सुप्रीम कोर्ट ने जेल मैनुअल से जातिगत भेदभाव बढ़ाने वाले नियमों को हटाने के आदेश दिए हैं. शीर्ष कोर्ट ने कुछ राज्यों से कहा है कि वे अपनी जेलों में जाति के आधार पर काम का बंटवारा न करें. चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस जेबी पादरीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा की बेंच ने पत्रकार सुकन्या शांता की याचिका पर सुनवाई करते हुए अपने आदेश में कहा कि जेलों में जातीय भेदभाव की अनुमति नहीं दी जा सकती है. किसी विशेष जाति के लोगों से ही सीवर टैंक साफ़ करवाना गलत है. कोर्ट ने जेल मैनुअल में जातिगत भेदभाव बढ़ाने वाले सभी नियमों को 3 महीने में बदलने के लिए कहा है. अदालत का मानना है कि जाति के आधार पर काम कराना उचित नहीं है. बेंच ने कहा कि निचली जाति के कैदियों से खतरनाक परिस्थितियों में सीवर टैंकों की सफाई की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए.

उल्लेखनीय है कि यह मामला दिसंबर 2023 में सुप्रीम कोर्ट में पत्रकार सुकन्या शांता द्वारा दाखिल एक जनहित याचिका में उठाया गया था. जनहित याचिका में कहा गया था कि करीब 17 राज्यों की जेलों में कैदियों के साथ जाति आधारित भेदभाव हो रहा है. जेलों में शौचालयों की सफाई, सीवर की सफाई जैसे कार्य निम्न जाति के कैदियों को सौंपा जाता है जबकि रसोई का काम उच्च जाति के अपराधियों के जिम्मे होता है. इस जनहित याचिका पर पहली सुनवाई जनवरी 2024 में हुई थी. कोर्ट ने 17 राज्यों को नोटिस भेज कर जवाब मांगा था. 6 महीने के अंदर केवल उत्तर प्रदेश, झारखंड, ओडिशा, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल ने ही अपना जवाब कोर्ट में दाखिल किया है.

शांता ने अपनी याचिका में बताया था कि पश्चिम बंगाल जेल मैनुअल में यह प्रावधान है कि जेलों में काम जाति के आधार पर तय किया जाना चाहिए, जैसे खाना बनाना दबंग जातियों द्वारा किया जाना चाहिए और झाड़ू लगाना खास निम्न जातियों द्वारा होना चाहिए. जेल मैन्युअल के नियम 694 के अनुसार, कैदियों की वास्तविक धार्मिक प्रथाओं या जातिगत पूर्वाग्रहों में किसी भी तरह का हस्तक्षेप नहीं किया जाना चाहिए. नियम 793 में कहा गया है कि सफाईकर्मियों को मेहतर, हरि, चांडाल या किसी अन्य जाति से चुना जाना चाहिए.

उत्तर प्रदेश जेल मैनुअल, 1941, जिसे 2022 में संशोधित किया गया था, में कहा गया है कि कैदियों के जातिगत पूर्वाग्रहों को बनाए रखा जाना चाहिए और सफाई, सफाई और झाड़ू लगाने के काम को जातियों के आधार पर बांटा जाना चाहिए. हालांकि, इसमें जातिगत पूर्वाग्रहों को बनाए रखने और ‘आदतन अपराधियों’ को अलग करने का नियम बरकरार रखा गया है.

आंध्र प्रदेश जेल नियम के अनुसार, सफाई या सफ़ाई का काम उन कैदियों से नहीं लिया जाएगा, जो अपनी जातिगत पूर्वाग्रहों के कारण ऐसा काम करने के आदी नहीं हैं. मध्य प्रदेश जेल मैनुअल में भी सफाई के लिए जाति-आधारित प्रावधान हैं.

2020 तक, राजस्थान जेल नियम, 1951 में कहा गया था कि मेहतर जाति के कैदी शौचालय साफ करेंगे और रसोइया “गैर-आदतन वर्ग” का होगा. कोई भी ब्राह्मण या पर्याप्त रूप से उच्च जाति का हिंदू कैदी ही रसोइया के रूप में नियुक्ति के लिए पात्र है. एक अन्य नियम में कहा गया है कि सभी कैदी जो उच्च जाति के कारण मौजूदा रसोइयों द्वारा तैयार भोजन खाने पर आपत्ति करते हैं, उन के लिए उच्च जाति का ही रसोइया नियुक्त किया जाएगा.

देश में जाति के आधार पर भेदभाव और छुआछूत कहने को तो समाप्त हो चुके हैं, संविधान ने सब को बराबरी का हक़ भी दे दिया है परंतु आश्चर्य की बात है जेल मैनुअल में ही नहीं हमारे समाज में भी ये अभी तक बदस्तूर शामिल है. आम घरों में आज भी यदि सफाई कर्मी को चाय देनी है तो उस का कप अलग रखा जाता है. हमारे माली, मेहतर, झाड़ू पोछा करने वाली बाई जैसे लोग दलित या पिछड़ी जाति के ही होते हैं. सड़क के मैनहोल साफ़ करने वाले कभी उच्च जाति के व्यक्ति नहीं होते बल्कि दलित ही होते हैं. जैसे सफाई का सारा जिम्मा इन्ही के सिर हो.

सुप्रीम कोर्ट ने जेल में जाति के आधार पर काम का बंटवारा करने और जाति आधारित भेदभाव को बढ़ाने वाले नियमों पर चिंता जताते हुए राज्यों के जेल मैनुअलों के भेदभाव वाले प्रावधान रद्द किए हैं. कोर्ट ने भेदभाव वाले नियमों को संविधान के अनुच्छेद 14, 15,17,21 और 23 का उल्लंघन बताया है. अदालत ने कहा कि जेल में जाति आधारित भेदभाव नहीं होना चाहिए. यह सुनिश्चित करना राज्यों की जिम्मेदारी है. कोर्ट ने कहा कि जेल के फार्म में कैदियों से जाति पूछने का कालम नहीं होना चाहिए. सीजेआई ने कहा कि जाति आधारित भेदभाव के खिलाफ लड़ाई रातों रात नहीं जीती जा सकती. मगर यह अदालत जाति आधारित भेदभाव के खिलाफ चल रहे संघर्ष में योगदान दे रही है. हम ने अनुच्छेद 14 के तहत गैर-भेदभाव से निपटा है. ये भेदभाव प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों हैं. रूढ़िवादिता ऐसे भेदभाव को आगे बढ़ाती है. इसे रोकने के लिए राज्य को सकारात्मक दायित्व निभाना चाहिए.

सुप्रीम कोर्ट का कहना बिलकुल ठीक है कि जाति आधारित भेदभाव के खिलाफ लड़ाई रातोंरात नहीं जीती जा सकती. सच तो यह है कि यह लड़ाई तब तक नहीं जीती जा सकती जब तक धर्म का खात्मा नहीं होता. क्योंकि दुनिया भर में धर्म ने ही इंसान को खांचों में बांटा है. धर्म ने ब्राह्मण, क्षत्रीय, वैश्य और शूद्र तय किये. इन चारों ने अपने भीतर सैकड़ों जातियां और उपजातियां बना लीं. भेदभाव और छुआछूत विशाल बरगद का आकार ले चुका है. बरगद को ख़त्म करना है तो उस की टहनियों की छंटाई से उसे ख़त्म नहीं किया जा सकता है. जब तक उस की जड़ नहीं खोदी जाएगी बरगद का नाश नहीं होगा. और यह जड़ है धर्म. धर्म पर कुठाराघात होने पर ही ये उंचनीच, शूद्र और ब्राह्मण की दीवार गिरेगी. अगर सुप्रीम कोर्ट जड़ पर वार करने की हिम्मत करे तभी समानता का बीजारोपण होगा अन्यथा वह आदेश पर आदेश दे ले, सरकारें कानूनों में सैकड़ों हजारों संशोधन कर लें मगर जाति का भेदभाव और छुआछूत जस का तस रहेगा.

जेल मैन्युअल में चंद नियमों को हटा देने से स्थिति में कोई बदलाव नहीं होगा जब तक अधिकारियों के दिमाग में बसे धर्म के खांचों को नहीं तोड़ा जाएगा. जब अधिकारी सफाई का काम उच्च जाति के कैदियों को और भोजन बनाने का काम निम्न जाति के कैदियों को नहीं देंगे तब तक जेलों में कोई परिवर्तन नहीं आएगा. अधिकारी खुद दलित द्वारा बनाए भोजन को रस ले कर खाएं, तभी कैदी भी खाएंगे. जो पूर्वाग्रहों के चलते ना खाएं उन्हें भूखा ही छोड़ दिया जाए. आखिर कितने दिन भूखे रहेंगे? झक मार के खाएंगे. मगर इस परिवर्तन के लिए सख्ती जरूरी है.

गौरतलब है कि मार्च 2014 में सुप्रीम कोर्ट के संज्ञान में यह बात आई थी कि भारत में 96 लाख (9.6 मिलियन) शुष्क शौचालयों को मैन्युअल रूप से खाली किया जाता है, लेकिन मैनुअल मैला ढोने वालों की सटीक संख्या का सटीक पता अभी तक नहीं लग सका है. आधिकारिक आंकड़े इसे 700,000 से कम बताते हैं. 2018 में एक अनुमान के अनुसार भारत में “स्वच्छता कार्यकर्ताओं” की संख्या 5 मिलियन थी, और उनमें से 50% महिलाएं थीं. हालांकि, सभी सफ़ाई कर्मचारी हाथ से मैला ढोने वाले नहीं हैं. 2018 के एक अन्य अनुमान में यह आंकड़ा 10 लाख हाथ से मैला ढोने वालों का बताया गया, जिस में कहा गया है कि इन में 90% महिलाएं हैं.

धर्म ने इंसान को दुनिया भर में बांटा है. समाज के एक भाग को अछूत कह कर उस से सब से घृणित कार्य कराए जाते हैं. ऐसा सिर्फ भारत में ही नहीं दुनिया भर के देशों में हो रहा है. निजी और सार्वजनिक शुष्क शौचालयों और खुली नालियों से मलमूत्र को मैन्युअल रूप से साफ करने की प्रथा दक्षिण एशिया के भी कई हिस्सों में जारी है. अविभाजित भारत के अधिकांश भाग में, जिस में अब भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश शामिल हैं, सदियों पुरानी सामंती और जाति आधारित प्रथा के अनुरूप, समुदायों की महिलाएं जो पारंपरिक रूप से “मैनुअल स्केवेंजर” के रूप में काम करती थीं, वे अभी भी दैनिक आधार पर मानव अपशिष्ट इकट्ठा करती हैं, इसे लोड करती हैं वे इसे गन्ने की टोकरियों या धातु के नांदों में भर कर बस्ती के बाहरी इलाके में निपटान के लिए अपने सिर पर ले जाते हैं.

अपने पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान की बात करें तो बंटवारे के वक्त जब हिंदू पाकिस्तान से भारत आ रहे थे तब वहां निचली जाति के हिंदूओं को भारत नहीं आने दिया गया. उन को वहां मनुहार कर के रोका गया. उनके पास इतने पैसे भी नहीं थे कि वे भारत तक की यात्रा कर सकें और एक अनजान जगह पर जा कर अपने लिए घर बना सकें, इसलिए वे मजबूरन पाकिस्तान में ही रुक गए. उन्होंने सोचा कि उच्च जाति के हिंदूओं के जाने के बाद उन की वकत बढ़ जाएगी, उन्हें अच्छी नौकरियां प्राप्त होंगी मगर ऐसा सोचना उन की भूल थी. उन की मनुहार इसलिए की गई क्योंकि अगर वे भारत आ जाते तो पाकिस्तान के उच्च वर्ग का मैला कौन साफ़ करता?

दूसरी तरफ भारत में भी निम्न जातियों और निम्न जाति की महिलाओं का ऐसा ही हाल रहा. भारत चाहता तो वह भी पाकिस्तान की तरह अपने अल्पसंख्यकों की निम्न जाति के लोगों से मैला उठवाने का काम करवाता मगर एक ओर अल्पसंख्यकों की निम्न जातियों ने दूसरे काम जैसे पंचर जोड़ना, सब्जी बेचना, मजदूरी करना, सिलाई करना आदि अपनाए हुए थे वहीं हिंदू सनातनी धर्म ने वर्ण व्यवस्था के अनुसार हिंदूओं को स्वयं ही चार वर्गों में बांट रखा था – ब्राह्मण, क्षत्रीय, वैश्य और शूद्र. इस में शूद्रों, आज के ओबीसी, का काम तो धर्म ने हजारों साल पहले ही तय कर दिया था. शूद्र से नीचे भी एक जाति है जिसे अब दलित या शड्यूल कास्ट कहा जाता और जिस का समाज खुद भी यह स्वीकार कर बैठा था कि उस का काम तो समाज की गंदगी साफ करना ही है. लिहाजा वह कभी इस काम का विरोध भी नहीं कर सका. राम विलास पासवान, मायावती और जीतन राम मांझी के बावजूद यह समाज आज भी चूंचूं नहीं कर पाता है. किसी ने विरोध की हिम्मत दिखाई तो उसे मार पीट कर धमका कर खामोश कर दिया जाता है और इस तरह धर्म का साम्राज्य बेधड़क चलता रहता है.

पाकिस्तान में एएफपी की एक रिपोर्ट में उल्लेख किया गया है कि कैसे सार्वजनिक निकाय विशेष रूप से “गैर-मुसलमानों” के लिए सफाई के छोटेमोटे काम आरक्षित करते हैं. ये नौकरियां केवल ईसाइयों और हिंदुओं के लिए हैं. दलित या आदिवासी जिन्होंने ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया, पकिस्तान में उन से मैला उठवाने का काम करवाया जाता है. आधिकारिक तौर पर जिस देश में जाति व्यवस्था मौजूद नहीं है, उस देश में भी जाति और धर्म आधारित भेदभाव को हतोत्साहित नहीं किया गया. सीवेज सिस्टम की सफाई जैसे प्रदूषणकारी और खतरनाक कामों के लिए या तो निचली जाति के हिंदुओं या निचली जाति के हिंदुओं में से परिवर्तित ईसाइयों की भर्ती की जाती है.

उदाहरण के लिए, 2019 में, पाकिस्तानी सेना ने सीवर सफाईकर्मियों के लिए अखबारों में विज्ञापन दिया, जिस में चेतावनी दी गई कि केवल ईसाइयों को आवेदन करना चाहिए. इस की वजह यही थी कि वे दलित हिंदू से ईसाई हुए थे. वे भले ईसाई हो गए मगर उच्च वर्ग की नजर में वे नीच ही रहेंगे.

पाकिस्तान में निम्न वर्ग की महिलाएं आमतौर पर सूखे शौचालयों को साफ करती हैं, पुरुष और महिलाएं खुले में शौच स्थलों, गटर और नालियों से मल साफ करते हैं, और पुरुषों को सीवर और सेप्टिक टैंक की सफाई जैसे अधिक शारीरिक रूप से कठिन काम करने के लिए कहा जाता है. पाकिस्तान की आबादी में ईसाई केवल 1.6 प्रतिशत हैं, लेकिन सभी सफाई कर्मियों में उन की संख्या लगभग 80 प्रतिशत है. पाकिस्तान के अल्पसंख्यकों में ऊंची जमातों के लोग भी हैं जो ठाठ से व्यापार कर रहे हैं और दलित हिंदू ईसाई भी हैं जो ऐसे कार्यों में फंसे हुए हैं जो कोई और नहीं करना चाहता. यह दर्शाता है कि देश में वंश आधारित काम कितना अपमानजनक हो सकता है.

पाकिस्तान के राजनीतिक और सांस्कृतिक केंद्र लाहौर के विशाल शहर में, हिंदू दलित सफाई कर्मी शारीरिक रूप से सीवरों को खोलते हैं जो इस के 14 मिलियन निवासियों द्वारा उत्पादित लगभग 2,000 लीटर कचरे का परिवहन करते हैं – जिस में मल और खतरनाक कचरा भी शामिल है. यह सब, बिना किसी सुरक्षा उपकरण के किया जाता है. इन कर्मियों को औपचारिक श्रमिकों के रूप में मान्यता भी नहीं दी जाती है और उन्हें कम वेतन दिया जाता है. कोई भी स्वेच्छा से सीवर में नहीं जाता है, लेकिन जब आप के बच्चे भूख से मर रहे हों, तो फिर कोई रास्ता नहीं सूझता.

ये पेशे पाकिस्तान में हिंदू दलित या ईसाई घरों से आने वाले लोगों के लिए अभिशाप बन गए हैं. पेशे मातापिता से बच्चों को हस्तांतरित होते हैं, जिस से देश में अल्पसंख्यक समुदाय अपने काम के लिए भेदभाव और दुर्व्यवहार का शिकार हैं.

हाथ से मैला ढोने की प्रथा को समाप्त करने के विधायी और नीतिगत प्रयासों से कोई लाभ नहीं है. अव्वल तो निचली जातियां विरोध नहीं कर पातीं. जो करते हैं उन्हें धमकियां मिलती हैं, उन के घर उजाड़ दिए जाते हैं, उन की बेटियों से बलात्कार होते हैं, उन का खाना पानी बंद कर दिया जाता है. और इस में स्थानीय सरकारी अधिकारियों की मिलीभगत होती है.

भारत में इंसानों द्वारा मैला ढोने को 2013 में ही प्रतिबंधित कर दिया गया था लेकिन इस के बावजूद बड़ी संख्या में लोग इस काम में लगे हुए हैं. ताजा आंकड़ों के अनुसार इस प्रथा में लगे हुए लोगों में से करीब 97 प्रतिशत दलित हैं. 7.7 फीसदी लोगों को नालों और गटरों को साफ करने के लिए उनमें भेजा जाता है. उन्हें आवश्यक सुरक्षा उपकरण भी नहीं दिए जाते. नालों में जहरीली गैसें होती हैं जिन्हें सूंघने की वजह से अकसर सफाई करने वालों की मौत हो जाती है.

भारत में जहां धर्म का धंधा सब से बड़े मुनाफे में चल रहा है, जहां पूरी की पूरी राजनीति ही धर्म के आडम्बरों और जातीय भेदभाव पर टिकी हो, जहां राजनेताओं का पूरा कैरियर जातियों के वोटबैंक पर आधारित हो, तो इस नग्न जमीनी सच के आगे सुप्रीम कोर्ट के ऐसे आदेश आते हैं और चले जाते हैं, मगर उन से समाज में रत्तीभर भी बदलाव नहीं आता.

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