GST Controversy: हर धर्म का एक प्रिय जुमला होता है कि ‘ऊपर वाला सब देख रहा है, वह सारी मुसीबतों से छुटकारा दिला देगा, बस, उसे याद रखो.’ मोदी सरकार पूरी तरह इस धार्मिक परंपरा को निभा रही है. पहले वह तरहतरह के कष्ट जानबूझ कर लादती है, फिर हटा कर खुद ही शान बघारती है कि ‘ईश्वर’ की तरह वह संकटमोचन बन कर अवतरित हुई है.

सरकार ने सेल्स टैक्स की जगह वर्ष 2016 में जनरल सेल्स एंड सर्विसेस टैक्स यानी जीएसटी थोपा जिस से सरलीकरण नहीं हुआ बल्कि वह तो हर व्यापारी के लिए आफत लाया. भारीभरकम कानून, धाराओं में धाराएं, मनमाने सैस जो टैक्स पर लगे, एकतरफा फैसले, हर कदम को कंप्यूटर पर दर्ज कराना अनिवार्य करना वगैरह उद्योगों पर धार्मिक अनुष्ठानों जैसा बोझ बना रहा है. 22 सितंबर से जहां छूट मिली है वहीं उस से ज्यादा टैक्स बढ़ा दिया गया है.

मोदी सरकार ने 0, 3, 5, 12, 18, 25, 40, 40+ प्रतिशत टैक्सों की जगह अब 0, 3, 5, 18, 28, 40 प्रतिशत की दरें तय की हैं. यानी, उस ने सिर्फ 12 प्रतिशत और 40+ प्रतिशत की दरें हटाई हैं और उसे क्रांतिकारी बताया है. दरअसल, जनता के साथ यह कोरा धोखा है. कुछ चीजों पर, जिन पर हमेशा कम टैक्स होना चाहिए था या नहीं होना चाहिए, 9 सालों तक टैक्स लेने के बाद वापस ले लेना कोई महानता नहीं है.

12 प्रतिशत के ब्रैकेट में आने वाली चीजों में से उंगलियों पर गिने जा सकने वाले प्रोडक्ट्स पर टैक्स घटा कर बाकी सब पर टैक्स बढ़ा दिया गया है जिन में किताबों के लिए इस्तेमाल होने वाला कागज भी है.

यह ठीक है कि कोई देश बिना टैक्स लिए नहीं चल सकता पर यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत में जीएसटी गरीबों पर लगने वाला टैक्स है, अमीरों वाला टैक्स नहीं है. अमीरों पर इनकम टैक्स अलग से है जो लोग और कंपनियां देते हैं. ऐसे में कंपनियों को दोहरी टैक्स व्यवस्था का शिकार होना पड़ रहा है, जीएसटी और डायरैक्ट टैक्स दोनों का.

सुधार तो तब होते जब हर चीज पर केवल मामूली 5 या 7 प्रतिशत टैक्स लगता और सरकार उसी आमदनी से अपना काम चलाती. अगर उस से कंपनियों या लोगों को लाभ होता तो वह आयकर में वसूल लिया जाता. अब हर दुकानदार को तरहतरह की टैक्स दरों से जूझते रहना पड़ेगा, ‘सुधारों’ के बावजूद.

यह भगवानों के आशीर्वादों की तरह है जो पहले कष्ट बेबात में देने के बाद उन को दूर करने के नाम पर मिलते हैं. हमारी आज की सरकार पौराणिक सोच पर चलती है, व्यावहारिक, तार्किक व आर्थिक सोच पर नहीं चलती. देशवासी, बस, इतना संतोष कर सकते हैं कि अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप ने भी टैरिफ लगा कर एक तरह का सेल्स टैक्स अपनी जनता पर थोप दिया है. दोनों देशों की जनता सत्ताधारी धर्मभीरु राजनेताओं से बुरी तरह परेशान रहेगी, फिर भी, वह धर्म का गुणगान करती रहेगी.

लोकतंत्र और सिरफिरा शासक

अमेरिका में लोकतांत्रिक शक्तियों ने मागा (मेक अमेरिका ग्रेट अगेन) गुट का मुकाबला करने की ठान ली है. बजाय दूसरे बहुत से देशों के जहां वोट के खेल से सत्ता हथिया कर बने तानाशाहों के सामने लोगों ने हथियार डाल दिए हैं, अमेरिका में पिछले 5 अप्रैल को वहां के 1,200 शहरों की राज्य विधानसभाओं, फैडरल सरकार के दफ्तरों, पोस्ट औफिसों, शहर के चौराहों आदि पर हजारोंहजारों की संख्या में जमा हुए लोगों ने राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के खिलाफ नारे लगा व पोस्टर दिखा कर यह जता दिया कि डैमोक्रेसी को बचाने के लिए वे कुछ भी कर सकते हैं.

ये आंदोलनकारी फिर जमा होंगे और शायद तब तक आंदोलन जारी रखेंगे जब तक राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप को सम?ा न आ जाए कि 4 नवंबर, 2024 को चुनाव जीतने का मतलब यह नहीं है कि उन्हें अमेरिका का तानाबाना पलटने का हक मिल गया है. अमेरिका की 5 अप्रैल की जनमुहिम की सफलता को देख कर यूरोप के कई देश, जहां चर्च और कट्टरपंथियों की मिलीजुली ताकतों ने कुछ पार्टियों पर कब्जा कर लिया है और वे सैंसिटिव मामलों की आड़ में वोटरों को उकसा कर लोकतंत्र की समाप्ति की तैयारी कर रहे थे, चौकन्ने हो गए हैं.

डोनाल्ड ट्रंप को मनमरजी के बहुत से फैसले लेने की छूट थी पर उन्होंने एकसाथ कई मोरचे खोल दिए, विदेशियों के खिलाफ ही नहीं बल्कि अमेरिकियों के खिलाफ भी. जैसे भारत में भारतीय मुसलिमों के खिलाफ लगातार माहौल बनाया जा रहा है कुछ वैसा ही डोनाल्ड ट्रंप की पिट्ठू सेना मागा ने इमीग्रैंट्स के खिलाफ बनाया जिस के तहत दक्षिणी अमेरिका, पश्चिम एशिया, भारत, फिलीपींस जैसे देशों से कागजों या बिना कागजों के अमेरिका में घुसे लोगों को अमेरिका का दुश्मन घोषित कर दिया गया जबकि वे वहां के खेतों, फैक्ट्रियों, रैस्तरांओं, सड़कों की सफाई, कंस्ट्रक्शन में लगे थे और अमेरिका को अमीर बना रहे थे.

यही नहीं, ट्रंप ने दूसरे देशों से कस्टम ड्यूटी का लफड़ा भी ले लिया जिस से आयात महंगा हो गया और निर्यात बढ़ा नहीं. तीसरी ओर आम अमेरिकी से मैडिकेयर की सुविधा छीन ली. ओबामा के युग में जो सस्ती मैडिकल हैल्प मिलनी शुरू हुई थी, वह बंद कर दी.

अमेरिकी मागा ने स्कूलों की किताबों को बदलना शुरू कर दिया और कहलवाना शुरू कर दिया कि न तो कभी गोरों ने कालों पर अत्याचार किए थे और न हिटलर ने यहूदियों के खिलाफ मुहिम में लाखों मारे थे. यही हमारे यहां भारत में भी हो रहा है. सारी किताबें दोबारा लिखाई जा रही हैं. चिकित्सा के नाम पर आयुर्वेदिक इलाज थोपा जा रहा है. असली चिकित्सा महंगी होती जा रही है.

ट्रंप के कदम अमेरिका के लोकतांत्रिक तानेबाने को तोड़ रहे हैं जो यूरोप के कितने ही देशों में हो रहा है और हमारे भारत में भी हो रहा है. अमेरिका के डैमोक्रेट्स ने 1,200 शहरों में 1,400 जगह आंदोलन कर के, धरनेप्रदर्शन कर के सोते हुए लोकतांत्रिक लोगों को नींद से जगा दिया है. जागनेजगाने की यह गोली क्या यूरोप, भारत, एशिया के दूसरे लोकतांत्रिक देश लेंगे?

1977 में जनता ने जता दिया था कि भारत में इमरजैंसी जैसी हालत स्वीकार नहीं है. 1984 में कांग्रेस को भारी बहुमत दिला कर यह बता दिया था कि भारत की अखंडता से खिलवाड़ संभव नहीं है. अमेरिका ने लोकतंत्र को बचाने और फैलाने में पिछले 200 सालों में बहुतकुछ किया है. उसे हाथ से निकलने न दें. दूसरे देश लोकतंत्र की कीमत सम?ों. एक सिरफिरी पार्टी लोकतंत्र को नष्ट कर सकती है.

इंडस्ट्री, सरकार और वाहन

कार कंपनियों का भारत सरकार पर भारी दबाव है. प्रदूषण के बहाने कई क्षेत्रों में डीजल वाहनों के लिए मात्र 10 साल और पैट्रोल वाहनों के लिए मात्र 15 साल की मियाद तय कर दी गई है. 10 औैर 15 साल की इस सीमा को मनमरजी से तय किया गया है. इस दौरान यदि कोई वाहन काफी ज्यादा प्रदूषण फैला रहा हो तो उस का कोई गुनाह नहीं लेकिन मियाद पूरी होते ही कोई वहां प्रदूषण न भी फैला रहा हो तो भी वह कचरा बन जाता है.

इस सीमा को तय करने के चलते लाखों वाहन हर साल कचरा बन रहे हैं और लाखों नए वाहनों की बिक्री बढ़ रही है. नतीजतन, कार कंपनियों को जम कर मुनाफा हो रहा है, उन के नए मौडल हाथोंहाथ लपके जा रहे हैं.

वाहनों की उम्र उन की अपनी देखरेख के हिसाब से तय होनी चाहिए. कार कंपनियां नएनए मौडल ला कर वैसे ही 5 साल पुराने वाहन को मटियामेट कर देती हैं. उन पर चलना फटेहाली का नमूना होता है और चाहे लोग पुराने घर में रहते रहें, वे दिखावे के लिए नई कार, बाइक लेने को मजबूर होते हैं.

पर जो लोग अपने वाहन का उपयोग सही ढंग से करते हैं, कम उपयोग करते हैं, उन की मरम्मत कराते रहते हैं, चमका कर रखते हैं उन्हें भी मजबूर किया जा रहा है कि अपने पुराने वाहनों को कूड़े में फेंको. जहां तक प्रदूषण की बात है, तो शहरों में प्रदूषण की बहुत सी वजहें होती है. सब से बड़ी वजह तो मंदिरों का जबरदस्त निर्माण है जो प्रदूषण का सब से बड़ा केंद्र है क्योंकि हर मंदिर में न केवल सैकड़ों दीये बेकार में बड़ी इलैक्ट्रिक लाइटों के नीचे जलते हैं बल्कि वहां फूलों, पतरों, प्रसाद का कचरा भी फैला होता है.

हर मंदिर पहचाना तभी जाता है जब उस के बाहर की पटरी पर बीसियों दुकानें लगी हों जो मंदिर में चढ़ाने का सामान बेचती हों. ये दुकानें भयंकर प्रदूषण फैलाती हैं. टेढ़ीमेढ़ी ये दुकानें न केवल गंदी रहती हैं, देखने में भी गंदी लगती हैं. इन दुकानों की वजह से और मंदिर के सामने वाहन से उतरने वालों के कारण हर मंदिर के सामने ट्रैफिक रुका होता है. ट्रैफिक रुकना यानी प्रदूषण फैलना. इन मंदिरों को प्रदूषण का केंद्र क्यों नहीं माना जाता?

हमारे यहां अदालतें भी प्रदूषण के लिए जिम्मेदार हैं. सुप्रीम कोर्ट से ले कर पहली तालुका अदालत तक हर रोज 50 से 100 केस हर अदालत में लगे होते हैं जिन में सुनवाई 3-4 की होती है, बाकी केसों से जुड़े लोगों को बेकार में आना पड़ता है. अब अदालत तक आना तो वाहन से ही होगा और वाहन चाहे 10-15 साल पुराना हो या नया, बेकार में चलेगा, तो प्रदूषण तो बढ़ेगा ही. इन अदालतों को कोई दोष नहीं दे रहा कि इन की वजह से वाहनों का धुआं बिना काम के निकलता है.

सरकारी दफ्तर भी इसी तरह वाहनों के प्रदूषणों के लिए जिम्मेदार हैं. वे बेकार में लोगों को बुलाते हैं और फिर घंटों बैठा कर अगली बार आने को कह देते हैं.

कारों और कमर्शियल वाहनों की उम्र कार उद्योग की सिफारिश पर तय की गई है ताकि उन की कारें ज्यादा बिकें. ज्यादा कारें अपनेआप में प्रदूषण का स्रोत हैं. कचरा की गई कारें सड़कों के किनारे पड़ी दिख जाती हैं जो सालों जंग खाती रहती हैं और उन का हर पुरजा प्रदूषण फैलता रहता है.

15 साल से पुरानी रेलें देशों में दौड़ रही हैं, 15 साल से पुराने हवाई जहाज उड़ रहे हैं, 15 साल से पुराने पानी के जहाज तैर रहे हैं क्योंकि इन उद्योगों ने सरकार के बाबुओं के हाथों पर पैसे नहीं रखे और वे यह बात शान से कहते हैं कि उन के बनाए ये उपकरण 20-25 से भी ज्यादा साल चलते हैं.

यह नियम गलत है और आम आदमी के ‘संपत्ति के अधिकार’ का हनन है. वाहन जब तक सही व ठीकठाक चल रहा है, दूसरों को परेशान नहीं कर रहा, प्रदूषण जांच में खरा उतर रहा है तो कोई वजह नहीं कि उसे 10-15 ही क्यों बल्कि 20-25 साल क्यों न चलने दिया जाए. यह वाहन के मालिक का हक है कि वह 2 साल में अपने वाहन को फेंके या 20 साल में. सो, औटोमोबाइल इंडस्ट्री के भारी दबाव के आगे सरकार को झुकना नहीं चाहिए. GST Controversy

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