन्य औपनिवेशिक शक्तियों के साथ मिल कर चीन में सैनिक भेजे. बाद में भी अमेरिकी मैरीन शंघाई और अन्य बंदरगाहों में लंबे समय तक तैनात रहे. इस तरह अमेरिका काफी लंबे समय से चीन की निगरानी कर रहा है. वह चीन की ताकत को समझता है और उसे संतुलित रखने के लिए भारत को इस्तेमाल करता है. अब जबकि भारत खुद चीन की तरफ ?ाक रहा है तो अमेरिका का उत्तेजित और गुस्सा होना सम?ा जा सकता है.

अमेरिका को भारत से बड़ा निर्यात

अमेरिका में भारतीय उत्पादों की खपत अच्छी है. अमेरिका भारतीय आईटी कंपनियों, जैसे इनफोसिस, टीसीएस, विप्रो आदि का सब से बड़ा ग्राहक है. भारतीय कपड़े, रैडीमेड गारमैंट्स और होम टैक्सटाइल की मांग अमेरिका में काफी ज्यादा है. हीरे और अन्य रत्न अमेरिका में भारत से सब से अधिक आयात किए जाने वाले उत्पादों में शामिल हैं. अमेरिका में इस्तेमाल होने वाली जेनेरिक दवाओं का बड़ा हिस्सा भारत से जाता है. भारत अमेरिका को औटोमोबाइल पार्ट्स, स्टील उत्पाद और अन्य इंजीनियरिंग गुड्स भी निर्यात करता है. भारतीय मसाले, चाय, कौफी और रेडी टू ईट फूड्स अमेरिकी उपभोक्ताओं में लोकप्रिय हैं. ये सब काम चौपट हो जाएंगे यदि अमेरिका से भारत ने अपने रिश्ते नहीं सुधारे. दो महामानवों का अहं लाखोंकरोड़ों परिवारों की रोजीरोटी छीन लेगा.

अगर दोनों देशों के शीर्ष नेतृत्व के बीच अहं और टकराव रिश्तों को खत्म करते हैं तो इस का नुकसान सिर्फ कूटनीतिक स्तर पर नहीं बल्कि जमीनी स्तर पर भी होगा जब कंपनियों की कमाई घटेगी, नौकरियां जाएंगी और उद्योग ठप हो जाएंगे. इतिहास भी यही बताता है कि जबजब भारत और अमेरिका ने मिल कर काम किया, तबतब भारत को निवेश, तकनीक और निर्यात बाजार के रूप में भारी फायदा हुआ है. दूरी बढ़ने पर सब से पहले आम जनता प्रभावित होती है.

ये बातें प्रधानमंत्री मोदी की सम?ा में आती हैं तो ठीक है वरना भारत की आम जनता को बड़ी आर्थिक आपदा का सामना करने के लिए तैयार रहना होगा. अमेरिका को टैरिफ से कोई फर्क नहीं पड़ेगा क्योंकि भारत से अमेरिका में कुल 3 प्रतिशत मूल्य का सामान जाता है. अमेरिकियों को परेशानी यूरोप, कनाडा, मैक्सिको पर टैरिफ से है, भारत से नहीं. चीन और रूस मिल कर भी अमेरिकी बाजार की कमी पूरी नहीं कर सकते. India China Relations 

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