False Knowledge : ज्ञान की जरूरत सब को है, दुराज्ञान की नहीं. दुराज्ञान तो न केवल एक अकेले बल्कि उस के पूरे परिवार को, उस के संबंधियों को, उस के गांव को और यहां तक कि पूरे देश को भी ऐसे गहरे गड्ढे में डाल सकता है जिस में गिर कर भी एक अकेला या पूरा समूह अपने को सही ही मानता रहे जबकि दूसरों को दुश्मन समझता रहे. यही नहीं, उक्त गड्ढे में अपनी ही फैलाई गंदगी पर गौरव भी महसूस करता रहे.

ऐसे लोग परिवारों में अकसर दिख जाते हैं जो पारिवारिक या निजी संबंधों को ले कर पूर्वाग्रह पाल लेते हैं और मरने तक उन से निकल नहीं पाते. वे खुद के लिए बोझ होते हैं और दूसरों के लिए भी नुकसानदायक. मुसीबत तब होती है जब दुराज्ञान का शिकार आसपास वालों को प्रभावित कर के सब को अपने साथ मिला लेता है. मुसीबत तब भी होती है जब आसपास वालों के दुराज्ञान को सही ज्ञान मान कर लोग उन से चिपकने लगते हैं.

विधवा से विवाह करना वर्जित है, यह दुराज्ञान है, जिसे इस देश के लोगों ने सदियों सहा. यह सही तब होता जब विधुर भी शादी न करते. जिन समाजों में विधवाओं का विवाह होता था वहां कोई आफत नहीं आई, यह जान कर भी जो इस से चिपटे रहे वे विधवाओं के जीवन को तो नर्क बनाते ही रहे, उन्हें घरों में कैद रख एक आफत भी मोल लेते रहे.

निसंतान औरतों को अपशकुनी मान कर आज भी उन का अपमान किया जाता है तब भी जब उन के पति को मालूम होता है कि स्पष्ट रूप से दोषी वही है. पूरा परिवार हर समय गंभीर तनाव में जीता है. सब लोग न खुद चैन से जीते हैं न निसंतान जोड़े को चैन से जीने देते रहे हैं.

हमारे पुराणों में ऐसी सैकड़ों कहानियां भरी हैं जिन में निसंतान दंपती तपस्या करते रहे, व्रतों में पैसा व शक्ति बरबाद करते रहे, पुत्रेष्ठि यज्ञ करतेकराते रहे, नियोग तक अपनाते रहे. क्या वे दुराज्ञान के शिकार नहीं थे? क्या आज उन की गिनती कम हो गई है?

आजकल हम भारतीयों को इसी दुराज्ञान के कारण अपने अतीत पर बहुत गौरव है. रोजाना सोशल मीडिया या टीवी चैनलों में समृद्ध व शक्तिशाली भारत की बातें की जाती रहती हैं. और इन्हीं के आधार पर हम अपना वर्तमान कम ठीक कर रहे हैं जबकि इन्हीं बातों की शराब पी कर मस्त ज्यादा हो रहे हैं.

हमारा यह दुराज्ञान असल में उन जरमन व अन्य यूरोपीय विचारकों ने शुरू किया था जिन्हें 17वीं, 18वीं सदी में भारतीय संस्कृत की किताबों का अनुवाद मिलना शुरू हुआ. जो लोग यह सोचे बैठे थे कि पढ़नालिखना तो केवल यूरोप के लोग जानते हैं उन्हें उस पर आश्चर्य हुआ और अनेक विद्वानों ने भारतीय पुस्तकों के आधार पर बड़े प्रशंसात्मक विचारों वाली पुस्तकें लिख डालीं.

मजेदार बात यह है कि मैक्समूलर और जेम्स मिल जैसे विद्वान न कभी भारत में आए न यहां रहे, फिर भी उन्होंने एक के बाद एक किताब लिख मारीं जो आज के विषैले दुराज्ञान की जड़ हैं. हम ने इन नकली पुस्तकों को सही मान कर झूठ को सच समझ लिया और रात को दिन समझने लगे.

आज भारत गरीब है, बिखरा है, गंदा है, करप्ट है, अंधविश्वासी है लेकिन हम इस सब को वैसे ही मानने को तैयार नहीं जैसे एक परिवार का मुखिया मानने को तैयार नहीं होता कि वह पुरानी लीक पर चल कर गलत कर रहा है.

आज हर घर में जो विवाद है उस के पीछे वही दुराज्ञान है जो कभी यूरोपियों ने हमारे गले मढ़ दिया था. हम समझने को तैयार ही नहीं कि हम गलत हो सकते हैं. हम हर पाखंड, परिपाटी को बिना समझे व बिना परखे इस युग में भी अपने पर थोपे चले जा रहे हैं जबकि विज्ञान, गणित, इंजीनियरिंग, कंप्यूटर साइंस, वायरलैस, आर्टिफिशियल इंटैलिजैंस वगैरह का बोलबाला है.

इसे दोगलापन नहीं कहेंगे क्योंकि यह जानबूझ कर या स्वार्थवश नहीं किया जा रहा. यह तो वह कोरा दुराज्ञान है जो हमारे मनमस्तिष्क में गहरी जड़ें जमा चुका है. यह ऐसा है कि सब से मौडर्न मैडिसन के साथ झाड़फूंक कराने को भी सहजता से स्वीकार कर लेता है.

जीवन एक गणित है जिस में दो और दो कभी भी पांच नहीं होते. इस के विपरीत हम जिद पर अड़े हैं कि पूर्वजों ने जो कहा था वही सही है, वही सच है. यह आज की प्रौढ़ पीढ़ी और युवा पीढ़ी के बीच सब से बड़ी खाई का कारण है. हमें आज अगर नहीं मालूम कि यह युवा पीढ़ी क्या व क्यों कर रही है तो इसलिए कि युवा पीढ़ी नहीं समझ सकती कि प्रौढ़ पीढ़ी क्यों इस दुराज्ञान से चिपकी हुई है. False Knowledge

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