Superstition :  मौत के बाद, बजाए शरीर के ख़ाक होने के, व्यक्ति के साथ क्या होता है इस का कोई प्रमाण नहीं. बावजूद हिंदूओं में मृत्यपरांत धार्मिक कर्मकांड भरे पड़े हैं. इस के केंद्र में पंडे हैं जो दानदक्षिणा की धंधा चलाए रखना चाहते हैं.

पिछले दिनों सोशल मीडिया पर एक पोस्ट दिखी जिस में एक इमेज थी. इमेज में मुंबई के ताजमहल होटल में 5-7 बजे एक शोक सभा का आयोजन किया गया था और जिस में लिखा था, ‘नो होम विजिट प्लीज’ यानी ‘कृपया घर पर न आएं.’ यह यूनीक तरीका था परिवार जन द्वारा शोक संदेश देने का.

पहले इस तरह के दुख की घड़ी में आसपास के पड़ोसी, दोस्तरिश्तेदारों का महीने तक परिवार को ढांढस देने के लिए घर पर आनाजाना लगा रहता था. लेकिन आजकल लोग लिखने लगे हैं कि कोई हमारे घर न आएं. न परिवार, न दोस्त, न पड़ोसी किसी को खुद के करीब आने नहीं देना चाहते.

एक बार तो आप भी हैरान हो रहे होंगे कि भला ये क्या बात हुई कि शोक की इस घड़ी में संवेदना देने वालों को घर पर आने से मना किया जा रहा है और शोक सभा एक होटल में आयोजित की जा रही है. लेकिन वास्तव में ध्यान से व्यवहारिक हो कर सोचेंगे तो आप को शोक सभा का यह आयोजन और “कृपया घर पर न आएं” संदेश का उद्देश्य समझ आएगा और उन का यह निर्णय सही लगेगा.

आइए जानते हैं कैसे –

हाल में मेरे किसी नजदीकी का देहांत हो गया और उन की मृत्यु के दिन से ले कर तेरहवीं और उस के बाद के कार्यक्रमों में मैं ने जो देखा और महसूस किया, मुझे मुंबई वाला शोक सभा का आयोजन बिल्कुल सही और व्यवहारिक लगा.

दरअसल हमारे समाज में जीवन से ले कर मौत में पंडों का बिजनेस चल रहा है. किसी जाने वाले के परिवार की मानसिक, आर्थिक स्थिति से उन्हें कोई लेनादेना नहीं है. मतलब मरने के बाद भी बिजनेस चल रहा है और पाखंड का अंत नहीं हो रहा.

एक तो जिस का कोई अपना चला गया वह उस दुख से दुखी है ऊपर से कभी भी, किसी भी समय पर घर पर, किसी का शोक प्रकट करने के लिए चले आना, किसी का मिलने आने का कोई निश्चित टाइम नहीं. कई जगहों पर तो लोग हर रोज मिलने, शोक प्रकट करने आ जाते हैं और बैठक रहती है यानी जबरन शोक मनाया जाता है, यह कहां तक सही है?

धर्म के नाम पर डराना

एक तो किसी का अपना दुनिया से चला गया ऊपर से चौथा, तेरहवीं, श्राद्ध, त्रिपिंडी, ब्राह्मणभोज जैसी रस्मों से ले कर नारायण बलि, रुद्राभिषेक, पूजा सामग्री और प्रसाद की व्यवस्था. इन कार्यक्रमों पर, डैकोरेशन, भजनमंडली, म्यूजिक सिस्टम, खानापीना इन सब के खर्चे जीतेजागते इंसान को मारने के लिए काफी हैं. समझ नहीं आता जो बेचारा अभी किसी अपने को बचाने के लिए अस्पताल का लाखों का बिल भर कर आ रहा है मृत्युपरांत उस पर पाखंड और आडंबर का बोझ क्यों डालना.

तेरहवीं में ब्राह्मणभोज और लंबीचौड़ी दानदक्षिणा के नाम पर मृतक के परिवार वालों को डराया जाता है. कहा जाता है ब्राह्मणों द्वारा यह सब क्रिया न कराई गई तो मृतक की आत्मा पर ब्राह्मणों का कर्ज चढ़ जाता है. भले ही ब्राह्मणों के इस कर्ज को उतारने के चक्कर में जीता जागता इंसान कर्ज के बोझ तले दुनिया से चला जाए.

मृत्यु भोज (तेरहवीं) भारतीय समाज में व्याप्त एक बुराई

मृत्यु भोज (तेरहवीं) भारतीय समाज में व्याप्त एक बुराई है. न चाहते हुए भी कई लोगों को ये करना पड़ता है. दरअसल, तेरहवीं संस्कार समाज के चंद पाखंडी, लालची और चालाक लोगों के दिमाग की उपज है.

किसी व्यक्ति की मृत्यु पर लजीज व्यंजनों को खा कर शोक मनाना क्या किसी ढोंग से कम नहीं? किसी घर में खुशी का मौका हो तो समझ आता है कि मिठाई बना कर खिला कर खुशी का इजहार किया जाए लेकिन किसी व्यक्ति के मरने पर मिठाइयां परोसा जाना क्या यह शर्मनाक परंपरा नहीं है?

शोक और जश्न में कोई अंतर नहीं

लोग क्या कहेंगे की बुनियाद पर टिके हैं ये आडंबर. घर के किसी सदस्य के दुनिया से चले जाने पर किसी को खुशी नहीं होती, फिर भी अधिकांश लोग धर्म के डर और लोकलाज के चक्कर में ये सब करते हैं. शादी समारोह की तरह लोग किसी अपने के चले जाने पर भी लाखों रुपए खर्च करने को मजबूर हैं. भले ही कर्जा उठा कर खर्च करना पड़े.

सभ्य और शिक्षित समाज में यह अजीबोगरीब लगता है कि शोक मनाने के लिए आने वाले परिचितों रिश्तेदारों को स्वादिष्ट व्यंजन परोसे जाते हैं. कई जगह तो शराब तक पिलाई जाती है. इतना ही नहीं, तेरहवीं पर नाचगाना होता है और बेटियों को कपड़ों के साथ सोनेचांदी के गिफ्ट तक दिए जाते हैं. कुछ जगह तो मृत्युभोज के साथसाथ भोज में आए लोगों को भी नकद रुपए, मिठाई का डिब्बा और गिफ्ट भी दिए जाते हैं. शोक और जश्न में कोई अंतर नजर नहीं आता.

कहीं पर यह संस्कार एक ही दिन में किया जाता है तो कहीं तीसरे दिन से शुरू हो कर बारहवेंतेरहवें दिन तक चलता है. कुछ लोग तो दिखावे और शान के लिए 500–1000 लोगों तक को मृत्युभोज करवाते हैं. यानी रिवाज के नाम पर एक और बेमतलब का ढोंग और मरने वाले के बाद परिवार पर जबरन खर्च करने का प्रेशर. तेरहवीं तक मृत्युभोज पर एक सामान्य परिवार का औसत खर्च दो लाख रुपए तक आता है.

कई बार तो यह भी सुनने में आता है कि मृतक बेहद गरीब परिवार से था, घर वालों के पास तेरहवीं के लिए पैसे नहीं थे लेकिन समाज और धर्म के डर से मृतक के परिवार ने कर्ज ले कर मृत्यु भोज कराया. पंडे और नातेरिश्तेदार तो तेरहवीं के कर्मकांड में आ कर चला जाते हैं और बाद में वह परिवार किस तरह अपना घर चला रहा है इस से किसी को मतलब नहीं होता.

कई बार गांवों में तो बिरादरी से निकाले जाने के भय से मृतक का पूरा परिवार इसलिए आत्महत्या तक कर लेता है क्योंकि उन के पास उन की पूरी बिरादरी को मृत्युभोज कराने का इंतजाम नहीं होता.

पहले ऐसा नहीं होता था

बुजुर्ग बताते हैं कि उन के जमाने में ऐसा नहीं था. मृत व्यक्ति के घर 12 दिन तक कोई भोजन नहीं बनता था. 13वें दिन कुछ सादे क्रियाकर्म होते थे और ब्राह्मणों एवं घरपरिवार के लोगों का खाना बनता था. शोक तोड़ दिया जाता था बस. किसी की मृत्यु होने पर समाज के लोग कपड़े, घर से अनाज, राशन, फल, सब्जियां इत्यादि ले कर मृतक के घर पहुंचते थे. लोगों द्वारा लाई गई सामग्री से ही भोजन बना कर लोगों को खिलाया जाता था.

पाखंड में एक और एडिशन भजनमंडली

आजकल एक नया आडंबर होने लगा है शोक सभा में धन खर्च कर भजनमंडली को बुलाना. यह संगीतमय कार्यक्रम करवाया जाता है. लोग इस दौरान फ्यूनरल आर्टिस्ट्स को भजनकीर्तन और शांतिपाठ के लिए भी बुलाते हैं. इन सब का खर्च अलग से होता है. इस सब का क्या औचित्य है? समझ नहीं आता भजन कर के क्यों लोगों को बोर करना, शोक सभा में भजन कार्यक्रम की आखिर क्या जरूरत है? आप को जान कर हैरानी होगी भजनमंडली का गायक जितना फेमस होगा वह उतना अधिक पैसा चार्ज करेगा, यानी यहां भी धर्म का धंधा और पैसे वालों की शो बाजी. मैं ने देखा शोकसभा के लिए हौल में डैकोरेशन कराने का चलन भी बढ़ रहा है जैसे यह कोई शादीब्याह जैसा खुशी का मौका हो.

व्यर्थ का आडंबर क्यों

मृत्युभोज बंद कर के शोक के दिन घटाए जाने चाहिए. परंपराओं की आड़ में आडंबर बंद होना चाहिए. घर के किसी सदस्य के दुनिया से चले जाने पर शादी से ज्यादा खर्च होने लगा है. ऐसे खर्चों से संपन्न लोगों को फर्क नहीं पड़ता, मगर उन का अनुसरण करते हुए गरीब लोग कर्ज उठा कर खर्च करते हैं. अपनों को खोने का दुख और ऊपर से भजन मंडली, हवन, पंडितों की दानदक्षिणा का भारी भरकम खर्च, यह किसी आम इंसान के गले की गड्डी से कम नहीं.

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