Women Freedom : आज की पीढ़ी की अधिकतर लड़कियां शिक्षित हैं, आत्मनिर्भर हैं और अपने लिए फैसले लेने का साहस रखती हैं. लेकिन समाज आज भी लड़की की आजादी स्वीकार नहीं कर पा रहा. उसे बाहर की दुनिया से जितना हो सके, उतना दूर रखने की कोशिश की जाती है कभी मर्यादा के नाम पर, कभी संस्कृति तो कभी सुरक्षा के नाम पर.

पिछले एक दशक से समाज के दकियानूसी संस्कारों पर ठोकरें लगनी शुरू हुई हैं तो सब उलटपलट सा गया है. लड़कियां पढ़ रही हैं. दुनिया को समझ रही हैं. वे अब अपना भविष्य खुद बनाना चाहती हैं, ऐसे में लड़कियों को निजी प्रौपर्टी समझने वाले समाज के बनावटी उसूल गड़बड़ाने लगे हैं.

समाज अभी लड़कियों को इतनी आजादी देने को तैयार नहीं है. लड़की मतलब घर की वह प्रौपर्टी जिस का परिवार से अलग कोई अस्तित्व नहीं. आजादखयाल लड़की का कौन्सैप्ट हमारे समाज की सोच से भी बाहर की चीज है. ऐसे समाज में आजादखयाल लड़कियों को बहुत सी मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है.

लड़की भी अपने बारे में सोच सकती है. वह किसी लड़के से प्यार कर सकती है. अपनी मरजी से शादी कर सकती है. ये बातें भारतीय समाज के लिए स्वीकार करने योग्य कतई नहीं हैं.

यहां कानून और समाज के बीच भयंकर टकराव है. कौन्स्टिट्यूशन के अनुसार 21 साल की लड़की आजाद है. वह अपने अनुसार जी सकती है, शादी कर सकती है. बिना शादी के अपने पार्टनर के साथ सैक्स कर सकती है लेकिन समाज की नजर में कोई औरत आजाद हो ही नहीं सकती. वह बिना शादी के सैक्स नहीं कर सकती. समाज की नजर में लड़की को सैक्स के लिए पार्टनर की नहीं, पति की जरूरत होगी और लड़की का पति कौन होगा, यह लड़की तय नहीं कर सकती. यहीं से समस्याएं खड़ी होती हैं.

कानून और समाज के बीच मध्यम मार्ग कोई नहीं है और समाज के आगे कानून भी लाचार नजर आता है. कानून का काम तो तब शुरू होता है जब कोई उस के द्वार खटखटाता है. यह कानून की मजबूरी है लेकिन समाज तो हर वक्त लड़की पर नजर बनाए रखता है. ऐसे में लड़की को अपनी मरजी से शादी करनी हो तो वह क्या करे?

शहरों में हालात बदल रहे हैं लेकिन गांवों व कसबों में आज भी लड़कियों के लिए कोई रास्ता नहीं है. वहां बदलाव बस इतना ही हुआ है कि लड़कियों को स्कूल भेजा जाने लगा है. बालविवाह में कमी आई है. लड़कियों की शादी में जल्दबाजी नहीं की जा रही. हर लड़का शादी के लिए औसत पढ़ीलिखी लड़की ढूंढ़ रहा है, इसलिए मांबाप अपनी बेटियों को पढ़ा रहे हैं. स्कूलकालेज जाने से लड़कियों में आत्मविश्वास आने लगा है और यही आत्मविश्वास उन्हें सामाजिक बंधनों के खिलाफ खड़ा कर रहा है.

गांवकसबों की लड़कियां भी अब इतनी नादान नहीं रह गईं कि परिवार की मरजी के आगे अपने जीवन को बलिदान कर दें. जवान होती हुई लड़की अपना भलाबुरा अच्छे से समझ रही है. अब वह किसी की भी प्रौपर्टी बन कर जीना नहीं चाहती. आज की लड़कियां रिश्तों के बंधनों से आजादी चाह रही हैं तो इस में गलत क्या है?

अपनी मरजी से शादी करने वाली लड़कियां गलत क्यों

लड़का अपनी मरजी से शादी कर ले तो ज्यादा होहल्ला नहीं मचता लेकिन लड़की ऐसा साहस करे तो समाज इसे लड़की का दुस्साहस समझता है. अपनी मरजी से शादी करने वाली लड़की को बहुतकुछ झेलना पड़ता है. इस के बावजूद समाज में उस के लिए कोई संवेदना पैदा नहीं होती जबकि लड़की समाज की वजह से ही ऐसा कदम उठाती है. लड़की भाग गई. लड़का भगा ले गया. लड़की ने नाक कटवा दी. ये सब ताने सिर्फ लड़कियों के लिए ही ईजाद किए गए हैं.

शहरों में स्थिति थोड़ी अलग है. शहरों में लड़कियां जौब करती हैं. नौकरी या कोई स्किल सीखने के लिए शहरों की लड़कियां अकेली घर से बाहर जाती हैं. प्रेम करती हैं. शहरों का समाज लड़कियों की आजादी को काफी हद तक स्वीकार कर चुका है. लड़कियों के मामले में शहर ज्यादा उदार हो चुके हैं, इसलिए यहां लव मैरिज एक सामान्य सी बात हो गई है लेकिन देश के कसबे और गांव आज भी लकडि़यों के लिए दड़बे बने हुए हैं, इसलिए गांव और कसबों में इस तरह के मामले तेजी से बढ़ रहे हैं.

कुछ समय पहले बिहार के तात्कालिक डीजीपी एस के सिंघल एक कार्यक्रम में समाज में बढ़ रहे अपराधों पर भाषण दे रहे थे. उन्होंने मातापिता की इच्छा के खिलाफ घर से भाग कर शादी करने की प्रवृत्ति के बढ़ने पर अफसोस का इजहार करते हुए कहा, ‘‘अभी बेटियों में घर से भाग कर शादी करने की प्रवृत्ति तेजी से बढ़ी है. वे मातापिता को बिना बताए भाग कर शादी करने लगी हैं. बाद में इस के बहुत ही बुरे परिणाम देखने को मिल रहे हैं.

एक ओर जहां उन का अपने परिवार से दुराव हो रहा है वहीं दूसरी ओर कई लड़कियों को देह व्यापार के धंधे में उतार दिया जाता है. कई मामलों में लड़कियों का साथी अकेले छोड़ कर भाग जाता है जिस के कारण उन की भावी जिंदगी कष्टकारी हो जाती है. यह न केवल लड़कियों के लिए बल्कि उन के पूरे परिवार के लिए बहुत ही पीड़ा देने वाला होता है.’’

हालांकि, यह अलग बात है कि बिहार के अभिभावकों को अपनी बेटियों को नियंत्रण में रखने का शिष्टाचार सिखाने वाले डीजीपी एस के सिंघल खुद भ्रष्टाचार में पकड़े गए. वे सिपाही बहाली प्रश्नपत्र लीक मामले में दोषी पाए गए.

डीजीपी साहब के भ्रष्टाचार का मामला अलग है. यहां बात उन संस्कारों की हो रही है जिन में लड़कियों को बांधे रखने की वकालत डीजीपी एस के सिंघल जैसे लोग करते हैं. इन्हीं संस्कारों में हजारों वर्षों तक लड़कियों को बांधे रखा गया. लड़की को क्या पहनना है, कहां जाना है, कितना हंसना है, किस से शादी करनी है, कब शादी करनी है, भारतीय समाज में लड़कियों के लिए ये कभी उस के निजी मामले नहीं थे. घरवालों ने जहां तय कर दिया उसे वहीं शादी करनी होती थी और जीवनपर्यंत उस शादी को निभाना भी लड़कियों की जिम्मेदारी थी. ससुराल कैसा भी हो, पति जैसा भी हो लड़की को ही झेलना पड़ता था क्योंकि वह पिता की संपत्ति ही मानी जाती रही है.

बढ़ते अपराध, शादी के साइड इफैक्ट

इधर लगातार ऐसी खबरें सुर्खियों में रहीं जिन में औरतों ने अपने पतियों की बेरहमी से हत्याएं कर दीं. अपराध की ये घटनाएं इस बात को जस्टिफाई नहीं करतीं कि औरतों को संस्कारों के दायरे में कैद रखना सही है.

अगर पिछले एक साल के अपराधों पर नजर डालें तो 70 प्रतिशत मामलों में पतियों ने अपनी पत्नियों की हत्याएं की हैं. इस से मर्दों को संस्कारों में बांधने की वकालत तो कोई नहीं कर रहा. ऐसे मामले में जहां पति या पत्नी अपने जीवनसाथी को रास्ते से हटाने के लिए कत्ल तक करने की हिमाकत करते हैं वहां सवाल तो यह उठना चाहिए कि समाज में तलाक की सहज स्वीकार्यता क्यों नहीं है?

तलाक हमारी संस्कृति में शामिल क्यों नहीं है? लोगों को तलाक से आसान हत्या करना क्यों लग रहा है?

सोनम रघुवंशी, मुसकान रस्तोगी और शबनम शैफी जैसी औरतों ने तलाक का रास्ता क्यों नहीं चुना? अपराधी कोई भी हो सकता है. मर्द भी और औरत भी. लेकिन कुछ अपराधों में शामिल औरतों के उदाहरण ले कर आधी आबादी को कटघरे में खड़ा कर देना कहां तक उचित है?

1860 से 1910 के दशकों में यूरोप में सब से ज्यादा औनरकिलिंग हुईं. उस दौरान बड़ी तादाद में पतियों ने अपनी पत्नियों को मारा और पत्नियों ने अपने पतियों की हत्याएं कीं. यूरोपीय समाज ने इस से सबक लिया और लड़कियों को अपनी मरजी से जीने की छूट दी. यूरोपियन समाज ने परंपरागत शादियों की जगह लव मैरिजेज को बढ़ावा देना शुरू किया. तलाक के नियमों को आसान बनाया गया.

इस से कुछ ही दशकों में यूरोपीय समाज में बड़ी क्रांति देखी गई. 1950 आतेआते यूरोप में कामगार औरतों का अनुपात आश्चर्यजनक रूप से बढ़ गया. 1910 में जहां हैल्थ, एजुकेशन, इंडस्ट्रीज और हौस्पिटैलिटी में लड़कियां महज 9.3 प्रतिशत थीं वहीं 1950 तक जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में औरतों की 37 प्रतिशत तक की भागीदारी हो गई.

आधी आबादी की पूरी आजादी जरूरी क्यों

यूरोप ने लड़कियों की क्षमताओं को समझ और उन्हें संस्कारों व परंपराओं की बेडि़यों से आजाद कर दिया. संस्कारों और परंपराओं की आड़ में आधी आबादी को निष्क्रिय कर कोई भी समाज तरक्की नहीं कर सकता. औरत का अपना एक अस्तित्व है और इस अस्तित्व की गहराई में भावनाएं हैं, इच्छाएं है, प्रेम हैं, समर्पण है और वासना भी.

अगर औरत के अस्तित्व को ही कैद कर दिया जाए तो उस के अंदर की ये सारी वेदनाएं किसी न किसी रूप में बाहर जरूर निकलेंगी और सबकुछ उलटपलट देंगी. ऐसे में जरूरी है कि औरत को एक इंडिविजुअल के तौर पर भी स्वीकार किया जाए.

औरतों पर जुल्म जिन की रिपोर्टिंग नहीं होती

महिलाओं के विरुद्ध अपराधों के मामले में भारत को दुनिया के सब से खतरनाक देशों में गिना जाता है. भारत में प्रतिदिन तकरीबन 90 रेप के केसेस दर्ज होते हैं. देश की राजधानी दिल्ली में 2022 के डाटा अनुसार हर घंटे औसतन 3 बलात्कार की घटनाएं दर्ज हुईं. क्या ये सभी मामले सोशल मीडिया पर सुर्खियां बटोरते हैं? क्या न्यूज चैनल्स इन खबरों पर चीखपुकार करते हैं?

केंद्रीय गृह मंत्रालय के अंतर्गत आने वाले नैशनल क्राइम रिसर्च ब्यूरो के मुताबिक, साल 2022 में उत्तर प्रदेश में महिलाओं के खिलाफ अपराध के 65,743 मामले दर्ज हुए. यह देश के किसी भी राज्य की तुलना में सब से अधिक है, साथ ही, साल दर साल यह आंकड़ा बढ़ा भी है. आंकड़ा यह भी बताता है कि ‘पाताल से अपराधियों को खोज लाने’ का दावा करने वाली सरकार 2021 तक लंबित मामलों की जांच तक नहीं करा पाई.

आमतौर पर उत्तर प्रदेश की सरकार कानून व्यवस्था का खूब ढोल पीटती है. यूपी सरकार में एनकाउंटर और बुलडोजर न्याय का पर्याय बने हुए हैं लेकिन यूपी में औरतों पर होने वाले अत्याचारों में लगातार बढ़ोतरी हुई है जिस पर मेनस्ट्रीम मीडिया, प्रिंट मीडिया और सोशल मीडिया में कोई चर्चा तक नहीं होती क्योंकि औरतें आदमी की प्रौपर्टी है, जैसा मर्जी व्यवहार करो की भावना पूरे पुलिस महकमे में भरद्ध है.

उत्तर प्रदेश के बाद दिल्ली, हरियाणा, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, ओडिशा और राजस्थान महिलाओं के खिलाफ सर्वाधिक अपराध वाले राज्य हैं. 2021 के मुकाबले 2022 में महिलाओं के प्रति अपराध में 4 प्रतिशत का इजाफा हुआ है. यही वजह है कि ‘महिला, शांति और सुरक्षा सूचकांक 2021’ में भारत 170 देशों में से 148वें स्थान पर है.

नारी के खिलाफ अपराधों में नारी अस्मिता की बकवास करने वाले और नारी को पूजने वाले लोगों की हकीकत उजागर होती है. इस तरह की जघन्य घटनाओं में संस्कार, मर्यादा और संस्कृति की घिसीपिटी दुहाई देने वाले समाज का घिनौना चेहरा भी पूरी तरह बेनकाब हो जाता है.

न्यूज चैनलों पर केवल ‘सिलैक्टिव’ मामले ही सुर्खियों में आते हैं क्योंकि यह सिलैक्टिव विचारधारा की औब्जैक्टिव राजनीति का परिणाम है.

महिलाओं के विरुद्ध अपराधों के मामले में राष्ट्रीय महिला आयोग और देश की महिला सांसदों का रवैया क्या है, बताने की जरूरत नहीं. हर साल देश की हजारों बेटियां हवस का शिकार होती हैं. मंदिरमसजिद में मासूम बच्चियों संग गैंगरेप होते हैं लेकिन इस से शीर्ष पदों पर बैठी महिलाओं को कोई फर्क नहीं पड़ता.

सांप्रदायिक मुद्दों पर गला फाड़फाड़ कर चिल्लाने वाली महिला एंकर्स के लिए बलात्कार जैसी घटनाएं भी राजनीति और टीआरपी का खेल बन जाती हैं. किसी बलात्कार पर तभी शोर मचता है जब मामले में सांप्रदायिक पहलू शामिल हो वरना महिलाओं के खिलाफ जघन्यतम मामलों में भी कोई होहल्ला नहीं मचता. जब तक किसी मामले में टीआरपी का ग्राफ ऊपर न उठे तब तक टीवी पर नजर आने वाली महिला एंकरों को नारी पर होने वाले किसी भी अपराध से कोई फर्क नहीं पड़ता.

भारत की महान संस्कृति का दर्शन करने आने वाली विदेशी नारियों के साथ भी रेप हुए लेकिन प्राइम टाइम में कोई शोर न हुआ क्योंकि ये घटनाएं उन राज्यों में घटित हुईं जहां ‘राष्ट्रवादी’ सरकारें हैं. इन घटनाओं पर विदेशों में भारत की ‘महान’ संस्कृति सुर्खियों में रही लेकिन देश की मीडिया और मीडिया में बैठी खूबसूरत बालाएं खामोश रहीं. इस कुसंस्कृति पर वे एक शब्द भी नहीं बोल पाईं लेकिन धार्मिक मामलों में टीवी पर बैठी यही नारी शक्तियां चिल्लाती हुई दिखाई देती हैं.

15 मार्च, 2025 को एक ब्रिटिश महिला का दिल्ली के एक होटल में रेप किया गया. 8 मार्च यानी महिला दिवस के दिन तेलंगाना के हम्पी में 2 इजराइली औरतों का रेप हुआ. फरवरी में ही दिल्ली की एक अदालत ने एक आयरिश महिला के रेप और हत्या मामले में दोषियों को उम्रकैद की सजा सुनाई. क्या इन में से कोई भी खबर सुर्खियां बटोर पाई? क्या इन खबरों पर देश में कोई शोर मचा?

आगे का अंश बौक्स के बाद 

=======================================================================================

पत्नियों की हत्या के कुछ ताजा मामले

मार्च 2025 : सारंगढ़, बालोद और कोंडागांव में तीन पत्नियों की हत्याएं.

अप्रैल 2025 : मामूली घरेलू विवादों में 10 जगहों पर पतियों द्वारा पत्नियों का कत्ल कर डाला.

मई 2025 : चरित्र शक और मामूली विवाद में इस महीने भी 10 पत्नियों की हत्या.

15 जून, 2025 : मामूली घरेलू विवाद में 6 जगहों पर पति ने पत्नियों को मार डाला- इन में शक के चलते 10 से ज्यादा मर्डर, 6 बार नशे की हालत में कत्ल, 2 पत्नियों की हत्या संबंध बनाने से इनकार पर, बाकी वजहें- दहेज और तनाव. ये सारे मामले भारत के केवल एक राज्य मध्य प्रदेश के हैं.

=======================================================================================

पिछले 2 महीनों में पुरुषों द्वारा अपनी पत्नियों की हत्या के 30 से ज्यादा मामले दर्ज हुए हैं. वहीं पत्नियों द्वारा पतियों की हत्या के मामले इस के आधे भी नहीं हैं लेकिन शोर केवल औरतों द्वारा किए गए अपराधों पर मच रहा है.

सोशल मीडिया और मेनस्ट्रीम मीडिया दोनों पूरी तरह जातिवादी पुरुषों के हाथों में हैं जो औरतों पर होने वाले अत्याचारों व अपराधों को गंभीरता से तभी लेते हैं जब विक्टिम ऊंची जाति की हो और अपराधी निचली जाति से हो या दूसरे धर्म का हो. अगर अपराधी और पीडि़त दोनों अपनी ही जाति से हों तो मामले को एक कोने में सरका दिया जाता है.

‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ के शोर में बहुत सी बेटियां खामोश कर दी जाती हैं. कुछ पेट में ही मार दी जाती हैं, कुछ खाली पेट मर जाती हैं. लेकिन ये लड़कियां प्राइम टाइम की खबरों में जगह नहीं बना पातीं.

मलाला हो या सबरीमाला, औरत से दिक्कत सभी धर्मों को है क्योंकि औरत की शिक्षा से उस की आजादी से धर्मों की बुनियादें हिलने लगती हैं. सतीप्रथा खत्म हो चुकी है लेकिन औरत को जिंदा जलाने की मानसिकता आज भी मौजूद है. जब मणिपुर की औरतों को सरेआम बीच चौराहे पर उन के जिस्म से आखिरी कपड़ा तक उतार कर उन्हें भरे बाजार में नंगा घुमाया गया तब भी मीडिया में बैठी नारीशक्ति के आंख, कान, जबान सब बंद हो गए थे. नारी केवल प्रौपर्टी है. पुरुष चाहे जैसे उस का दुरुपयोग करे, यह पूरे समाज में फैला है, सिर पर कलश ढोने वालियों में भी और हिजाब पहनने वालियों में भी. Women Freedom

और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...