Caste War : दुनिया के सब से बड़े राजनीतिक दल भाजपा के सामने दिक्कतें बढ़ती जा रही हैं. अब विपक्ष पहले से कहीं अधिक जागरूक हो चुका है. ऐसे में भाजपा क्या अपने ही बोझ से दब कर टूट जाएगी?
भारतीय जनता पार्टी देश की सब से बड़ी पार्टी बन चुकी है. भाजपा का दावा है कि वह दुनिया की सब से बड़ी राजनीतिक पार्टी है. 18 से 20 करोड़ के बीच भाजपा के सदस्यों की संख्या है. केंद्र में 2014 के बाद से लगातार एनडीए की अगुवाई करते हुए भाजपा नेता नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने हुए हैं. देश के 20 राज्यों में भी भाजपा सत्ता में है. उन में से 14 राज्यों में भाजपा के मुख्यमंत्री हैं और 6 राज्यों में सहयोगी दलों के साथ सत्ता में हैं. एक समय में यही हालत कांग्रेस की थी. कुछ समय के बाद अपने ही बोझ से दब कर कांग्रेस डूब गई.
भारतीय जनता पार्टी ने सत्ता में बने रहने के लिए जिस तरह से अलगअलग विचारधाराओं के नेताओं और कार्यकर्ताओं को पार्टी से जोड़ा उस से पार्टी के अंदर ही अंदर काफी रोष फैला हुआ है. इस के अलावा भाजपा अगड़ी जातियों का प्रतिनिधित्व करती रही है. अब सत्ता में बने रहने के लिए भाजपा को जिस तरह से एससी और ओबीसी जातियों की जीहुजूरी करनी पड़ रही है उस से अगड़ी जातियों के नेता और कार्यकर्ता कसमसा रहे हैं. जातियों के बीच संतुलन बनाए रखना पार्टी की सब से बड़ी परेशनी बन गई है. अब यह परेशानी खुल कर सामने आ रही है.
इस का सब से बड़ा उदाहरण पार्टी को राष्ट्रीय अध्यक्ष चुनने में पहली बार इतनी देरी हो रही है. पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा का कार्यकाल लोकसभा चुनाव के समय खत्म हो गया था. 2024 से अब तक एक साल बीतने के बाद भी पार्टी राष्ट्रीय अध्यक्ष का चुनाव नहीं कर पाई. बात केवल राष्ट्रीय अध्यक्ष चुनने तक सीमित नहीं रही है. प्रदेश अध्यक्ष, मुख्यमंत्री और मंत्रिमंडल बनाने तक में उस को जातीय समीकरण बैठाना पड़ता है. पहले यह काम संगठन स्तर पर हो जाता था. अब जैसे ही एक नाम सामने आता है दूसरा खेमा विरोध करने लगता है. जिस की वजह से किसी पदाधिकारी का चुनाव करना मुश्किल हो जाता है. अलगअलग प्रदेशों में अध्यक्ष के चुनाव में इस तरह का विरोध खूब देखने को मिल रहा है.
भाजपा जब तक सत्ता में है, मीडिया पर उस का पूरा कंट्रोल है, पैसा कुछ के ही हाथ में है. ऐसे में विरोध के स्वर मुखर नहीं हो रहे हैं लेकिन जैसे ही वह कोई कदम लेने को होती है, पार्टी के भीतर और बाहर विरोध से सुर उभरने लगते हैं. यह किसी एक प्रदेश की कहानी नहीं है. विरोध के सुर कई प्रदेशों में खदबदा रहे हैं. जिस तरह से हांडी के एक चावल को देखने से पता चल जाता है कि पूरी हांडी के चावल पके हैं या नहीं उसी तरह से विरोध का एक स्वर बता देता है कि पार्टी में क्या चल रहा है?
तेलंगाना का ताजा उदाहरण सामने है. वहां भाजपा को बड़ा झटका तब लगा जब उस के फायर ब्रैंड नेता और विधायक टी राजा सिंह ने पार्टी से इस्तीफा दे दिया. टी राजा पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष पद पर एन रामचंद्र राव का नाम सामने आने के बाद नाराज हो गए थे. टी राजा सिंह ने सोशल मीडिया हैंडल ‘एक्स’ पर अपनी पोस्ट में लिखा कि ‘बहुत से लोगों की चुप्पी को सहमति नहीं समझ जाना चाहिए. मैं सिर्फ अपने लिए नहीं बल्कि उन अनगिनत कार्यकर्ताओं और मतदाताओं के लिए बोल रहा हूं जो हमारे साथ आस्था के साथ खड़े थे और जो आज निराशा महसूस कर रहे हैं’. तेलंगाना में सरकार कांग्रेस की है और नेताओं के पास अवसर हैं कि वे कांग्रेस में जा मिले.
टी राजा ने भाजपा प्रदेश अध्यक्ष बंदी संजय कुमार को भेजे पत्र में लिखा कि ‘भले ही मैं पार्टी से अलग हो रहा हूं, लेकिन मैं हिंदुत्व की विचारधारा और हमारे धर्म और गोशामहल के लोगों की सेवा के लिए पूरी तरह प्रतिबद्ध हूं. मैं अपनी आवाज उठाता रहूंगा और हिंदू समुदाय के साथ और भी अधिक मजबूती से खड़ा रहूंगा. यह एक कठिन निर्णय है, लेकिन एक जरूरी निर्णय है.’ टी राजा सिंह भाजपा के लिए मजबूत नेता थे. उन की तरह ही अलगअलग राज्यों में यह बेचैनी अंदर ही अंदर बढ़ रही है. हिंदुत्व की ढाल ही अब भारतीय जनता पार्टी के पास बची है पर उस से वोट नहीं मिलते. यह जून 2024 के लोकसभा चुनाव और तेलंगाना के विधानसभा चुनावों में साफ हो गया था.
कहां चला गया एक नेता एक पद का सिद्धांत
भाजपा को अपने राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा को उन का कार्यकाल खत्म होने के बाद भी उन को लंबे समय तक पद पर बनाए रखना पड़ा. भाजपा इस बात का बखान बड़े जोरशोर से करती है कि उस की पार्टी में एक नेता एक पद का सिद्धांत ही काम करता है. इसी वजह से जब 2019 में अमित शाह को मोदी मंत्रिमंडल में गृहमंत्री बनाया गया तो उन को राष्ट्रीय अध्यक्ष का पद छोड़ना पड़ा. जिस के बाद जेपी नड्डा राष्ट्रीय अध्यक्ष बने. आखिर 2019 और 2024 के बीच क्या बदल गया जो जेपी नड्डा को उन के पद से हटाने में मुश्किल आ गई.
2024 के लोकसभा चुनाव के बाद
जेपी नड्डा को मोदी मंत्रिमंडल में जगह दी गई. इस के बाद भी जेपी नड्डा राष्ट्रीय अध्यक्ष पद पर भी बने रहे. सवाल उठता है कि जो सिद्धांत अमित शाह के मामले में काम कर रहा था उस ने जेपी नड्डा के समय काम क्यों नहीं किया. असल में 2019 और 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को जिस तरह से वोट मिले जितनी भाजपा की सीटें आईं उन के कारण ही भाजपा को फैसला करने में कठिनाई आई. 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को 2014 के लोकसभा से अधिक सीटें मिली थीं. ऐसे में भाजपा ताकतवर थी. उस ने एक झटके में अमित शाह को गृहमंत्री बना दिया और जेपी नड्डा को राष्ट्रीय अध्यक्ष बना दिया.
2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा की सीटें घट कर 240 रह गईं. वह अपने बूते सरकार बनाने में सफल नहीं हुई. उस को दूसरे दलों का सहारा लेना पड़ा. चुनावी हार का कारण यह था कि हिंदुत्व के बावजूद एससी और ओबीसी का समर्थन उस को नहीं मिला. उत्तर प्रदेश में उस को केवल 33 सीटें ही मिल सकीं जबकि उस की विरोधी समाजवादी पार्टी को 37 सीटें मिलीं. यानी भाजपा की ताकत घटी.
पार्टी ने राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा को मोदी मंत्रिमंडल में शामिल कर लिया पर उन की जगह पर अपनी मनपसंद का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनवाने में दिक्कत पेश आ रही है. ऐसे में लगातार एक पद एक नेता सिद्धांत को दरकिनार कर के जेपी नड्डा ही राष्ट्रीय अध्यक्ष बने रहे.
लोकसभा में भाजपा की सीटें घटने का प्रभाव भले ही नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनने से नहीं रोक पाया पर पार्टी के भीतर मोदीशाह के फैसलों को प्रभावित किया. अगर 2019 के चुनाव जैसी सफलता भाजपा को 2024 के चुनाव में भी मिली होती तो जेपी नड्डा को हटा कर दूसरा कोई राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाने में दिक्कत नहीं आती. भाजपा के कमजोर होने से मोदीशाह के फैसलों पर आरएसएस अपनी धौंस जमाने लगा है. वह अपनी पसंद का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाना चाहता है. मोदीशाह अपनी पसंद को बनाए रखना चाहते हैं. ऐसे में बीच का रास्ता यह निकाला गया कि एक नाम पर दोनों सहमत हो जाएं. अब भाजपा पर आरएसएस की पकड़ मजबूत होती जा रही है. अब भाजपा को संतुलन बना कर काम करना पड़ रहा है.
उत्तर प्रदेश में बढ़ी मुश्किल
भाजपा में सब से बड़ी गुटबाजी उत्तर प्रदेश में चल रही है. 2024 के लोकसभा चुनाव में सब से बड़ा नुकसान भाजपा को इसी प्रदेश में हुआ जबकि भाजपा को यह लग रहा था कि अयोध्या में भव्य राममंदिर निर्माण के बाद उत्तर प्रदेश में उस की स्थिति मजबूत होगी. लोकसभा चुनाव में राममंदिर के नाम पर भाजपा को वोट नहीं मिले. यही भाजपा और आरएसएस की चिंता का कारण है. चुनाव में धर्म का असर खत्म होते ही मसला जाति पर टिक जाता है. जाति के मसले पर भाजपा को नुकसान हो जाता है. ऐसे में जातीय गुटबाजी उभार मारने लगती है.
लोकसभा चुनाव में हार के बाद उत्तर प्रदेश के उपमुख्यमंत्री केशव मौर्य ने हार का ठीकरा प्रदेश सरकार पर फोड़ दिया. उन के निशाने पर शुरू से ही मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ रहे हैं. भाजपा धर्म के वोट पर प्रभाव के कारण ही योगी आदित्यनाथ को आगे किए है. सवाल उठ रहा है कि जब धर्म का मुद्दा वोट नहीं दिला पा रहा क्या तब भी भाजपा योगी आदित्यनाथ पर ही दांव लगाने का खतरा मोल लेगी? तेलंगाना में फायरब्रैंड नेता और विधायक टी राजा सिंह को दरकिनार किया गया, उस से साफ संकेत मिल रहा है कि उत्तर प्रदेश में भी धर्म की जगह जातीय समीकरणों पर ज्यादा ध्यान दिया जाएगा.
उत्तर प्रदेश में 2017 के विधानसभा चुनावों के बाद जब से योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री बनाया गया. उसी समय से उन का विरोध चल रहा है. केशव प्रसाद मौर्य का लगातार दूसरी बार उपमुख्यमंत्री का पद दिया गया जबकि 2022 के विधानसभा चुनाव में वह अपनी सीट भी हार गए थे. योगी आदित्यनाथ और पार्टी संगठन मंत्री सुनील बंसल के बीच भी टकराव होता रहा. जिस के कारण सुनील बंसल को उत्तर प्रदेश से हटाया गया.
योगी आदित्यनाथ पर जातिगत राजनीति करने का आरोप लगा. यह आरोप उस समय कांग्रेस के नेता रहे जतिन प्रसाद ने लगाया. योगी आदित्यनाथ को ब्राह्मण विरोधी बताया. यह बात और थी कि इस के बाद जतिन प्रसाद भाजपा में शामिल हो गए. पहले वह प्रदेश सरकार में मंत्री थे. 2024 के लोकसभा चुनाव के बाद उन को केंद्र सरकार में मंत्री बना दिया गया. योगी आदित्यनाथ को हटाने की खबरें लगातार उत्तर प्रदेश में आती रहती हैं. इस के पीछे भाजपा के नेताओं की गुटबाजी सब से प्रमुख कारण है.
बिहार में क्यों नाराज हो रहे हैं चिराग पासवान लोकजनशक्ति पार्टी के नेता और केंद्र सरकार में मंत्री चिराग पासवान बिहार के विधानसभा चुनाव में अधिक सीटों पर चुनाव लड़ने के लिए भाजपा पर दबाव बना रहे हैं. वैसे तो वह खुद को नरेंद्र मोदी का हनुमान कहते हैं. इस के बाद भी अंदर ही अंदर वह दबाव की राजनीति अपना रहे हैं. बिहार में इस साल के आखिरी में विधान सभा के चुनाव होने वाले हैं. बिहार में भाजपा का प्रमुख सहयोगी जदयू है. जदयू यह चाहता है कि भाजपा चुनाव के पहले ही नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित कर दे.
दूसरी तरफ चिराग पासवान यह चाहते हैं कि बिहार विधानसभा चुनाव में उन को मुख्यमंत्री का चेहरा बनाया जाए. वही भाजपा का एक खेमा यह चाहता है कि पार्टी अपने नेता को मुख्यमंत्री का फेस बना कर चुनाव में उतरे. इसी कारण चिराग पासवान और जदयू अपनीअपनी खींचतान में लगे हैं. भाजपा को पता है कि अकेले वह बिहार के चुनाव में राजद और कांग्रेस का मुकाबला नहीं कर सकती है. ऐसे में उस को चिराग पासवान और नीतीश कुमार सहित दूसरे नेताओं को भी साधना पड़ेगा.
हरियाणा, महाराष्ट्र और राजस्थान राज्यों के नेता अनिल विज, किरोड़ी लाल मीणा और पंकजा मुंडे नाराज चल रहे हैं. पंकजा मुंडे ने पिछले दिनों यह कह कर विवाद खड़ा कर दिया कि उन के पिता के समर्थक एकत्र हो जाएं तो वह एक नई पार्टी खड़ी कर सकती है. पंकजा मुंडे भाजपा के बड़े नेता रहे गोपीनाथ मुंडे की पुत्री हैं. पंकजा मुंडे को पार्टी से जितनी उम्मीद थी उतना उन को नहीं मिला, इस को ले कर वह लंबे समय से पार्टी से नाराज चल रही है. महाराष्ट्र में देवेंद्र फडणवीस को महत्त्व मिलने से पंकजा मुंडे को नाराजगी है.
राजस्थान में विधानसभा चुनाव के बाद जब भजनलाल शर्मा को मुख्यमंत्री बनाया गया तब से किरोड़ी लाल मीणा नाराज चल रहे हैं. वह लगातार सरकार के खिलाफ बोल रहे हैं. उन का कहना है कि जिन बुराइयों को दूर करने के लिए हम ने आंदोलन किए, सरकार बनाई वह बुराइयां आज भी कायम हैं. उन मुद्दों पर काम नहीं किया गया वे आज भी कायम हैं. किरोड़ी लाल मीणा राज्य सरकार में अच्छा विभाग न मिलने से नाराज चल रहे हैं.
हरियाणा सरकार में कैबिनेट मंत्री अनिल विज भी नाराज हैं. वह हरियाणा के मुख्यमंत्री नायब सिंह सैनी और प्रदेश अध्यक्ष मोहन लाल बडौली के खिलाफ लगातार बयानबाजी कर रहे थे. प्रदेश अध्यक्ष की तरफ से उन को कारण बताओ नोटिस भी जारी किया गया है. इस को पार्टी की नीति के खिलाफ और पार्टी की छवि को खराब करने वाला बताया गया है. ऐसे में पार्टी का अनुशासन टूट रहा है. अब पार्टी के नेता और कार्यकर्ता ही पार्टी पर हमले कर रहे हैं. कमोबेश यह हालत पूरे देश में पार्टी की हो गई है. अब पार्टी अपने ही नेताओं और कार्यकर्ताओं के बोझ को संभाल नहीं पा रही है.
पुरू की सेना के हाथी हो गए हैं भाजपा के जातीय महारथी
जातीय गुटबाजी में संतुलन बनाए रखने के कारण ही मुख्यमंत्री के साथ 2 उपमुख्यमंत्री बनाए गए. उत्तर प्रदेश से निकला यह फार्मूला राजस्थान, मध्य प्रदेश, छतीसगढ़ और महाराष्ट्र में भी चला. अब प्रदेश अध्यक्षों के चुनाव में यह संतुलन फिर से बनाना होगा. राष्ट्रीय अध्यक्ष के पद पर पहली बार जातीय दबाव महसूस किया जा रहा है. भाजपा के जातीय महारथी अब पुरु की सेना के हाथी जैसे हो गए हैं, जिस के चलते वे अपनी ही पार्टी के लिए खतरा बन गए हैं.
झेलम नदी के किनारे सिकंदर और पुरु के बीच युद्ध हुआ. पुरु की सेना में बड़ी संख्या में हाथी थे जो दीवार की तरह से सिकंदर की सेना के सामने खड़े हो गए. सिकंदर को समझ नहीं आ रहा था कि वह कैसे पुरु की सेना का मुकाबला करे. ऐसे में सिकंदर को एक युक्ति सूझी और तब सिकंदर की सेना ने हाथियों को घेर कर उन पर भाले से हमला किया. एक तीरंदाज ने हाथी की आंख में तीर मारा, जिस से वह बेकाबू हो कर अपनी ही सेना को कुचलने लगा. जिस से पुरु की हार हो गई.
भाजपा में अटलआडवाणी युग की 2004 में हार हुई तो 2014 तक भाजपा को केंद्र की सरकार नसीब नहीं हुई. इस दौर में भाजपा ने जातियों में राष्ट्रवाद और धर्म को जाग्रत करने का काम किया. जिस के बाद एससी और ओबीसी जातियों ने भाजपा को साथ दिया. नतीजा यह हुआ कि भाजपा की न केवल केंद्र में वापसी हुई बल्कि कई प्रदेशों में भाजपा सरकार बनाने में सफल रही.
2024 में विपक्ष जनता को यह समझने में सफल रहा कि अगर भाजपा की 400 से अधिक सीटें आ गईं तो संविधान और आरक्षण खत्म कर दिया जाएगा. यह बात जनता समझ गई और भाजपा को 240 सीटों से संतोष करना पड़ा. कमजोर होती भाजपा को पार्टी के अंदर और बाहर दोनों ही जगहों पर विरोध का सामना करना पड़ रहा है. पार्टी के भीतर के एससी और ओबीसी नेताओं में अपना हक लेने की होड़ लग गई है. जिस जातीय समीकरण को बना कर भाजपा सत्ता तक पहुंची अब वही उस के लिए चुनौती बन गए हैं.
सजग हो गया विपक्ष
2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा और विपक्ष के बीच मिले वोटों में बहुत अंतर नहीं था. जो भाजपा पहले अजेय समझ जा रही थी उस के बारे में यह सच सामने आ गया कि उस को हराया भी जा सकता है. अब विपक्ष चुनाव दर चुनाव ज्यादा समझदार और आक्रामक हो रहा है जिस से उस के नेताओं में आत्मविश्वास आ गया है. वह एकजुट हो रहा है. चुनाव आयोग को ले कर विपक्ष सचेत हो चुका है. महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव में चुनाव आयोग की भूमिका को ले कर कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने विस्तार से लिखा. उस से सबक लेते हुए अब बिहार विधानसभा चुनाव के पहले ही विपक्षी दलों ने चुनाव आयोग पर दबाव बनाना शुरू कर दिया है जिस से निष्पक्ष चुनाव हो सकें.
अब विपक्षी दल अपने वोटों को बिखरने से रोकने के लिए एकजुट हो रहे हैं. बिहार में राजद और कांग्रेस सहित गैर भाजपाई खेमा इस प्रयास में है कि वोट बिखरने न पाएं. महाराष्ट्र में राज ठाकरे और उद्धव ठाकरे एकसाथ आ खड़े हुए हैं. उत्तर प्रदेश में कांग्रेस सपा साथ है. ऐसे में जहां एक तरफ भाजपा में बिखराव दिख रहा है वहीं विपक्ष अपनी पूरी ताकत से एकजुट हो कर चुनाव में उतरने की तैयारी कर रहा है. भाजपा दोहरी मुसीबत में फंस गई है.
विपक्ष के आरोपों से बैकफुट पर भाजपा
2024 के लोकसभा चुनावों ने जहां विपक्ष को ताकत दी वहीं भाजपा को बैकफुट पर ढकेल दिया. इस के बाद भाजपा को वे काम करने पड़ रहे हैं जिन को वह पहले नहीं करती थी. 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद सदन में नेता प्रतिपक्ष का पद कांग्रेस के राहुल गांधी को देना पड़ा. राहुल गांधी लगातार भाजपा पर ओबीसी और एससी की उपेक्षा का सवाल उठा रहे थे. ब्यूरोक्रेसी में ओबीसी अफसरों की नियुक्ति पर सवाल कर रहे थे. राहुल गांधी लगातार जातीय गणना की मांग कर रहे थे. यह सवाल पहले भाजपा हंसीमजाक समझ कर टाल देती थी.
2024 के लोकसभा चुनाव परिणामों के बाद भाजपा बैकफुट पर आ गई. उस ने जातीय गणना की मांग मान ली. अब दबाव इस बात का है कि वह पार्टी संगठन में भी ओबीसी को उन का हक देते दिखे. ओबीसी को अब केवल दिखावे वाले पद देने से काम नहीं चलने वाला. जैसे ही संगठन में ओबीसी और एससी नेताओं का बोलबाला बढ़ेगा टी राजा जैसे नेताओं में बेचैनी होगी. भाजपा के शिखर और निर्णायक पदों पर अगड़ी जाति की सोच रखने वालों का बोलबाला है. मजबूरी में उन को ओबीसी और एससी के लोगों को संगठन में रखना पड़ रहा है.
भाजपा चुनाव जीतने के लिए जिस तरह के टोटके करती रहती है वे अब काम नहीं आ रहे हैं. 2019 में लोकसभा चुनावों के पहले पुलवामा अटैक हो गया था. जिस के बाद भाजपा ने राष्ट्रवाद को चुनावी मुद्दा बना कर वैतरणी पार कर ली थी. अब भाजपा ने पहलगाम हमले के औपरेशन सिंदूर को भुनाने का जब काम किया तो यह मुद्दा टांयटांय फिस्स हो गया.
पुलवामा अटैक के बाद देश के 4 राज्यों गुजरात, पंजाब, पश्चिम बंगाल और केरल में 5 विधानसभा की सीटों पर चुनाव हुए. इस में से गुजरात की विसादर विधानसभा की सीट पर आम आदमी पार्टी के गोपाल अटालिया चुनाव जीत गए. भाजपा यहां केवल कड़ी सीट पर जीत हासिल कर पाई. जहां उस के उम्मीदवार राजेंद्र चावला चुनाव जीत गए. पंजाब, पश्चिम बंगाल औैर केरल में भाजपा को कोई सफलता नहीं मिली. इस से साफ पता चलता है कि औपरेशन सिंदूर को ले कर भाजपा ने जो सोचा था वह नहीं हो पाया.
भाजपा ने जातीय गणना को भी स्वीकार कर लिया है. यह मुद्दा भी बहुत प्रभावी नहीं होता दिख रहा है. इस से भाजपा के अगड़े नेता नाराज हो रहे हैं. उन को डर है कि अगर जातीय गणना हुई तो एससी और ओबीसी को इस का लाभ मिलेगा. उन को सत्ता में अधिक हिस्सेदारी देनी पड़ेगी. भाजपा में अगड़ेपिछड़ों का जो संघर्ष कल्याण सिंह के दौर में शुरू हुआ था वह एक बार फिर होता दिख रहा है. अब पिछड़े नेता भी मुखर हो कर अगड़ों के सामने खड़े हो गए हैं.
भाजपा की ताकत ही उस की कमजोरी बन गई है. जिस के कारण पार्टी जातीय संघर्ष में फंसती नजर आ रही है. यही जातीय युद्ध उस के पतन का कारण बन सकता है. भाजपा ने जातियों के समीकरण का जो बोझ अपनी पीठ पर लाद लिया था उसी बोझ से अब वह दब रही है. देखने वाली बात यह है कि कब तक उस की रीढ़ की हड्डी इस बोझ को सहन कर पाती है?
वैसे दक्षिणापंथी दल में टूटन पहले भी होती रही है. हिंदू महासभा के बाद भारतीय जनसंघ और फिर भारतीय जनता पार्टी का बनना वैसी ही एक का हिस्सा रहा है. भारतीय जनता पार्टी की शुरुआत अटल आडवाणी की जोड़ी के साथ हुई. 2004 में यह जोड़ी फेल हो गई. 10 साल सत्ता से बाहर रहने के बाद मोदीशाह की जोड़ी को भी 10 साल से अधिक का समय बीत चुका है. 2024 के लोकसभा चुनाव में इस जोड़ी को झटका लगा है. अब विपक्ष की मजबूत घेराबंदी से भाजपा कैसे खुद को बचाती है यह देखने वाली बात होगी?