Indian Economy : क्या सचमुच में आर्थिक असमानता बहुत ज्यादा बढ़ रही है और गरीबी भी इतनी बढ़ रही है कि लोग खर्च करने लायक पैसा भी नहीं कमा पा रहे. इस सवाल का जबाब देना कोई मुश्किल बात नहीं कि हां ऐसा हो रहा है. कौन है इस का जिम्मेदार? सरकार या उस के साथ वे लोग भी जिन की खर्च करने की आदतें बदल रही हैं.

कहने को ही सही भारत मिश्रित अर्थव्यवस्था वाला देश रह गया है नहीं तो आमतौर पर ऐसा पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में होता है कि अमीर और अमीर और गरीब और गरीब होता जाए. ऐसा नहीं हो रहा यह कहने की कोई वजह नहीं लेकिन बहुत तेजी से ऐसा हो रहा है यह कहने की बहुत सी वजहें हैं. देशविदेश की कई एजेंसियां पिछले 5 साल से सर्वेक्षणों और आंकड़ों के जरिए यह कहती रही हैं कि भारत में सब कुछ ठीकठाक नहीं है. लेकिन उन की बात वेबसाइट्स में घुट कर रह जाती है या कभीकभार अखबार में छोटी सी जगह में छप कर रह जाती है, जिसे 5 फीसदी पाठक भी नहीं पढ़ते क्योंकि हर किसी या सभी की दिलचस्पी की खबर नहीं होती.

लोगों की दिलचस्पी कुंभ जैसे धार्मिक इवेंट में ज्यादा रहती है जिस में 66 करोड़ लोगों के डुबकी लगाने की बात उन्हें आश्वस्त करती है कि अभी भी लोगों के पास इतना पैसा है कि वे कुछ हजार रुपए खर्च कर मोक्ष का टिकट खरीद रहे हैं. इन 66 करोड़ में से कितनों ने प्रयागराज आनेजाने कर्ज लिया, जमापूंजी ठिकाने लगाई या उधार लिया यह आंकड़ा कोई सरकार या एजेंसी नहीं बताती, पर सहज अंदाजा लगाया जा सकता है कि लगभग सभी ने ऐसा किसी न किसी रूप में किया होगा.

कुछ एजेंसियों के आंकड़ों पर गौर करें तो साफ हो जाता है कि कोई 60 करोड़ लोगों ने सेविंग्स ठिकाने लगाईं या फिर उधार या कर्ज लिया होगा लेकिन आर्थिक मोक्ष मिला चंद पूंजीपतियों पंडों और कथित तौर पर उन नाववालों को जिन्होंने कथित तौर पर ही 45 दिन में करोड़ों पीट डाले.

क्या कहते हैं आंकड़े

शिवरात्रि पर जब करोड़ों लोग गंगा जी सपड रहे थे तब एक चिंतनीय खबर सामने आई थी जिस के मुताबिक देश के 100 करोड़ लोग अपनी मर्जी से खर्च करने की हैसियत नहीं रखते. ब्लूम वैंचर्स की इंडस वैली एनुअल रिपोर्ट 2025 के मुताबिक अमीर लोग और अमीर हो रहे हैं लेकिन उन की तादाद नहीं बढ़ रही है बल्कि उन के पास और पैसा बढ़ रहा है. यानी देश में नए अमीर लोग पैदा नहीं हो रहे हैं.

कुंभ की चकाचौंध न भी होती तो भी इस रिपोर्ट से किसी को कोई सरोकार नहीं होता. खासतौर से उन सरकारों और मीडिया मठों को तो बिलकुल नहीं जो अपना कामधाम छोड़ डुबकी लगाने वालों की मुंडियां गिन रहे थे.

इस रिपोर्ट को गहराई से समझने से पहले एक पुराने लतीफे के जरिए और बेहतर व आसान तरीके से समझा जा सकता है जिस में एक खब्त सनकी आदमी एक कुएं के किनारे खड़ा चिल्ला सा रहा था बीसबीस… तभी एक राहगीर वहां से गुजरा और हैरानी से पूछने लगा भाई ये बीसबीस क्या है. उस सनकी ने कोई जवाब देने के बजाय राहगीर को उठाया और कुएं में फेंक दिया और फिर चिल्लाने लगा इक्कीसइक्कीस….

कुम्भ में भी यही हुआ था. अगर रिपोर्ट को सच मानें तो 66 करोड़ लोगों के पास पैसा कहां से आया और उन में उन 100 करोड़ ( 70 फीसदी के लगभग) में से कितने रहे होंगे जिन के पास अपनी मर्जी से खर्च करने पैसा ही नहीं. इस वर्ग की औसत कमाई 85 हजार सालाना है जबकि 30 करोड़ लोगों ( लगभग 20 फीसदी ) जिन्हें रिपोर्ट उभरता उपभोक्ता बताती है कि प्रति व्यक्ति आय ढाई लाख रुपए है.

उच्च वर्ग में 14 करोड़ लोग ( लगभग 10 फीसदी ) हैं जिन की औसत आय 13 लाख रुपए सालाना है. अर्थशास्त्र से हटते जमीनी तौर पर देखा जाए तो लोग मर्जी से डुबकी लगाने नहीं गए थे बल्कि उत्तर प्रदेश और केंद्र सरकार ने उन्हें उकसाया था कि यही मौका है जो एक जिंदगी में एक बार ही आता है.

140 साल बाद हम में से कोई नहीं रहेगा इसलिए अभी पुण्य बटोर लो. यह ब्राह्मण बनिया गठजोड़ का आधुनिक संस्करण था जो लोगों को धर्म और तीर्थ यात्राओं के बाबत डराता और उकसाता है. जिस से लोग गांठ का पैसा खर्च करें जो कि दो चार के पास ही होता है बाकी 96 – 98 तो सूद पर पैसे लेंगे ही या जमीनजायदाद, सोनागहने गिरवी रखेंगे और उन में से भी आधे से ज्यादा उसे उठा नहीं पाएंगे.

तो देश में पिछले 10 सालों से हो यही रहा है कि गरीब और गरीब होता जा रहा है. कुंभ न भी होता तो इस हालत पर कोई खास फर्क नहीं पड़ता. क्योंकि अर्थव्यवस्था अघोषित तौर पर पूंजीवादी हो गई है. कुंभ के नजरिए से ही इसे जस्टिफाई करें तो जिस पानी में मोक्ष की मंशा से श्रद्धालुओं ने पवित्र डुबकी लगाई उस पानी का इस्तेमाल पीने में नहीं किया.

जाहिर है पानी गंदा था. बकौल कांग्रेसी दिग्गज पानी क्या था कीचड़ थी. अब थी तो थी फिर आप क्यों सपरिवार कीचड़ में लौटने गए थे इस सवाल का जवाब दिग्विजय सिंह और 66 करोड़ लोग शायद ही दे पाएं. सभी ने ब्रांडेड बोतल बंद पानी पिया और अरबों रुपए प्यास बुझाने खर्चे. अगर अर्थव्यवस्था वाकई मिश्रित होती तो पानी का पैसा पानी के कारोबारियों के पास नहीं जाता.

बदलती आदतें

यही हाल खानेपीने का आइटमों का कुंभ में भी था और गांवदेहातों में भी इफरात से है कि लोग पैक्ड आइटमों पर ज्यादा खर्च कर रहे हैं. जिस से ज्यादा से ज्यादा पैसा पैक्ड फूड बनाने वाली कंपनियों की तिजोरी में जा रहा है. लोकल बजरंगी टाइप हलवाई गायब होते जा रहे हैं.

इन कंपनियों ने कितनों का रोजगार खाया है इस का भी आंकड़ा किसी के पास नहीं. इस तस्वीर को ब्लूम वैंचर्स की स्टडी इन शब्दों में बयां करती है, कि लोगों की बचत तेजी से घट रही है और कर्ज का बोझ बढ़ता जा रहा है इस वजह से बाजार का तरीका बदल गया है और कंपनियां अब सस्ते सामानों की जगह प्रीमियम प्रोडक्ट्स पर फोकस कर रही हैं.

फूड आइटम चूंकि छोटी चीज है इसलिए रिपोर्ट रियल स्टेट का उदाहरण देते कहती है कि 5 साल पहले रियलस्टेट की कुल बिक्री में अफौर्डेबल हाउसिंग की हिस्सेदारी 40 फीसदी थी जो अब घट कर महज 18 फीसदी रह गई है और हकीकत इंडस वैली रिपोर्ट के इस दावे से समझी जा सकती है कि देश के शीर्ष 10 फीसदी लोग लगभग 58 फीसदी कमाई को नियंत्रित करते हैं, जबकि नीचे के 50 फीसदी लोगों की कमाई का हिस्सा 22 फीसदी से घट कर 15 फीसदी रह गया है.

रिपोर्ट में कई बैंकों का हवाला देते हुए बताया गया है कि लोग लिया हुआ कर्ज नहीं चुका पा रहे हैं. जिस से एनपीए यानी नौन परफार्मिंग एसैट्स बढ़ता जा रहा है. दिसंबर 2024 तक यह 50 हजार करोड़ रुपए तक पहुंच गया था जो अब तक का सब से ज्यादा है.

आमदनी ही नहीं तो बचत कैसे हो

पिछले साल जुलाई में इस सब को ले कर संसद में भी खासा हंगामा मचा था जिस पर सरकार मुंह छिपाती दिखी थी. विपक्ष के इन आरोपों का उस के पास कोई जवाब नहीं था कि पांचवी बड़ी इकोनमी का दम भरती रहने वाली सरकार प्रति व्यक्ति आय का आंकड़ा क्यों छिपाती है.

भारत में प्रति व्यक्ति आय महज 2.28 लाख रुपए है और वह 200 देशों की लिस्ट में 124 वे नंबर पर है. फिर यह इकौनमी किस को पैसे दे रही है. जाहिर है चंद उद्योगपतियों को जिन के नाम अब देश के बच्चों को भी रट गए हैं.

मुद्दा या परेशानी आम लोगों की बचत और खर्च है कि यहांकहां जा रहे हैं. एक साल पहले ही खुद रिजर्व बैंक ने बताया था कि देश में शुद्ध घरेलू बचत 47 साल के निचले स्तर पर है. इसे ऐसे समझें, किसी परिवार के कुल धन और निवेश में से उस का कर्ज और उधारी अगर घटा दी जाए तो उसे शुद्ध घरेलू बचत माना जाता है.

हालात कितने विस्फोटक हो चले हैं इसे बढ़ते कर्ज से समझा जा सकता है कि जैसेजैसे लोग कर्ज लेते जा रहे हैं वैसेवैसे उन की बचत कम होती जा रही है. आम लोगों की कमाई का एक बड़ा हिस्सा उधारी और कर्ज चुकाने में जा रहा है. लोग कर्ज लेते ही क्यों हैं यह सवाल लगभग बचकाना है जिस का जबाब हर कोई यही देगा कि अपनी जरूरतें पूरी करने. इस से यह तो साबित होता है कि लोगों की कमाई अब इतनी नहीं रह गई है कि उस से वे अपनी जरूरतें पूरी कर सकें.

अर्थशास्त्र के इस चक्रव्यूह में अगर 100 करोड़ लोग फंस गए हैं तो इस का 100 फीसदी जिम्मेदार सरकारी नीतियों को ठहराना थोड़ा सा तो गलत है. हालांकि उस की मौजूदा इकौनमी का कोई डिजाइन ही नहीं. वह नौनमार्गेज लोन यानी बिना गारंटी वाले लोन इफरात से बांट रही है इस से गरीबी बजाय कम होने के और बढ़ रही है.

हालांकि इस के पीछे लोगों की खर्च करने की आदतें भी कम जिम्मेदार नहीं. लोग शादीब्याह पर बिना सोचेसमझे पैसा फूंक रहे हैं वह भी दिखावे के लिए. इन में अधिकतर वही लोग हैं जिन्हें जाति के हिसाब से पिछड़ा और दलित कहा जाता है.

इसी तबके के लोगों ने कुंभ की डुबकी पर भी हजारों रुपए पानी में बहाए. इन में से भी अधिकांश वही हैं जिन्हें सरकार मुफ्त का राशन मुहैया करा रही है और कई योजनाओं के तहत नगद भी दे रही है.

इस में औरतों पर सरकारों की मेहरबानी किसी सबूत की मोहताज नहीं. ब्रांडेड खरीददारी का आदी होता जा रहा यह वर्ग अपना और सरकारी खैरात का पैसा कैसे पूंजीपतियों की तिजोरी में डाल रहा है इसे लोकल हलवाई और पैक्ड फूड के उपर बताए छोटे पर अहम उदाहरण से सरलता से समझा जा सकता है.

गरीब कमजोर को पैसा मिले यह हर्ज की बात नहीं हर्ज की बात है यह न सोचा जाना कि क्या इस से वाकई यह तबका आर्थिक रूप से मजबूत हो रहा है. इस की निगरानी और मौनिटरिंग के लिए सरकारों के पास कोई योजना ही नहीं है.

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