Religion : आज भारतीय राजनीति में धर्म सियासत का सब से ताकतवर हथियार बन गया है. मंदिरमसजिद विवादों से ले कर धार्मिक जुलूसों तक हर मुद्दे को वोटों में बदलने की होड़ लगी है. जब धर्म राजनीति का मोहरा बन जाए तो क्या राष्ट्र एकता खो कर विभाजन की ओर नहीं बढ़ता?

दूसरे विश्व युद्ध के बाद से राष्ट्र निर्माण का प्रमुख आधार रहा था ‘धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवाद’, जिस में धर्म को कुछ समय के लिए हाशिए पर डाल दिया गया था. लेकिन वर्तमान समय की रूपरेखा बड़ी तेजी से पीछे की ओर अर्थात प्रजातीय राष्ट्रवाद की तरफ जा रही है. ‘राष्ट्रवाद’ का यह रूप कभीकभी ‘धार्मिक अतिवाद’ में नजर आ रहा है जो समतावाद के विचारों को तोड़मरोड़ कर प्रजातांत्रिक सिद्धांतों के साथ बड़ी साजिश रचता महसूस किया जा रहा है, जिन की बुनियाद पर मजबूत व धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र के सपने संजोए गए थे.

धर्म और राजनीति का जहरीला घालमेल जनता के सामने परोसा जा रहा है जो राजनीतिक व्यवस्था के साथ सामाजिक तानेबाने को भी अस्थिर कर सकता है. जनता विकासवाद बनाम धार्मिक विरासतवाद के बीच फंस गई है. मतलब, जनता की हालत, कविवर दुष्यंत कुमार के शब्दों में, ‘जिस तरह चाहो बजाओ इस सभा में, हम नहीं हैं आदमी, हम हैं झुनझुने’ जैसी हो गई है.

नागरिकों को शिक्षित करने और अनुशासित करने की जिम्मेदारी सरकार की होती है मगर वर्तमान सरकार तो पूरी जनता को धर्म व आस्था में डुबकी लगवाने को आतुर है.

धार्मिक आयोजनों में कई बार कई जानें जा चुकीं पर फिर भी बौराए लोग इसे मोक्षमार्ग मान दिनप्रतिदिन अपनी जानें जोखिम में डाले जा रहे हैं. सावन का महीना शुरू हो चुका है और लोग पाप धोने के लिए कांवड़ ले कर निकल पड़े हैं. धार्मिक आयोजनों या तीर्थस्थलों पर भगदड़ की कई बार घटनाएं घटित हुई हैं. उन में से कुछ इस प्रकार हैं:

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