Hindi Satire : पंडितजी की जिंदगी में दक्षिणा वो ईंधन है, जो उन के मंत्रों की गाड़ी को चलाता है. अब दक्षिणा का रेट कार्ड भी बड़ा रोचक होता है. इसलिए एक सलाह है-पंडितजी को अगली बार बुलाओ तो पहले दक्षिणा का बजट फिक्स कर लेना वरना जेब हलकी होने में वक्त नहीं लगेगा.

पंडित दो प्रकार के होते हैं. एक पोथी पढ़़े हुए और दूसरे ढाई आखर पढ़े हुए. नाई का काम बाल काटना है और जेबकतरे का काम जेब काटना. वैसे ही पंडित का काम पूजापाठ करना, मंत्रोच्चारण कर विवाह करवाना आदि होता है. इस के लिए उन्हें मजबूरी में दक्षिणा लेनी पड़ती है. घोड़ा घास से यारी करे तो खाए क्या. पंडितजी का धंधा मस्त चल रहा है. आगे भी चलता रहेगा. जन्म, विवाह और मृत्यु हमेशा चलते रहेंगे. और ये तीनों संस्कार पंडितजी के कर कमलों से ही संपन्न होंगे. उन्हें दक्षिणा मिलती रहेगी.

‘बिन फेरे हम तेरे’ भारत में नहीं चलता. हां, भारतीय फिल्मों में यह खूब चलता है. हकीकत में पंडित से फेरे पड़वाना अनिवार्य होता है. पिछले दिनों मुझे एक विवाह कार्यक्रम में शिरकत करनी पड़ी. विवाह मंडप में एनआरआई दूल्हादुलहन बैठे थे. बीच में हवनकुंड था.

पंडितजी ने सब से पहले अपना परिचय दिया, बताया कि वे चार विषयों में एमए और पीएचडी हैं. मतलब वे पोंगा पंडित नहीं, असली पोथी पड़े हुए पंडित हैं. अपनी योग्यता बता कर उन्होंने समारोह में अपनी धाक जमा ली थी.

गेरूआ कलर का कुरता पहन रखा था. वे इस पोशाक में बगुले जैसे लग रहे थे. गेरूआ कलर के परिधान का आतंक उपस्थित लोगों पर खूब पड़ रहा था.

धीरेधीरे सभा में उन का प्रभामंडल स्थापित हो गया था. विवाह की कार्रवाई आगे बढ़ती जा रही थी. जैसाजैसा पंडितजी निर्देशित करते जा रहे थे वैसावैसा दूल्हादुलहन और उन के सहायक कठपुतली की तरह करते जा रहे थे.

कभी कहा जाता कि हाथ में फूल लो और अब सिक्का लो, कंकुम लो, चावल लो, उस में थोड़ा पानी छिड़को आदि. इस प्रक्रिया में बारबार सिक्कों की जरूरत पड़ रही थी. अब कैशलैस डिजिटल के इस दौर में सिक्के कहां मिलते. न पहले आगाह किया गया था. फिर भी कहीं से सिक्कों को जुटा कर मांग की आपूर्ति की जा रही थी.

जहां थोड़ीबहुत चूक होती, वे पश्चिमी संस्कृति पर बरसने लगते. माइक उन के हाथ में था ही. तीनचार दफा उन्होंने पश्चिमी संस्कृति को गरियाने में अपना और उपस्थित जनों का अमूल्य समय नष्ट किया. अपनी संस्कृति को श्रेष्ठ बताने के लिए पश्चिमी संस्कृति को गरियाने का आजकल फैशन भी है. जबकि, विश्वगुरु के बच्चों को उसी संस्कृति की शरण में शिक्षा और रोजगार पाने के लिए जाना पड़ता है.

पंडितजी भी निज संस्कृति की लकीर के फकीर थे. बड़ी लकीर को मिटाए बिना इन तोतों का काम नहीं चलता. बड़ी लकीर खींचना कठिन काम है. सरल काम है बड़ी लकीर को मिटाना. हो यह रहा है कि ये न तो बड़ी लकीर मिटा पा रहे हैं और न अपनी लकीर बड़ी कर पा रहे हैं. कुछ देर बाद यह लो, वह लो, यह करो, वह करो और स्वाहास्वाहा होने लगता था.

दूल्हादुलहन, बकौल कबीर के, ढाई आखर प्रेम के पढ़े हुए पंडित थे. लेकिन उन ढाई आखर पढ़े हुओं को सामाजिक मान्यता पोथी वाला पंडित ही देता है. असली पंडित तो पोथी वाले पंडितजी ही थे. ढाई आखर वाले पंडितों पर पोथी वाले पंडितजी भारी पड़ रह थे. इस या उस क्रियाविधि में बारबार सिक्का निकालने को कहा जा रहा था.

पंडितजी जानते थे कि जब लोहा गरम हो तब ही उस पर चोट करना चाहिए. तभी वांछित फल की प्राप्ति होती है. दूल्हादुलहन जब एनआरआई हों तो पंडितजी अधिक दक्षिणा झटकने का सुअवसर पा ही जाते हैं. ऐसे जजमान कम ही हत्थे चढ़ते हैं.

ऐसे अवसर को कोई मूरख ही होगा जो खोना चाहेगा. विवाह में जब लाखों का खर्च हो रहा हो तो कुछ हजार खींच भी लिए तो कोई गैरवाजिब नहीं. जब गंगा बह रही हो तो पंडितजी उस में हाथ क्यों न धोएं. लगभग अंत में लेकिन फेरों के पहले पंडितजी ने मंडप में विधिपूर्वक वर और वधू दोनों पक्षों से लगभग 6 हजार रुपए रखवा लिए.

वे विवाह के नाम पर तीसेक हजार तो पहले ही झटक चुके थे. उन्हें मालूम था कि रुपए की औकात ही क्या है. रुपए को डौलर के अधीन रहना पड़ता है. डौलर की जेब में आज की तारीख में छियासी रुपए आ जाते हैं और डौलर कमजोर होने वाला नहीं.

इस तरह हंसीखुशी विवाह संपन्न हुआ. घरातीबराती और पंडितजी सभी खुश थे. कार्यक्रम की सराहना की गई. सब ने खापी कर अपनीअपनी राह पकड़ी.

लेखक : गोविंद सेन

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