लेखिका – नीलू शेखावत

कल प्रांशु ने पूछा- चिट्ठी क्या होती है? क्यों लिखी जाती है? संयोग से मैं ने कुछ खाली पोस्टकार्ड्स और लिफाफे संभाल कर रखे थे वरना अब तो पोस्टऔफिस का भी अस्तित्व नहीं, पोस्टकार्ड कहां से मिलते? मैं ने उन्हें पोस्टकार्ड्स तो दिखा दिए पर इस सब के लिए लिखना और पढ़ना भी तो जरूरी है.

बच्चे हंस रहे थे कि जो काम मैसेज या कौल से हो सकता है वह पत्र से क्यों? पर अब उन्हें आनंद आ रहा है. पत्र की भाषा मैं भी भूल रही हूं पर यत्नपूर्वक याद किया तो बचपन की स्मृतियां तैर गईं. मेरे सारे भाईबहन टैलीफोन पीढ़ी हैं, उन्होंने न कभी किसी को पत्र लिखा, न ही पढ़ा. मैं छुटपन में ननिहाल में रही जहां से मैं ने अपनी मां और मौसियों को खूब पत्र लिखे.

उस समय पत्र लिखना भी एक कला थी और यकीन मानिए, मैं ने इस में बहुत कम उम्र में निपुणता प्राप्त कर ली थी. हालांकि इस कार्य हेतु नियत एक कुशल व्यक्तित्व विद्यमान था जिन से हमारी कोई बराबरी नहीं थी. घर की दीवान-ए-इंशा हमारी मुरधर मौसी थी जिस के पास आसमानी रंग वाले खूब सारे अंतर्देशीय पत्र और सुंदरसुंदर पैन होते थे. किंतु मुझे उन्हें छूनेछेड़ने की इजाजत नहीं थी.

मेरे पिताजी जब भी असम से आते, मौसी के लिए चाइना पैन (एक महंगा पैन जिसे हम इसी नाम से जानते थे) लाते. यह पैन कमाल का होता था, एक बार दवात में मुंह डालता तो बकरी की तरह पूरा पेट भर कर ही बाहर निकलता. लिखते समय मजाल है कि स्याही का एक छींटा भी कहीं लग जाए? निप (निब) इतनी बारीक कि डोरे जैसे अक्षर छपते. जब उंगलियों के बीच फंसता तो शब्ददरशब्द ऐसा सरपट फिसलता कि हाथ को पता ही न चलता कि कब तीनचार पेज भर गए.

एक हमारा वक्त, मोटी निप वाला पैन जिस में स्याही डालनी हो तो पूरी दवात को उन्धाओ. पैन में चार बूंद और कपड़ों पर पूरी स्याही. नीचे कौपीकिताब होती तो वह भी हरहर गंगे! इस दौरान जुल्फें झूल रही हों और उन को चेहरे से हटाना हो तो चेहरा भी स्याह. लिखने बैठो तो निप दोफाड़. कुछ लिखने के बजाय कागज ही खुरच डालती. मगर पोस्टकार्ड इस लिहाज से ठीक था. चिकना व मोटा पुट्ठा जल्दी खुरचता नहीं और न ही दूसरी ओर छपता जैसा अकसर कौपियों में होता. एक तरफ का लेख दूसरी तरफ भी छप जाता. दूसरी तरफ लिखने पर राख-राबड़ी सब एक. इस के साथ टूटा हुआ निब वमन भी करता. इसलिए हर दूसरे पेज पर कोई न कोई स्याही-नक्शा बना ही रहता.

तब बौलपैन भी चलते थे पर वे भी अतिसार से त्रस्त रहते. लाल, नीले, काले, हरे धब्बेदार चेहरे उन दिनों हमारे लिए आम थे. कम से कम 5वीं कक्षा तक के बच्चे तो अपने होंठ रंगीन ही पाते काहे कि जब पैन चलता नहीं तो उसे मुंह में ले कर हवा खींचने का रिवाज था. इस से बीचबीच में बना गतिरोध टूट जाता है और स्याही निब की ओर खिंची चली आती है. यह नुस्खा काम तो करता पर इतना ज्यादा कर जाता कि जोरदार प्रैशर के साथ गुल्ली तो निकल जाती मगर पूरी स्याही मुंह में आ कर गोल मेज कर बैठती. हम कुल्ले थूकते, कभी लाल, कभी हरा, कभी नीला तो कभी काला. स्याही का रंग कुछ छूटता, कुछ रह जाता. खुशबूदार स्याही वाले पैन उन दिनों बड़े अच्छे लगते थे. लाइट वाले पैन भी याद हैं जिन से अंधेरे में भी लिखा जा सकता था पर यह काफी दिनों के बाद की बात है. पत्र लिखने वाले दिनों में ढंग का पैन शायद ही मिला हो.

मुझे अंतर्देशीय पत्र लिखने की अनुमति तभी मिलती जब मेरी पत्रलेखा मौसी घर में गैरहाजिर होती या वह स्वयं अनुमति देती. ऐसी स्थिति में मुझे एक गंभीर पत्रलेखन करना होता जिस की भाषा मेरी भाभू (नानी) की होती. ‘सिध सिरी जोग लिखी…’ और ‘अत्र कुशलम् तत्रास्तु…’ वाला पत्र तो मैं ने कभी नहीं लिखा पर तब भी कुछ विरुदावलीयुक्त वाक्य स्थायी होते थे जिन्हें हर पत्र के फौर्मेट में लिखना होता. आज भरसक प्रयत्न के बाद भी वह फौर्मेट याद न आया जो कभी मुंहजबानी याद था.

सब से पहले सब बड़ों को पांवां धोक और छोटों को प्रेम. फिर अपनी राजीखुशी (कुशलक्षेम) बतानी और अगले की पूछनी. सब से जरूरी ‘जमाना’ और ‘धीणा’. आप के वहां जमाना कैसा है और हमारे इधर जमाना ऐसा है. जमाने का अर्थ हुआ- मेह, पानी और खेतीबाड़ी. धीणे से आशय दुधारू पशुधन यानी कितनी गाय-भैंस दुहा रही हैं. ये दोनों दुरुस्त हैं तो आप समृद्ध हैं, मौज में हैं. दोनों में से एक ठीक हो तब भी बाबा भला करे. प्रत्येक वाक्य के अंत में ‘सा’ लिखना भी अनिवार्य था और शब्दावली लच्छेदार. जैसे, आप को हमारा पांव धोक अरज होवे सा. जब अंतर्देशीय लिखा जाता तो घर के एकएक बुजुर्ग को पूछा जाता कि आप को क्या सम्चार (समाचार) लिखवाना है. वे बताते- ‘आजकल पेट में आफरा रहता है, रोटी पचती नहीं, फलांने को पैसे उधार दिए थे, राख उड़े ने अब तक नहीं लौटाए. आंखों की कारी (औपरेशन) करवाने की सोच रहे हैं पर अभी ठंड (मौसम) नहीं हो रही, पड़ोस में पीहर आई फलांनी बाई का टाबर तीनचार दिनों से दूध नहीं चूंक रहा आदिआदि.’

अब यह लिखने वाले के विवेक पर निर्भर था कि वह इन समाचारों को कैसे लिखे. बड़ा और समझदार व्यक्ति इन्हें फिल्टर कर के तरीके से लिखता और मेरे जैसे लोग हूबहू.

कला पत्र लिखने की नई पीढ़ी हिंदी में पत्र लिखने लगी थी पर पुराने लोग अपनी बोली में लिखते. जैसे ढूंढाड के रिश्तेदार अपनी बोली में और उस का उत्तर मारवाड़ वाले अपनी बोली में देते. मेरे समय तक राजस्थानी भाषा गंवारपने का तमगा प्राप्त कर चुकी थी, इसलिए किसी को राजस्थानी में पत्र लिखते हुए न देखा, न ऐसा कोई पत्र पढ़ा. पत्र लिखना अपनेआप में बहुत बड़ी कला थी जिस पर हर किसी का अधिकार नहीं होता था. सधे शब्दों से कम जगह में अधिक से अधिक लिख देना कलाकारी थी.

सुंदर लिखावट भी बड़ा फैक्टर था. कई बार सामने वाले लोग पूछते थे- आप के पत्र की लिखावट बड़ी सुंदर थी सा, जिस ने देखा थुथकी डाली. जवाबी पत्र में लेखक का पूरा ब्योरा दिया जाता कि वह पढ़नेलिखने में कितना होशियार है.

मैं ने अधिसंख्य पोस्टकार्ड्स ही लिखे जिन में लिखने लायक सम्चार मेरे पास होते ही थे, फिर भी मुझे आंगन में बैठ कर मुनादी करनी ही होती थी कि फलांने को कागज लिख रही हूं, किसी को कुछ लिखवाना हो तो लिखवा दो. बड़े लोग चलतेफिरते एकदो वाक्य फेंक देते और मैं हाथोंहाथ झोल कर पत्र में चेप देती. मौसी पत्र लिखतीं तो बड़ी तहजीब से लिखतीं. आंगन में दरी बिछती. माचे पर दादोसा, पीढे पर दासा और घूंघट में भाभू अपूठी बैठ कर पत्र लिखवाते. मैं माचे पर बैठ कर पैर हिलाती जाती और कुछकुछ सम्चार याद दिलाती जाती. हालांकि उन्हें वैटेज कम ही मिलता मगर फूंदा बीचबीच में पूरा रंगती.

पत्र पूरा लिख चुकने के बाद मुझे सुपुर्द किया जाता तब पत्रों पर सूखा गोंद चिपका हुआ नहीं आता था और घर में गोंद रखते नहीं थे, ऐसे में आकड़े का दूध काम आता. बाड़ में कहीं भी आकड़ा उगा मिल जाता, कच्ची टहनी तोड़ो और उसे पत्र के किनारे से रगड़ कर चिपका दो. ऐसा चिपकता कि प्राप्तकर्ता को वह सिरा फाड़ना ही पड़ता, तब जा कर पत्र खुलता.

चिपकाने से ले कर पोस्टबौक्स में डालने तक का जिम्मा मेरा था. मैं जब भी उस लालकाले चिरमी जैसे डब्बे में पत्र डालती, अपना छोटा हाथ आगे ले जाती इस उम्मीद में कि कोई पोस्टकार्ड मेरे हाथ लगे और मैं उस में लिखे सारे सम्चार पढ़ लूं पर ऐसा कभी नहीं हो पाया. यह डब्बा सिर्फ निगलना जानता था, उगलना नहीं. डाकिया खुद ही खिड़की खोलता और पत्र निकाल कर फिर मोटा सा ताला जड़ देता.

डाकिया आया डाक लाया

खाकी कपड़े, खाकी गांधी टोपी और साइकिल की ट्रिनट्रिन करता डाकिया वैसे किताबी चित्रों और टीवी में ही देखा. हमारा डाकिया साधारण कपड़ों में, मोटे कपड़े का चेनदार थैला कंधे पर झलाते हुए आता था. उसे दूर गुवाड़ से आते देख कर मैं भांप लेती थी कि वह हमारे घर ही आएगा. बाहर के फाटक से ही पत्र लपकती, जोरजोर से प्रेषक का पता पढ़ती और सब के बीच बैठ कर बांचती.

जिन शब्दों का उच्चारण या आशय गलत बांचती तो बड़े लोग ठीक करते. पत्र में बहुत अच्छा सम्चार होता तो छोटीमोटी बधाई भी मिलती. फिर पत्र पढ़ने में भी एक प्रकार का रस था जिसे पढ़ने वाला ही जानता है.

ज्यों गूंगे मीठे फल को रस, अंतरगत ही भावै.

सुनने वाले भावविभोर हो कर सुनते. मेरी मां और बड़े मासीसा शादी के शुरुआती दिनों में जब अपने घर पत्र भेजते तो दादोसा डाकिए से उसे ले कर ऐसे दौड़ते मानो बूढ़े, पतले और कमजोर पांवों में सहसा पंख लग गए हों. कहते हैं- जब तक पत्र पढ़ा जाता, वे ?ार?ार रोते. मैं ने यह दृश्य कम देखा. हां, एक बार किसी इराक वाले (जीविका के लिए विदेश में रहने वाले) के कागज पढ़ने के दौरान उस की मां को रोते हुए देखा. उस ने लिखा था, दीवाली पर आप लोगों ने तो सब के साथ चावल-लापसी खाई होगी. यहां दूर देश में कैसी होली, कैसी दीवाली? मां, न मां का जाया, देश पराया.

कुछ लोग कैसेट भी भेजा करते थे क्योंकि पत्र में इतना कुछ लिखा नहीं जा सकता जितना एक घंटे की टेप में रिकौर्ड किया जा सकता था. गांव में दोचार ही टेप रिकौर्डर होते थे जो इराक वालों के घर में ही मिलते. इन्हें सुनने के लिए आसपड़ोस की भीड़ जुटती. कैसेट में उन सब का भी जिक्र होता.

मुझे याद है, हमारी जो सहेलियां स्कूल छोड़ कर चली जाती थीं वे भी पीछे पत्र लिखा करतीं. ये पत्र स्कूल और क्लास के पते पर आते. दूसरी कक्षाओं की लड़कियां वे पत्र औत्सुक्य से सुनतींपढ़तीं.

खास सहेलियों में ‘हमकौं लिख्यौ है कहा, हमकौं लिख्यौ है कहा’ वाली भागमभाग मचती. हर कोई सुनने को उत्सुक रहती कि पत्र में उन के लिए क्या लिखा गया है. पत्र में नाम आना प्रतिष्ठा का विषय था. ‘देखा, मैं उसे अब भी याद हूं.’ फिर वह पत्र मैडमें भी पढ़तीं और चारपांच सौ लड़कियों के स्कूल में मैडम अपना नाम बोले तो अहोभाग्य!

जब मैं ननिहाल छोड़ कर गांव में रहने लगी तो मैं ने भी कुछ दिन अपनी सहेलियों को पत्र लिखे. मैं ने कभी उन्हें अपने गांव का सही नाम नहीं बताया क्योंकि यह नाम जब भी कोई सुनता तो पहले ठहाका लगाता. कांकरा भी भला कोई नाम हुआ! मैं किसी को अपना गांव जोधपुर बताती तो किसी को जयपुर. मौज आई तो दिल्ली की फान्फ भी टेक देती. जब पत्र लिखने की बारी आई तो यह आठ दिक देने लगा. पत्र पर जयपुर, जोधपुर लिखती तो शायद डाकिया ही पढ़ कर वापस कर देता. इसलिए अपना पता ही न लिखती या तो गंतव्य तक पहुंच जाए या बीच में ही रुक जाए पर पत्र वापस न आए.

गांव के नाम के साथ ही सहेलियों के नाम भी इज्जत का सवाल बनते. छोटी, चिमनी, बिदामी जैसे नामों के बजाय प्रीति, कीर्ति, श्रुति जैसे नाम प्रभावशाली लगते. मैं जीभर कर इन पत्रों में गप हांकती. चूंकि यह गप किसी के आगे प्रकट नहीं की जा सकती थी, इसलिए पत्रलेखन के लिए नितांत एकांत ढूंढ़ा जाता. हालांकि उस समय बच्चों के लिए एकांत दूर की कौड़ी थी. एक पोस्टकार्ड कईकई दिनों में पूरा होता, तब तक उसे छिपा कर रखना भी कम जोखिम का काम न था. फिर किसी रोज चुपके से पोस्टबौक्स के हवाले करने के बाद मैं राहत की सांस लेती.

बचपन की अपनी दुनिया है, कितनी सारी विचित्रताएं. अच्छी शक्ल और बुरी शक्ल, बहुत पैसा-कम पैसा, ऊंची जात-नीची जात, बढि़या घर-घटिया घर, हलके नाम-भारी नाम जैसे पूर्वाग्रह उन्हीं दिनों में पलते हैं पर बच्चा यह सब अपने साथ तो नहीं लाता, बस, ठीक से बड़ों का निरीक्षण करता है और काफीकुछ समाज का अनुकरण भी. फिर जीवनभर उसे ही ढोता रहता है.

खैर, वे झठेसच्चे पत्र सहेलियों तक पहुंचते. वे भी मेरी तरह खुश होतीं और जवाबी पत्र लिखतीं. जब घर में मेरे लिए पत्र आते तो सब लोग खूब हंसते क्योंकि इस घर में कई वर्षों से टैलीफोन का उपयोग हो रहा था. पिताजी का बाकायदा औफिस था जिस में दिनभर फोन की घंटियां टनटनातीं. बच्चे फोन उठाने के लिए दौड़ते. कौन कैसे ‘हैलो’ बोलता है, इस पर रोस्ंिटग चलती. धीरेधीरे मैं भी इस एडवांस दुनिया का हिस्सा बन गई और आज उस पुरानी पत्रलेखन की दुनिया से इतनी दूर पहुंच गई कि प्रांशु को लिखवाते समय कितने ही वाक्य बारबार लिखनेमिटाने पड़े पर फिर भी वैसा पत्र न लिखवा पाई. एक वक्त था जब मु?ो कितने ही रिश्तेदारों के पते और पिनकोड उंगलियों पर याद हुआ करते थे मगर अब ‘ओ बख्त बेह गया!’

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