Women’s Property Rights : भारतीय कानून में महिलाओं को पैतृक संपत्ति पर पूरा अधिकार दिया गया है लेकिन जानकारी के अभाव, सामाजिक दबाव और पारिवारिक भय के चलते ज्यादातर महिलाएं अपने इस हक का इस्तेमाल नहीं कर पातीं. कई बार परिवार या समाज उन्हें नैतिकता का पाठ पढ़ाने लग जाता है.

भारतभूमि पर औरतों को यों तो कई रूपों में पूजने की परंपरा रही, कभी उसे धन की देवी बताया गया, कभी ज्ञान की देवी, तो कभी शक्ति की मगर वास्तविकता में भारत की महिलाओं को हमेशा धन, ज्ञान और शक्ति से दूर रखने की साजिश हुई. न तो उस को पिता या पति की चलअचल संपत्ति का मालिक बनने दिया जाता, न उस के अकेले के नाम पर कोई बैंक बैलेंस होता, न उस की शिक्षा के प्रति कोई गंभीरता होती और न ही उसे शस्त्रबल का कौशल हासिल होता.

उसे तो सदियों से बस दासी बना कर रखने की कोशिश रही. ऐसी दासी जो हर प्रकार से पुरुष पर आश्रित रहे. अपनी हर जरूरत के लिए किसी भिखारी की तरह पुरुष के आगे हाथ फैलाती रहे. मगर समय में कुछ बदलाव आया. धीरेधीरे औरत ने भी शिक्षा पाई, नौकरी पाई और अपने पैरों पर खड़ी हुई.

आज भारत की स्त्री ने हर क्षेत्र में अपनी उपस्थिति तो दर्ज करा दी है मगर यह प्रतिशत देश की कुल औरतों के मुकाबले में अभी बहुत ही कम है. पढ़लिख कर अच्छी नौकरियों में आने वाली महिलाएं मात्र 5 फीसदी ही होंगी, बाकी जो पढ़लिख रही हैं वे बस इसलिए कि उन्हें अच्छा घरवर मिल जाए. पढ़ाईलिखाई शादी के लिए नहीं, बल्कि आर्थिक रूप से मजबूत होने के लिए की जाती है. जैसे, एक पुरुष की शिक्षा इसलिए नहीं होती है कि उसे अच्छा ससुराल और अच्छी पत्नी मिल जाए बल्कि इसलिए होती है ताकि वह अच्छी नौकरी में आ कर अच्छा धन कमा सके और आर्थिक रूप से सशक्त हो सके. इसी तरह स्त्रियों को भी यह बात समझनी बहुत जरूरी है कि उन की आर्थिक संपन्नता ही उन्हें दास संस्कृति से मुक्ति देगी.

जिस तरह एक या ज्यादा लड़कों को उन के पिता से पैतृक जमीन और धन हासिल होता है और संपत्ति उन में शक्ति और स्वाभिमान का भाव जागृत करती है, उस धन के आधार पर वे तरक्की करते जाते हैं, वैसे ही लड़की को भी पैतृक संपत्ति और ससुराल की संपत्ति पर अपने हक का एहसास रहना चाहिए. अपने हिस्से की धनसंपत्ति अपने पिता और पति से अवश्य ही प्राप्त करनी चाहिए.

आजादी के बाद बने भारत के कानूनों ने हिंदू महिलाओं को पैतृक संपत्ति पर अधिकार दिया है, मगर अफसोस कि औरतें भावुकतावश या इस डर से कि कहीं रिश्ते न बिगड़ जाएं, अपने हिस्से की संपत्ति पर हक नहीं जताती हैं. अधिकांश महिलाएं अपने भाइयों से अपना हिस्सा नहीं मांगतीं, ताकि उन के रिश्ते मधुर बने रहें. यह केवल उन परिस्थितियों में किया जाना चाहिए जब बहन की स्थिति विवाह के कारण बहुत अच्छी हो और भाई की बहुत खराब.

ससुराल में भी पति की चलअचल संपत्ति पर पत्नी का हक होता है मगर देखा गया है कि ज्यादातर औरतें पति की मृत्यु के बाद निरीह सा जीवन जीने लगती हैं और संपत्ति पर बेटे या पति के मांबाप, भाई काबिज हो जाते हैं. पत्नी उस संपत्ति को बेचने या रखने का फैसला नहीं कर पाती, जबकि उस को ऐसा करने का कानूनी हक है.

संपत्ति कैसीकैसी

बहुतेरी औरतों को इस बात का पता ही नहीं है कि कौनकौन सी संपत्ति उन की है? वे उन संपत्ति की देखभाल कैसे करें? किन दस्तावजों पर उन का नाम चढ़ना चाहिए? नाम कहां जा कर चढ़वाना है?

संपत्ति के मालिकाना हक और उस की सुरक्षा के बारे में देश की 80 फीसदी महिलाएं लापरवाह हैं. कुछ को इस विषय में जानकारी ही नहीं होती है. उन के पास संपत्ति होते हुए भी वे पिता, पति, बेटे, भाई के रहमोकरम पर पति के गुजर जाने के बाद पूरी उम्र काट देती हैं.

48 वर्षीया नजमा खातून बाराबंकी के एक गांव की रहने वाली है. वह लखनऊ में किराए के एक छोटे से कमरे में रह कर कई घरों में नौकरानी का काम करती है. नजमा के 4 बेटे हैं. उस के 3 बेटों की शादियां हो चुकी हैं. बड़े बेटे के 2 बच्चे और बाकी दोनों के पास एकएक बच्चा है.

नजमा का सब से छोटा बेटा 15 साल का है जो कई सालों से नजमा के साथ लखनऊ में ही रहता है. नजमा के पति का देहांत 8 साल पहले हुआ था. बाराबंकी में नजमा के पति के पास 15 बीघा खेती की जमीन थी. गांव में 5 कमरों का घर भी था. कानूनन नजमा खेत और घर की मालकिन है मगर उस के लड़कों ने खेती की जमीन का आपस में बंटवारा कर खसराखतौनी पर अपने नाम चढ़वा लिए हैं.

घर पर उन की पत्नियों और बच्चों का कब्जा है. पति के मरने के बाद नजमा कुछ साल वहां रही. उस के लड़कों ने कुछ कागजों पर उस का अंगूठा लगवाया. बहुओं ने कुछ समय तक तो उस के साथ ठीक बरताव किया, फिर नजमा को खाने के लिए भी बारबार मिन्नतें करनी पड़ती थीं.

56 वर्षीया किरण दीक्षित तो पढ़ीलिखी महिला हैं. कई साल नौकरी भी की. नोएडा में रहती हैं. उन के एक बेटी है जिस की शादी बेंगलुरु में हुई है. उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले में किरण दीक्षित के नाम पर खेती की 20 बीघा जमीन है जो उन के पिता ने उन के नाम वसीयत की थी. मगर उस जमीन पर किरण के चचेरे भाई खेती करते हैं. कई सालों से वही उस जमीन की देखरेख कर रहे हैं.

किरण के मातापिता की मृत्यु हुए 12 साल हो चुके हैं मगर अभी तक खसराखतौनी पर किरण दीक्षित का नाम नहीं चढ़ा है. वे अपने पति के परिवार में इतनी व्यस्त हैं कि कभी बस्ती जाने का उन्हें मौका ही नहीं मिला. उन की जमीन पर कब व कौन सी फसल उगाई जाती है, कितनी फसल बिक रही है, कितना पैसा आ रहा है, उन को जानकारी नहीं है.

वे कभीकभी फोन पर अपने चचेरे भाई से जमीन का हाल जान लेती हैं. जो वह बताता है उस पर यकीन कर लेती हैं. भाई ने कभी फसल बिकने पर उन को पैसा नहीं भेजा. वे इस में ही खुश हैं कि चचेरा भाई उन की जमीन की देखरेख कर रहा है. आखिर ऐसी संपत्ति होने का क्या फायदा?

अनीता की शादी हुए अभी सिर्फ 4 साल ही हुए थे कि 2021 में उस के पति अक्षय की कोरोना महामारी की चपेट में आने से मौत हो गई. उस की ससुराल में देवर, ननद और सासससुर हैं. अक्षय की मृत्यु के बाद सास ने अनीता को समझना शुरू किया कि यहां उस का कोई भविष्य नहीं है. उस के पास कोई संतान भी नहीं है. पूरी जिंदगी अकेले कैसे काटेगी. इस से अच्छा वह अपने मायके लौट जाए और फिर से विवाह कर ले.

अनीता का मायका चमोली में है. वह पढ़ीलिखी है. वह दिल्ली में अपनी ससुराल में ही रह कर नौकरी करना चाहती थी. उस ने अपने पति के औफिस में बात कर ली थी. औफिस वाले उस को अक्षय की जगह रखने को तैयार थे मगर उस की सास इस के लिए राजी नहीं थी. वह बोली, ‘हमारे यहां बहुओं से नौकरी नहीं करवाई जाती. अपने मायके जा कर नौकरी करो.’

धीरेधीरे अनीता की ससुराल के लोग उस से बुरा बरताव करने लगे. वह दिनभर घर का काम करती और ससुरालियों के ताने सहती थी. आखिरकार वह परेशान हो कर मायके चमोली चली आई. मगर मायके में भी वैसी ही प्रताड़ना सहनी पड़ रही है. उस की भाभी से उस की पटरी नहीं खाती. भाभी के लिए तो वह बोझ बन कर आई हुई मेहमान है.

जबकि अनिता अपने पिता की संपत्ति में आधे की हकदार है और बहू होने के नाते अपनी ससुराल में रहने का भी उस को पूरा हक था. मगर हक होते हुए भी उस को खदेड़ कर बाहर कर दिया गया. उस को पुलिस के पास जा कर ससुरालियों के खिलाफ एफआईआर करवानी चाहिए थी. मगर उस ने नहीं करवाई. भाई से पिता की संपत्ति से आधा हिस्सा मांगना चाहिए. मगर वह खामोश है. वजह यह कि उस को संपत्ति के संबंध में जानकारी कम है.

अचल संपत्ति महिलाओं के लिए आर्थिक रूप से सुरक्षित और सशक्त होने का एक महत्त्वपूर्ण जरिया है. सो, उन्हें इस की जानकारी होनी चाहिए ताकि वे अपने अधिकारों का उपयोग कर सकें और अपनी संपत्ति की रक्षा कर सकें.

भारत में हिंदू महिलाओं को अचल संपत्ति में समान अधिकार प्राप्त हैं. यह अधिकार देश के कानूनों ने उन्हें दिया है. अचल संपत्ति महिलाओं को आर्थिक रूप से सुरक्षित करने में मदद करती है. यह उन्हें आय का स्रोत प्रदान कर सकती है. वे इसे बेच कर या किराए पर दे कर अतिरिक्त आय प्राप्त कर सकती हैं.

महिलाओं को मिले कानूनी हक

1956 में महिलाओं को पति व पिता की मृत्यु के बाद कुछ कानूनी हक मिले थे. महिलाओं के लिए संपत्ति कानूनों में अब बहुत सारे बदलाव हो चुके हैं. 2005 के संशोधनों ने महिलाओं के अधिकारों को भाइयों के बराबर ला दिया है. हिंदू महिलाओं को पैतृक संपत्ति में भाई के बराबर हिस्सा मिलने का प्रावधान हो चुका है. वह अपने भाइयों की तरह पैतृक संपत्ति में सहउत्तराधिकारी है.

बिना संपत्ति मिले भी एक विवाहित बेटी, विधवा, तलाकशुदा या परित्यक्ता होने पर वह अपने मातापिता के घर में भरणपोषण या आश्रय की मांग कर सकती है. पिता द्वारा बेटी को उपहार में दी गई या वसीयत की गई किसी भी संपत्ति या परिसंपत्ति पर वयस्क होने के बाद उस का पूरा अधिकार होता है.

हिंदू उत्तराधिकार कानून 1956 के अनुसार, एक विवाहित महिला को अपनी निजी संपत्ति पर पूरा अधिकार होता है, जिसे वह अपनी इच्छानुसार बेच सकती है या किसी को उपहार के रूप में दे सकती है.

संयुक्त परिवार के मामले में हिंदू महिला अपने पति और उस के परिवार से आश्रय, सहायता और भरणपोषण पाने की अधिकारी है. अपने पति और अपने बच्चों के बीच संपत्ति के बंटवारे के मामले में उसे भी दूसरों के बराबर हिस्सा और अपने पति की मृत्यु के मामले में वह अपनेअपने बच्चों और अपनी सास के बीच विभाजित पति की संपत्ति के बराबर हिस्से की हकदार है.

एक हिंदू मां को अपने मृतक बेटे की संपत्ति में उस की पत्नी और बच्चों के बराबर हिस्सा मिलता है. यदि पिता की मृत्यु के बाद बच्चे पारिवारिक संपत्ति का बंटवारा करते हैं तो मां को अपने प्रत्येक बच्चे के बराबर संपत्ति का हिस्सा पाने का अधिकार है.

वह अपने पात्र बच्चों से आश्रय और भरणपोषण पाने की भी हकदार है. उसे अपनी संपत्तियों और परिसंपत्तियों पर पूरा अधिकार है और वह उन्हें अपनी इच्छानुसार निबटा सकती है. हालांकि, उस की मृत्यु के बाद उस की संपत्ति उस के सभी बच्चों को समान रूप से विरासत में मिलती है.

हिंदू बहू के अधिकार बहुत सीमित हैं. सासससुर की संपत्ति पर बहू का कोई अधिकार नहीं है चाहे वह पैतृक संपत्ति हो या उन के द्वारा स्वयं अर्जित की गई संपत्ति. वह ऐसी संपत्तियों पर केवल अपने पति की विरासत और हिस्से के माध्यम से अधिकार प्राप्त कर सकती है.

हिंदू तलाकशुदा महिला पति से भरणपोषण और गुजारा भत्ता मांग सकती है, लेकिन अपने पूर्व पति की संपत्ति पर कोई हिस्सेदारी नहीं रख सकती. अगर संपत्ति पति के नाम पर पंजीकृत है तो कानून उसे ही मालिक मानता है. अगर संपत्ति संयुक्त रूप से स्वामित्व वाली है तो पत्नी को खरीद में अपना योगदान साबित करना होगा. तब वह केवल उक्त संपत्ति में अपने योगदान तक ही हिस्से की हकदार होगी. औपचारिक तलाक के बिना अलग होने की स्थिति में पत्नी और बच्चे पुरुष की संपत्ति पर अपनी विरासत के हकदार हैं, चाहे उस ने दोबारा शादी की हो या नहीं.

यदि किसी महिला के पति की मृत्यु हो जाती है तो उस विधवा महिला को पति की संपत्ति से अपनी सास और अपने बच्चों के बराबर हिस्सा मिलता है.

यदि विधवा स्त्री ने दोबारा विवाह किया है तो हिंदू विवाह पुनर्विवाह अधिनियम 1856 के अनुसार, पूर्व पति की संपत्ति पर उसे अपना दावा छोड़ना होगा. लेकिन हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 की धारा 24 के अनुसार, यदि संपत्ति के बंटवारे पर चर्चा के समय या बंटवारे के समय विधवा अविवाहित रहती है और बहुत बाद में विवाह करती है तो वह संपत्ति में अपने हिस्से की मालिक होती है.

अन्य धर्मों के अलग कानून

एक ईसाई महिला को भी अपने भाईबहनों के साथ अपने मातापिता दोनों की संपत्ति समान रूप से विरासत में मिलती है. शादी होने तक उसे अपने मातापिता से आश्रय और भरणपोषण मिलता है. उस के बाद वह अपने पति से भरणपोषण प्राप्त करने की अधिकारी है. वयस्क होने के बाद उसे अपनी निजी संपत्ति पर पूरा अधिकार होता है.

विवाहित ईसाई महिला का पति यदि उस का भरणपोषण न करे तो इस आधार पर वह तलाक की अर्जी दे सकती है. ईसाई धर्म की महिला उत्तराधिकार कानूनों के अनुसार अपने पति की संपत्ति के एकतिहाई हिस्से की हकदार है. जबकि, बाकी हिस्सा मृतक के बच्चों के बीच समान रूप से विभाजित किया जाता है. अगर कोई बच्चा नहीं है तो महिला को संपत्ति का आधा हिस्सा मिलता है.

ईसाई धर्म की महिलाओं के लिए संपत्ति कानून में मां को बच्चों का आश्रित नहीं माना जाता है. मां होने के नाते, महिला भरणपोषण पाने की पात्र नहीं है. लेकिन अगर उस के पुत्र की मृत्यु हो जाती है, वह अविवाहित था और उस के कोई बच्चे भी नहीं हैं तो मां को उस की संपत्ति से एकचौथाई हिस्सा पाने का हक है. तलाकशुदा, पुनर्विवाहित विधवा या दूसरी पत्नी होने पर ईसाई महिलाओं के लिए उत्तराधिकार कानून हिंदू कानूनों के समान ही हैं.

इसलामिक कानून के तहत मुसलिम महिला के लिए संपत्ति और उत्तराधिकार कानून थोड़े अलग हैं. एक मुसलिम महिला का हिस्सा एक पुरुष के हिस्से का आधा होता है. यहां महिलाओं के लिए उत्तराधिकार कानून के अनुसार बेटियों को बेटों के हिस्से का आधा हिस्सा मिलता है. लेकिन एक मुसलिम महिला को अपनी संपत्ति पर पूरा नियंत्रण होता है.

वह अपनी इच्छानुसार उस का निबटान या प्रबंधन, बिक्री, उपहार कर सकती है. बेटियों को विवाह तक और विधवा होने या तलाक होने के बाद भी पैतृक संपत्ति में रहने का अधिकार है. अगर उस के बच्चे हैं तो जब बच्चे उस की देखभाल करने लायक बड़े हो जाते हैं तब वह बच्चों की जिम्मेदारी बन जाती है.

मुसलिम महिला यदि ससुराल में रहती है और उस के पति की मृत्यु हो जाती है और उस के पास कोई संतान नहीं है तब उस महिला को पति की संपत्ति का एकचौथाई हिस्सा मिलेगा. यदि बच्चे हैं तो जायदाद का 8वां हिस्सा मिलेगा.

महिलाओं के सामने आने वाली चुनौतियां

सख्त कानूनों के बावजूद महिलाएं पैतृक संपत्ति पर दावा कर सकती हैं और अपना हक प्राप्त कर सकती हैं लेकिन जानकारी के अभाव में अधिकांश महिलाएं ऐसा नहीं कर पातीं और उपेक्षित जीवन जीने के लिए मजबूर होती हैं.

संपत्ति पर अपना हक प्राप्त करने की राह में महिलाओं के सामने सब से बड़ी चुनौती है जागरूकता की कमी. पूरे भारत में ज्यादातर महिलाओं को अपने कानूनी अधिकारों के बारे में जानकारी नहीं है. उन्हें नहीं पता कि वे संयुक्त संपत्ति या पैतृक संपत्ति में अपना हिस्सा मांग सकती हैं.

एक कारक जो इसे कुछ जटिल बनाता है वह है कानूनी प्रावधानों की जटिलता. यदि कोई महिला पर्याप्त रूप से शिक्षित नहीं है तो कानूनी भाषा को समझना उस के लिए मुश्किल होता है. ऐसे में किसी अच्छे वकील की मदद ली जा सकती है.

विरासत का दावा करने में महिलाओं के सामने आने वाली दूसरी चुनौती है, परिवार का दबाव. महिलाओं पर अकसर उन के परिवार द्वारा अपनी विरासत को छोड़ने या उसे परिवार के किसी पुरुष सदस्य, जैसे भाई या पति को हस्तांतरित करने का दबाव डाला जाता है.

इस के अलावा जो तीसरी चुनौती है वह है समाज का दबाव. भारत एक पितृसत्तात्मक देश है. जिस के कारण यहां पुरुषों को अधिक प्राथमिकता दी जाती है. लोग अपनी संपत्ति बेटियों के बजाय बेटों को देना पसंद करते हैं. यह इतना अधिक है कि महिलाओं को विरासत में मिली संपत्ति का मालिक होने से हतोत्साहित किया जाता है.

यह इस हद तक है कि अगर बेटी को संपत्ति विरासत में मिलती है तो समाज द्वारा उस की आलोचना की जाती है. लोग उस के घर आनाजाना और बातचीत करना छोड़ देते हैं. कभीकभी तो यह उपेक्षा इतनी बढ़ जाती है कि वह अपनी संपत्ति छोड़ने के लिए मजबूर हो जाती है.

मगर औरतों को यह समझना चाहिए कि अपना हक छोड़ना कोई समझदारी नहीं है. कोई कितनी भी आलोचना करे या दबाव बनाए, औरत को अपना हक पाने के लिए पुलिस और कानून का सहारा लेने से हिचकना नहीं चाहिए. कभीकभी तो उस के साहस दिखाने और पहला कदम उठाने मात्र से ही परिवार उस का वाजिब हक उसे दे देने में अपनी भलाई समझता है.

महिलाओं को यह बात भलीभांति समझ लेनी चाहिए कि उन के हाथ में आई संपत्ति ही उन्हें आत्मनिर्भर बनाने में मदद करती है. इस से वे किसी की मुहताज नहीं रहतीं बल्कि अपने जीवन में निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र होती हैं.

अचल संपत्ति महिलाओं को समाज में सम्मानजनक स्थान देती है. इस से उन की सामाजिक स्थिति में सुधार होता है और उन्हें अधिक अधिकार मिलते हैं. वे अपने परिवार की आर्थिक रूप से सुरक्षा कर सकती हैं और बच्चों की अच्छी शिक्षा व स्वास्थ्य के लिए पैसा खर्च कर सकती हैं. सो, उन्हें जमीनजायदाद से संबंधित सभी प्रकार की जानकारी होनी चाहिए ताकि वे अपने अधिकारों का उपयोग कर सकें और अपनी संपत्ति की रक्षा कर सकें.

आगे का अंश बौक्स के बाद 

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हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956

हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 (हिंदू सक्सेशन एक्ट 1956) भारत में हिंदू परिवारों के बीच संपत्ति के उत्तराधिकार (इनहेरिटेंस), विरासत (सक्सेशन) और विभाजन (पार्टीशन) को नियंत्रित करने वाला एक महत्त्वपूर्ण कानून है. यह अधिनियम 17 जून, 1956 को लागू हुआ और इस में समयसमय पर संशोधन होते रहे हैं, विशेषकर 2005 में एक ऐतिहासिक संशोधन हुआ था.

इस का उद्देश्य हिंदू, बौद्ध, जैन और सिख धर्म के अनुयायियों के लिए एकसमान उत्तराधिकार व्यवस्था प्रदान करना था. यह उन पर भी लागू होता है जो इन धर्मों से संबंधित हैं, लेकिन उन्हें विधिवत रूप से किसी और धर्म में परिवर्तित नहीं किया गया. यह अधिनियम मुसलिम, ईसाई, यहूदी या पारसी लोगों पर लागू नहीं होता. उन के लिए अलग पर्सनल लौ है.

प्रमुख उद्देश्य
– हिंदू परिवारों में पैतृक और स्वअर्जित संपत्ति के बंटवारे को कानूनी रूप देना.
– महिलाओं (बेटियों, विधवाओं) को संपत्ति में बराबरी का अधिकार देना.
– संयुक्त हिंदू परिवार की संपत्ति (कोपार्सनरी प्रौपर्टी) के नियमों को स्पष्ट करना.

संपत्ति के प्रकार
– स्वअर्जित संपत्ति यानी व्यक्ति द्वारा खुद अर्जित की गई संपत्ति.
– पैतृक संपत्ति यानी चार पीढि़यों से चली आ रही संपत्ति, जिस में सभी सहधर्मी कोपार्सनर का अधिकार होता है.

दरअसल, हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम किसी हिंदू व्यक्ति की बिना वसीयत के मृत्यु हो जाने पर संपत्ति के वितरण हेतु विधिक ढांचा है. इस अधिनियम के तहत मृतक के साथ व्यक्ति के संबंधों के आधार पर उत्तराधिकारियों, उन के अधिकारों एवं संपत्ति के विभाजन के निर्धारण के लिए नियम निर्धारित किए गए हैं.

हिंदू धर्म के अनुसार वीरशैव, लिंगायत, ब्रह्मोस, प्रार्थना समाज और आर्य समाज के अनुयायी शामिल हैं. यह अधिनियम बौद्ध, सिख और जैन धर्म पर भी लागू होता है. वे व्यक्ति जो मुसलिम, ईसाई, पारसी या यहूदी नहीं हैं, जब तक कि यह साबित न हो जाए कि हिंदू कानून या रीतिरिवाज उन पर लागू नहीं होते हैं, तब तक यह अधिनियम लागू होगा.

यह अधिनियम संपूर्ण भारत में लागू होगा लेकिन संविधान के अनुच्छेद 366 के अनुसार यह अनुसूचित जनजातियों पर स्वत: लागू नहीं होता है, जब तक कि केंद्र सरकार द्वारा इसे अधिसूचित न कर दिया जाए.

हिंदू विधि की शाखाएं : इस से संपत्ति के उत्तराधिकार एवं अंतरण की एकसमान प्रणाली का निर्धारण होता है जो मिताक्षरा और दायभाग शाखाओं पर समान रूप से लागू होती है. मिताक्षरा विधि पश्चिम बंगाल और असम को छोड़ कर पूरे भारत में लागू होती है जबकि दायभाग विधि पश्चिम बंगाल और असम पर लागू होती है.

दायभाग विधि के तहत उत्तराधिकार का अधिकार पूर्वजों की मृत्यु के बाद ही प्राप्त होता है जबकि मिताक्षरा विधि में जन्म से ही संपत्ति का अधिकार प्रदान किया गया है.

दायभाग प्रणाली में पुरुष और महिला, परिवार के दोनों ही सदस्य सहदायिक हो सकते हैं जबकि मिताक्षरा प्रणाली में सहदायिक अधिकार केवल पुरुष सदस्यों तक ही सीमित है. सहदायिक वह व्यक्ति होता है जो जन्म से ही पैतृक संपत्ति पर अधिकार का दावा कर सकता है.

संपत्ति का वितरण

श्रेणी I के उत्तराधिकारी : विधवा को संपत्ति का एक हिस्सा मिलता है. पुत्र, पुत्री और मां सभी को बराबर हिस्सा मिलता है.

श्रेणी II के उत्तराधिकारी : यदि कोई श्रेणी ढ्ढ का उत्तराधिकारी मौजूद नहीं है तो संपत्ति को समान रूप से विभाजित किया जाता है.

सगोत्रीय और सजातीय : यदि कोई श्रेणी I या II का उत्तराधिकारी नहीं है तो संपत्ति पैतृक रिश्तेदारों (सगोत्रीय) और अन्य रिश्तेदारों (सगोत्रीय) को हस्तांतरित हो जाती है.

हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम 2005 : अधिनियम की धारा 6 में वर्ष 2005 में संशोधित किया गया था और महिलाओं को वर्ष 2005 से संपत्ति के विभाजन के लिए सहदायिक के रूप में मान्यता दी गई थी.

अन्य समुदायों में उत्तराधिकार कानून

मुसलिम : यह मुसलिम पर्सनल लौ (शरीयत) एप्लीकेशन एक्ट 1973 द्वारा शासित है.

ईसाई, पारसी और यहूदी : ईसाई, पारसी और यहूदियों के मामले में भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम 1925 लागू होता है.

उत्तराधिकार के प्रकार

पुत्रों के अधिकार : जन्म से ही पैतृक संपत्ति में हिस्सा होता है. पुत्र की मृत्यु होने पर उस के उत्तराधिकारी को उस का हिस्सा मिलता है.

बेटियों के अधिकार : पहले बेटियों को पैतृक संपत्ति में अधिकार नहीं था, लेकिन हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम 2005 के बाद बेटियों को भी जन्म से ही पैतृक संपत्ति में बराबर का अधिकार मिला. विवाहित और अविवाहित दोनों बेटियां अब पिता की संपत्ति में पुत्र के बराबर की हिस्सेदार होती हैं. अब बेटी भी संयुक्त परिवार की कोपार्सनर बन गई है.

संयुक्त हिंदू परिवार की संपत्ति

पुराने नियम के अनुसार केवल पुरुष सदस्य ही कोपार्सनर होते थे. संशोधन 2005 के बाद बेटियां भी कोपार्सनर मानी गईं. वे भी अपने हिस्से की मांग कर सकती हैं. पिता की मृत्यु के बाद बेटी संपत्ति की उत्तराधिकारी बनती है.

वसीयत और उत्तराधिकार

व्यक्ति अपनी स्वअर्जित संपत्ति की वसीयत किसी को भी दे सकता है. यदि वसीयत नहीं है तो उत्तराधिकार अधिनियम के अनुसार संपत्ति का बंटवारा होता है.

कुछ विशेष बातें :
– महिला की संपत्ति पर उस का पूर्ण अधिकार होता है.
– सौतेली संतानों के अधिकार भी मान्य होते हैं यदि वे गोद लिए गए हों.
– बेटी चाहे विवाहित हो या अविवाहित, संपत्ति पर उस का अधिकार बना
रहता है.
– विवाह के बाद भी उस का अधिकार बना रहता है.
– वह संपत्ति में हिस्सेदारी कर सकती है, बेच सकती है, वसीयत बना सकती है.

क्यों ऐतिहासिक था 2005 का संशोधन

यह लैंगिक समानता की दिशा में एक बड़ा कदम था. पहले हिंदू पुत्रियां संयुक्त परिवार की सदस्य होते हुए भी संपत्ति की उत्तराधिकारी नहीं मानी जाती थीं, अब वे भी परिवार की संपत्ति में जन्म से अधिकार रखती हैं.

हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 और उस के 2005 के संशोधन ने महिलाओं को संपत्ति में समान अधिकार दे कर एक बड़ी सामाजिक क्रांति की शुरुआत की. यह अधिनियम अब लिंग के आधार पर भेदभाव नहीं करता और संयुक्त परिवार की संपत्ति में सभी को समान हक देता है. इस वजह से यह अधिनियम आज के सामाजिक न्याय के मूल्यों के अधिक करीब हो गया है.

हक छोड़ना त्याग नहीं, अन्याय को स्वीकार करना है

किसी भी लड़की या महिला को पैतृक संपत्ति (मायके की संपत्ति) और ससुराल की संपत्ति दोनों पर अपने कानूनी और नैतिक अधिकार से पीछे नहीं हटना चाहिए. यह न केवल उस के आत्मसम्मान और सशक्तीकरण से जुड़ा है, बल्कि अगली पीढि़यों के लिए भी एक सशक्त मिसाल कायम करता है. एक जागरूक और सशक्त महिला को अपने सभी कानूनी अधिकारों का उपयोग करना चाहिए, चाहे वह मायके की संपत्ति हो या ससुराल की.

पैतृक संपत्ति पर हक : हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 में 2005 के संशोधन के बाद बेटियों को भी बेटों के समान अधिकार दिए गए हैं.

पिता की संपत्ति में बेटी को भी बराबर का हिस्सा मिलना चाहिए, चाहे वह विवाहित हो या अविवाहित.

ससुराल की संपत्ति पर हक : शादी के बाद महिला को पति की संपत्ति, खासकर अगर वह संयुक्त संपत्ति है, पति की मृत्यु के बाद उस में हिस्सा पाने के लिए कानूनी अधिकार प्राप्त होते हैं.

मांबाप की तरह ससुराल के लोग भी महिला को उस की सम्मानजनक स्थिति में रखें, न कि सिर्फ ‘बाहरी’ समझें.

क्यों गलत है हक छोड़ना

कई बार समाज या परिवार का दबाव बहनों को ‘भाई की मदद’ के नाम पर संपत्ति से वंचित कर देता है, जोकि अन्याय है.

महिला हक छोड़ती है, तो वह आर्थिक रूप से कमजोर बनती है और निर्भरता की स्थिति में चली जाती है. हक न लेने से कानूनी मिसालें कमजोर होती हैं और फिर अन्य महिलाएं भी पीछे हटती हैं.

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संपत्ति पर महिला का अधिकार

भारत में महिलाओं का संपत्ति पर अधिकार संविधान और कानून दोनों द्वारा सुनिश्चित किया गया है. लेकिन सामाजिक स्तर पर अब भी जागरूकता और स्वीकार्यता की बहुत ज्यादा कमी है. महिलाओं के संपत्ति अधिकारों को न तो उन के मातापिता द्वारा खुल कर बताया जाता है और न ही ससुरालियों या उन के पतियों द्वारा संपत्ति पर उन के अधिकारों के बारे में कोई चर्चा की जाती है. कभीकभी तो महिला को पता ही नहीं होता कि उस के पति के पास कोई पैतृक संपत्ति है भी या नहीं. जमीनजायदाद के मामलों से स्त्री को ज्यादातर भारतीय परिवार दूर ही रखते हैं. लेकिन अब जबकि लड़कियां भी लड़कों के समान शिक्षा प्राप्त कर रही हैं तो उन को खुद इस मामले में जागरूक होना चाहिए.

‘सरिता’ हमेशा ही महिलाओं को उन के अधिकारों के प्रति जागरूक करती रही है.

पैतृक संपत्ति पर स्त्री का अधिकार हिंदू सक्सेशन एक्ट, 1956 संशोधित 2005) : वर्ष 2005 में हुए संशोधन के बाद पैतृक संपत्ति पर बेटियों को पुत्रों के समान अधिकार मिल गया है. अब बेटी चाहे विवाहित हो या अविवाहित, उसे अपने पिता की संपत्ति में बराबर का हिस्सा मिलता है. बेटी को कुलवारिस माना गया है, जिस के चलते वह पुश्तैनी संपत्ति में भी हिस्सा मांग सकती है.

विवाह के बाद महिला के अधिकार: विवाह के बाद महिला को अपने पति की संपत्ति में हिस्सा तभी मिलता है जब वह विधवा हो और पति की कोई वसीयत न हो. पति की मृत्यु के बाद पत्नी को पति की चलअचल संपत्ति में हिस्सा मिलता है. साथ ही, उसे पति की पैंशन/ग्रेच्युटी का अधिकार प्राप्त है. उसे बच्चों के साथ समान उत्तराधिकारी के रूप में मान्यता मिल चुकी है.

सासससुर की संपत्ति पर अधिकार: यदि सासससुर ने वसीयत की है तो बहू को संपत्ति मिल सकती है. यदि वसीयत नहीं है और पति की मृत्यु हो चुकी है तो बहू को पति के हिस्से का अधिकार मिल सकता है.

मुसलिम महिलाओं के अधिकार : मुसलिम कानून में महिला को पिता की संपत्ति में हिस्सा मिलता है (हालांकि बेटियों का हिस्सा बेटों से कम होता है). पति की संपत्ति में भी उसे हिस्सा मिलता है जो आमतौर पर 1/8 या 1/4 होता है. मुसलिम महिला को मेहर का कानूनी हक है जो विवाह के समय तय होता है.

विधवा, तलाकशुदा और अविवाहित महिलाओं के अधिकार : विधवा महिला को पति की संपत्ति में बराबर हिस्सा मिलता है. तलाकशुदा महिला को तलाक के बाद पति की संपत्ति में कोई अधिकार नहीं होता, लेकिन गुजारा भत्ता मिल सकता है. अविवाहित महिला को अपने मातापिता की संपत्ति में पूरा कानूनी अधिकार है.

महिलाओं को चाहिए कि-

– अपनी संपत्ति खुद के नाम करवाएं. इस को करने में वक्त न लगाएं.

– वसीयत बनाएं या अपने हिस्से का कानूनी दावा करें.

– जरूरत पड़ने पर कानूनी सलाह लेने में न हिचकें. परिवार या समाज के भय से झिझकें नहीं. समाज और परिवार आप को न तो भोजन देंगे और न सम्मान.

– अपने अधिकारों को ले कर सशक्त और जागरूक बनें और उन किताबों को बारबार पढ़ें जो आप को आप के अधिकारों के बारे में जागरूक करती हैं.

स्त्री को अपना सशक्तीकरण खुद करना होगा

भारत की मोदी सरकार नारी सशक्तीकरण का कितना ही ढोल पीटे मगर सत्यता यह है कि वह औरत को धर्म की बेडि़यों में जकड़ कर सदैव पुरुष का गुलाम बनाए रखने की मानसिकता रखती है. औरतें व्रत, पूजा, धार्मिक स्थलों की यात्राओं, बाबाओं के प्रवचनों में फंसी रहें, भाजपा की यही मंशा है. महिलाओं को सशक्त करने से जुड़े जितने भी कानून देश में बने, वे सब कांग्रेस के काल में बने. मगर उन कानूनों को जनमानस तक पहुंचाने और समाज में जागरूकता फैलाने का काम ठीक से नहीं हुआ.

नारी सशक्तीकरण का साफ मतलब है कि महिलाओं को सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और शैक्षणिक रूप से सशक्त बनाया जाए ताकि वे अपने जीवन के फैसले खुद ले सकें और समाज में बराबरी से जी सकें. मगर लिंगभेद, दहेज प्रथा, बाल विवाह, घरेलू हिंसा, कार्यस्थल पर असमानता जैसी समस्याओं से महिलाएं आज भी जूझ रही हैं. स्त्री को खुद यह तय करना होगा कि उसे क्या चाहिए, किस दिशा में बढ़ना है और क्या सही है.

जब तक वह अपने फैसले खुद नहीं लेगी, तब तक उस का सशक्तीकरण नहीं होगा. उसे क्या खाना है, क्या पहनना है, क्या पढ़ना है आदि सारे फैसले उस के खुद के होंगे तभी वह सही अर्थों में आजाद होगी. अगर स्त्री हमेशा किसी और (पुरुष, समाज या सरकार) से मदद या सहारे की अपेक्षा करेगी तो वह आत्मनिर्भर नहीं बन पाएगी. सशक्तीकरण की शुरुआत आत्मनिर्भर बनने से होती है.

ज्ञान, शिक्षा, आर्थिक स्वतंत्रता और आत्मविश्वास स्त्री को अपने अधिकारों के लिए खड़ा होने की ताकत देते हैं. ये सभी स्त्री खुद हासिल कर सकती है. परंपराएं, रूढि़यां, धर्म और समाज स्त्री को आगे बढ़ने से रोकते हैं. इन्हें चुनौती देना भी एक प्रकार का सशक्तीकरण है और यह संघर्ष स्त्री को खुद ही करना होगा. स्त्री सशक्तीकरण कोई उपहार नहीं है जो कोई और देगा, यह एक संघर्ष है जिसे स्त्री को खुद करना होगा ताकि उस का पूरी तरह से सशक्तीकरण हो सके.

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