Social Issue: पहली वह पीढ़ी है जिसे कई वजहों के चलते धार्मिक माहौल पिछली पीढ़ियों के मुकाबले कम मिला है और उसी अनुपात में साइंस और टैक्नोलौजी का माहौल ज्यादा मिला है लेकिन जहर जहर होता है, उस की मात्रा कम हो या ज्यादा, असर तो करती ही है. यही इस जेनरेशन के साथ हो रहा है कि वह गले में रखे इस यानी धार्मिक जहर को न निगल पा रही है न उगल.
जेनजी पीढ़ी को इस बाबत कोसना बहुत आसान और आम है कि वह धरमकरम को नहीं मानती, पौराणिक मान्यताओं को सहज मान्यता नहीं देती, तीजत्योहार, व्रतझांकियों वगैरह से दूरी बना कर चलती है. यह हालांकि अच्छी बात है कि वह नास्तिक या अनास्थावादी नहीं है लेकिन ईश्वर के अस्तित्व को ले कर फुजूल सवाल खड़े करती है जबकि वह है, इस में किसी को शक नहीं होना चाहिए. भगवान जाने क्या होगा इस जेनरेशन का. आजकल ये और इस तरह के आरोप जेनजी पर लगाने वाले लोगों की कमी नहीं. दरअसल, यह पीढ़ी धर्म और उस से जुड़े अंधविश्वासों व रीतिरिवाजों को मानने या स्वीकारने से पहले उन्हें तर्क के तराजू पर तोलती है जो इस दौर का सब से ‘गंभीर अपराध’ है.
जेनजी पहली वह पीढ़ी है जिसे कई वजहों के चलते धार्मिक माहौल पिछली पीढ़ियों के मुकाबले कम मिला है और उसी अनुपात में साइंस और टैक्नोलौजी का माहौल ज्यादा मिला है लेकिन जहर जहर होता है, उस की मात्रा कम हो या ज्यादा हो, असर तो करती ही है. यही इस जेनरेशन के साथ हो रहा है कि वह गले में रखे इस यानी धार्मिक जहर को न निगल पा रही है और न ही उगल पा रही.
धर्म कुछ तो है, लेकिन है क्यों और उस का न होना जिंदगी पर क्या कोई असर डालता, यह सब से बड़ा कन्फ्यूजन जेनजी का है. दूसरा बड़ा कन्फ्यूजन यह है कि भगवान कहीं हो न हो, ऐसा हो या वैसा हो, उस के कोई खास माने नहीं लेकिन उस के नाम पर मचाया जाते रहने वाला हल्ला क्या साबित करता है और यह हल्ला मचाते रहने वाले मुट्ठीभर लोग किस चालाकी से दुनिया को हांक रहे हैं. ये धर्म के ठेकेदार कैसेकैसे हमारे सार्वजनिक और व्यक्तिगत जीवन तक में दखल दे कर जो खलल पैदा करते हैं, इस पर दुनिया खामोश क्यों रहती है.
धर्म बनाम आध्यात्म का कुचक्र
जेनजी कितनी धार्मिक है और कितनी धार्मिक नहीं है, इस पर दुनियाभर में आएदिन सर्वे होते रहते हैं जो यह बताते हैं कि यह जेनरेशन धर्म से परहेज तो कर रही है लेकिन उस के आध्यात्म नाम के कुचक्र से मुक्त नहीं हो पा रही है. इस जेनरेशन का प्रिय नारा है- वी आर स्प्रीचुअल बट नौट रिलीजियस.
इसी साल यूगाव-मिंट सर्वे की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत में 53 फीसदी ही जेनजी युवा मानते हैं कि धर्म महत्त्वपूर्ण है लेकिन निर्णायक नहीं. इस में बतौर निष्कर्ष कहा गया है कि जेनजी मैंटल हैल्थ और जिंदगी की चुनौतियों से निबटने के लिए बजाय धर्म के आध्यात्मिकता को इस्तेमाल कर रही है. लेकिन साथ ही, वह पारंपरिक रीतिरिवाजों से दूरी बना रही है. मसलन, मंदिर जाने और पूजापाठ करने को यह जेनरेशन जिम्मेदारी या मजबूरी नहीं मानती बल्कि अकसर उस शांति के लिए जाती है जिस के सिर्फ धर्म से ही मिलने का बखान धर्मगुरु और पिछली पीढ़ी करती रहती है. यानी, यह कोई श्रद्धा नहीं बल्कि ‘एक बार ट्राई कर के देखने में क्या हर्ज है’ वाली मानसिकता या भ्रम है.
इस बारे में जब भोपाल के कुछ युवाओं से बात की गई तो उन्होंने इस से आंशिक सहमति जताई. 19 वर्षीय अदिति कहती है, ‘मंदिरों में शांति कम अशांति और लूटपाट ज्यादा है. मैं कुछ दिनों पहले ही मम्मीपापा के साथ उज्जैन के महाकाल मंदिर यह सोच कर चली गई थी कि वहां शायद थोड़ा सुकून मिलेगा लेकिन हुआ उलटा. वहां के भीड़भड़क्के और धक्कामुक्की से मन कसैला हो गया और इस से बचने के लिए मैं बिना पेरैंट्स को बताए बाहर आ कर छोटे से होटल पर चाय पीने बैठ गई. तब मुझे महसूस हुआ कि मंदिर से ज्यादा शांति तो इस होटल में है.
‘हां, लेकिन शाम को क्षिप्रा नदी किनारे हम लोग गए तो अच्छा लगा.’ अदिति आगे बताती है, ‘कलकल कर बहता पानी मन मोह रहा था जबकि भीड़ और बेवजह के धार्मिक नारे व शोर नहीं थे. वहां कहीं दानपेटियां भी नहीं थीं और गद्दी लगा कर बैठे पंडे भी नहीं थे जो जबरन माथे पर तिलकत्रिशूल लगा कर पैसे वसूलते हैं. तब, मुझे लगा कि शांति की तलाश में बजाय मंदिरों के समुद्र किनारे, पहाड़ों पर या जंगलों में जाना चाहिए.
20 वर्षीय युवराज की मानें तो मैं ने कई छोटे मंदिरों सहित कुछ बड़े मंदिर भी देखे हैं मसलन शिर्डी और तिरुपति के वहां हम जैसे युवाओं के लिए कुछ खास नहीं है. वहां जा कर हमें यह सबक नहीं मिलता कि आगे की जिंदगी की कैरियर की लड़ाई हमें कैसे लड़ना है. इन दोनों मंदिरों में ऐसा कोई कौर्नर तक मुझे नहीं मिला जहां मैं शांति से बैठ कर इन मसलों पर कुछ सोच सकूं और न ही वहां कोई यह सब बताने वाला होता है. चूंकि पापा की जिद थी, इसलिए जाना पड़ा. मेरी समझ में यह भी नहीं आया कि कालोनी के छोटे और इन बड़े मंदिरों में फर्क क्या. भगवान अगर है तो उसे दोनों जगह बराबरी से होना चाहिए और जहां नहीं है वहां जाने से फायदा क्या.
पेरैंट्स बनाते हैं प्रैशर
जाहिर है पेरैंट्स का दबाव जेनजी को धर्मस्थलों पर ले जा रहा है जिस का घोषितअघोषित मकसद उन का कैरियर या भविष्य बनाना या किसी मनोवैज्ञानिक या मैंटर से काउंसलिंग करवाना नहीं बल्कि उस के खलबलाते दिमाग में धर्म की अफीम इंजैक्ट करना है जिस से वह अनास्थावादी न हो जाए बल्कि उन की ही तरह रूढ़ि और भाग्यवादी ही रहे. सीधे तौर पर कहा जाए तो पेरैंट्स, जो धर्मगुरुओं और धर्मस्थलों पर जिंदगीभर लुटतेपिटते रहे हैं, की मंशा, जो मूलतया डर है, धार्मिक दुकानदारों, पंडोंपुरोहितों के लिए एक नया ग्राहक तैयार कर देना होती है क्योंकि आर्थिक रूप से वे उन भक्तों पर ही तो निर्भर होते हैं.
बचपन से ही अभिभावक बच्चों को धर्म के अंधे कुएं में धकेल देते हैं जबकि होना यह चाहिए कि वयस्क होने पर ही धर्म को चुनने न चुनने की आजादी या सहूलियत मिले वरना धार्मिक कन्फ्यूजन युवाओं को गुमराह ही करते रहेंगे जिस का बड़ा नुकसान उन्हें कुंठा की शक्ल में उठाना पड़ेगा. श्राद्ध के दिनों में पूर्वज किस तरीके से धरती पर दिया खाना ऊपर आसमान में खा लेते हैं, यह हर बच्चा सोचता है लेकिन पेरैंट्स के पास उन की इस और ऐसी सैकड़ों जिज्ञासाओं का कोई समाधान नहीं होता. वजह, ये अंधभक्त खुद ही पीढ़ियों से भेड़चाल चल रहे हैं.
यही हाल स्कूलों का है. प्राथमिक कक्षाओं से ही बच्चों को धर्म के किस्सेकहानी पढ़ाए जा रहे हैं. एनसीईरटी की 7वीं जमात में महाभारत की कहानियां पढ़ाया जाना बच्चे को वैज्ञानिक नहीं बल्कि अतार्तिक बनाने वाली बात है. सब से बड़े राज्य उत्तर प्रदेश के स्कूली बच्चों को धार्मिक पर्यावरण यानी शिक्षा के नाम पर रामायण और महाभारत की कहानियां रटाई जा रही हैं जो सीधे तौर पर संविधान के अनुच्छेद 28 का उल्लंघन है जो यह कहता है कि सरकारी स्कूलों में धार्मिक शिक्षा या उपासनाओं का प्रावधान नहीं किया जा सकता.
भाजपाशासित राज्यों राजस्थान, मध्य प्रदेश, असम के स्कूलों के भी यही हाल हैं. लेकिन केरल जैसा कम्युनिस्ट राज्य भी स्कूली बच्चों को धर्म परोसने की बीमारी से मुक्त नहीं हैं जहां अरबी भाषा को सिलेबस में शामिल कर अप्रत्यक्ष रूप से इसलामिक तालीम दी जा रही है. प्रसंगवश यह दिलचस्प बात है कि मदरसे तो धार्मिक शिक्षा के अड्डे हैं ही लेकिन हिंदीभाषी राज्यों के सरकारी स्कूलों को ही हिंदू मदरसे बनाने की साजिश जोरों पर हैं. ऐसे में यह उम्मीद करना बेकार की बात है कि धर्म के इन अर्धधार्मिक अड्डों की जेनजी पीढ़ी कोई वैज्ञानिक, इंजीनियर या फिर डाक्टर बन कर निकलेगी वहां से तो कांवडिए और जमाती ही निकलेंगे.
और, जो बच्चे जैसेतैसे और अपने दम पर स्नातक स्तर तक पहुंच भी जाएंगे, उन्हें घेरने के लिए कालेज लैवल पर भी जाल बिछाया जा रहा है. इसे एक उदाहरण से आसानी से समझा जा सकता है. बीती 18 सितंबर को देशभर के कोई 900 गणितज्ञों व रिसर्च स्कौलर्स ने यूजीसी से स्नातक गणित का ड्राफ्ट वापस लेने को कहा था. इन लोगों ने आगाह किया है कि इस ड्राफ्ट में गणित संबंधी तो कमियां और खामियां हैं ही लेकिन प्रस्तावित सिलेबस में काल गणना यानी पंचांग (जिस में शादीविवाह, मुंडन और गृहप्रवेश जैसे विभिन्न तरह के मुहूर्त निकाले जाते हैं), भारतीय बीज गणित, पुराणों का महत्त्व, नारद पुराण में पाई जाने वाली अंकगणित और ज्यामिति से जुड़ी विधाओं को शामिल किया गया है, इन्हें हटाया जाना चाहिए.
यूजीसी इस पर क्या फैसला लेता है, यह देखना दिलचस्प होगा और अगर भगवा सरकार के दबाव में पोंगापंथ वाला पाठ्यक्रम वापस नहीं लेता है तो सहज समझा जा सकता है कि कालेजों से इंजीनियर नहीं बल्कि पंडेपुजारी निकलेंगे. दक्षिणपंथियों के शिकंजे में छटपटा रहे देश में ऐसी पढ़ाई हैरत की नहीं बल्कि चिंता की बात है जिन के नेतृत्व की सरकार के रक्षामंत्री फ्रांस जा कर राफेल के पहियों के नीचे नारियल रखते हैं और उस पर नीबू मिर्चीटांगने का टोटका करते हैं.
आध्यात्मिकता हल नहीं
एमटीवी यूथ स्टडी के मुताबिक 62 फीसदी जेनजी मानते हैं कि आध्यामिकता उन्हें जिंदगी में स्पष्टता और आत्मविश्वास देती है. जबकि, धार्मिक रीतिरिवाज पुराने और बंदिशें थोपने वाले होते हैं. प्यू रिसर्च के एक सर्वे की मानें तो जेनजी पारंपरिक धार्मिक संस्थाओं या स्थलों, जिन्हें धार्मिक अड्डे कहना ज्यादा बेहतर होगा, को जजमैंटल और पौलिटिकल मानती है. इस सर्वे के मुताबिक 40 फीसदी जेनजी युवा धार्मिक रूप से नन्स यानी असम्बद्ध हैं खासतौर से युवतियां जिन की तादाद 35 फीसदी युवकों के मुकाबले 45 फीसदी है.
यह हाल अकेले भारत का नहीं बल्कि पूरी दुनिया का है. प्यू रिसर्च की ही फरवरी 2025 में जारी एक रिपोर्ट कहती है कि 65 फीसदी जेनजी खुद को आध्यात्मिक मानती है.
चर्चों की दैनिक प्रार्थनाओं में जेनजी की भागीदारी कम हो रही है लेकिन आध्यात्मिक प्रथाओं मसलन प्रकृति से उन का जुडाव बढ़ रहा है. यानी, अमेरिकी जेनजी युवा भी मानते हैं कि उन की जिज्ञासाओं का समाधान चर्चों से नहीं मिलना और बेहतर मानसिक स्वास्थ्य के लिए वही रास्ता उपयुक्त है जो युवराज और अदिति जैसे युवा बताते हैं.
पूरी दुनिया के युवा परंपरागत और संस्थागत धर्म छोड़ कर आध्यात्म की तरफ झुक रहे हैं तो यह तात्कालिक तौर पर ही राहत देने वाली बात लगती है क्योंकि आध्यात्म पर भी छद्म धर्मगुरुओं का ही कब्जा है. खुद को आध्यात्मिक गुरु कहने वाले ये लोग धर्मगुरुओं जितने चालाक और धूर्त भले ही न हों लेकिन हैं तो दुकानदार ही. भारत में जग्गी वासुदेव और श्रीश्री रविशंकर और एक हद तक रामदेव ऐसे ही दुकानदार हैं जो युवाओं को धर्म से इतर रास्तों मसलन ध्यान, योग, प्राणायाम, आयुर्वेद और पर्यावरण वगैरह पर चल कर शांति की बात करते हैं. इस खेप के काफी पहले यह काम महर्षि महेश योगी परमहंस योगानंद जैसे गुरु किया करते रहते थे.
आध्यात्मिकता जेनजी के धार्मिक असमंजस का पूरा हल नहीं है क्योंकि इस में बजाय सीधे धार्मिक पाखंड, पोंगापंथ के बदले- मैं कौन हूं, कहां से आया हूं, कहां जाऊंगा, दुनिया क्या है, आत्मा परमात्मा क्या है और मृत्यु के बाद क्या होता है- जैसे सवालजवाब हैं जो एक उम्र के बाद आदमी को धर्म की तरफ मुड़ने को मजबूर कर देते हैं कि इन सवालों के जवाब या इन जिज्ञासाओं का समाधान गीता, कुरान और बाइबिल आदि में है.
अब यह जेनजी युवाओं की खुद की जिम्मेदारी है कि वे इस चक्कर में ही न पड़ें और सीधे तौर पर मान लें कि शरीर एक मशीन है जो धर्म से नहीं बल्कि विज्ञान से संचालित होती है. यह दुनिया किसी अल्लाह, गौड या भगवान की नहीं बल्कि खुद आदमी की बनाई हुई है. सृष्टि के इस विकास क्रम को तार्किक तरीके से सरिता के सितंबर (प्रथम) 2025 अंक में ‘सृष्टि की शुरुआत – धर्म ने बहकाया साइंस ने बताया’ शीर्षक से समझाया भी गया है. Social Issue