जम्मू कश्मीर में विधानसभा चुनाव के बाद भले जनता की चुनी हुई सरकार बन गई और उमर अब्दुल्ला भले ही प्रदेश के मुख्यमंत्री बन गए मगर शासन की असली बागडोर मोदी सरकार के सिपहसालार यानी उपराज्यपाल मनोज सिन्हा के हाथ में ही है. आर्टिकल 370 निरस्त होने के बाद जम्मू कश्मीर विशेष राज्य का दर्जा समाप्त होने पर अब इस प्रदेश की हालत भी दिल्ली जैसी हो गई है जहां मुख्यमंत्री तो है मगर उस के पास इतनी भी पावर नहीं है कि वह अपनी मर्जी से एक चपरासी तक नियुक्ति कर सके.

मुख्यमंत्री को हर फैसले के लिए उपराज्य्पाल के आगे गिड़गिड़ाना पड़ता है. कभी उसे कुर्सी छोड़नी पड़ती है तो कभी मुख्यमंत्री निवास खाली करना पड़ता है. एक लोकतांत्रिक देश में जनता की चुनी हुई सरकार और मुख्यमंत्री की ऐसी छीछालेदर दुनिया के किसी देश में ना हुई होगी.

अब दिल्ली जैसी हालत जम्मू कश्मीर की भी होने वाली है. गौरतलब है कि उमर अब्दुल्ला पहले भी राज्य के मुख्यमंत्री रह चुके हैं. मगर तब जम्मू कश्मीर एक पूर्ण राज्य था और राज्य को चलाने की सारी शक्तियां मुख्यमंत्री के पास थीं मगर केंद्र शासित राज्य बनने के बाद उपराज्यपाल के पास असीमित शक्तियां आ गई हैं. हालात पहले जैसे नहीं हैं.

नई गठबंधन सरकार के सामने कई चुनौतियां होंगी. एक तरफ उस को वे सभी वादे पूरे करने हैं जो उस ने जनता से किए हैं और दूसरी तरफ उसे विकास योजनाओं को लागू करने के लिए केंद्र सरकार का मुंह ताकना होगा.

इस में कोई दोराय नहीं कि उपराज्यपाल जो केंद्र के इशारे पर काम करते हैं, जम्मू-कश्मीर सरकार के हर काम में अड़ंगा लगाएंगे. मुख्यमंत्री को आएदिन इस से निपटना होगा बिलकुल वैसे ही जैसे दिल्ली की सरकार एक लम्बे वक्त से उपराज्यपाल की मनमानियों को झेल रही है और जनता के हितकारी कार्यों की फाइलें बिना मंजूरी के बारबार उपराज्यपाल द्वारा सरकार के मुंह पर वापस दे मारी जाती हैं.

कहना गलत नहीं होगा कि जम्मू कश्मीर में भाजपा सत्ता से दूर हो कर भी सत्ता पर काबिज है. राज्य का विशेष दर्जा खत्म करने के बाद नया बना जम्मू और कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम ने उपराज्यपाल को व्यापक कंट्रोल की ताकत दी है. पिछले 5 सालों से उपराज्यपाल के दफ्तर से कश्मीर में प्रशासन चल रहा है. आम लोग अपने आप को सत्ता से दूर कर चुके हैं. राज्य की सभी प्रशासनिक शक्तियां एलजी कार्यालय में केंद्रित हैं. कानून और व्यवस्था, सार्वजनिक व्यवस्था और पुलिस के कामों सहित विभिन्न प्रशासनिक मामलों में केंद्र शासित प्रदेशों में उपराज्यपाल का फैसला ही अंतिम होता है. नई सरकार के गठन के बाद भी उन का केवल सीनियर ब्यूरोक्रेट्स के कामों पर ही कंट्रोल नहीं होगा बल्कि वह सीधेसीधे शासन को भी प्रभावित करेंगे.

जम्मूकश्मीर की नई विधानसभा के पास सीमित विधायी शक्तियां होंगी, विशेष रूप से पुलिस और सार्वजनिक व्यवस्था जैसे विषयों के संबंध में. अन्य मामलों पर वह जरूर कानून बना सकती है लेकिन किसी भी वित्तीय कानून को एलजी से पूर्व अनुमोदन की जरूरत होगी, जो विधानसभा के असर और कामकाज पर प्रभाव डालेगा. ऐसे में नई सरकार की कार्यकारी शक्तियां और क्षमता गंभीर रूप से कमजोर और समझौता पूर्ण हो जाएगी.

जुलाई में, केंद्र सरकार ने उपराज्यपाल की शक्तियों का दायरा और बढ़ा दिया था. जिस से उन्हें पुलिस, सार्वजनिक व्यवस्था, अखिल भारतीय सेवा के अधिकारियों और केंद्र शासित प्रदेश के महाधिवक्ता सहित वरिष्ठ कानून अधिकारियों की नियुक्ति और स्थानांतरण से संबंधित मामलों पर निर्णय लेने का एकमात्र अधिकार भी मिल गया था. तो ऐसे सिनेरियो में एक ऐसी सरकार के बारे में सोचिए जो अपनी नौकरशाही का चयन नहीं कर सकती. जिस का जिला पुलिस अधिकारी या एसएचओ पर कोई प्रशासनिक नियंत्रण नहीं है, क्या वह नगरपालिका समिति से बेहतर होगी?

अपने चुनावी घोषणापत्र में नैशनल कान्फ्रेंस और कांग्रेस एलायंस ने जनता से अनेक वादे किए थे. जैसे कश्मीरी पंडितों की घाटी में सम्मानजनक वापसी, 200 यूनिट मुफ्त बिजली, आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों को हर साल 12 एलपीजी सिलेंडर मुफ्त, भूमिहीनों को जमीन देना, बेरोजगारों के लिए रोजगार के अवसर मुहैया कराना, आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के परिवारों की महिला मुखिया को हर महीने 5000 रुपए देना आदि, इस के अलावा स्वायत्तता प्रस्ताव, अनुच्छेद-370 और 35-ए की बहाली, पूर्ण राज्य का दर्जा बहाल करना, सभी राजनीतिक कैदियों के लिए माफी, गैर-निवासियों पर उचित प्रतिबंध लगाने के लिए कानूनों में संशोधन, भारत और पाकिस्तान के बीच बातचीत, राज्य के ध्वज की बहाली जैसे वादे भी किए गए थे, जिन पर रीझ कर जनता ने एनसी गठबंधन को सत्ता सौंपी, पर क्या जिस सरकार के हाथ इस तरह एलजी की बेड़ियों में जकड़े हों वह इन वादों को पूरा कर सकती है? जनता के हित से जुड़े साधारण वादों को पूरा करने के लिए भी सरकार को नाकों चने चबाने पड़ेंगे. इन हालातों में न तो प्रदेश की जनता का कुछ भला होगा, न उन की रोजीरोजगार की दिशा में कुछ सकारात्मक होगा और न प्रदेश में कोई विकास कार्य संभव होगा.

केंद्र की मोदी सरकार ने 370 हटाने के वक्त जम्मू कश्मीर से आतंकवाद ख़त्म करने ऐलान किया था, मगर आतंकी कश्मीर से ले कर जम्मू तक फैल गए. केंद्र सरकार ने कश्मीरी पंडितों की घरवापसी कराने का वादा किया था मगर अब तक न उन की घर-वापसी हुई और न उन्हें अपनी सुरक्षा का भरोसा है. धारा 370 निरस्त करने के बाद लम्बे समय तक पूरे जम्मू कश्मीर में दूरसंचार व्यवस्था और इंटरनेट पर रोक लगाने से व्यापार और बच्चों की शिक्षा बुरी तरह प्रभावित हुई. पर्यटन जो कि जम्मू कश्मीर के लोगों की आमदनी का मुख्य जरिया था, केंद्र के इन तमाशों की वजह से बिल्कुल चौपट हो गया. विदेशी पर्यटकों ने तो कश्मीर छोड़ गोवा का रुख करना शुरू कर दिया. पहले ठिठुरते जाड़ों से ले कर गरमियों के मौसम तक में घाटी पर्यटकों से भरी रहती थी. हाउस बोट्स पर तिल धरने की जगह न बचती थी. डल लेक में विदेशी सैलानियों से भरे शिकारे रेस लगाते थे. ऊनी कपड़ों, सूखे मेवों और लकड़ी के सामान की खूब खरीदारी होती थी. पर अब घाटी पर्यटकों से सूनी है.

गौरतलब है कि जम्मू-कश्मीर में मुख्य व्यवसायों में कृषि, बागवानी, विनिर्माण और पर्यटन शामिल हैं. जम्मू-कश्मीर में कृषि से जुड़े मुख्य उत्पादों में सेब, जौ, चेरी, मक्का, बाजरा, संतरे, चावल, आड़ू, नाशपाती, केसर, ज्वार, सब्ज़ियां और गेहूं शामिल हैं वहीं बागवानी से जुड़े मुख्य उत्पादों में सेब, खुबानी, चेरी, नाशपाती, बेर, बादाम, और अखरोट शामिल हैं. जम्मू-कश्मीर के बागवानी उत्पादों की विविधता और गुणवत्ता के कारण दुनिया भर में ख्याति है. विनिर्माण से जुड़े मुख्य उत्पादों में धातु के बर्तन, सटीक उपकरण, खेल के सामान, फर्नीचर, माचिस, राल, और तारपीन का उत्पादन होता था जो बाहर बिकने जाता था. पर्यटकों द्वारा लकड़ी के सामान जैसे नक्काशीदार ट्रे, टेबल, कटोरे, फ़र्नीचर, चाबी का गुच्छा, फफोटो फ्रेम आदि खूब खरीदे जाते थे. मगर अब जब वहां पर्यटन उद्योग ही चौपट हो गया है तो इस से जुड़े तमाम छोटे बड़े धंधे भी ठप्प हो गए हैं. व्यापारी कर्ज में डूब चुके हैं. ऐसे में यदि नयी सरकार को खुल कर काम नहीं करने दिया गया तो जम्मू कश्मीर आर्थिक रूप से बिलकुल खोखला हो जाएगा और ये स्थिति प्रदेश के युवाओं को फिर से हथियार उठाने और अपराध करने के लिए मजबूर करेगी.

सरकार के हर काम पर उपराज्यपाल का नियंत्रण और बाधाओं की आशंका उमर अब्दुल्ला जुलाई महीने में व्यक्त कर चुके थे. वे चुनाव भी नहीं लड़ना चाहते थे क्योंकि जम्मूकश्मीर को एक केंद्र शासित प्रदेश बना दिया गया था. तब उन्होंने इंडियन एक्सप्रेस को दिए इंटरव्यू में कहा था, “मैं एक पूर्ण राज्य का मुख्यमंत्री रहा हूं. मैं खुद को ऐसी स्थिति में नहीं देख सकता जहां मुझे उपराज्यपाल से चपरासी चुनने के लिए कहना पड़े या बाहर बैठ कर फाइल पर उन के हस्ताक्षर करने का इंतजार करना पड़े.”

जम्मूकश्मीर में विधानसभा चुनाव होने के बाद अब नेताओं ने पूर्ण राज्य के दर्जे की मांग तेज कर दी है, आने वाले दिनों में इसे ले कर राजनीतिक घमासान भी देखने को मिल सकता है. केंद्र सरकार पर दबाव बनाने की कोशिश की जाएगी कि वो फिर से कश्मीर को पूर्ण राज्य का दर्जा दे. ऐसी ही मांग दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री और आम आदमी पार्टी के मुखिया अरविंद केजरीवाल पिछले कई सालों से करते आ रहे हैं.

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