Raja Raghuvanshi Murder Case : सोनम रघुवंशी को ले कर इन दिनों पुरुष खेमा काफी बेचैन है. सोशल मीडिया पर ‘सोनम बेवफा है’ ट्रेंड पर चल रहा है. मर्द परेशान हैं. मर्दों को अब शादी के साइड इफैक्ट्स नजर आने लगे हैं. कहीं पुरुष-आयोग बनाने की बात हो रही है तो कहीं शादी से दूर रहने के गुर सिखाए जा रहे हैं. इस तरह की कुछ घटनाओं को ले कर मेनस्ट्रीम मीडिया भी लगातार औरतों के खिलाफ माहौल तैयार करने में लगा है. टीवी चैनल के पैनल में धर्मगुरुओं को बैठा कर सोनम के मुद्दे पर डिबेट करवाई जा रही है. तथाकथित संतों की वाणी में औरतों को ले कर भयंकर नफरत निकल कर सामने आ रही है. कहीं यह सारा प्रोपेगेंडा औरतों को मिले कौंस्टिट्यूशनल राइट्स को छीनने का प्रयास तो नहीं?
सोशल मीडिया पर अनिरुद्धाचार्य का वीडियो है जिस में उन से एक महिला ने सोनम रघुवंशी वाले मामले को ले कर एक सवाल पूछा की महिलाएं ऐसा कदम क्यों उठा रही हैं तो अनिरुद्धाचार्य ने जवाब दिया, ‘नारी का असली श्रृंगार उस का पति है एक बार पति के नाम का सिंदूर मांग में पड़ जाए तो वह औरत उस की संपत्ति हो जाती है.’
इस तरह की घटिया मानसिकता से पूरा मर्द समाज ग्रसित है. औरतों को निजी संपत्ति मानने की यह सोच औरतों के खिलाफ एक गंभीर साजिश है. तमाम तरह के कौंस्टिट्यूशनल राइट्स के बावजूद भारत में औरतों की स्थिति में ज्यादा सुधार नहीं हुआ तो इस की वजह यही पुरुषवादी मानसिकता है.
औरतों को कैसे मिले अधिकार संवैधानिक अधिकार?
भारतीय संविधान लागू होने से पहले हिंदू समाज में पुरुष और महिलाओं को तलाक का अधिकार नहीं था. 1955 तक पुरूषों को एक से ज्यादा शादी करने की आजादी थी. हिंदू विधवाएं दोबारा विवाह नहीं कर सकती थीं. विधवाओं को कोई संपत्ति नहीं मिलती थी. 11 अप्रैल 1947 को डा. अंबेडकर ने संसद में हिंदू कोड बिल नाम से महिला अधिकारों से सम्बंधित बिल संसद में पेश किया.
इस विधेयक में विधवा औरत को बेटों के साथ संपत्ति में बराबर का अधिकार देने का प्रावधान था. इस के अतिरिक्त, पुत्रियों को उन के पिता की संपत्ति में हिस्सा देने की भी व्यवस्था थी, साथ ही विवाह संबंधी प्रावधानों में बदलाव किया गया था. यह दो प्रकार के विवाहों को मान्यता देता था, सांस्कारिक व सिविल. इस में हिंदू पुरूषों द्वारा एक से अधिक महिलाओं से शादी करने पर प्रतिबंध था. तलाक संबंधी प्रावधान भी थे. सब से बड़ी बात यह थी कि पत्नी अपने पति से किन्हीं शर्तों पर तलाक ले सकती थी.
भारत के इतिहास में यह पहली बार हो रहा था कि हिंदू महिलाएं अपने पति से तलाक ले सकती थीं. इस विधेयक में तलाक के लिए 7 आधार तय किए गए थे. परित्याग, धर्मांतरण, रखैल रखना या रखैल बनना, असाध्य मानसिक रोग, असाध्य व संक्रामक कुष्ठ रोग, संक्रामक यौन रोग व क्रूरता जैसे आधार पर कोई भी व्यक्ति तलाक ले सकता था.
1947 से पहले के मनुस्मृति वाले कानून में हिंदू औरत के पास कोई अधिकार नहीं था. विवाह के बाद यदि पति क्रूर हो, नपुंसक हो या उस में कोई भी दोष हो औरत को आजीवन पत्नी बन कर निभाना पड़ता था. पति या उस के घरवाले औरत के साथ मनचाहा व्यवहार कर सकते थे. पति चाहे कितनी भी औरतों को ले आए या वो मर जाए ऐसी किसी भी परिस्थिति में औरत के लिए दूसरा विवाह वर्जित था.
हिंदू कोड बिल हिंदू औरतों के लिए एक क्रांतिकारी विधेयक था जिस से भारतीय नारी की मुक्ति तय थी लेकिन कट्टरपंथी वर्ग को यह विधेयक मंजूर नहीं था. पुरोहितों ने नारी को गुलाम बनाए रखने के लिए हजारों वर्षों तक मेहनत की थी. धार्मिक प्रावधान बना कर औरतों की गुलामी को ईश्वरीय आदेश घोषित किया था. इस विधेयक के कानून बन जाने से औरतों की आजादी के रास्ते खुल जाते जिस से कट्टरपंथियों की शताब्दियों की मेहनत बेकार हो जाती.
देश के कोनेकोने से हिंदू संगठनों द्वारा इस बिल का जोरदार विरोध होना शुरू हुआ. भारी विरोध के कारण इस बिल को 9 अप्रैल 1948 को सेलेक्ट कमेटी के पास भेज दिया गया और 3 साल की देरी के बाद 1951 में डा. अंबेडकर ने दुबारा हिंदू कोड बिल को संसद में पेश किया. जैसे ही यह बिल संसद में पेश हुआ इसे ले कर संसद के अंदर और बाहर फिर हंगामा मच गया. हिंदू धर्माचार्य सड़कों पर आ गए और डा. अंबेडकर के खिलाफ लामबंद हो गए.
संसद में जहां जनसंघ समेत कांग्रेस का हिंदूवादी धड़ा इस का विरोध कर रहा था तो वहीं संसद के बाहर हरिहरानंद सरस्वती उर्फ करपात्री महाराज के नेतृत्व में बड़ा प्रदर्शन चल रहा था. अखिल भारतीय राम राज्य परिषद की स्थापना करने वाले करपात्री का कहना था कि यह बिल हिंदू धर्म के खिलाफ एक साजिश है और यह हिंदू रीतिरिवाजों, परंपराओं और धर्मशास्त्रों के विरुद्ध है. आरएसएस ने अकेले दिल्ली में दर्जनों विरोध-रैलियां आयोजित कीं. आज आरएसएस हिंदू महिलाओं के सांस्कृतिक उत्थान की बात करती है क्या आज आरएसएस यह बतायेगी की उस ने तब हिंदू महिलाओं को मिलने वाले संवैधानिक अधिकारों का विरोध क्यों किया था?
इन विरोधों के कारण ही हिंदू कोड बिल उस वक्त लागू न हो सका. जवाहरलाल नेहरू इस विधेयक को ले कर इतने संवेदनशील थे कि उन्होंने कहा था, ‘इस कानून को हम इतनी अहमियत देते हैं कि हमारी सरकार बिना इसे पास कराए सत्ता में रह ही नहीं सकती.’
डा. अंबेडकर ने कहा था, ‘मुझे भारतीय संविधान के निर्माण से अधिक दिलचस्पी और खुशी हिंदू कोड बिल पास कराने में है.’
हिंदू संगठनों के विरोध के कारण जब यह बिल पारित न हो सका तब अंबेडकर ने कानून मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया.
देश के पहले लोकसभा चुनाव के बाद नेहरू ने हिंदू कोड बिल को कई हिस्सों में तोड़ दिया और इस तरह 1955 में हिंदू मैरिज एक्ट बनाया गया. जिस के तहत तलाक को कानूनी दर्जा मिला. अलगअलग जातियों के स्त्रीपुरूष को एकदूसरे से विवाह का अधिकार मिला और एक से ज्यादा शादी को गैरकानूनी घोषित कर दिया गया. इस के अलावा 1956 में ही हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, हिंदू दत्तक ग्रहण और पोषण अधिनियम और हिंदू अवयस्कता और संरक्षकता अधिनियम लागू हुए. ये सभी कानून महिलाओं को समाज में बराबरी का दर्जा देने के लिए लाए गए थे. इस कानून के तहत ही पहली बार महिलाओं को संपत्ति में अधिकार दिया गया.
औरतों के खिलाफ पुरोहितों के षड्यंत्रों को नाकाम कर भारतीय संविधान ने औरतों को आजादी दी. औरतों की आजादी से सभी धर्मों को बैर है. नारी को गुलाम बनाए रखने का जतन सभी धर्म के पुरोहितों ने किया. औरतों की आजादी के खिलाफ पुरोहितों का षड्यंत्र आज भी चल रहा है. आज के पुरोहित सीधे तौर पर महिलाओं को मिले संवैधानिक अधिकारों का विरोध नहीं कर पाते इसलिए मुस्कान और अतुल जैसे मामलों की आड़ में महिलाओं के विरुद्ध अपनी घृणित मानसिकता को सामने ले आते हैं.
औरतों की आजादी में सब से बड़ी रुकावट?
औरतों को क्या करना है? कैसे रहना है? यह तय करने वाली औरतें कौन होती हैं? यह मानसिकता धर्म से निकलती है. औरतों के मामले में सभी धर्म एक जैसे हैं. औरतें घर की इज्जत होती हैं. औरतों के गलत कदम से परिवार की नाक कटती है. शादीशुदा औरतों का गैरमर्द की ओर देखना भी पाप होता है. लड़कियों का शादी से पहले सैक्स करना पाप है. सैक्स के बारे में सोचना भी गुनाह होता है. यह सारी बातें सिर्फ लड़कियों के लिए ही स्थापित की गई हैं. लड़कों से न तो परिवार की नाक कटती है और न ही विवाहेत्तर संबंधों से मर्दों को पाप लगता है. ऐसे समाज में आज की पढ़ीलिखी लड़कियां कैसे सर्वाइव कर सकती हैं?
जीनत अभी शादी नहीं करना चाहती थी. वह ग्रेजुएशन फाइनल ईयर में थी और पड़ोस के एक लड़के से प्यार करती थी. घरवालों को उस ने सिकंदर से अपने रिलेशनशिप के बारे में बताया तो घर में बवाल मच गया. जीनत के बड़े भाई और अब्बू ने जल्दबाजी में जीनत के लिए लड़का ढूंढ लिया और उस का निकाह सलीम से करवा दिया. जीनत के पास कोई रास्ता नहीं था. शादी के कुछ सप्ताह बाद ही सलीम दुबई चला गया और ससुराल में जीनत को अपने परिवार के हवाले छोड़ गया. जीनत ने किसी तरह एक साल काटे इस बीच सिकन्दर से उस की बातें होने लगीं और चोरीछुपे शारिरिक संबंध भी बन गए. एक दिन सिकन्दर घर में पकड़ा गया और जीनत के घरवालों ने घर में ही सिकन्दर और जीनत की हत्या कर दी.
अगर किसी लड़की की शादी ऐसे घर में हो जाए जहां उस की इज्जत ही न हो या उसे अपने पति से शारिरिक संतुष्टि हासिल न हो पा रही हो तब वह क्या करे? वह कैसे और किस से कहे कि उसे अपने मर्द से जिस्मानी सुख प्राप्त नहीं हो रहा? वह किस से और कैसे कहे कि उसे किसी और से प्यार हो गया है? क्या जिस्मानी सुख की अभिलाषा रखना औरतों का अधिकार नहीं है? क्या किसी भी कारण से उसे दूसरा प्यार नहीं हो सकता?
अब इन्ही बातों को उल्टा कर के इस पर समाज के नजरिये को जांचने की कोशिश कीजिए. मर्द को अपनी पत्नी के अलावा दूसरा प्यार हो जाए तो समाज में मर्द कुलटा, बदचलन साबित नहीं होता. भारत में दो करोड़ वेश्याएं किस के लिए हैं? क्या देश में ऐसा कोई चकलाघर है जहां नामर्द पतियों से असंतुष्ट औरतें अपने जिस्म की प्यास बुझाने जाती हों? औरत और मर्द के प्रति इसी भेदभावपूर्ण मानसिकता को जस्टिफाई करने के लिए शादी की व्यवस्था बनाई गई. शादियों के नाम पर औरतें बंधी रहें और मर्द खुले सांड की तरह घूमते फिरें.
नेहा की शादी राकेश से तय हुई. शादी के बाद नेहा नौकरी जारी रखना चाहती थी लेकिन राकेश के घरवालों को नेहा का जौब करना पसंद नहीं था. शादी के साल भर में ही नेहा के लिए ससुराल कैदखाने सा हो गया. इस बीच राकेश का बर्ताव भी बदल गया था. नेहा ने अपने मायके वालों से बात की तो उन्होंने नेहा को समझाया कि भगवान पर भरोसा रखो सब ठीक हो जाएगा. नेहा ने किसी तरह 3 साल और काट लिए वह एक बेटी की मां बन गई लेकिन ससुराल के लोगों में कोई बदलाव नहीं आया. राकेश बातबात पर नेहा को गालियां देता और कभीकभी उसपर हाथ भी उठा देता था. नेहा के लिए इस टौक्सिक रिलेशनशिप से बाहर निकलना जरूरी हो गया लेकिन इन हालातों में भी मायके वालों का उसे कोई सपोर्ट नहीं मिल रहा था.
नेहा अपने पति से तलाक का मन बना चुकी थी लेकिन इसके लिए उसे ससुराल छोड़ना जरूरी था. मायके में रह कर ही वह ऐसा कर सकती थी. वह अपनी बेटी को ले कर मायके पहुंची और एक वकील से बात कर उस ने राकेश को तलाक का नोटिश भिजवा दिया. नोटिस मिलते ही राकेश के अंदर का मर्द जाग गया और उस ने कोर्ट में तलाक देने से मना कर दिया और समझौते पर अड़ गया. नेहा को समझौता करना पड़ा और इस समझौते के कुछ दिनों बाद ही नेहा को सातवी मंजिल से नीचे फेंक दिया गया. उस की मौके पर ही मौत हो गई.
बड़ी आसानी से लोग कह देते हैं कि ऐसे में लड़की तलाक क्यों नहीं ले लेती? क्या साधारण परिवारों में तलाक का रिवाज है? खासकर लड़कियों के लिए तो तलाक का रास्ता बेहद कठिन है. एलीट क्लास की बात छोड़ दीजिए. वहां की लड़कियां सामाजिक बंधनों से मुक्त होती हैं इसलिए शादी न चल पाने पर तलाक लेने में उन्हें कोई दिक्कत पेश नहीं आती. लेकिन साधारण परिवारों में ऐसा नहीं होता.
लड़की का रिश्ता न चले तो उस के घरवाले ही उसे समझाते हैं कि बेटी किसी तरह दो चार साल झेल लो बाद में सब ठीक हो जाएगा. ससुराल से मोहभंग होने पर या पति के व्यवहार से दुखी होने पर लड़कियां अपने मांबाप से अपनी परेशानियों को कह नहीं पाती. किसी साधारण परिवार की लड़की के लिए कानून का रास्ता इतना भी आसान नहीं है. बिना परिवार के सपोर्ट के वह कानून के दरवाजे तक नहीं पहुंच सकती. अब यहां लड़कियों के लिए बस दो ही विकल्प रह जाते हैं या तो वह अपनी बेबसी को अपनी किस्मत मान कर ताउम्र झेलती रहे या फिर चोर दरवाजे से अपनी समस्याओं का हल ढूंढने का प्रयास करे. कई बार यही चोर दरवाजा औरतों को अपराधों की ओर ले जाता है.
इस में कोई दो राय नहीं कि सोनम ने जघन्यतम अपराध किया है और न्याय व्यवस्था में उसे उस के कुकर्मों की सजा मिल जाएगी. सोनम बेवफा थी तो उसे अपनी बेवफाई की सजा काटनी होगी लेकिन सोनम के अपराध में कहीं न कहीं समाज भी बराबर का दोषी है. समाज भी लड़कियों के प्रति बेवफा ही साबित होता है. उसे सजा कब मिलेगी?
लड़की मतलब किसी की प्रौपर्टी नहीं
पिछले एक दशक से समाज के दकियानूसी संस्कारों पर ठोकरें लगनी शुरू हुईं हैं तो सब उलट पलट सा गया है. लड़कियां पढ़ रही हैं. दुनिया को समझ रही हैं. वो अब अपना भविष्य खुद बनाना चाहती हैं ऐसे में लड़कियों को निजी प्रौपर्टी समझने वाले समाज के बनावटी उसूल गड़बड़ाने लगे हैं. समाज अभी लड़कियों को इतनी आजादी देने को तैयार नहीं है. लड़की मतलब घर की वो प्रौपर्टी हैं जिस का परिवार से अलग कोई अस्तित्व नहीं. आजाद ख्याल लड़की का कौन्सेप्ट हमारे समाज की सोच से भी बाहर की चीज है. ऐसे समाज में आजाद ख्याल लड़कियों को बहुत सी मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है.
लड़की भी अपने बारे में सोच सकती है. वो किसी लड़के से प्यार कर सकती है. अपनी मर्जी से शादी कर सकती है यह बातें भारतीय समाज के लिए स्वीकार करने योग्य कतई नहीं है. यहां कानून और समाज के बीच भयंकर टकराव है. कौन्स्टिट्यूशन के अनुसार 21 साल की लड़की आजाद है. वो अपने अनुसार जी सकती है. शादी कर सकती है. बिना शादी के अपने पार्टनर के साथ सैक्स कर सकती है लेकिन समाज की नजर में कोई औरत आजाद हो ही नहीं सकती. वो बिना शादी के सैक्स नहीं कर सकती. समाज की नजर में लड़की को सैक्स के लिए पार्टनर की नहीं पति की जरूरत होगी और लड़की का पति कौन होगा यह लड़की तय नहीं कर सकती. यहीं से समस्याएं खड़ी होती हैं. कानून और समाज के बीच मध्यम मार्ग कोई नहीं है और समाज के आगे कानून भी लाचार नजर आता है. कानून का काम तो तब शुरू होता है जब कोई उस के द्वार खटखटाता है. यह कानून की मजबूरी है लेकिन समाज तो हर वक्त लड़की पर नजर बनाए रखता है ऐसे में लड़की को अपनी मर्जी से शादी करनी हो तो वो क्या करे?
शहरों में हालात बदल रहे हैं लेकिन गांवों कस्बों में आज भी लड़कियों के लिए कोई रास्ता नहीं है. यहां बदलाव बस इतना ही हुआ है कि लड़कियों को स्कूल भेजा जाने लगा है. बाल विवाह में कमी आई है. लड़कियों की शादी में जल्दबाजी नहीं की जा रही. हर लड़का शादी के लिए औसत पढ़ीलिखी लड़की ढूंढ रहा है इसलिए मांबाप अपनी बेटियों को पढ़ा रहे हैं. स्कूल कालेज जाने से लड़कियों में आत्मविश्वास आने लगा है और यही आत्मविश्वास उन्हें सामाजिक बंधनों के खिलाफ खड़ा कर रहा है. गांव कस्बों की लड़कियां भी अब इतनी नादान नहीं रह गईं कि परिवार की मर्जी के आगे अपने जीवन को बलिदान कर दें. जवान होती हुई लड़की अपना भला और बुरा अच्छे से समझ रही है. अब वह किसी की भी प्रोपर्टी बन कर जीना नहीं चाहती. आज की लड़कियां रिश्तों के बंधनों से आजादी चाह रही हैं तो इस में गलत क्या है?
अपनी मर्जी से शादी करने वाली लड़कियां गलत क्यों?
लड़का अपनी मर्जी से शादी कर ले तो ज्यादा हो हल्ला नहीं मचता लेकिन लड़की ऐसा साहस करे तो समाज इसे लड़की का दुस्साहस समझता है. अपनी मर्जी से शादी करने वाली लड़की को बहुत कुछ झेलना पड़ता है इस के बावजूद समाज में उस के लिए कोई संवेदना पैदा नहीं होती जबकि लड़की समाज की वजह से ही ऐसा कदम उठाती है. लड़की भाग गई. लड़का भगा ले गया. लड़की ने नाक कटवा दी. यह सब ताने सिर्फ लड़कियों के लिए ही इजाद किए गए हैं. शहरों में स्थिति थोड़ी अलग है. शहरों में लड़कियां जौब करती हैं. नौकरी या कोई स्किल सीखने के लिए शहरों की लड़कियां अकेली घर से बाहर जाती हैं. प्रेम करती हैं. शहरों का समाज लड़कियों की आजादी को काफी हद तक स्वीकार कर चुका है. लड़कियों के मामले में शहर ज्यादा उदार हो चुके हैं इसलिए यहां लव मैरिज एक सामान्य सी बात हो गई है लेकिन देश के कस्बे और गांव आज भी लकड़ियों के लिए दड़बे बने हुए हैं इसलिए गांव और कस्बों में इस तरह के मामले तेजी से बढ़ रहे हैं.
कुछ समय पहले बिहार के तत्कालिक डीजीपी एसके सिंघल एक कार्यक्रम में समाज में बढ़ रहे अपराध पर भाषण दे रहे थे. उन्होंने मातापिता की इच्छा के खिलाफ घर से भाग कर शादी करने की प्रवृति के बढ़ने पर अफसोस का इजहार करते हुए कहा, “अभी बेटियों में घर से भाग कर शादी करने की प्रवृति तेजी से बढ़ी है. वे मातापिता को बिना बताए भाग कर शादी कर ले रही हैं. बाद में इस के बहुत ही बुरे परिणाम देखने को मिल रहे हैं. एक ओर जहां उन का अपने परिवार से दुराव हो रहा है वहीं दूसरी ओर कई लड़कियों को देह व्यापार के धंधे में उतार दिया जाता है. कई मामलों में लड़कियों का साथी अकेले छोड़ कर भाग जाता है जिस के कारण उन की भावी जिंदगी कष्टकारी हो जाती है. यह न केवल लड़कियों के लिए बल्कि उन के पूरे परिवार के लिए बहुत ही पीड़ा देने वाला होता है.”
हालांकि यह अलग बात है कि बिहार के अभिभावकों को अपनी बेटियों को नियंत्रण में रखने का शिष्टाचार सिखाने वाले डीजीपी एसके सिंघल खुद भ्रष्टाचार में पकड़े गए. वे सिपाही बहाली प्रश्नपत्र लीक मामले में दोषी पाए गए. डीजीपी साहब के भ्रष्टाचार का मामला अलग है. यहां बात उन संस्कारों की हो रही है जिस में लड़कियों को बांधे रखने की वकालत डीजीपी एसके सिंघल जैसे लोग करते हैं. इन्हीं संस्कारों में हजारों वर्षों तक लड़कियों को बांधे रखा गया. लड़की को क्या पहनना है. कहां जाना है. कितना हंसना है. किस से शादी करनी है. कब शादी करनी है. भारतीय समाज में लड़कियों के लिए यह कभी उस के निजी मामले नहीं थे. घरवालों ने जहां तय कर दिया उसे वहीं शादी करनी होती थी और जीवन पर्यंत उस शादी को निभाना भी लड़कियों की जिम्मेदारी थी. ससुराल कैसा भी हो, पति जैसा भी हो लड़की को ही झेलना पड़ता था.
बढ़ते अपराध, शादी के साइड इफेक्ट
इधर लगातार ऐसी खबरें सुर्खियों में रही जिन में औरतों ने अपने पतियों की बेरहमी से हत्याएं कर दी. अपराध की यह घटनाएं इस बात को जस्टिफाई नहीं करतीं कि औरतों को संस्कारों के दायरे में कैद रखना सही है. अगर पिछले एक साल के अपराधों पर नजर डालें तो 70 प्रतिशत मामलों में पतियों ने अपनी पत्नियों की हत्याएं की हैं इस से मर्दों को संस्कारों में बांधने की वकालत तो कोई नहीं कर रहा. ऐसे मामले में जहां पति या पत्नी अपने जीवनसाथी को रास्ते से हटाने के लिए कत्ल तक करने की हिमाकत कर हैं वहां सवाल तो यह उतना चाहिए कि समाज में तलाक की सहज स्वीकार्यता क्यों नहीं है? तलाक हमारी संस्कृति में शामिल क्यों नहीं है? लोगों को तलाक से आसान हत्या करना क्यों लग रहा है? सोनम, मुस्कान और शबनम जैसी औरतों ने तलाक का रास्ता क्यों नहीं चुना? अपराधी कोई भी हो सकता है. मर्द भी और औरत भी. लेकिन कुछ अपराधों में शामिल औरतों के उदाहरण ले कर आधी आबादी को कटघरे में खड़ा कर देना कहां तक उचित है?
1860 से 1910 के दशकों में यूरोप में सब से ज्यादा औनर किलिंग हुई. इस दौरान बड़ी तादात में पतियों ने अपनी पत्नियों को मारा और पत्नियों ने अपने पतियों की हत्याएं कीं. यूरोपीयन समाज ने इस से सबक लिया और लड़कियों को अपनी मर्जी से जीने की छूट दी. यूरोपियन समाज ने परंपरागत शादियों की जगह लव मैरिजेज को बढ़ावा देना शुरू किया. तलाक के नियमों को आसान बनाया गया इस से कुछ ही दशकों में यूरोपियन समाज में बड़ी क्रांति देखी गई. 1950 आतेआते यूरोप में कामगार औरतों का अनुपात आश्चर्यजनक रूप से बढ़ गया. 1910 में जहां हैल्थ, एजुकेशन, इंडस्ट्रीज और हौस्पिटेलिटी में लड़कियां महज 9.3 प्रतिशत थीं वहीं 1950 तक जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में औरतों की 37 प्रतिशत तक कि भागीदारी हो गई.
आधी आबादी की पूरी आजादी जरूरी क्यों?
यूरोप ने लड़कियों की क्षमताओं को समझा और उन्हें संस्कारों और परंपराओं की बेड़ियों से आजाद कर दिया क्योंकि संस्कारों और परंपराओं की आड़ में आधी आबादी को निष्क्रिय कर कोई भी समाज तरक्की नहीं कर सकता. औरत का अपना एक आस्तित्व है और इस अस्तित्व की गहराई में भावनाएं हैं, इच्छाएं हैं, प्रेम हैं, समर्पण है और वासना भी है. अगर औरत के अस्तित्व को ही कैद कर दिया जाए तो उस के अंदर की यह सारी वेदनाएं किसी न किसी रूप में बाहर जरूर निकलेंगी और सबकुछ उलट पलट देंगी इसलिए यह जरूरी है कि औरत को एक इंडिविजुअल के तौर पर भी स्वीकार किया जाए.
औरतों पर जुल्म जिन की रिपोर्टिंग नहीं होती
महिलाओं के विरुद्ध अपराधों के मामले में, भारत को दुनिया के सब से खतरनाक देशों में गिना जाता है. भारत में प्रतिदिन तकरीबन 90 रेप के केसेस दर्ज होते हैं देश की राजधानी दिल्ली में 2022 के डाटा अनुसार हर घंटे औसतन 3 बलात्कार की घटनाएं दर्ज हुईं. क्या यह सभी मामले सोशल मीडिया पर सुर्खियां बटोरते हैं? क्या न्यूज चैनल्स इन खबरों पर चीख पुकार करते हैं?
नैशनल क्राइम रिकौर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट के मुताबिक, 2022 में महिलाओं के खिलाफ अपराध के सबसे ज्यादा मामले उत्तर प्रदेश में दर्ज किए गए थे.
2022 में महिलाओं के खिलाफ अपराध के सब से ज्यादा मामले उत्तर प्रदेश में दर्ज हुए. केंद्रीय गृह मंत्रालय के अंतर्गत आने वाले NCRB के मुताबिक, साल 2022 में उत्तर प्रदेश में महिलाओं के खिलाफ अपराध के 65,743 मामले दर्ज हुए. यह देश के किसी भी राज्य की तुलना में सब से अधिक हैं, साथ ही साल दर साल यह आंकड़ा बढ़ा भी है. आंकड़ा यह भी बताता है कि ‘पाताल से अपराधियों को खोज लाने’ का दावा करने वाली सरकार 2021 तक लंबित मामलों की जांच तक नहीं करा पाई.
आमतौर पर उत्तर प्रदेश की सरकार कानून व्यवस्था का खूब ढोल पीटती है. यूपी सरकार में एनकाउंटर और बुलडोजर न्याय का पर्याय बने हुए हैं लेकिन यूपी में औरतों पर होने वाले अत्याचारों में लगातार बढ़ोतरी हुई है जिस पर मेनस्ट्रीम मीडिया, प्रिंट मीडिया और सोशल मीडिया में कोई चर्चा तक नहीं होती.
उत्तर प्रदेश के बाद दिल्ली, हरियाणा, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, ओडिशा और राजस्थान महिलाओं के खिलाफ सर्वाधिक अपराध वाले राज्य हैं. 2021 के मुकाबले 2022 में महिलाओं के प्रति अपराध में 4 प्रतिशत का इजाफा हुआ है. यही वजह है कि ‘महिला, शांति और सुरक्षा सूचकांक 2021’ में भारत 170 देशों में से 148 वें स्थान पर है.
नारी के खिलाफ अपराधों में नारी अस्मिता की बकवास करने वाले और नारी को पूजने वाले लोगों की हकीकत उजागर होती है. इस तरह की जघन्य घटनाओं में संस्कार मर्यादा और संस्कृति की घिसीपिटी दुहाई देने वाले समाज का घिनौना चेहरा भी पूरी तरह बेनकाब हो जाता है.
न्यूज़ चैनलों पर केवल “सिलेक्टिव” मामले ही सुर्खियों में आते हैं क्योंकि यह सिलेक्टिव विचारधारा की औब्जेक्टिव राजनीति का परिणाम है.
महिलाओं के विरुद्ध अपराधों के मामले में राष्ट्रीय महिला आयोग और देश की महिला सांसदों का रवैया क्या है बताने की जरूरत नहीं. हर साल देश की हजारों बेटियां हवस का शिकार होती हैं. मंदिरमसजिद में मासूम बच्चियों संग गैंगरेप होता है लेकिन इस से शीर्ष पदों पर बैठी महिलाओं को कोई फर्क नहीं पड़ता.
साम्प्रदायिक मुद्दों पर गला फाड़फाड़ कर चिल्लाने वाली महिला एंकर्स के लिए बालात्कार जैसी घटनाएं भी राजनीति और टीआरपी का खेल बन जाती हैं. किसी बलात्कार पर तभी शोर मचता है जब मामले में साम्प्रदायिक पहलू शामिल हो वरना महिलाओं के खिलाफ जघन्यतम मामलों में भी कोई हो हल्ला नहीं मचता. जब तक किसी मामले में टीआरपी का ग्राफ ऊपर न उठे तब तक टीवी पर नजर आने वाली महिला एंकरों को नारी पर होने वाले किसी भी अपराध से कोई फर्क नहीं पड़ता.
भारत की महान संस्कृति का दर्शन करने आने वाली विदेशी नारियों के साथ भी रेप हुए लेकिन प्राइम टाइम में कोई शोर न हुआ क्योंकि ये घटनाएं उन राज्यों में घटित हुईं जहां राष्ट्रवादी सरकारें हैं. इन घटनाओं पर विदेशों में भारत की महान संस्कृति सुर्खियों में रही लेकिन देश की मीडिया और मीडिया में बैठी खूबसूरत बालाएं खामोश रहीं. इस कुसंस्कृति पर एक शब्द भी नहीं बोल पाईं लेकिन साम्प्रदायिक मामलों में टीवी पर बैठी यही नारी शक्ति चिल्लाती हुई दिखाई देती हैं.
15 मार्च 2025 में एक ब्रिटिश महिला का दिल्ली के एक होटल में रेप किया गया. 8 मार्च यानी महिला दिवस के दिन तेलांगना के के हम्पी में दो इजराइली औरतों का रेप हुआ. फरवरी में ही दिल्ली की एक अदालत ने एक आयरिश महिला के रेप और हत्या मामले में दोषियों को उम्रकैद की सजा सुनाई. क्या इन में से कोई भी खबर सुर्खियां बटोर पाई? क्या इन खबरों पर देश में कोई शोर मचा?
पिछले दो महीनों में पुरुषों द्वारा अपनी पत्नियों की हत्या के 30 से ज्यादा मामले दर्ज हुए हैं. वहीं पत्नियों द्वारा पतियों की हत्या के मामले इस के आधे भी नहीं हैं लेकिन शोर केवल औरतों द्वारा किए गए अपराधों पर मच रहा है.
पत्नियों की हत्या के कुछ ताजा मामले–
– मार्च 2025 सारंगढ़, बालोद और कोंडागांव में तीन पत्नियों की हत्या
– अप्रैल 2025 मामूली घरेलू विवादों में 10 जगहों पर पति पत्नियों का कत्ल
– मई 2025 चरित्र शक और मामूली विवाद में इस महीने भी 10 पत्नियों की हत्या
– 15 जून 2025 मामूली घरेलू विवाद में 6 जगहों पर पति ने पत्नियों को मार डाला
– इनमें शक के चलते 10 से ज्यादा मर्डर, 6 बार नशे की हालत में कत्ल
– 2 पत्नियों की हत्या. संबंध बनाने से इनकार पर, बाकी वजहें- दहेज और तनाव की वजह से की गईं.
यह सारे मामले भारत के केवल एक राज्य मध्य प्रदेश के हैं.
सोशल मीडिया और मेनस्ट्रीम मीडिया दोनों पूरी तरह जातिवादी पुरुषों के हाथों में हैं जो औरतों पर होने वाले अत्याचारों और अपराधों को गम्भीरता से तभी लेते हैं जब विक्टिम ऊंची जाति की हो और अपराधी निचली जाति से हो या दूसरे धर्म का हो. अगर अपराधी और पीड़ित दोनों अपनी ही जाति से हों तो मामले को एक कोने में सरका दिया जाता है.
बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ के शोर में बहुत सी बेटियां खामोश कर दी जाती हैं. कुछ पेट में ही मार दी जाती हैं कुछ खाली पेट मर जाती हैं लेकिन यह लड़कियां प्राइम टाइम की खबरों में जगह नहीं बना पातीं.
मलाला हो या सबरीमाला औरत से दिक्कत सभी धर्मों को है क्योंकि औरत की शिक्षा से उस की आज़ादी से मजहब की बुनियादें हिलने लगती हैं. सतीप्रथा खत्म हो चुकी है लेकिन औरत को जिंदा जलाने की मानसिकता आज भी मौजूद है. जब मणिपुर की औरतों को सरेआम बीच चौराहे पर उस के जिस्म से आखिरी कपड़ा तक उतार कर उसे भरे बाजार नंगा घुमाया गया तब भी मीडिया में बैठी नारी शक्ति के आंख कान जुबान सब बन्द हो गए थे.