नेहा का मन आज सुबह से ही घर के कामों में नहीं लग रहा था. उत्सुकतावश वह बारबार अपने चौथे मंजिल के फ्लैट की छोटी सी बालकनी से झांक कर देख रही थी कि सामने वाले बंगले में कौन रहने आने वाला है ? कल बंगले का सामान तो आ गया था, बस इंतजार था तो उस में रहने वाले लोगों का. इस से पहले जो लोग इस बंगले में रहते थे, वे इतने नकचढ़े थे कि फ्लैट में रहने वालों को तुच्छ सी नजरों से देखते थे. उन्हें अपने पैसों का इतना घमंड था कि आंखें हमेशा आसमान की तरफ ही रहती थीं. नेहा ने कितनी बार बात करने की कोशिश की, पर उस बंगले वाली महिला ने घास नहीं डाली.
किसी ने सच कहा है कि इनसान कितना भी बड़ा क्यों न हो जाए, उसे अपने पैर जमीन पर रखने चाहिए, हमेशा आसमान में देखने वाले कभीकभी औंधे मुंह गिरते हैं. इन बंगले वालों का भी यही हुआ, छापा पड़ा, इज्जत बचाने के लिए रातोंरात बंगला बेच कर पता नहीं कहां चले गए?
“अरे, ये जलने की बू कहां से आ रही है, सो गई क्या?” पति की आवाज सुन कर नेहा हड़बड़ा कर किचन की तरफ भागी, “अरे, ये तो सारी सब्जी जल गई…”
“आखिर तुम्हारा सारा ध्यान रहता कहां है? कल से देख रहा हूं, कोई काम ठीक से नहीं हो रहा है. बंगले वालों का इंतजार तो ऐसे कर रही हो जैसे वो बंगला तुम्हें उपहार में देने वाले हों, अब बिना टिफिन के ही दफ्तर जाऊं क्या? या कुछ बनाने का कष्ट करोगी.”
पति की जलीकटी बातें सुन कर नेहा की आंखों में आंसू आ गए. वह जल्दीजल्दी दूसरी सब्जी बनाने की तैयारी करने लगी.
‘सही तो कह रहे हैं ये, सत्यानाश हो इन बंगले वालों का,’ सुबहसुबह दिमाग खराब हो गया.
पर, नेहा भी करे तो क्या करे…, बड़ा सा घर होगा, नौकरचाकर होंगे, गाड़ी होगी, पलकों पर बैठाने वाला पति होगा, पर सारे सपने चकनाचूर हो गए. छोटा सा फ्लैट, पुराना सा स्कूटर, सीमित आय और वो घर की नौकरानी. सारा दिन किचन में खटती रहती है वह, उस पर पति के ताने कि ढंग से पढ़ीलिखी होती तो इस मंहगाई के दौर में नौकरी कर के घर चलाने में मदद तो करती, कुछ नहीं तो कम से कम बच्चों को तो घर में पढ़ा लेती, इतनी मंहगी ट्यूशनों की फीस बचती.
मन जारजार रोने को हो आया, पर मुझे घरगृहस्थी के काम चैन से करने भी नहीं देते. जैसेतैसे टिफिन तैयार कर के पति को थमाया, गुस्से के मारे पतिदेव ने टिफिन लिया और बिना उस की तरफ देखे चलते बने.
जबतब पति की ये बेरुखी नेहा के दिल को अंदर तक कचोट जाती है. कितना गुमान था उसे अपनी खूबसूरती पर, परंतु पति के मुंह से तो कभी तारीफ के दो बोल भी नहीं निकलते, सुनने को कान तरस गए उस के…
तभी कार की आवाज सुन कर उस की तंद्रा टूट गई. थोड़ी देर पहले का सारा वाकिआ भूल कर वह दौड़ कर बालकनी में पहुंच गई, लगता है, बंगले वाले लोग आ गए. कार से उतरती महिला को देख कर नेहा अंदाजा लगाने लगी, उम्र में मेरे जितनी ही लग रही है. अरे, ये तो… कांची जैसे दिख रही है??? नहींनहीं, वह इतने बड़े बंगले की मालकिन कैसे हो सकती है… पर, नहीं… ये तो वो ही है. उस ने झट से अंदर आ कर बालकनी का दरवाजा बंद कर दिया.
उफ, ये यहां कैसे आ गई? इतनी बड़ी दुनिया में इसे रहने के लिऐ मेरे घर के सामने ही जगह मिली थी क्या?
आज तो दिन नहीं खराब है, सुबहसुबह पता नहीं किस का मुंह देख लिया. हो सकता है, मेरी आंखों का धोखा हो, वो कांची न हो, कोइ ओर हो…, पर पर वो तो वही थी.
हाय री, मेरी फूटी किस्मत, वैसे ही इस घर में कौन से जन्नत के सुख थे, ऊपर से ये नई बला आ गई.
अस्तव्यस्त फैला हुआ घर, किचन में बिखरा फैलारा, ढेर सारे झूठे बरतन, सब बेसब्री से नेहा की बाट जोह रहे थे, पर आज तो उस का मन एकदम खिन्न हो गया था. सारा काम छोड़ कर वह बेमन सी बिस्तर पर लेट गई.
कितने वक्त बाद आज कांची को देख कर फिर अतीत के गलियारों में भटकने लगी.
पुराने भोपाल के एक छोटे से महल्ले में घर था उस का. प्यारा सा, अपनों से भरापूरा घर और घर के साथ ही सब के दुख में रोने के लिए कंधा देने वाला, खुशियों में दिल से खुश होने वाला, अपनत्व से भरपूर, प्यारा सा अपना सा महल्ला. हर एक के रिश्ते को पूरा महल्ला जीता था. सामने वाले घर में जो रिंकी रहती थी, उस की चाची उन के साथ रहती थी, वो पूरे महल्ले की चाची थी. आज वो पोतेपोतियों वाली हो गई हैं, फिर भी अभी तक छोटेबड़े सब उन को चाचीजी कहते हैं. हंसी तो तब आती थी, जब पिताजी उम्र में बडे़ होने के बाद भी उन्हें चाचीजी कहते थे. कोई बंटी की मम्मी को छः नंबर वाली भाभी, कोई दो नबंर वाली आंटी, सब ऐसे उपनामों से पुकारी जाती थी. वे संबोधन कितने अपने से लगते थे, आजकल मिसेस शर्मा, मिसेज गुप्ता, ये… वो… सब दिखावटी से लगते हैं.
गरमियों में शाम को और सर्दियों में दोपहर को सब औरतों की दालान में महफिल जमती थी, जिस में शामिल होता था सब्जी तोड़ना, पापड़, बड़ियां बनाना, सुखाना, ढेरों व्यंजनों की विधियों का आदानप्रदान, स्वेटरों की नईनई डिजाइनें बनाना, एकदूसरे को सिखाना, अपनेअपने सुखदुख साझा करना… क्या जमाना था वो भी… हम बच्चे स्कूल से आ कर बस्ते रखते और जी भर कर धमाचौकड़ी करते, कभी लंगड़ी, कभी छुपाछुपी, कभी पाली जैसे ढेरों खेल खेला करते थे.
उस जमाने में टेलीविजन तो था नहीं, सो समय की भी कोई कमी न थी, कितनी बेफ्रिकी, सुकून भरे दिन थे वे… घर के आसपास सब जगह कितना भराभरा लगता था, उस दौर में अकेलेपन जैसे शब्द का नामोनिशान नहीं था और आज का वक्त देखो, इन बड़ेबड़ें शहरों में सब अपने छोटेछोटे दड़बों में कैद हैं.
घर से निकलते ही दिखावटीपन का मुखौटा हर किसी के चेहरे पर चढ़ जाता है, आत्मीयता का नामोनिशान नहीं दिखता, दिखते हैं तो बस दौड़तेभागते भावविहीन चेहरे, जिन्हें किसी के सुखदुख से कोई लेनादेना नहीं होता है. अपना घर और महल्ला याद आते ही नेहा की आंखें डबडबा गईं.
उसी प्यारे से अपने से महल्ले में उस की पड़ोसी थी कांची. दोनों के पिता एक सरकारी स्कूल में टीचर थे, वे दोनों भी उसी स्कूल में, एक ही कक्षा में पढ़ती थीं. दांतकाटी रोटी थी, फर्क बस इतना था कि जहां कांची कक्षा में प्रथम आती थी, वहीं नेहा सब से आखिरी स्थान पर. यों समझो, बस जैसेतैसे नैया पार हो जाती थी. एक फर्क और था दोनों में, कांची साधारण नाकनक्श की सांवली सी लड़़की थी, वहीं नेहा एकदम गोरीचिट्टी, तीखे नैननक्श, लंबे बाल. ऐसा लगता था जैसे बड़ी फुरसत से बनाया है. पर इन सब के परे उन की दोस्ती थी, उसे कांची की पढ़ाई से या कांची को उस की सुंदरता से कोई फर्क नहीें पड़ता था. एकदूसरे को देखे बिना उन का गुजारा न था. पर हाय री किस्मत, उन की दोस्ती को जाने किस की नजर लग गई ?
नजर क्या लग गई? उम्र का 16वां, 17वां साल होता ही दुखदायी है, पता नहीं कितने रिश्तों की बलि चढ़ा देता है, यही तो उस के साथ हुआ. 16वां साल लगतेलगते उस का रूप ऐसा निखरा कि देखने वाला पलक झपकाना ही भूल जाए और बस यही रूप उस के सिर चढ़ कर बोलने लगा. उसे लगने लगा कि दुनिया में उस0से सुंदर कोई है ही नहीं. पहले जब कांची उसे पढ़ाई करने की सलाह देती थी, तो उस के साथ बैठ कर वो थोड़ाबहुत पढ़ लेती थी और शायद उसी की बदौलत वह 10वीं तक जैसेतैसे पहुंच गई थी. पर अब उसे कांची का टोकना अच्छा न लगता था, जिस की भड़ास वो उस के रंगरूप का मजाक उड़ा कर निकालती.
जिस दिन अर्द्धवार्षिक परीक्षा का परिणाम आया था, वो दिन शायद उन की दोस्ती का आखिरी दिन था. जहां कांची ने कक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त किया, वहीं नेहा को सिर्फ पास भर होने लायक नंबर मिले थे. शिक्षकों की डांट से उस का मन पहले ही से खिन्न था, जैसे ही कांची ने उसे समझाना चाहा, वह उस पर पूरी कक्षा के सामने कितना चिल्लाई थी. क्याक्या नहीं कहा उस ने उस दिन. ‘‘अपनी शक्ल देखी है कभी आईने में? प्रथम आ कर क्या तीर मार लोगी, कोई शादी भी नहीं करेगा तुम से. चूल्हे में जाए ऐसी पढ़ाई, मुझे कोई जरूरत नहीं है. ऊपर वाले ने मुझे ऐसा रंगरूप दिया है कि ब्याहने के लिए राजकुमारों की लाइन लग जाएगी, तुम पड़ी रहो किताबों में औंधी.’’
इतने अपमान के बाद भी कांची ने इतना तो कहा था, ‘‘रंगरूप अपनी जगह है, वो हमेशा हमारे साथ नहीं रहता, पर शिक्षा हमारी आंतरिक सुंदरता को निखारती है और हमेशा हमारे साथ रहती है.’’ और उस की आंखें भर आई थीं.
आज भी वो बातें याद कर के अपनेआप पर शर्म आती है. उस दिन के बाद उस ने मुझ से बात नहीं की, मैं तो करने से रही.
उस के बाद मेरा बिलकुल ही पढ़ने में मन नहीं लगता, बस सपनों में खोई रहती, नतीजा… 10वीं में सप्लीमेंट्री आ गई, वहीं कांची ने कक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त किया था. कभी गुस्सा न करने वाले पिताजी का गुस्सा उस दिन चरम पर पहुंच गया. इतने गुस्से में हम भाईबहनों ने पिताजी को कभी नहीं देखा था. उन का गुस्सा जायज था, स्कूल में दबीछुपी आवाज में उन्हें सुनने को मिला था कि अपनी लड़की को तो पढ़ा नहीं पाए, दूसरों के बच्चों को क्या पढ़ाएंगे ? सारे भाईबहन तो हमेशा पिताजी से ही पढ़ते थे, बस मैं ही उस वक्त कांची के साथ पढ़ने का बहाना बना कर उस के घर भाग जाती थी. तब तो मेरी शामत ही आ गई थी समझो…
पिताजी की दिनचर्या बहुत ही व्यवस्थित थी. वे सुबह 5 बचे उठ कर टहलने जाते थे. अगले दिन से उन्होंने मुझे भी अपने साथ उठा दिया और पढ़ने बैठा कर टहलने चले गए. जब वे लौट कर आए तो देखा कि मैं किताब के ऊपर सिर रख कर सो रही हूं. उस दिन उन्होंने बहुत प्यार से मुझे पढ़ाई के महत्व के बारे में समझाया था, पर मेरे कानों पर जूं तक नहीे रेंगी. जब 4-5 दिनों तक यही हाल रहा तो पिताजी ने एक नई तरकीब निकाली. उन्होंने सुबह मुझे पढ़ने बैठाया और मेरी दोनों चोटियों को एक रस्सी से बांध कर, छत के कुंदे पर अटका दिया और मेरी गरदन बस इतनी ही हिल रही थी कि मैं किताब की तरफ देख सकूं. पढ़ने की हिदायत दे कर पिताजी टहलने चले गए.
मेरा हाल तो देखने लायक था. नींद के झोंके से जैसे ही सिर झुका, बालों की जड़ें ऐसी खिंची जैसे हजारों लाल चींटियां चिपक गई हों. उस दिन मैं ने नींद को भगाने की दिल से कोशिश की थी, पर पढ़ाई में मन भी तो लगे. एक घंटे तक नींद और चोटियों के बीच युद्ध चलता रहा और आखिरकार नींद के आगे पढ़ाई ने हार मान ली. और जब दर्द सहन करने की शक्ति खत्म हो गई, तो मैं चीख मार कर जोरजोर से रोने लगी.
पिताजी की मामूली तनख्वाह में 4 बच्चों को पालती मां… पति के आदर्शों को ढोती मां… घर के अभावों को दूसरों से ढांकतीछुपाती मां…, दिनभर कामकाज से थी, गहरी नींद में सोई हुई थी.
मेरी चीख सुन कर मां बदहवास सी उठ कर दौड़ी. मेरी हालत देख कर वहीं जड़ हो गई, चोटियों के लगातार खिंचने से मेरी पूरी गरदन लाल हो गई थी. ऊपर से रंग इतना गौरा था कि नींद और रोने से पूरा चेहरा भी लाल हो गया था, ठीक उसी वक्त पिताजी का आना हुआ.
हे राम, उस वक्त मां ने पिताजी को जो फजीहत की…, बाप रे बाप. मां ने पूरी दुनिया की लानतें पिताजी को दे मारी, मेरी फूल से बच्ची का ये क्या हाल कर दिया? खबरदार, जो आज के बाद इस को पढ़ाया तो, आप ने किताबों में इतना सिर फोड़फोड़ कर कौन से ताजमहल बनवा दिए हमारे लिए, कौन से कलक्टर बन गए आप… जो इसे बनाने चले हो?
मेरे जरीए मां ने शायद उस दिन एक ईमानदार शिक्षक के घर के आर्थिक अभावों का गुस्सा निकाला था, जो इतने सालों से उन के अंदर किसी सुप्त ज्वालामुखी की तरह दबा हुआ पड़ा था. किसी से न डरने वाले पिताजी भी उस दिन मां का वो रूप देख कर दंग रह गए थे, कुछ भी न बोले और उस दिन के बाद पिताजी ने मुझे मेरे हाल पर छोड़ दिया. मुझे तो समझो मुंहमांगी मुराद मिल गई थी. इस के कुछ ही दिनों बाद कांची के पिताजी का ट्रांसफर दूसरी जगह हो गया. इतना सब होने के बाद भी जाने से पहले वह मुझ से आखिरी बार मिलने आई थी, पर मैं कमरे से बाहर ही नहीें निकली और वह हमेशा के लिए चली गई.
मेरा ध्यान पढ़ाई से पूरी तरह हट चुका था. 10वीं में लगातार तीन वर्ष फेल होने के बाद परेशान हो कर पिताजी ने मेरी पढ़ाई छुड़वा दी. मेरी छोटी बहन ही 11वीं में पहुंच गई थी, अब तो स्कूल जाते मुझे भी बहुत शर्म आने लगी थी. पढ़ाई छूटने पर मैं ने चैन की सांस ली और शायद स्कूल के शिक्षकों ने भी… अब तो मैं पूरी तरह आजाद थी, पत्रिकाओं में से खूबसूरती के नुसखे पढ़ कर उन्हें आजमाना, हीरोइनों के फोटो कमरे में चिपकाना और सपनों के राजकुमार का इंतजार करना, ये ही मेरे जीवन का ध्येय बन गए थे.
पर, एकएक कर के सपनों के महल चकनाचूर होने लगे. सुंदरता की वजह से एक से बढ़ कर एक रिश्तों की लाइन लग गई, पर जैसे ही उन्हें पता चलता कि लड़की 10वीं तक भी नहीं पढ़ी, सब पीछे हट जाते, न पिताजी के पास देने के लिए भारीभरकम दहेज था. मेरी वजह से पूरे घर में मातमी सा सन्नाटा पसर गया था, सब मुझ से कटेकटे से रहने लगे. पिताजी भी चारों तरफ से निराश हो चुके थे. तब इन का रिश्ता आया. एकलौता लड़का था, वो भी सरकारी औफिस में क्लर्क. मांबाप गांव में रहते थे, थोड़ीबहुत खेतबाड़ी थी. उन्हें लड़की की पढ़ाई से कोई मतलब नहीं था, वे तो बस सुंदर लड़की चाहते थे. और जैसेतैसे पिताजी ने मेरी नैया पार लगा दी.
फोन की घंटी की आवाज से नेहा हड़बडा कर उठ बैठी. वह फोन उठाती, तब तक फोन बंद हो चुका था. घड़ी पर नजर पड़ते ही नेहा चौंक उठी. उफ, एक बज गया, सोचतेसोचते कब आंख लग गई, पता ही नहीं चला. बच्चों के आने का वक्त होने वाला है, ऐसा लग रहा है जैसे शरीर में जान ही नही है. अपने को लगभग घसीटती हुई वह किचन में पहुंची. प्लेटफार्म पर पड़ा फैलारा, सिंक में पड़े झूठे बरतन, पलकपावड़े बिछाए उसी का इंतजार कर रहे थे.
‘‘हाय, क्या जिंदगी हो गई है… सारी उम्र चौकाबरतन में निकली जा रही है. पर काम तो किसी भी हाल में करना ही पड़ेगा,’’ ऐसा सोच कर वह जैसेतैसे हाथ चलाने लगी.
शाम को पतिदेव ने चाय पीते हुए गौर किया कि रोज की अपेक्षा आज उस के चेहरे पर कुछ ज्यादा ही मायूसी छाई हुई है, तो चुटकी लेते हुए बोल पड़े, ‘‘क्या हुआ…? तुम्हारी वो बंगले वाली नहीं आई क्या, जो चेहरे पर मातम छाया हुआ है?’’
‘‘नहींनहीं, ऐसी बात नहीं है. वो तो आ गई है… आप को पता है कि वो कौन है?’’
‘‘अरे भाई, मैं अंतर्यामी थोड़े ही हूं, जो मुझे औफिस में बैठेबैठे पता चल जाएगा.’’
‘‘वो मेरे बचपन की सहेली कांची है.’’
‘‘अरे वाह, ये तो खूब रही, तुम्हारे बंगले वाले पचड़े का अंत तो हुआ. तुम हमेशा बंगले वाली से दोस्ती करना चाहती थी, लो, तुम्हारी दोस्त ही आ गई, फिर भी चेहरा लटका हुआ है?’’
‘‘आप को कुछ भी तो पता नहीं है, इसलिए आप ऐसा बोल रहे हैं. स्कूल के दिनों में उस से मेरी लड़ाई हो गई थी, किस मुंह से उस के सामने जाऊंगी.’’
इतना सुनना था कि पतिदेव चाय का प्याला टेबल पर पटकते हुए चीखे, ‘‘ऊपर वाला बचाए तुम से… क्या बच्चों जैसे बातें कर रही हो… उस के सामने नहीं जा सकती तो क्या घर में छुप कर रहोगी? बंगले वाली यहां घूमने नहीं आई, रहने आई है.
“कान खोल कर सुन लो, खबरदर, जो आज के बाद मेरे सामने बंगले वाली का जिक्र भी किया तो मुझ से बुरा कोई नहीं होगा,’’ सुबह से पति की डांट, कांची को देख कर सारे दिन का तनाव, शाम को फिर पति की फटकार, नेहा के सब्र का बांध टूट गया. बाथरूम में घुस कर वह रो पड़ी. सब के सामने तो रो भी नहीं सकती. आंसू देखते ही पतिदेव हत्थे से ही उखड़ जाते हैं, उन्हें कुछ भी समझाना उस के बस के बाहर है.
कांची को सामने आए दो दिन हो चुके थे. दो दिनों से अंदर ही अंदर घुटन और तनाव से उस की हालत ऐसी हो गई थी जैसे वह बरसों से बीमार हो. रात को खाने की थाली में दाल देखते ही जैसे घर में तूफान आ गया. पति ने थाली उठा कर रसोईघर में पटक दी और गुस्से से दहाड़ पड़े, ‘‘तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है क्या? या सारे सब्जी वाले मर गए हैं, या फिर घर में इतनी कंगाली आ गई है कि सब्जी खरीदने के पैसे नहीं बचे? दो-तीन दिन हो गए, इनसान कब तक सब्र करे, सुबह आलू, टिफन में आलू, रात को दाल… इनसान कब तक खाएगा? हद होती है किसी बात की. एक सब्जी खरीदने का काम तुम्हारे जिम्मे है, क्या वो भी नहीं कर सकती? तुम्हारा ये खाना… तुम ही खाओ, हम लोग अपना इंतजाम कर लेंगे,’’ गुस्से में बच्चों को ले कर पैर पटकते हुए घर से निकल गए.
नेहा सिर पकड़ कर धम्म से सोफे पर बैठ गई… उफ, ये क्या हो गया है मुझ को? सच ही तो कह रहे हैं, आज तीन दिन हो गए हैं… कहीं कांची न देख ले, इस डर से वह सब्जी लेने नीचे तक नहीं उतरी, सब्जी वाला रोज आवाज लगा कर चला जाता है. कांची तो हमेशा के लिए यहां रहने आई होगी, ऐसे कब तक घर में छिप कर बैठूंगी. उफ, इसे भी पूरी दुनिया में क्या यही जगह मिली थी रहने के लिए…? भगवान भी पता नहीं किस बात की सजा दे रहा है मुझे… पतिदेव का गुस्सा सुबह भी सातवें आसमान पर था. न कुछ खाया, न टिफिन ले गए, बिना बात करे ऐसे ही औफिस चले गए. दुखी और उदास मन से वह अपने को कोसती हुई सब्जी वाले का इंतजार करने लगी… पर, ये क्या, एक घंटा हो गया, लेकिन सब्जी वाला तो आया ही नहीं. लगता है, तीन दिन से सब्जी नहीं ली, तो आज उस ने आवाज ही नहीं लगाई. सारा जमाना मेरी जान का दुश्मन बन बैठा है. वह उठने ही वाली थी कि दूसरे सब्जी वाले की आवाज सुनाई पड़ी, अमूमन इस से वो कभी सब्जी नहीं खरीदती थी, क्योंकि वो सब्जियों को हाथ लगाने पर झल्लाता था. जैसे किसी ने उस की नईनवेली दुलहन को छू लिया हो. पर मरती क्या न करती, थैला लिए सीढ़ियां उतर कर सब्जी लेने आ पहुंची.
सब्जी वाले ने भी ताना मारने का मौका नहीं गंवाया. वह मुसकराते हुए बोला, “धन्यवाद. मेरे ढेले से जो आज आप सब्जी खरीदने आईं. जी, मन में तो आया कि उस का मुंह नोंच ले, पर हाय री किस्मत, क्याक्या दिन देखने पड़ रहे हैं. मन ही मन कुढ़ते हुए थैला ले कर वह मुड़ी ही थी कि नीचे के फ्लैट वाली मिसेज काटजू लगभग दौड़ती सी आई (उन्हें किसी से भी बात करने के लिए अब ऐसा ही करना पड़ता है. तब से, जब से उन्हें ये बात समझ में आई कि उन्हें देखते ही लोग ऐसे गायब हो जाते हैं जैसे गधे के सिर से सींग. इस में गलती लोगों की नहीं है, उन की फितरत ही ऐसी है, हंसहंस के लोगों के जख्मों पर नमक छिड़कना उन का सब से प्यारा शगल था). पर उन्होंने नेहा को गायब होने का मौका नहीं दिया.
‘‘अरे नेहा, क्या हुआ? तबीयत खराब है क्या? 2-3 दिन से दिखाई नहीं पड़ी, चेहरा भी कैसा पीला पड़ा हुआ है.’’
‘‘नहींनहीं, ऐसी कोई बात नहीं है, थोड़ा घर की साफसफाई में व्यस्त थी.’’
‘‘अरे भाई, इतना भी क्या काम करना कि आसपास की खबर ही न हो… पर, इस में तुम्हारा भी क्या दोष? तुम्हारे यहां बाई नहीं है न, सारा काम खुद ही करना पड़ता है, वक्त तो लगेगा ही…’’
नेहा को मिसेज काटजू की इसी आदत से सख्त चिढ़ थी, जब भी मिलती, ताना मारने से बाज नहीं आती.
‘‘खैर, छोड़ो ये सब, पता है… सामने वाले बंगले में जो आई है न, वो पहले वाली से बिलकुल अलग है. इतनी अमीर है, पर घंमड जरा सा भी नहीं. खुद भी बैंक में अफसर है. कल मैं शाम को इन के साथ घूमने के लिए निकली थी न, तब वह मिली थी, सारा दिन तो वह बैंक मे रहती हैं.
कभीकभी तुम भी कहीं घूम आया करो… अरे, मैं तो भूल ही गई, पुराने स्कूटर पर घूमने में क्या मजा आएगा? भाई साहब से बोल कर अब नई गाड़ी ले भी लो, इतनी भी क्या कंजूसी करना.’’
‘‘अच्छा, मिसेज काटजू, मैं चलती हूं, मुझे बहुत काम है,’’ खून का घूंट पीती हुई नेहा गुस्से के मारे, बिना जवाब सुने सीढ़ियां चढ़ गई.
नेहा को समझ नहीं आ रहा था कि वह मिसेज काटजू के तानों से दुखी है या कांची के बैंक में अफसर होने पर… जो भी हो, एक बात अच्छी हो गई कि कांची दिनभर घर में नहीं रहती, उसे ज्यादा छिपने की जरूरत नहीं है. वैसे भी वो घर से निकलती ही कितना है, दो बच्चों के साथ खटारा स्कूटर पर कहीं जाने से तो उसे घर में रहना ज्यादा अच्छा लगता है. बच्चे भी नहीं जाना चाहते, उन्हें भी शर्म आती है और पति भी कहां ले जाना चाहते हैं? ये सब सोचते हुए उस की आंखें भर आईं…
8-10 दिन ऐसे ही बीत गए, नेहा की दिनचर्या में एक बड़ा फर्क आया था. वह यह कि उस ने बालकनी में जाना लगभग बंद कर दिया था. वह चाहती थी कि जब तक हो सके, बस कांची का सामना न हो. रोज की तरह आज भी वह अपने रोजमर्रा के कामों में व्यस्त थी, तभी मां का फोन आया, 3 दिन बाद छोटे भाई की सगाई थी, मां ने आने का आग्रह कर के फोन रख दिया.
कितने बदल गए हैं सब लोग… बदलें भी क्यों न, उस की तरह फालतू कोई नहीं हैं, दोनों छोटी बहनें सरकारी स्कूल में टीचर हैं, भाई भी सरकारी अफसर है. पिताजी को गुजरे तो 3 साल हो गए, याद आते ही उस की आंखें भर आईं.
मायके में मां के अलावा उसे याद करने की किसी के पास फुरसत नहीं है. बहनें और भाई जन्मदिन और शादी की सालगिरह पर फोन लगा लेते हैं बस… एक मां ही है, जो महीने में कम से कम एक बार फोन कर के हालचाल पूछ लेती हैं. पर इस में सारा दोष भाईबहनों का तो नहीं है, मैं मौन सा उन्हें फोन करती हूं, ताली दोनों हाथ से बजती है, एकतरफा रिश्ता कोई कब तक निभाएगा वो तो सिर्फ मां ही निभा सकती है.
अपनी मजबूरी पर उस का दिल जारजार रोने लगा. क्या, मेरा मन नहीं करता अपनी मा, भाईबहनों से बात करने का, उन के अलावा और कौन है मायके में. फोन का बिल देख कर पतिदेव ऐसेऐसे विषवाण छोड़ते थे कि कलेजा छलनी हो जाता. पर वह सब्र का घूंट पी लेती थी, क्योंकि इस के अलावा उस के पास कोई चारा भी न था. सालसालभर मिलना नहीं होता था, कम से कम फोन पर बात कर के ही दिल को तसल्ली मिल जाती थी. पर उस दिन तो अति हो गई, जब पतिदेव बरसे थे, ‘‘अगर इतना ही शौक है फोन पर गप्पें लगाना का तो जरा घर से बाहर निकल कर चार पैसे कमा कर दिखाओ. तब पता चलेगा, पैसे कैसे कमाए जाते हैं, घर बैठ कर गुलछर्रे उठाना बहुत आसान है.’’
सुन कर, अपमान से तिलमिला उठी थी वह, सहने की भी कोई हद होती है. जी में तो आया कि चीखचीख कर कहे कि जब खुद यारदोस्तों से घंटों फोन पर बतियाते हो, तब बिल नहीं आता, मैं क्या अपनी मां से भी बात न करूं, पर कुछ कह न सकी थी, बस तभी बमुशिकल ही फोन को हाथ लगाती थी वह. काश, वो भी आत्मनिर्भर होती, उस के हाथ में भी चार पैसे होते, जिन्हें वह अपना इच्छा से खर्च कर सकती. लो, ऐसे खुशी के मौके पर मैं भी क्या सोचने बैठ गई. मायके जाने के खयाल से शरीर में खुशी की लहर दौड़ गई. अरे, कितनी सारी तैयारी करनी है, आज 10 तारीख तो हो गई. 13 तारीख को सगाई है, तो 12 को निकलना पड़ेगा. सिर्फ कल का ही दिन तो बचा है.
पतिदेव का मूड न उखड़े, इसलिए नेहा उन की पंसद का खाना बनाने में जुट गई. ‘‘क्या बात है? आज इतने दिनों बाद घर में ऐसा लग रहा है, जैसे सचमुच खाना बना हो, बड़ी चहक रही हो, कोई लौटरी लग गई क्या?’’
‘‘आज मां का फोन आया था. राहुल का रिश्ता तय हो गया है. 13 को सगाई है, चलोगे न…?’’सुनते ही पतिदेव के चेहरे की हंसी गायब हो गई. ‘‘अरे, मैं नहीं जा पाऊंगा, औफिस में बहुत काम है, बच्चों की भी पढ़ाई का नुकसान होगा. शादी में सब लोग चलेंगे, अभी तुम अकेली ही चली जाओ.’’
नेहा के सारे उत्साह पर पानी फिर गया. पर उसे इतना बुरा क्यों लग रहा है, ऐसा पहली बार तो नहीं हो रहा है. मायके के किसी भी प्रोग्राम में हमेशा ऐसा ही तो होता है… खैर, एक तरह से अच्छा ही हुआ, बच्चों के पास ढंग के कपड़े भी नहीं हैं. खर्च करने से बजट गड़बड़ा जाएगा, शादी मैं तो खर्च करना ही पड़ेगा.
नेहा ने अपना सूटकेस खोल कर साड़ियां निकाली, कुलमिला कर 4-5 भारी साड़ियां हैं, जिन्हें वह कई बार पहन चुकी थी और एकमात्र शादी में चढ़ाया गया सोने का हार, जिसे पहनने में भी अब उसे शर्म लगती थी, पर बिना पहने भी नहीं जाया जा सकता. कहीं नहीं हैं, पता नहीं घर के समारोहों में भी इतना दिखावा क्यों करना पड़ता है.
पिछली बार बहन की गोद भराई में उस की सास ने तो ताना मार ही दिया था. लगता है, नेहा को पुरानी चीजों से बहुत लगाव है, इसलिए हमेशा यही हार पहनती है. अरे भाई, अब तो नया ले लो, वो भी बेचारा थक गया होगा. हाल सब के ठहाकों से गूंज उठा था, पर कहां से ले ले नया हार…? सोचते हुए उस ने जैसे ही हार निकाला…, अरे, इस की एक झुमकी तो टूट रही है. हाय, अब क्या पहनूंगी? सोने का कुछ न कुछ तो पहनना पड़ेगा, मंगलसूत्र तो बहुत ही हलका है, अकेले उस से काम नहीं चलेगा. सुबह औफिस जाते वक्त इन्हें दे दूंगी, सुनार के यहां डाल देंगे. दिन में जा कर उठा लाऊंगी, परसों तो निकलना ही है. सुबह पति से मनुहार कर के नेहा ने झुमकी सुनार के यहां पहुंचा दी थी.
जल्दीजल्दी घर के काम पूरे कर के वह झुमकी लेने बाजार की तरफ चल पड़ी. बाजार पास ही था, इसलिए पैदल ही चल दी. मायके जाने के उत्साह में कांची कब उस के ध्यान से उतर गई, उसे पता ही नहीं चला. उत्साह का आलम ये था कि जिस बंगले ने उस की नींद उड़ा रखी थी, उस की तरफ भी उस का ध्यान नहीं गया.
तेज कदमों से चलते हुए वह सुनार की दुकान पर पहुंची, झुमकी उठा कर जैसे ही वह पलटी, उस का मुंह खुला का खुला रह गया. सामने कांची खड़ी थी, वो भी उसे देख कर हक्काबक्का रह गई. कुछ पल बाद दोनों को जैसे ही होश आया, खुशी से चीखते हुए कांची उस से लिपट गई.
‘‘हाय, मैं ने तो कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि तुझ से मुलाकात होगी. एक पल को तो मैं पहचान ही नहीं पाई कि तू ही है या कोई और, कितनी बेडौल हो गई है.’’
‘‘पर, तू तो बिलकुल वैसी की वैसी ही है, जरा भी नहीं बदली,’’ नेहा जबरन मुसकरात हुए बोली.
‘‘तू यहां क्या कर रही है? क्या इसी शहर में रहती है? कहां है तेरा घर? तेरे पति क्या करते हैं और बच्चे…?
‘‘अरे, बसबस…..सांस तो ले ले, मैं कहां भागे जा रही हूं, परसों राहुल की सगाई है, कान की झुमकी उठाने आई थी. मुझे कल ही निकलना है, आज बहुत काम है, बातें तो फिर होती रहेंगी.’’
नेहा की बेरुखी कांची समझ न सकी, वह तो खुशी के मारे अपनी ही रौ में बोले जा रही थी, ‘‘अरे वाह, क्या बात है, छोटा सा राहुल इतना बड़ा हो गया. हाय, टपने पुराने महल्ले को देखने का इतना मन कर रहा है…, पर अभीअभी नए घर में शिफ्ट हुए हैं, पहले ही बैंक से बहुत छुट्टियां ले चुकी हूं. आज भी घर के कुछ काम निबटाने थे, छुट्टी पर हूं, नहीं तो मैं भी तेरे साथ चलती, सभी से मिल लेती. खैर, कोई बात नहीं, तू जब लौट कर आएगी तो तेरी बातें सुन कर ही वहां की यादें ताजा कर लूंगी.’’
‘‘ले, तुझे देख कर तो मैं सब भूल गई. तू रुक, मैं जरा कड़े की डिजाइन सुनार को बता दूं.’’
उफ, जिस बला से बच रही थी, वो इस तरह मेरे सामने आएगी, सोचा न था. कहीं झुमकी न देखने लगे, जल्दी से रूमाल में लपेट कर उसे पर्स में डाल ली. कांची की आत्मीयता उसे दिखावा लग रही थी. जब वो मेरी हालत देखेगी तो जरूर पूछेगी, क्या हुआ तेरे रूपसौंदर्य का, सपनों का राजकुमार नहीं आया लेने, पर अब तो इस से बचना मुश्किल है, नेहा रूआंसी हो उठी.
‘‘चल, अब बता तेरा घर किधर है, पहले मेरे यहां चलते हैं, चाय पिएंगे, फिर मैं तुझे घर छोड़ दूंगी,’’ दुकान से बाहर आते हुए कांची बोली.
‘‘नहीं, आज नहीं. मुझे बहुत देर हो रही है.’’
‘‘चुप रह, मैं कोई बहाना नहीं सुनने वाली, एकाध घंटे में कुछ नहीें बिगड़ने वाला, चल बता, किधर है तेरा घर?’’
‘‘पास में ही है, सतगुरू अपार्टमैंट में रहती हूं.’’
सुनते ही कांची लगभग उछल ही पड़ी, ‘‘क्या बात कह रही है. उस अपार्टमैंट के सामने ही तो मेरा बंगला है. हद हो गई यार… हम दोनों 10 दिनों से एकदूसरे के इतने पास रह रहे हैं और एकदूसरे को दिखे भी नहीं? ये तो कमाल ही हो गया… मुझे तो यकीन ही नहीं हो रहा है कि मेरी सब से प्यारी दोस्त मेरे पड़ोस में रहती है, अब हमारा बचपन फिर से जी उठेगा,’’ कांची खुशी से फूली नहीं समा रही थी.
‘‘अरे क्या हुआ…? तेरा चेहरा क्यों उतरा हुआ है, कहीं पुरानी बातें तो याद नहीं कर रही, मैं तो वो सब कब का भूल चुकी हूं, तू भी भूल जा.’’
‘‘बातोंबातों में घर ही आ गया, चल चाय पीते हैं,’’ कांची ने कार बंगले में पार्क करते हुए कहा.
‘‘नहींनहीं, फिर आऊंगी…’’
‘‘चल न यार,’’ कांची उस का हाथ पकड़ कर लगभग खींचते हुए अंदर ले गई.
बंगले की शानोशौकत देख कर नेहा की आंखें फटी की फटी रह गईं. साजसज्जा के ऐसेऐसे सामान. ऐसी दुर्लभ पेंटिग्स… आलीशान कानूस… जिधर नजर जाती, ठहर जाती. ये सब तो उस ने सिर्फ फिल्मों में ही देखा था, यह तो उस का सपना था…
‘‘कहां खो गई, चल बैडरूम में बैठते हैं,’’ नेहा मंत्रमुग्ध सी उस के पीछे चल पड़ी.
‘‘यहां आराम से बैठ. भोला, जरा चायनाश्ता तो लाना…’’
नेहा जैसे ही बैठने को हुई, उस की नजर बैड पर बिखरे जेवरों पर पड़ी. आश्चर्य के मारे उस का मुंह खुला का खुला रह गया. इतने सारे जेवर… वे भी एक से बढ़ कर एक.
‘‘तू भी क्या सोचेगी? कैसा फैला हुआ पड़ा है? तू तो जानती है, मुझे शुरू से सादगी से रहना ही पसंद है, पर इन की बिजनैस पार्टियों में इन की खुशी के लिए सब पहनना पड़ता है. राज एक पाटी में गए थे, समझ नहीं आ रहा था कि क्या पहनूं? तो सारे निकाल लिए, रखने का वक्त ही नहीं मिला.
“ये भोला भी, अभी तक चाय नहीं लाया. तू बैठ, मैं अभी देख कर आती हूं,’’ कांची उस की मनोस्थिति से पूरी तरह बेखबर थी.
नेहा को तो जैसे कुछ सुनाई ही नहीं दे रहा था. उस की नजर तो डायमंड नेकलेस पर अटक गई थी, जो बिलकुल उस के पास ही पड़ा था. इतना खूबसूरत नेकलेस तो उस ने कभी सपने में भी नहीं देखा था, न ही वो उस की कीमत का अंदाजा लगा सकती थी.
अगर ये मैं राहुल की सगाई में पहन कर चली जाऊं, तो… सारे रिशतेदारों की आंखें फटी की फटी रह जाएंगी, और मुह पर ताले पड़ जाएंगे.
अगर मांगू तो… कांची क्या सोचेगी, नहींनहीं, चुपचाप उठा लूं तो… पर, कहीं किसी ने देख लिया तो… कोई भी तो नहीं है, उस ने पर्स से रूमाल निकाल कर नेकलेस पर पटक दिया, इधरउधर देखा और झट रूमाल के साथ नेकलेस उठा कर पर्स में डाल लिया.
‘‘नौकरों के भरोसे कोई काम नहीं होता, ले गरमागरम चाय पी,’’ कांची ने बैडरूम में घुसते हुए कहा.
नेहा ने इतनी गरम चाय एक घूंट में ही पी ली और उठ खड़ी हुई.
‘‘अरे, बैठ ना…”
‘‘नहीं, मैं तो भूल गई, मुझे प्रेस वाले के यहां से साडियां भी उठानी हैं, मैं फिर आऊंगी.’’
कांची के कुछ कहने से पहले ही उस ने ऐसी दौड़ लगाई, जैसे पीछे भूत पड़े हों, घर में घुस कर ही सांस ली.
धम्म से कुरसी पर बैठ गई, जब सांस में सांस आई तो एहसास हुआ कि ये क्या किया?
हाय, मैं ने चोरी की, वो भी कांची के यहां से.
ये चोरी थोड़े ही है, 2-3 दिन की ही तो बात है. शादी से लौट कर, उस से मिलने जाऊंगी, और धीरे से रख दूंगी. मन के दूसरे कोने से आवाज आई.
पर्स से नेकलेस निकाल कर आईने के सामने गले पर लगाते ही नेहा की सारी ग्लानि बह गई.
वाह… क्या लग रही हूं मैं, सब देखते ही रह जाएंगे. उस ने जल्दी से नेकलेस को सूटकेस में रख लिया.
बच्चे पढ़ाई कर रहे थे, पतिदेव के आने में अभी वक्त था. कई दिन बाद उस ने बालकनी का दरवाजा खोल कर ताजी हवा को महसूस किया. तभी बंगले से कांची निकलती हुई दिखी.
अरे, ये तो इधर ही आ रही है. हाय, लगता है कि उसे पता चल गया कि मैं ने ही उस का नेकलेस चुराया है. अब क्या करूं? क्या सोचेगी वह मेरे बारे में? मेरी भी मति मारी गई थी, जो मैं ने ऐसा नीच काम किया, क्या करूं?
जल्दी से बालकनी का दरवाजा बंद कर, बच्चों को हिदायत दी कि कोई आ कर पूछे तो कहना कि मम्मी बाहर गई हैं, देर से आएंगी.
नेहा सांस रोके अंदर जा कर बैठ गई.
घंटी बजते ही बेटे ने दरवाजा खोल दिया.
‘‘क्या यह नेहा का घर है?’’
‘‘जी आंटी, पर मम्मी घर पर नहीं हैं.’’
‘‘अच्छा, कोई बात नहीं. मै बाद में आऊंगी,” कांची ने जाते हुए कहा. उस के जाते ही नेहा की जान में जान आई.
उफ, शुक्र है, बच गई, बस कल ट्रेन पकड़ लूं.
सारी रात चिंता के मारे नेहा सो न सकी. सुबह पति और बच्चों के जाने के बाद वह जल्दीजल्दी जाने की तैयारी करने लगी.
ट्रेन तो 11 बजे की है, लगभग 10 बजे घर से निकल जाऊंगी. अरे, सूखे कपड़े तो बालकनी में ही रह गए, अगर नहीं उठाए तो 3 दिन तक वहीं पड़े रहेंगे, मजाल है कि कोई उठा कर अंदर रख दे. बड़बड़ाते हुए नेहा ने जैसे ही बालकनी का दरवाजा खोला, सामने से आती हुई कांची को देख कर उस के हाथपैर फूल गए. कुछ समझ न आया तो बाहर से ताला बंद कर के, ऊपर सीढ़ियों में जा कर छिप गई.
हाय, अगर ऊपर से कोई आ गया तो क्या कहूंगी? क्यों बैठी हू सीढ़ियों में… ये किस मुसीबत में फंस गई, पर अब करे क्या? दम साधे बैठी रही.
कुछ देर बाद सीढ़ियों पर किसी के उतरने की आवाज आई, शायद ताला देख कर कांची चली गई थी. 5 मिनट रुक कर वह नीचे आई और ताला खोला. मायके में अपनी झूठी शान दिखाने के लिए क्याक्या करना पड़ रहा है, बस एक बार ट्रेन में बैठ जाऊं.
10 बजने ही वाले थे. सूटकेस उठा कर, ताला लगाया, चाबी पड़ोस में दे कर सीढ़ियां उतरने लगी, उस की सांस धौंकनी की तरह चल रही थी, ज्यादा गरमी न होने के बाद भी पसीना पीठ से बह कर एड़ियों तक पहुंच रहा था.
भगवान का लाखलाख शुक्र है कि आटो सामने ही दिख गया, बिना मोलभाव (जो उस की आदत नहीं थी) के वह जल्दी से आटो में बैठ कर स्टेशन के लिए निकल पड़ी.
क्या कांची पीछे से आवाज दे रही थी…, नहींनहीं, मेरा भ्रम होगा…
जैसेतैसे स्टेशन पहुंच कर अंदर घुसी ही थी कि सचमुच पीछे से कांची के पुकारने की आवाज सुन कर उस के होश ही उड़ गए…
अब तो ऊपर वाला भी मेरी इज्जत की धज्जियां उड़ने से नहीं बचा सकता. झूठी शान के चक्कर में मेरी मति मारी गई थी जो मैं ने ऐसा नीच काम किया. अब कांची से आंखें मिलाऊंगी… हे भगवान, काश, ये धरती फट जाए तो मैं उसी में समा जाऊं… क्या करूं? कहां जाऊं…. भागूं…..पर, पैर जड़ हो गए…
तभी हांफती हुई कांची आई, ‘‘कब से आवाज दे रही हूं? सुन ही नहीं रही है, कल तेरे घर आई, तो भी नहीं मिली. सुबह आई, तो ताला लगा था, मुझे लगा कि गई ये तो… पर, अभी आटो में बैठती हुई दिखी, तब भी आवाज लगाई, पर शायद तू सुन नहीं पाई. नेहा को काटो तो खून नहीं.
‘‘अरे, उस दिन तू मेरे घर आई थी न शायद जल्दबाजी में तेरी झुमकी वहीं गिर गई थी, उसे ही लौटाने आई थी. मैं सोचसोच कर परेशान हो रही थी. अगर न दे पाई तो तू वहां क्या पहनेगी. चल, अब मैं निकलती हूं, पहले ही बैंक के लिए देर हो गई है, तू वहां से आ जा, फिर मिलते हैं.’’
नेहा ठगी सी खड़ी रह गई, डायमंड की चमक पूरी तरह से फीकी पड़ चुकी थी.