रोजीरोटी की तलाश में लोग गांव से शहर चले जाते हैं. लेकिन वहां भी तो धक्के हैं. दिनरात एक करने पड़ते हैं, फिर क्यों न गांव में अपने बुजुर्गों की जमीन को संवारा जाए. बस जज्बा चाहिए जो निन्दी फौजी में था.
मैं जब गांव के रेलवे स्टेशन पर उतरा तो शाम होने वाली थी. पश्चिम का पथिक अपनी यात्रा समाप्त कर रहा था. मैं जानता था इस समय कोई सवारी नहीं मिलेगी, इसलिए रेलवे लाइन के किनारेकिनारे गांव की ओर चल पड़ा. कोई एक किलोमीटर आगे चल कर गांव की ओर रास्ता मुड़ता है. वहां तक पहुंचतेपहुंचते काफी अंधेरा हो गया था. सर्दी में वैसे भी जल्दी अंधेरा हो जाता है. सिर को सर्दी लग रही थी. उसे मैं ने कैप से ढक लिया था.
मेरे गांव के रास्ते में केवल एक ही गांव था. उसे पार करते ही रास्ता सुनसान हो गया था. रास्ते के दोनों ओर गेहूं के खेत लहलहा रहे थे. मैं उस की खुशबू से सराबोर हो रहा था. इस खुशबू के मोह से मैं कभी मुक्त नहीं हो पाया था. रास्ता जानापहचाना था, इसलिए मन के भीतर किसी तरह का डर नहीं था. दूर से गांव की बत्तियां दिखाई देने लगी थीं. मैं जल्दीजल्दी बढ़ने लगा.
गांव में बाहर के पीपल के पास बहुत सी दुकानें खुल गई थीं. उन में एक ढाबा भी था. घर में जाते ही रोटी का प्रबंध करना पड़ेगा, मैं ने ढाबे वाले से पूछा, ‘‘ढाबा कितने बजे तक खुला रहता है?’’
वहां बैठे लड़के ने कहा, ‘‘10 बजे तक जी.’’
‘‘ठीक है, मैं सामान घर में रख कर आता हूं.’’
यहां गांव के घर में मेरा अपना कोई नहीं रहता था. बाऊजी का बनाया मकान मेरे हिस्से आया था. मैं ने इसे सर्विस में रहते अपने ढंग से मौडर्न और सुविधासंपन्न बनवा लिया था. गांव में मेरा अपना कोई नहीं था. सभी अपने हिस्से की जमीन बेच कर शहरों में बस गए थे. अपने हिस्से की जमीन को फसल के लिए मैं ने पड़ोसी प्रकाश भाजी को दे दी थी. उसे जमीन बेची नहीं थी. केवल फसल लगाने के लिए दी थी. वह उस में से मेरी फसल का हिस्सा मकान में रखे स्टील के 2 बड़े ड्रमों में रखता रहता था. खानेपीने की कोई कमी नहीं थी. केवल घर को व्यवस्थित करना था.
मैं ने डुपलीकेट चाबी से घर का दरवाजा खोला. लाइट जला दी. टंकी में पानी भर जाए, मोटर भी चला दी. फ्रैश हो कर नहाया, कपड़े पहने और ढाबे पर खाने के लिए आ गया.
ढाबे वाले लड़के से मैं ने पूछा, ‘‘देसी घी रखते हो?’’
‘‘हां बाबूजी, सारा खाना देसी घी से बनता है.’’
‘‘दाल में अच्छी तरह तड़का लगाओ. तवा रोटी मिलेगी?’’
‘‘हां जी, बिलकुल मिलेगी.’’
‘‘बस, दाल और गरमगरम रोटी देते जाओ जब तक मैं मना न कर दूं.’’
बहुत भूख थी. दाल भी बहुत टेस्टी थी. पता नहीं मैं कितनी रोटी खा गया. पैसे दे कर जाने लगा तो लड़के ने पूछा, ‘‘बाऊजी, आप इसी गांव के रहने वाले हैं?’’
‘‘हां भई, मैं अमृतसर वाले बाऊजी का बेटा हूं.’’
‘‘ओह, तुस्सी निन्दीजी हो. मैं तुहाडे बारे सिर्फ इतना जानता हूं कि तुस्सी फौजी अफसर हो.’’
‘‘फौजी अफसर था. अब पैंशन पर आ गया हूं.’’
‘‘मेरे बाऊजी कहा करते थे, फौजी हमेशा फौजी रहते हैं.’’
‘‘हां, तुम किस के बेटे हो?’’
‘‘मैं चौधरी तिलक राम का बेटा हूं.’’
‘‘तिलक को मैं जानता हूं. वे भी फौजी थे.’’
‘‘हां जी, पिछले साल उन की मौत हो गई.’’
‘‘ओह, अफसोस हुआ सुन कर. मौत कैसे हुई?’’
‘‘खेत में काम कर रहे थे, दिल का दौरा पड़ा और उसी टाइम चोला छोड़ गए.’’
‘‘ओह, पिता का जाना बहुत दुखदायी होता है. अब खेत कौन संभालता है?’’
‘‘हां जी, सर. खेत का काम हम ही संभालते हैं. मैं ढाबा खोलने से पहले उन्हें काम बता आता हूं, जी. जब घर वाली घर का काम समेट कर ढाबे पर आती है तो मैं खेतों में चक्कर मार आता हूं, जी.’’
‘‘यह अच्छा किया. ढाबा खोल लिया. सिर्फ घर की फसल से गुजारे कहां होते हैं. अच्छा, यह बताओ कि घर की साफसफाई और खाना बनाने के लिए कोई औरत मिलेगी?’’
‘‘हां जी, बंतो है न. बहुत साफसुथरी औरत है पर नीच जाति की होने के कारण कोई उसे काम नहीं देता और उस के भाईभाभी कुत्ते की तरह रोटी डालते हैं.’’
‘‘उसे तुम मेरे पास भेज दो. मैं कल सुबह नाश्ता उस के हाथ का करना चाहूंगा.’’
‘‘चंगा जी. मैं रात को ही उसे बोल दूंगा, जी.’’
मैं घर लौट आया और सो गया.
सुबह जब मैं सैर कर के लौटा तो एक दुबलीपतली औरत दरवाजे पर बैठी थी. मैं समझ गया कि यही बंतो है. मैं ने बचपन में उसे देखा था. वह स्कूल जाया करती थी. कोई उसे साइकिल पर नहीं बैठाता था. मैं उसे बैठाता था और कहता था, ‘तुम मेरी साइकिल पर बैठो.’ वह झिझक कर कहती, ‘नहीं, गंदी हो जाएगी.’
‘मैं कहता, ‘कहीं गंदी नहीं होती, तुम बैठो.’ वह बैठ जाती.
स्कूल पहुंच कर मैं उस से कहता, ‘देखो, कहीं गंदी हुई है. वैसे ही चमक रही है.’ वह मुसकरा कर भाग जाती थी. आज उसे फटेहाल देख कर दुख हुआ. मैं उसे पहचान ही नहीं पाया था. स्कूल जाने का सिलसिला भी 8वीं तक चला था, फिर वह स्कूल नहीं जा पाई थी. मांबाप गुजर गए थे. भाईभाभी कहां पढ़ाते हैं. उन्होंने तो उस का ब्याह भी नहीं किया था. शायद गरीबी के कारण या दहेज के कारण.
मैं ने दरवाजा खोला और उसे अंदर आने के लिए कहा. उस ने मुझे नमस्ते की और कहा, ‘‘पहले मुझे पूरे घर की सफाई करनी है. तुस्सी थोड़ा बाहर ठहरो?’’
‘‘ठीक है, मु?ो रसोई के लिए बहुत सी चीजें लानी हैं, मैं तरलोके की दुकान से ले कर आता हूं. अंदर की अलमारी में मेरी पत्नी के बहुत से सूट पड़े हैं. वह तो रही नहीं. साफसफाई कर के जो पसंद हो, पहन लेना.’’
मैं उस से यह कह नहीं पाया कि तुम्हारा सूट जगहजगह फटा हुआ है. स्वैटर की हालत भी ठीक नहीं है जिसे वह अपनी चुन्नी से छिपाने की भरसक कोशिश कर रही थी.
मैं वहां से तरलोके की दुकान पर चला आया. चाय से ले कर दालें तक लेने में मुझे 2 घंटे लग गए. तरलोके के एक लड़के ने सारा सामान घर पहुंचा दिया था.
पैसे दे कर जब मैं घर आया तो पूरा घर चमक रहा था. बंतो ने कौटन का हलके पीले रंग का सूट पहना था. पत्नी का हलके भूरे रंग का एक स्वैटर भी पहन रखा था. वह नहा कर किचन में आई थी. उम्र होने पर भी वह सुंदर लग रही थी. कोई उसे नीच जाति की नहीं कह सकता था. यह मानसिकता आज भी गांवों में और शहरों में भी विद्यमान है. उन्हें कमीन समढ और कहा जाता है चाहे वे कितने ही बड़े पद पर हों.
उस ने शैंपू से बाल धो कर खुले छोड़ दिए थे. चेहरा कमजोर होने पर भी उस के बाल कईकई घटाएं बना रहे थे. खिड़की से आ रही हवा से कई जुल्फें उस के चेहरे को ढक जाती थीं जिन्हें वह बारबार हटा रही थी. शायद पहली बार वह इतनी अच्छी तरह नहाई थी. खुद को सहज महसूस कर रही थी.
मैं ने कहा, ‘‘खिड़की थोड़ा कम खोलोगी तो लहराते बाल चेहरे पर आ कर आप को तंग नहीं करेंगे.’’
उस ने कहा, ‘‘कोई बात नहीं. धूप आ रही है. ठंडीठंडी हवा अच्छी लग लग रही है. हवा से बाल भी सूख जाएंगे.’’
मैं ने फिर कुछ नहीं कहा. सारा सामान किचन में रखा था. दूध जाटों के घर से आ गया था. एक पतीले में उस ने गरम करने को रख दिया था. मैं चाय बनाने के लिए कह कर कमरे में आ गया था. कुछ देर बाद वह चाय ले कर आई बड़े मग में. चाय बहुत टेस्टी थी.
मैं ने पूछा, ‘‘तुम्हें कैसे पता चला कि मैं ज्यादा चाय पीता हूं.’’
‘‘पंचायत के टीवी में देखा था कि फौजी बड़ेबड़े मगों में चाय पीते हैं.’’
वह एक तरफ जमीन पर बैठ गई थी. मैं ने कहा, ‘‘ऊपर स्टूल पर बैठो.’’
उस ने सिर झुका कर कहा, ‘‘मेरी जगह यहीं है. मैं यहीं ठीक हूं.’’
मैं ने जोर नहीं दिया. पहला दिन था. जोर देता तो जाने वह क्या सोचती. वर्षों से वह उपेक्षित रही थी.
बैठ कर वह बोली, ‘‘मुझे किचन के लिए प्रैशरकुकर, कुछ बरतन और फिनायल, दालें रखने के लिए डब्बे आदि चाहिए. मैं ने लिस्ट बनाई है. यहां नहीं मिलेंगे. पठानकोट या दीनानगर में मिलेंगे.’’
मैं उस की बात का कुछ जवाब देता, बाहर से किसी ने दरवाजे की घंटी बजाई. बंतो ने दरवाजा खोला. आ कर कहा, ‘‘आप के सामान का ट्रक आया है.’’
‘‘ओह, अच्छा हुआ. उस में मेरी कार भी है. मैं पठानकोट से सारा सामान कार में ले आऊंगा. तुम चलोगी मेरे साथ और भी कुछ याद आएगा तो ले आएंगे.’’
बंतो ने कोई जवाब नहीं दिया. केवल इतना पूछा, ‘‘शाह वेला यानी नाश्ते में क्या खाएंगे?’’
मैं ने कहा, ‘‘अपने लिए और मेरे लिए परांठें बना लो. अचार के साथ खा लेंगे. साथ में चाय हो जाएगी.’’
आधे घंटे में ही मजदूरों ने सारा सामान अनलोड कर दिया. कार को बाहर अनलोड कर दिया. एक मजदूर ने उस ट्रक में रखा पैट्रोल भी डाल दिया और सफाई कर दी. मैं ने उन्हें बैलेंस पैसे दे दिए. वे खुश हो कर चले गए.
नाश्ता कर के हम पठानकोट के लिए निकले. कार में बंतो मेरे साथ नहीं बैठी. वह पिछली सीट पर बैठी. मुझे बहुत अच्छा लगा. उसे अपनी और मेरी इज्जत की फिक्र है. मैं मुसकराया और कहा, ‘‘पीछे बैठी तुम मालकिन लगती हो और मैं तुम्हारा ड्राइवर.’’
बहुत देर तक वह चुप रही थी. फिर बोली, ‘‘ऐसी बात नहीं है, जी. मैं आप के साथ बैठी तो गांव के लोग तरहतरह की बातें करने लगेंगे. मेरा तो कुछ नहीं. मुझे तो बातें सुनने की आदत है लेकिन आप की इज्जत का सवाल है.’’
थोड़ी देर बाद फिर वह फिर बोली. ‘‘मुझे तो बहुत गंदीगंदी बातें कही जाती हैं. मेरी मां सरदारों के घरों में काम करती थी. मेरे घर में सभी काले थे. मैं गोरी पैदा हुई तो सभी कहने लगे कि यह तो सरदारों की सट है. मेरी मां लाख सफाई देती मर गई लेकिन किसी ने नहीं माना.’’
फिर हम दोनों कुछ नहीं बोल पाए थे.
पठानकोट मिलिट्री कैंटीन से काफी सामान मिल गया. प्रैशरकुकर, फ्राईपैन, साबुन, तेल, बिस्कुट, शैंपू, टूथपेस्ट, वाशिंग पाउडर, शेविंग क्रीम, दालें रखने के लिए प्लास्टिक के डब्बे, बरतन धोने का साबुन वहीं से मिल गया. कुछ बड़े पतीले और कड़ाही चाहिए थी. वे पठानकोट के बरतन बाजार से ले लिए.
सब लेते दोपहर के 3 बज गए थे. मैं ने कहा, ‘‘अब जा कर खाना कहां बनाओगी. यहीं अच्छे ढाबे में खाना खा लेते हैं.’’
हम गुलशन ढाबे में गए. दालफ्राई और तवा रोटी का और्डर किया. वेटर ने कहा, ‘‘सर, तवा रोटी तो नहीं मिलेगी, तंदूरी रोटी मिलेगी.’’
मैं ने कहा, ‘‘ठीक है. लेकिन मक्खन अच्छी तरह लगाना और खाने में नरम हो.’’
सच में खाना बहुत टेस्टी था. मैं ने और बंतो ने पेटभर खाया. बंतो के चेहरे पर बहुत प्यारी मुसकान थी. पेटभर खाने का सुख क्या होता है, शायद उस ने पहली बार महसूस किया था. नहीं तो दुत्कारों के अतिरिक्त उसे कुछ नहीं मिला था. मेरे साथ चलते हुए लगती ही नहीं थी कि वह मेरी नौकरानी है और नीच जाति की है.
घर पहुंच कर बंतो किचन संभालने में लग गई. मैं अपने कमरे में आ गया. मैं ने 2 ऐप्लिकेशन लिखीं. एक गांव के सरपंच के लिए, दूसरी पुलिस थाने के एसएचओ के लिए. पहले मैं सरपंच साहब के पास गया. वह एक यंग लड़का था. मैं ने अपना परिचय दिया तो उठ कर उन्होंने मेरा स्वागत किया. मैं ने ऐप्लिकेशन दी तो पढ़ कर उन्होंने कहा, ‘‘आप ने बहुत अच्छा काम किया है. नीच जाति के कारण कोई उसे काम नहीं देता था. भाईभाभी भी कब तक रोटी देते. बेचारी भूखी इधरउधर से खाना मांग कर खाती थी. कोई खाना देता था, कोई दुत्कार देता था. गांव के लोग छोटे विचारों के होते हैं. कई बहुतकुछ बोलेंगे. आप चिंता न करें, मैं संभाल लूंगा. यह दूसरी एप्लिकेशन किस के लिए है?
‘‘यहां के एसएचओ के लिए. कृपया डुप्लीकेट कौपी पर आप इस की रसीद दे दें.’’
सरपंच साहब ने स्टैंप लगा कर रसीद दे दी. वहां से मैं सीधे थाने गया. बाहर एक सिपाही खड़ा था. मैं ने कहा, ‘‘मु?ो एसएचओ साहब से मिलना है.’’
‘‘इस परची पर अपना नाम और गांव लिख कर दे दें. जैसे ही बुलाएंगे, मैं आप को अंदर भेज दूंगा.’’
मैं ने परची लिख कर दे दी. वहां रखी कुरसी पर बैठ गया. थोड़ी देर बाद एसएचओ साहब खुद बाहर आए. मु?ो सैल्यूट कर के अंदर ले गए. सिपाही से कहा, ‘‘जब भी ये साहब आएं, इन्हें तुरंत मेरे पास अंदर भेजना. चाहे मैं कितना ही व्यस्त क्यों न होऊं.’’ मेरे लिए चाय मंगवाई, फिर पूछा, ‘‘कहिए, मैं आप की क्या सेवा कर सकता हूं?’’
मैं ने उन्हें एप्लिकेशन दी और सरपंच को दी ऐप्लिकेशन भी दिखाई. एसएचओ साहब ने पढ़ी और कहा, ‘‘आप ने बहुत नेक काम किया है. यह ऐप्लिकेशन पुलिस कमिश्नर, पठानकोट के नाम से लिखें, कौपी टू मी. हम इसे निर्धारित प्रणाली द्वारा कमिश्नर साहब को भेजेंगे. एक कौपी आप को देंगे. कमिश्नर साहब के औफिस से अथौरिटी के रूप में एक कौपी आप को, एक कौपी ब्लौक डैवलपमैंट अफसर को, एक कौपी पंचायत को, एक कौपी हमें दी जाएगी. हम आप की और लड़की की सुरक्षा भी करेंगे.’’
मैं ने उन का धन्यवाद किया और ऐप्लिकेशन लिख कर रसीद ले ली. 15 दिनों में मु?ो सब की ओर से, जिन्हें मैं ने ऐड्रैस किया था, परमिशन का जवाब भी आ गया.
बंतो ने पूछा, ‘‘यह सब क्या है, निन्दीजी?’’
मैं ने उसे सब सम?ाया. वह बोली, ‘‘यह आप ने अच्छा किया. बातें होने भी लगी थीं. सब से ज्यादा बातें करने वाले मेरे भाईभाभी थे. अब सब के मुंह बंद हो जाएंगे. तभी 2 दिन पहले दरोगाजी मेरे भाई को डांट गए थे. एक कमरा जिस में मैं रह रही थी, मुझे दिला गए थे. उस कमरे में भाईभाभी का कोई हक नहीं रहेगा. मु?ा से कह गए थे कि ये तग करें या और कोई भी तंग करे तो मैं आप को बताऊं. हम तुरंत ऐक्शन लेंगे. उस के बाद सब जगह शांति है.’’
‘‘गांव के लोग बहुत छोटे विचारों के होते है, इसलिए मैं ने यह कार्रवाई की. अब तुम यह घर संभालो. मैं तुम्हें हर महीने 5 हजार रुपए दूंगा. खाना आप मेरे यहां खाएंगी. सारा काम कर के तुम अपने कमरे में जा कर रहोगी. पहनने के लिए मेरी पत्नी के सूट बहुत हैं.’’
‘‘एक बात है निंदीजी, मैं भाभीजी के सूट पहनना नहीं चाहती. उन में आप की यादें छिपी हैं.मुझे अगर आप 2 हजार रुपए एडवांस दे दें तो मैं अपने लिए सूट बनवा लूंगी.’’
मैं ने उसे गौर से देखा. उस की आंखों में मेरी पत्नी के लिए सम्मान था. इस से उस के सात्विक चरित्र का भी पता चलता था. मैं ने उसे 2 हजार रुपए दे दिए. तीसरे दिन जब वह काम करने आई तो उस ने नया सूट पहना हुआ था. एक संभ्रांत घराने की महिला लग रही थी. चेहरे पर कोई मेकअप नहीं था. गोरा रंग और गोरा हो गया था. बाल बड़ी सफाई से बांध रखे थे.
मैं उसे देख कर मुसकराया. उसे लगा शायद वह अच्छी नहीं लग रही है. पूछा, ‘‘क्या मैं अच्छी नहीं लग रही हूं?’’
‘‘नहीं ऐसी कोई बात नहीं है. मैं इसलिए मुसकरा रहा था कि तुम बहुत सुंदर लग रही हो. ऐसे ही बन कर रहना.’’
‘‘जी,’’ कह कर वह किचन में चली गई थी. आज नाश्ते में उस ने आलू के परांठे बनाए थे. परांठे दे कर वह बोली, ‘‘जाटों के घर से ताजी लस्सी आई है, दे दूं?’’
‘‘हां, दे दो.’’
‘‘लस्सी में खंड डालूं या नमक?’’
‘‘नमक तो परांठों में है. खंड डाल ले. लस्सी अपने लिए भी रख लेना.’’
दो परांठे खा कर मजा आ गया. परांठे और लस्सी बिलकुल वैसी ही थी जैसे मेरी पत्नी शन्नो बनाती थी. मैं बाहर जाने लगा तो बंतो ने पूछा, ‘‘दोपहर के लिए क्या बनेगा?’’
मैं ने कहा, ‘‘मैं सबकुछ खा लेता हूं लेकिन मुझे दाल, चावल और महानी बहुत पसंद हैं. महानी ज्यादा खट्टा न हो.’’
‘‘जी.’’
वह किचन में जाने लगी तो मैं ने कहा, ‘‘मैं प्रकाश भाजी के पास जा रहा हूं. जो हमारी हवेली थी वह उस के पास है. मैं उसे खरीद लूंगा. कार और ट्रैक्टर वहां पार्क हो जाएंगे.’’
‘‘जी, लेकिन टै्रक्टर तो है नहीं आप के पास?’’ बंतो ने कहा.
‘‘आने वाला है.’’
‘‘इतनी जमीन नहीं है आप के पास कि ट्रैक्टर लें.’’
‘‘हो जाएगी. मैं शरीकों की बेची अपनी सारी जमीन खरीद लूंगा या दूसरे के खेतों में पैसे ले कर ट्रैक्टर चलाऊंगा.’’
बंतो मुसकरा कर किचन में चली गई. शायद सोच रही हो कि पैसा कमाने के साधन भी ढूंढ़ लिए.
प्रकाश भाजी से बात हो गई. उन्हें लड़की की शादी करनी थी. पैसों की जरूरत थी. मैं ने पैसे दे कर रजिस्ट्री करवा ली. कार वहां पार्क कर के ताला लगा दिया. दो दिनों में टै्रक्टर भी आ गया. धीरेधीरे मैं ने शरीकों की बेची सारी जमीन ले ली. उस में पट्टी वाले आम का खेत भी था. काम बढ़ने लगा तो मैं ने कई कामवाले रख लिए जो बाहर मजदूरी करने जाते थे. उन में बंतो का भाई भी था. गांव में बंतो के बारे में सब से ज्यादा बातें करने वाला वही था. मेरे यहां काम करने से उस की बोलती बंद हो गई थी.
बंतो कहने लगी, ‘‘मागी का मेला लगने वाला है. वहां से एक अच्छी भैंस ले आएं. घर का दूध, घी और देसी खाद हो जाएगी.’’
‘‘नहीं, अभी नहीं. जाटों के घर की आमदन रुक जाएगी. अभी दूध वहीं से आने दो. देसी घी तो कैंटीन से मिल जाता है. देसी खाद फार्महाउस से मिल जाती है.’’
पट्टी वाला आम के पास सारे खेत खरीदने से वह एक बहुत बड़ा खेत बन गया था. बस, उसे फेंस करवाने की जरूरत थी. दूसरे, वहीं ट्यूबवेल लगाने का विचार था. मैं ने सरपंच साहब से पूछा कि इस में उन का रोल तो नहीं है?
उन्होंने कहा, ‘‘नहीं. यह आप को नहर के दफ्तर के बाद डीसी औफिस सैंक्शन करेगा. आप ऐप्लिकेशन ले कर नहर के दफ्तर जाएं. वहां से वे डीसी औफिस को फौरवर्ड करेंगे. डीसी सैंक्शन करेगा. फिर आप ट्यूबवेल लगा सकेंगे.’’
मैं ने कहा, ‘‘कोई बात नहीं, मैं सब करवा लूंगा.’’
‘‘सर, इतना आसान नहीं है. बिना पैसों के काम नहीं होगा.’’
‘‘फौजियों से भी पैसे लेंगे?’’
‘‘सर, वे अपने बाप का काम भी बिना पैसों के न करें तो आप क्या चीज हैं.’’
‘‘चलो, देखते हैं, क्या होता है.’’
मैं ऐप्लिकेशन ले कर सीधे एसई नरेश शर्मा साहब के पास गया. अपना परिचय दिया तो उठ कर मेरा स्वागत किया, ‘‘अरे निंदी, तुम. मुझे पता चला था कि तुम फौज में चले गए हो. कर्नल निंदी. आज मेरे पास कैसे आए हो? बैठो, पहले चाय पीते हैं.’’
हम दोनों 12वीं तक साथ पढ़े थे. मैं आर्ट में बीए कर के फौज में चला गया और यह बीई करने के लिए इंजीनियरिंग कालेज चला गया था. आज एसई है. मैं नहीं जानता था कि यह यहां मिलेगा. चाय पीने के बाद नरेश ने आने का परपज पूछा.
मैं ने कहा, ‘‘यार, गांव में स्थायी रूप से आ गया हूं. ट्यूबवेल लगवाना है.’’
‘‘ला ऐप्लिकेशन.’’ उस ने उस पर फौरवर्ड टू डीसी लिखा और हैडक्लर्क को बुला कर डीसी औफिस के लिए कवरिंग लैटर बनाने को कहा और साइन कर के मु?ो दे दिए.
मु?ा से कहा, ‘‘जानते हो आजकल डीसी कौन है?’’ तोशीषी होता था न. हम उसे तुत कहा करते थे.’’
‘‘हां, तुत.’’
‘‘आजकल वह डीसी है. उस के पास सीधे चले जाना, एक सैकंड में काम हो जाएगा. ठहरो, मैं पता करता हूं. औफिस में है या कहीं टूर पर है.’’
‘‘हैलो, तुत साहब कहां हो? आप के साथ चाय पीने का मन कर रहा है.’’
‘‘आ जाओ, औफिस में बैठा हूं.’’
‘‘आ रहा हूं. आप के लिए एक सरप्राइज भी ला रहा हूं.’’
‘‘जब भी तू आता है, किसी न किसी को साथ में जरूर लाता है.’’
‘‘हां, चाय बढि़या होनी चाहिए.’’
कुछ ही देर में हम डीसी औफिस पहुंच गए. बाहर बैठा चपरासी नरेश को जानता था, इसलिए उस ने रोका नहीं.मुझे देख कर तो तुत चहक उठा, कहा, ‘‘ओए निंदी, तू फौज की जेल से छूट गया.’’
मैं ने कहा, ‘‘हां, छूट गया.’’
गले मिला और बैठने के लिए कहा, ‘‘किस रैंक से छूटे हो?’’
‘‘कर्नल रैंक से.’’
‘‘कर्नल निंदी कहना पड़ेगा.’’
‘‘यह फ्री की चाय पिलाने वाले नरेश से कैसे मिला?’’
‘‘कुछ नहीं, यार. मैं तो ट्यूबवेल लगवाने के लिए इस के पास गया था. मुझे नहीं पता था कि एसई की कुरसी पर बैठा यह मिलेगा. इस ने तो फ्री में आप के औफिस को फौरवर्ड कर दिया.’’
‘‘हैरानी है, नहीं तो इस का औफिस अपने बाप से भी बिना पैसे लिए काम न करे.’’
‘‘ओए, तुत, बेकार की बात मत कर. तेरा औफिस भी इसी श्रेणी में आता है. अभी तुम अपने हैडक्लर्क को सैंक्शन लैटर बनाने के लिए कहोगे न, उस का मुंह देखना. उस के चेहरे पर लिखा मिलेगा, ‘सरजी, क्यों 5 हजार रुपए का घाटा करवा रहे हो?’’
‘‘सच है, नरेश. आज हालत यह है कि बिना पैसे के किसी भी औफिस में काम करवाना असंभव है. क्या स्टाफ, क्या अफसर, यहां तक कि बड़ेबड़े लीडर और मिनिस्टर तक भ्रष्ट हैं. लगता है, पूरा देश भ्रष्ट है. कैसी व्यवस्था है कि प्रदेश का मुख्यमंत्री जेल में रह कर सरकारी काम कर रहा है. हम सब तब तक ईमानदार हैं जब तक हमें बेईमानी करने का मौका नहीं मिलता.’’
नरेश ने मुंह बनाया और चुप रहा. मैं सोच रहा था कि अगर नरेश और तुत मेरे दोस्त और क्लासफैलो न होते तो बिना पैसों के मेरा काम भी न होता. एक विचार और भी था कि मेरे देश से भ्रष्टाचार कब खत्म होगा? इस का उत्तर मेरे पास नहीं था. शायद किसी के पास नहीं था.
‘‘उस ने मुझ से ऐप्लिकेशन ली और हैडक्लर्क को बुला कर सैंक्शन लैटर बनाने के लिए कहा. सच में हैडक्लर्क का चेहरा देखने लायक था. कुछ मिनटों में तुत ने सैंक्शन लैटर बना कर दे दिया. मैं ने उन से परिवार समेत गांव आने के लिए कहा.
तुत ने कहा, ‘‘तुम ट्यूबवेल लगवा लो. फिर मैं और नरेश परिवार के साथ आएंगे.’’
‘‘बिलकुल, आप सब का स्वागत है. ड्रिंक के साथ लंच भी होगा. मेरी बहना बंतो खाना बहुत अच्छा बनाती है.’’
‘‘जरूर आएंगे. यह नरेश जल्दी ट्यूबवेल लगवा देगा. किर्लोस्कर कंपनी में इस का दोस्त सेल्स मैनजर है. वह बहुत जल्दी काम करवा देगा.’’
मैं और नरेश तुत के गले मिले और सैंक्शन लैटर ले कर नरेश के औफिस आ गए. रास्ते में उस ने सेल्स मैनजर से बात की. उस ने कहा, ‘‘कल मैं इंजीनियर भेज दूंगा. जैसा वे बोलेंगे वैसा ट्यूबवेल लगाया जाएगा और जनरेटर दिया जाएगा.’’
नरेश ने ‘ठीक है’ कह कर फोन बंद कर दिया. गांव का पता दे दिया था. मैं जाने लगा तो नरेश ने एक लिस्ट देते हुए कहा, ‘‘अगर तुम दूसरे के खेतों में पानी लगाते हो तो यह सरकार की तरफ से रेट लिस्ट है. इस के मुताबिक पैसे लेना. लौगबुक मैनटेन करना. कितना डीजल या बिजली लगती है, पता चलता रहेगा. इस की एक कौपी हर महीने हमारे औफिस को भेजते रहना.’’
‘‘ठीक है. क्या मुझे नहर का पानी नहीं मिलेगा?’’
‘‘मिलेगा क्यों नहीं. लेकिन नहर में पानी आता कहां है. सब छोटेबड़े किसान ट्यूबवेल का पानी लगाते हैं.’’
मैं कार ले कर गांव लौट आया. दूसरे रोज किर्लोसकर के तकनीकी स्टाफ ने आ कर चैक किया. जैसा सुझाव दिया था, वैसा ट्यूबवेल और जनरेटर सैट का और्डर कर दिया गया. एक हफ्ते में ट्यूबवेल और जनरेटर सैट फिट कर दिए. अब ट्यूबवेल के लिए एक कमरा और बड़ी हौदी बनानी थी. साथ ही, खेतों तक पानी पहुंचाने के लिए नालियां बनानी थीं. बिजली के लिए भी अप्लाई करना था. इस में 15 दिन और लग गए. गेहूं की फसल कटने के बाद चावलों की फसल लगनी थी. उस के लिए सब तैयार था. हमारे घरों के पास एक बड़ा खेत था. वहां दादू घर के लिए बासमती और मौसमी सब्जियां लगाते थे. वहां भी पानी देने के लिए छोटी मोटर लगवा ली थी.
मैं ने ट्यूबवेल लगाने वालों से पूछा था. उन्होंने कहा कि 2 हौर्स पावर तक की मोटर लगाने के लिए किसी से परमिशन लेने की जरूरत नहीं है. उन्हीं से बोर करवा लिया और 2 हौर्स पावर की मोटर का और्डर कर दिया. मोटर लग भी गई.
अब सब खेतों को फेंस करने की जरूरत थी. मैं पठानकोट आर्मी के सालवेज डिपो में गया. वहां मेरे ही विभाग के अफसर थे. उन से बात की. मुुुझे नौमिनल रेट पर कांटेदार तार और पोल मिल गए. फौजी ट्रक में लोड कर के मैं गांव ले आया. वहीं से तार लगाने वाले 6 मजदूर आ गए. टूल्स साथ लाए थे. उन्होंने एक हफ्ते में खेतों को इस तरह फेंस कर दिया जैसे बौर्डर पर कांटेदार तार लगाए जाते हैं.
सारा गांव देख कर हैरान होता रहा. बाहर से पशु और आदमी फसल को खराब नहीं कर सकते थे. इसी तरह घर के पास के खेत को फेंस कर दिया. पहले दादू सब्जियां लगाते थे तो लोग चोरी कर लेते थे. ट्रैक्टर अंदर आनेजाने के लिए बड़ेबड़े गेट लगवा कर ताले लगवाने का प्रबंध कर दिया.
सारे प्रबंध होने के बाद मैं ने तुत साहब और नरेश को परिवार समेत बुलाया. वे सारे प्रबंध देख कर बहुत खुश हुए. वे और उन के बच्चे हौदी में खूब नहाते रहे. खूब एंजौय किया. तुत ने पूछा, ‘‘निंदी, तुम जनरेटर में डीजल जो फूंक रहे हो, बिजली क्यों नहीं लगवाते?’’
‘‘अप्लाई किया हुआ है लेकिन लग नहीं रही.’’
‘‘क्यों?’’
‘‘वही पैसों का चक्कर होगा. बोलते हैं, ट्यूबवेल के लिए हमारे पास तार नहीं है.’’
‘‘बोर्ड का एसई कौन है?’’
‘‘मेरे पास उस का मोबाइल नहीं है. एसडीओ का नंबर है?’’
तुत ने अपना मोबइल ले कर बोला, ‘‘एसडीओ का नंबर बोल.’’
मोबाइल मिलने पर तुत ने कहा, ‘‘मैं डिप्टी कमिश्नर, पठानकोट, तोशी कुमार बोल रहा हूं. मुझे आप के एसई साहब से बात करनी है. आप उन का मोबाइल नंबर दे दें.’’
‘‘गुडमौर्निंग सर, आप मुझे बताएं. मैं आप का काम तुरंत कर दूंगा. एसई साहब को बताने की जरूरत नहीं है.’’
‘‘कर्नल नरेंद्र कुमार की ऐप्लिकेशन उन के ट्यूबवेल में बिजली के कनैक्शन के लिए पैंडिंग पड़ी है. वह कनैक्शन क्यों नहीं लग रहा?’’
‘‘सर, मुझे पता है. हमारे पास तार नहीं था. अब आ गया है. कल की डेट में कनैक्शन लग जाएगा.’’
‘‘ठीक है, कल की डेट में कनैक्शन दे कर मुझे रिपोर्ट करना. मेरा मोबाइल नंबर आप के पास आ गया है.’’
‘‘राइट सर.’’
एंजौय करने के बाद जब लंच के लिए घर जाने लगे तो एसएचओ साहब और सरपंच साहब ने तुत साहब को सैल्यूट मारा, कहा, ‘‘मुझे मेरे खबरी से पता चला था कि आप यहां आए हुए हैं. हमारे लायक कोई सेवा हो तो बताएं, सर.’’
‘‘शुक्रिया, एसएचओ साहब. यह हमारी प्राइवेट विजिट है. कर्नल साहब हमारे क्लासफैलो भी हैं और दोस्त भी. बस, इन का खयाल रखें.’’
सरपंच ने कहा, ‘‘हमारे गांव में आप का स्वागत है.’’
‘‘मि. सरपंच, हम अपने दोस्त के घर आए हैं. फिर भी थैंक्स.’’
दोनों ने सैल्यूट किया और चले गए. हम कार में बैठे और घर आ गए. बंतो ने डाइनिंग टेबल पर शानदार लंच लगाया हुआ था. दाल, चावल, महानी के साथ शानदार खीर भी बनाई थी. सब ने खूब स्वाद से खाया. खीर खा कर तो सब मस्त हो गए. सब ने दोदो बार ले कर खाई. जाते समय न केवल एसई और डीसी साहब ने बंतो को इस शानदार लंच के लिए हजारहजार रुपए दिए बल्कि उन की वाइफ ने भी हजारहजार रुपए दिए. साथ ही कहा, ‘‘हमें किसी रोज आप के पास आ कर खाना बनाना सीखना पड़ेगा. बहुत स्वादिष्ठ खाना बनाती हैं.’’
बंतो बेचारी कुछ नहीं बोल पाई थी. वह पैसे लेने से भी हिचकचा रही थी. मैं ने कहा, ‘‘ले लो, यह इन का आशीर्वाद है.’’
फिर उस ने चुपचाप ले लिए. मैं बाहर कार तक उन्हें छोड़ने गया. सारा गांव इकट्ठा हो गया था. वे मेरे गले मिले और चले गए. पूरे गांव में एक संदेश गया कि मुझे किसी तरह से तंग नहीं किया जा सकता. दूसरे दिन बिजली का कनैक्शन भी मिल गया था.
मैं घर लौटा तो बंतो ने मुझे रुपए वापस करने की कोशिश की. मैं ने बड़े प्यार से कहा, ‘‘बंतो, ये पैसे आप की मेहनत के हैं. मेहमानों ने अपनी खुशी से आप को दिए हैं. इन पर मेरा कोई अधिकार नहीं है. इन से अपनी कोई चीज बनवा लेना.’’
‘‘मेरे कमरे की छत कच्ची है. मैं उस पर लैंटर डलवा कर पक्की करवा लूंगी.’’
‘‘ठीक है, बंतो. मैं मजदूर और मिस्त्री भेज दूंगा. सीमेंट और रेत भी बचा पड़ा है. वह भी इस्तेमाल हो जाएगा.’’
15 दिनों में उस का कमरा तैयार हो गया. बिजली की सारी वायरिंग बदल कर नया तार लगवा दिया. दरवाजे खिड़की पेंट हो गए. कमरे को डिस्टैंपर कर दिया. कैंटीन से उसे पंखा दिलवा दिया. उस का कमरा शीशमहल की तरह बन गया. जब तक कमरा बन कर तैयार नहीं हुआ, वह अपने आंगन में सोती रही.
मजे की बात यह थी कि उस ने मुझसे कोई पैसा नहीं लिया. खुद के जोड़े पैसे से सारे काम करवाए. यहां तक कि सीमेंट और रेत के पैसे भी उस ने अपने वेतन में से कटवा दिए. वह अपने आत्मसम्मान की धनी थी. काम के प्रति समर्पित थी. मुझे उसे कुछ भी समझने की जरूरत नहीं पड़ती थी. मैं ने उसे अपनी बहन का दर्जा दिया था. 6 महीने में ही उस का यौवन लौट आया था. वह अत्यंत खूबसूरत औरत बन गई थी. मैं अपने खेतों को संभालता और वह घर को संभालती. उसे कपड़े धोने की औटोमैटिक मशीन चलानी नहीं आती थी. मैं ने उसे एक बार समझाया, फिर समझने की जरूरत नहीं पड़ी. कपड़े सुखाने के लिए आंगन में तारें लगवा दी थीं.
आज जब मैं अपने पट्टी वाले आम के खेत को देखने गया तो चावलों की फसल लहलहा रही थी. अनायास ही मैं ने आसमान की ओर देखा. दूर कही बादलों की गड़गडा़हट हुई. मुझे लगा बाऊजी समेत मेरे सारे बुजुर्ग करतल ध्वनि कर रहे हैं, आशीर्वाद दे रहे है. मन के भीतर एक और प्रश्न बड़े तीखे रूप से साल रहा था कि शहर की ओर पलायन क्यों? जानता हूं, अगर मेरे पास पैसा न होता तो मैं यह सब न कर पाता. गरीबी, पैसों और सुविधाओं का अभाव लोगों को शहर की ओर आकर्षित करते हैं पर वहां भी तो धक्के हैं. बुजुर्गों की जमीनें बेचना पाप है. उन्हें संवारना और बढ़ाना चाहिए. गांव के बहुत से समृद्ध लोगमुझे देख कर गांव लौट आए. वे अपने खेतों में काम करने लगे. जब तक वे अपने खेतों के लिए ट्रैक्टर ले कर नहीं आए, मैं उन के खेतों में ट्रैक्टर चलाता रहा. वे मुझे पैसे देते रहे. सरकारी रेट पर मैं उन के खेतों को पानी भी देता रहा.
बंतो के बारे यह था कि कोई जाति से नीच नहीं होता, कमीन नहीं होता. हमारे मन नीच होते हैं. हमारे विचार और संस्कार नीच होते हैं. हम खुद नीच होते हैं. बंतो जीवनभर मेरे घर को संभालती रही. वह न होती तो मुझे समय पर दालरोटी भी न मिलती, घर भी न संभलता, ऐसी थी बंतो.