Trump Tariff News : अमेरिका ने भारत पर 50 प्रतिशत का टैरिफ लगा दिया है, टैरिफ लगने से भारत की मैन्युफैक्चरिंग इंडस्ट्री में नुकसान दिखने लगा है. अब भारत सरकार ने कूटनीति के तहत चीन के साथ रिश्ते सुधारने और रूस के साथ रिश्ते और मजबूत करने के कदम बढ़ाए हैं, जिस ने अमेरिका और भारत के बीच दूरी और बढ़ा दी है. इस का क्या परिणाम होगा, पढि़ए.
हम ऐसे भयावह आर्थिक दौर में हैं जहां न तो नौकरियां बढ़ रही हैं, न ही वेतन. लेकिन रोजमर्रा की जरूरतों की चीजों के दाम आसमान छू रहे हैं. सरकार जो भी दावे करे, लेकिन लोगों की थाली और जेब दोनों खाली हो रहे हैं. अब मोदी सरकार अपनी ऐंठ के कारण लाखों कारीगरों का रोजगार खत्म कर गरीबों को और भी गरीब बनाने पर तुली है. भारत अपना जो उत्पाद अमेरिका को निर्यात करता है, वे मजदूर वर्ग द्वारा तैयार किए जाते हैं.
कारखानों और उद्योगधंधों से जुड़े मजदूरों की संख्या लाखों में है. अब जबकि अमेरिका ने भारतीय उत्पादों पर 50 प्रतिशत टैरिफ लगा दिया है तो इस से निश्चित रूप से मांग में भारी गिरावट आएगी. मांग कम होने से उत्पादन कम करना पड़ेगा. जिस के चलते कारखाने और उद्योग ठप हो जाएंगे. व्यापारियों को अरबों रुपयों का नुकसान होगा और मजदूर वर्ग को बेरोजगारी का सामना करना पड़ेगा. मोदी सरकार अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप से नाराजगी मोल ले कर अगर यह सोच रही है कि वह चीन और रूस के साथ व्यापारिक संबंध तेज कर भारतीय व्यापारियों और श्रमिकों को होने वाले नुकसान की भरपाई कर लेगी तो ट्रंप का टैरिफ ऐसी मूर्ख सरकार के ताबूत में आखिरी कील साबित होगा.
विश्व व्यापार संगठन के सिद्धांतों का उल्लंघन कर के अमेरिका खुद एक टैरिफ महाशक्ति बन चुका है. 27 अगस्त से उस ने भारत से अमेरिका को निर्यात होने वाली ज्यादातर वस्तुओं पर 50 फीसदी का भारीभरकम टैक्स लगा दिया है, जबकि पिछले साल यह सिर्फ 3 फीसदी था. आखिर क्या वजह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ‘दोस्त’ ट्रंप उन से इतने नाराज हैं कि भारत पर 50 फीसदी टैरिफ लाद दिया गया है? आरबीआई के पूर्व गवर्नर और अर्थशास्त्री रघुराम राजन 50 फीसदी अमेरिकी टैरिफ को भारत के लिए एक चेतावनी बताते हैं. उन के अनुसार, व्यापार अब एक हथियार बन गया है और इस हथियार के जरिए अमेरिका ने भारत पर घातक हमला किया है. भारत के लिए किसी एक व्यापारिक सा?ोदार पर अत्यधिक निर्भर रहना एक आपदा है. आज की वैश्विक व्यवस्था में व्यापार, निवेश और वित्त का तेजी से हथियारीकरण हो रहा है और भारत को पहले ही सचेत हो जाना चाहिए था.
रघुराम राजन के अनुसार, हमें इस समय बेहद कूटनीतिक तरीके से अमेरिका को लुभाने की कोशिश करनी चाहिए, न कि चीन और रूस के साथ ज्यादा दोस्ताना व्यवहार दिखा कर ट्रंप का गुस्सा भड़काना चाहिए था, जैसा कि मोदी कर रहे हैं. राजन कहते हैं, ‘‘यह एक चेतावनी है कि हमें किसी एक देश पर बहुत ज्यादा निर्भर नहीं रहना चाहिए. हमें पूर्व की ओर, यूरोप की ओर, अफ्रीका की ओर देखना चाहिए मगर अमेरिका के साथ मिल कर आगे बढ़ना चाहिए. हमें ऐसे सुधार लागू करने चाहिए जो हमारे युवाओं को रोजगार प्रदान करने के लिए आवश्यक 8-8.5 फीसदी की विकास दर हासिल करने में हमारी
मदद करें.’’
ट्रंप भारत के साथ व्यापार बढ़ाना चाहते हैं और यह भी चाहते हैं कि भारत उन के उत्पादों पर लगाए गए भारी करों को हटा दे. ट्रंप अपने कृषि और डेयरी उत्पाद सस्ते में भारतीय बाजार में बेचना चाहते हैं, लेकिन इस से हमारे किसानों को नुकसान होगा. हालांकि मोदी सरकार ने खुद अपने किसानों की हालत खराब करने में कोई कोरकसर नहीं छोड़ी है. फिर भी अमेरिकी दबाव को तो राजनीतिक स्तर पर कूटनीतिक रूप से सुल?ाने की कोशिश होनी चाहिए थी. इस में सारा रोल विदेश नीति का था, जो मोदी सरकार में अपने निम्नतम स्तर पर है.
याद रखना होगा दूसरे देशों में अपना ट्रेड खुलवाने के लिए अमेरिका किसी भी हद तक जा सकता है. उस के अतीत के किस्से उस की प्रकृति बताते हैं. कमांडर मैथ्यू पेरी ने जापान से अमेरिकी व्यापार खुलवाने के लिए ‘गनबोट डिप्लोमैसी’ यानी तोपों की ताकत का सहारा ले कर जापान को ट्रेड खोलने के लिए मजबूर किया था. 1603 से 1853 तक जापान में टोकुगावा शोगुनेट की सरकार थी. उस समय जापान ने खुद को पूरी तरह बाहरी दुनिया से काट लिया था. केवल डच और चीनी व्यापारी ही नागासाकी बंदरगाह के छोटे से हिस्से में व्यापार कर पाते थे. 1853 में अमेरिका ने जापान को अपने लिए खोलने का फैसला किया ताकि अमेरिकी जहाजों को चीन जाते समय कोयला भरने के साथसाथ एक सुरक्षित ठिकाना भी मिल सके. इस के लिए अमेरिकी राष्ट्रपति ने कमांडर मैथ्यू पेरी को जापान भेजा.
पेरी चार युद्धपोतों के साथ जापान पहुंचे और शोगुन को अल्टीमेटम दिया कि जापान को व्यापार खोलना होगा. पेरी ने जापानियों को युद्ध की सीधी चुनौती नहीं दी, लेकिन उन के जहाजों की तोपों और सैन्य शक्ति को देख कर जापानी नेतृत्व सम?ा गया कि इनकार करना लगभग असंभव है. 1854 में पेरी दोबारा और भी बड़ी नौसेना ले कर आया. मजबूरी में जापान ने कनगावा संधि 1854 पर हस्ताक्षर किए. इस संधि से अमेरिकी जहाजों को जापान के 2 बंदरगाहों में प्रवेश और व्यापार की अनुमति मिल गई तो अमेरिका का इतिहास रहा है कि वह अपने मन की करवा कर मानता है. वह एक बड़ी ताकत है, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता.
सोने पर सुहागा यह कि इस वक्त अमेरिकी ताकत एक सिरफिरे नेता के हाथ में है, ऐसे में हमें रोष में आ कर नहीं बल्कि सोचसम?ा कर कूटनीतिक कदम उठाने चाहिए. देशहित और जनहित में मानमनौवल का रुख रखना चाहिए. मगर अफसोस कि दोनों ही राष्ट्रों के नेता डैमोक्रेसी को अपने पांव की जूती सम?ाते हैं. दोनों के लिए उन के अहं देशहित से बड़े हैं. भारत और अमेरिका दोनों के शीर्ष नेतृत्व ने अपनेअपने अहं के चलते देश को कहीं पीछे छोड़ दिया है और दोनों की निजी नाराजगी का खमियाजा निश्चित तौर पर अब भारत की आम जनता भुगतेगी.
दोस्ती में दरार
गौरतलब है कि ट्रंप और मोदी की दोस्ती को मीडिया ने ‘ब्रोमांस’ नाम दिया था लेकिन ट्रंप के पहले कार्यकाल के आखिर में ही इसे नजर लग गई. दूसरे कार्यकाल में मोदी की तरफ से कई ऐसी बातें हुईं जो ट्रंप को पसंद नहीं आईं, खासकर, अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव के वक्त जब मोदी अमेरिका गए थे और कमला हैरिस और ट्रंप दोनों से मिलना चाहते थे पर कमला हैरिस ने जब मोदी से मिलने की इच्छा नहीं जताई तो उन्होंने ट्रंप से भी मुलाकात नहीं की, जबकि ट्रंप मिलने की हामी भर चुके थे. ट्रंप ने इसे अपनी उपेक्षा के रूप में लिया. उस के बाद हाल की कई घटनाओं ने ट्रंप और मोदी के बीच खाई को और बढ़ाया.
डोनाल्ड ट्रंप एक दर्जन से ज्यादा बार कह चुके हैं कि उन्होंने भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध रुकवाया लेकिन मोदी सरकार ने एक बार भी इसे स्वीकार नहीं किया, जबकि पाकिस्तान ने इस के लिए ट्रंप का न सिर्फ शुक्रिया अदा किया, बल्कि नोबेल पुरस्कार के लिए उन का नाम भी आगे बढ़ाया. ट्रंप भारत द्वारा अपनी भूमिका नकारे जाने से खफा हैं. इस बात में तो कोई संदेह ही नहीं है कि ट्रंप शांति का नोबेल पुरस्कार पाना चाहते हैं.
दोस्ती में आखिरी रोड़ा तब आया जब मोदी ने जी7 की बैठक से लौटते हुए वाइट हाउस में रुकने का ट्रंप का निमंत्रण ठुकरा दिया. दरअसल ट्रंप ने उसी दिन पाकिस्तान के सेना प्रमुख आसिम मुनीर को भी आमंत्रित किया था. मोदी को आशंका थी कि अमेरिकी राष्ट्रपति अचानक उन का और मुनीर का आमनासामना करा सकते हैं. तब भारत व अमेरिका के बीच ट्रेड डील पर बातचीत अंजाम पर पहुंचने वाली थी. अमेरिकी अधिकारियों ने भी कहा कि डील बस हो ही गई है लेकिन ट्रंप को लगा कि उन की बारबार उपेक्षा हो रही है लिहाजा उन्होंने रूस से तेल खरीद का बहाना बनाया और भारत के साथ डील रोक दी.
ट्रंप ने मोदी सरकार से कहा कि रूस से तेल न खरीदें, क्योंकि उस के मुताबिक रूस इस से मिलने वाले पैसे का इस्तेमाल यूक्रेन से युद्ध में कर रहा है. ट्रंप रूस पर दबाव बनाना चाहते हैं, जबकि रूस से भारत की दोस्ती पुरानी है और भारत लंबे समय से रूस से तेल खरीद रहा है. ऐसे में मोदी ने न सिर्फ ट्रंप की बात सिरे से खारिज कर दी बल्कि आगामी सितंबर में वे रूस से तेल खरीद और ज्यादा बढ़ाने वाले हैं. लिहाजा, ट्रंप ने दंडस्वरूप 25 फीसदी टैरिफ और बढ़ा दिया.
आरबीआई के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन का कहना है कि भारत को रूस से तेल आयात पर अपनी नीति का पुनर्मूल्यांकन करना चाहिए. हमें यह पूछना होगा कि सस्ते तेल से किसे फायदा हो रहा है और किसे नुकसान. रिफाइनरीज भारी मुनाफा कमा रही हैं लेकिन निर्यातक टैरिफ के जरिए इस की कीमत चुका रहे हैं. अगर मुनाफा बहुत ज्यादा नहीं है तो शायद यह विचार करने लायक होगा कि क्या हमें यह खरीद जारी रखनी चाहिए.
किस का मुनाफा
राजन की बात सौ फीसदी सही है. अगर रूस से सस्ते तेल की बात कह कर मोदी सरकार तेल की खरीद कर रही है तो इस से आम भारतीय को क्या फायदा हो रहा है? क्या उसे सस्ता पैट्रोलडीजल मिल रहा है? जवाब है नहीं. उलटे, पैट्रोल व डीजल के दाम आसमान छू रहे हैं तो सवाल यह कि सस्ते रूसी तेल का मुनाफा किस की जेब में जा रहा है?
रूस से दोस्ती कर के भारत को क्या हासिल होगा, इस पर विचार किए जाने की जरूरत है. अमेरिका भारत का सब से बड़ा खरीदार है जबकि रूस के पास हमारे उत्पादों के लिए बाजार नहीं है. लंबे समय से युद्ध में रत रूस के पास तो अब खर्च करने के लिए पैसे भी नहीं हैं और दूसरी ओर मोदी जो चीन से दोस्ती की पींगें बढ़ा रहे हैं तो उस से हमें क्या हासिल होगा? पाकिस्तान को दिल में रख कर चीन हम से वफादारी निभाएगा, ऐसा सोचना भी हास्यास्पद बात है. फिर चीन ने खुद हमारे बाजारों को अपने उत्पादों से पाट रखा है, ऐसे में वह हमारा सामान क्यों खरीदेगा?
जो चीजें हम अमेरिका को बेच रहे हैं उन चीजों की जरूरत भी चीन को नहीं है. जिन भारतीय उत्पादों पर अमेरिका 50 फीसदी शुल्क लगा रहा है वे अगर अमेरिकी जनता को न हासिल हों तो उन का कोई नुकसान नहीं है. रत्न और हीरों के बिना भी उन का जीवन चलता रहेगा. रैडीमेड कपड़े और सी फूड वह किसी अन्य देश से ले लेगा. नुकसान में तो हमारा कारीगर वर्ग, मजदूर और छोटे व मसले व्यापारी रहेंगे.
भारत का अमेरिका बड़ा व्यापारिक साझेदार
गौरतलब है कि भारत सब से ज्यादा भारतीय उत्पाद अमेरिका (17.90 फीसदी) को निर्यात करता है, उस के बाद यूएई (8.23 फीसदी), चीन (3.85 फीसदी), नीदरलैंड (5.16 फीसदी), सिंगापुर (3.33 फीसदी), यूके (3.00 फीसदी), सऊदी अरब (2.67 फीसदी), बंगलादेश (2.55 फीसदी), जरमनी (2.27 फीसदी) और अन्य (49.02 फीसदी) का स्थान आता है. ऐसे में भारत ने अपने सब से बड़े खरीदार से रिश्ते खराब कर लिए हैं. मोदी सरकार की ऐसी व्यापार नीति हमें विश्वगुरु तो नहीं, भिखारी अवश्य बना देगी.
ट्रंप के 50 फीसदी टैरिफ से भारतीय ज्वैलरी, टैक्सटाइल, औटो और सीफूड सैक्टर की इंडस्ट्रीज को गहरा धक्का लगा है. अगर अमेरिका के साथ जल्दी कोई बातचीत नहीं होती है और यह टैरिफ नहीं कम होता है तो 48.2 अरब डौलर के निर्यात पर सीधा असर पड़ेगा. वहीं फार्मा पर मौजूद टैरिफ फिलहाल जीरो है मगर ट्रंप ने 18 महीने में 150 फीसदी और बाद में 250 फीसदी टैरिफ बढ़ाने की धमकी दी है.
जरमन अखबार यह दावा करते हैं कि अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने टैरिफ को ले कर प्रधानमंत्री मोदी को 4 बार कौल किया, मगर मोदी अपनी ठसक में हैं और उन्होंने एक बार भी ट्रंप से बात नहीं की. इस से दोनों नेताओं के बीच तनाव और बढ़ गया है. ट्रंप की आक्रामक ट्रेड पौलिसी भारत को भयंकर नुकसान में ला सकती है. अखबार के मुताबिक, भारत को डैड इकौनौमी कहने से मोदी नाराज हैं. इसी के चलते अमेरिकी प्रतिनिधि मंडल को भी नई दिल्ली आने से रोक दिया गया है.
आमजन को नुकसान
दरअसल ट्रंप पहले भारत के कृषि और डेयरी क्षेत्र में प्रवेश चाहते थे, मगर भारत ने इस के लिए साफ इनकार कर दिया. तब तक बात फिर भी संभली हुई थी. इस के बाद जब भारत व पाक युद्धविराम पर मोदी ने ट्रंप की भूमिका मानने से मना किया तो ट्रंप भड़क गए और भारत पर रूसी तेल खरीदने और युद्ध को भड़काने में मदद करने का आरोप लगा कर 25 फीसदी अतिरिक्त शुल्क थोप दिया. ट्रंप मोदी पर सिर्फ अपनी भड़ास निकाल रहे हैं. मगर इन दो नेताओं का निजी ?ागड़ा आमजन पर भारी पड़ने लगा है. ऊंचे शुल्क के चलते एमएसएमई पर दबाव बढ़ गया है. प्रतिस्पर्धा के लिए उन के सामने एक बड़ी चुनौती खड़ी हो गई है. प्रमुख तौर पर वाहन, कपड़ा और कृषि उद्योग पर संकट है. अमेरिका को निर्यात किए जाने वाले सामान से सब से ज्यादा छोटे और म?ाले उद्योग जुड़े हुए हैं, जिन की भारत के कुल निर्यात में लगभग 45 फीसदी हिस्सेदारी है.
वाहन और कलपुर्जा उद्योग से जुड़े छोटे और म?ाले कारोबारियों पर सीधी मार पड़ी है. भारत के कुल औटो कलपुर्जों का निर्यात 22.9 अरब डौलर रहा. इस में अमेरिका की हिस्सेदारी 27 फीसदी तक है और करीब 7 अरब डौलर का निर्यात उसे किया गया. वहीं कुल निर्यात में यूरोपीय संघ की हिस्सेदारी 20 फीसदी और तुर्की, मैक्सिको तथा ब्राजील की संयुक्त हिस्सेदारी 20 फीसदी तक है. 50 फीसदी शुल्क लगने के बाद लागत बढ़ गई है, जिस से भारतीय कंपनियों की प्रतिस्पर्धा पर असर पड़ रहा है. ट्रक, ट्रैक्टर और निर्माण उपकरणों के पार्ट्स का कारोबार बुरी तरह प्रभावित हो रहा है.
कपड़ा उद्योग को भारत को पड़ोसी देशों से चुनौती मिलने लगी है. इस क्षेत्र में अमेरिका भारत का सब से बड़ा निर्यात बाजार है. भारत के कुल वस्त्र और परिधान निर्यात में अमेरिकी हिस्सेदारी 30 प्रतिशत के करीब है. इस के बाद यूरोपीय संघ है, जिस की हिस्सेदारी 20 फीसदी है. अमेरिका द्वारा शुल्क बढ़ाने से इस क्षेत्र पर कुल टैरिफ बढ़ कर 60 फीसदी से अधिक हो जाएगा. इस से करीब 10 अरब डौलर से अधिक का कारोबार सीधे तौर पर प्रभावित होगा. भारत को बंगलादेश, चीन, वियतनाम जैसे एशियाई देशों से कड़ी प्रतिस्पर्धा करनी होगी, क्योंकि इन पर भारत के मुकाबले काफी कम टैरिफ लगाया गया है.
आभूषण-रत्न क्षेत्र में 10 अरब डौलर का कारोबार प्रभावित होने की संभावना है. अमेरिका भारत के लिए सब से बड़ा आभूषण बाजार है. देश का कुल रत्न एवं आभूषण निर्यात 28.5 अरब डौलर का है. इस का एकतिहाई यानी लगभग 10 अरब डौलर का निर्यात अमेरिका को होता है. अन्य देशों में संयुक्त अरब अमीरात, हौंगकौंग और यूरोपीय संघ की संयुक्त हिस्सेदारी 40 फीसदी तक है. अब भारत को इस क्षेत्र पर कुल 52 प्रतिशत शुल्क देना होगा. इस से निर्यात लागत बढ़ेगी, आपूर्ति में देरी होगी और छोटे कारीगरों के साथसाथ बड़े निर्माताओं पर भी दबाव बढ़ेगा.
देश के सब से बड़े हीरा केंद्र सूरत में सन्नाटा पसरा है. दुनिया का सब से बड़ा कटिंग और पौलिशिंग केंद्र माने जाने वाला भारत का हीरा उद्योग अभूतपूर्व संकट का सामना कर रहा है. चीन से कमजोर मांग के कारण व्यापार पहले ही दो दशक के निचले स्तर पर था, अब ट्रंप द्वारा टैरिफ को दोगुना करने से अमेरिकी बाजारों तक इस की पहुंच और भी मुश्किल हो गई है. सूरत, जहां दुनिया के 80 फीसदी से ज्यादा कच्चे हीरे काटे और पौलिश किए जाते हैं वहां और्डर तेजी से गिर रहे हैं. कारोबारी चिंतित हैं. उल्लेखनीय है कि सूरत में दुनियाभर के हीरे पौलिश किए जाते हैं. वहां लगभग 5,000 हीरा तराशने और पौलिश करने वाली इकाइयां हैं, जिन में लगभग 8 लाख कारीगर काम करते हैं. इन की नौकरियां दांव पर लगी हैं. कमजोर मांग के कारण कई कंपनियां कार्यदिवस और घंटे कम कर रही हैं. अनुमान है कि अगर भारत और अमेरिका के बीच आगे कोई व्यापार सम?ाता नहीं होता है तो डेढ़ से दो लाख कर्मचारी बेरोजगार हो जाएंगे.
कृषि क्षेत्र में बासमती चावल निर्यातकों के सामने चुनौतियां खड़ी हो गई हैं. भारत का कुल कृषि निर्यात लगभग 48 से 50 अरब डौलर का है. इस में अमेरिका की हिस्सेदारी 12 प्रतिशत तक है. वित्तीय वर्ष 2024-25 में अमेरिका को लगभग 5.8 अरब डौलर मूल्य के कृषि उत्पाद निर्यात किए गए. अन्य देशों में यूरोपीय संघ की हिस्सेदारी 20 फीसदी, मध्यपूर्व के देशों की 15 फीसदी और अन्य एशियाई देशों की 20 फीसदी थी. मुख्य रूप से बासमती और गैरबासमती चावल, मसाले, चाय, कौफी और अन्य कृषि उत्पाद अमेरिका भेजे गए. अमेरिका हर साल 3.5 लाख टन बासमती खरीदता है. बढ़े टैरिफ के कारण इस के निर्यातकों पर असर पड़ सकता है.
धागा उद्योग को 24 हजार करोड़ रुपए का नुकसान आंका जा रहा है. वित्त वर्ष 2024-25 में भारत का कुल समुद्री उत्पाद निर्यात 7.45 अरब डौलर का था, जिस में ?ांगा की हिस्सेदारी 66 फीसदी (लगभग 4.9 अरब डौलर) थी. ?ांगा निर्यात में अमेरिका की हिस्सेदारी लगभग 40 फीसदी थी. यानी लगभग 2.24 अरब डौलर मूल्य के ?ांगे भेजे गए. भारत की तुलना में इक्वाडोर और वियतनाम पर शुल्क काफी कम है, इसलिए अमेरिकी खरीदार अब आसानी से उन की ओर रुख कर सकते हैं. जो सामान भेजा जा चुका है या रास्ते में है, अधिक टैरिफ के चलते यदि वह न खुला तो सारा सड़ जाएगा. इस नुकसान को कौन वहन करेगा?
रणनीतिक चपलता की कमी
ट्रंप की नाराजगी को कूटनीतिक तरीके से हैंडल किया जाना चाहिए था, बातचीत के जरिए बिगड़ी बात को सम?ादारी से पटरी पर लाने की कोशिश की जानी चाहिए थी. मगर मोदी सरकार रूस और चीन से नजदीकियों का प्रदर्शन कर आग में घी डालने का काम कर रही है, जिस का खमियाजा महंगाई और बेरोजगारी के रूप में आम जनता और भारी आर्थिक नुकसान के रूप में व्यापारी भुगतेंगे.
भारत पर लगाए गए टैरिफ से अमेरिका को 500 अरब डौलर की कमाई होने की संभावना जताई जा रही है. अमेरिकी वित्त मंत्री स्कौट बेसेंट का कहना है कि ट्रंप के टैरिफ से होने वाला सीमा शुल्क राजस्व प्रतिवर्ष 500 अरब डौलर से अधिक हो सकता है. जुलाई से अगस्त तक इस में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है और सितंबर में भी इस के और बढ़ने की संभावना है. यह वृद्धि पहले से भी अधिक होगी. अनुमान है कि हम आसानी से आधा ट्रिलियन या लगभग एक ट्रिलियन डौलर से अधिक का आंकड़ा छू सकते हैं. इस से बजट घाटे में उल्लेखनीय कमी आएगी. Trump Tariff News