अब आज के जमाने में कोई यह कहे कि उस ने कभी कार नहीं देखी तो यही लगेगा कि क्या बेकार की बात कह रहा है. यदि यह कहे, कार देखी जरूर है पर कभी बैठ कर नहीं देखी तब साफ समझ में आ सकता है कि हां, सच है. गरीब आदमी कार में बैठ कैसे सकता है, जब तक कोई हारीबीमारी न हो.
निर्मला कभी रिकशे में भी नहीं बैठती क्योंकि सदा लगा कि फुजूलखर्ची करने का उसे क्या अधिकार. धूप हो या बरसात, वह सदा पैदल ही चलती रही. एकदो बार पहले कार में सवारी करने का मौका हुआ तो यों ही किसी नातेरिश्तेदार के साथ उन की गाड़ी में बैठी. सो मन सकुचाता रहा कि पता नहीं कार का दरवाजा कैसे बंद होता है और खिड़की का शीशा कैसे ऊपरनीचे सरकता है.
अपने बूते कार में बैठने का सपना यों देखा था कि ब्याह हो कर जब ससुराल जाना होगा तो फूलों से सजी मोटर में बैठने को मिलेगा ढोलक की थाप पर बन्नी गाती सुहागिनों के कोकिल कंठ से गान फूटते.
‘दो हंसों की मोटर दरवज्जे खड़ी रे,
आज मेरी बन्नो ससुराल चली रे.’
फिल्मी गीतों की पैरोडी बनाने में भाभी और चाची होशियार थीं. इन्हीं दिनों फिल्म ‘गंगाजमुना’ के गीत घरघर गूंजते थे, ‘दो हंसों का जोड़ा बिछड़ गयो रे, गजब भयो रामा जुलम भयो रे…’ उसी लोकप्रिय गीत की धुन पर यह ‘आज मेरी बन्नों…’ वाला गीत ढोलक पर बड़े ठसकेदार धौलधप्पे के साथ गाया जाता था.
आंखों ने सपना देखना शुरू कर दिया था कि राजकुमार सा वर मोटर में बैठा कर ससुराल ले जाएगा जहां गाड़ी पोर्च में रुकेगी. सामने बगीचा होगा. बगीचे में फौआरा लगा होगा. पोर्च की सीढि़यां चढ़ दुलहन ऊपर चढ़ेगी और सामने महारानी की तरह सास झक सफेद कीमती रेशमी साड़ी में ममता लुटाती खड़ी होगी, आरती का थाल लिए.
सपने पूरे हों तो सपनों का सपना ही कोई क्यों देखे. सच ही न कहलाए. सच यह था कि मायके और ससुराल में कुछ भेद न था. गरीबी का जो आलम वहां था सो यहां भी. वह तो रिकशे में बैठ कर जब विदा हुई तो कलेजा मुंह को आया. सब समझे कि यह पीहर की देहरी छूट जाने की रुलाई है. दरअसल, यह रुलाई थी इस बात की कि विदा के वक्त मोटर नहीं हासिल हुई, रिकशा ही नसीब हुआ.
तब उम्र भी क्या थी. महीनाभर पहले ही 14 बरस की पूरी हुई थी निर्मला. मातापिता सोचते कि लड़की सयानी होते ही अपने घरबार की हो जाए, वही ठीक. ब्याह कर के मातापिता कुछ अन्याय कर रहे हैं, ऐसा कोई नहीं सोचता था. न लड़की, न पड़ोसी, न नातेरिश्तेदार. शादी होनी ही है, लड़की को ससुराल जाना ही है, यही सब सोचते थे.
सच पूछिए तो निर्मला के दिल में खुशी थी कि अब पढ़ने से जान छूटेगी. गणित, विज्ञान और इंग्लिश ऐसे विषय थे जिन से उस का जी घबराता था. न खोपड़ी में कुछ दाखिल होता न इस के लिए कोई विशेष कोशिश ही की थी उस ने. प्रमेय, निर्मेय, बीजगणित के गुणखंड सब ऐसे राक्षस मालूम पड़ते थे कि जैसे प्राण ही चीर डालेंगे. स्कूल में मास्टरनी मारती और घर में पिताजी. रिजल्ट कार्ड पर लगे लाललाल गोलों ने ही उस का जी पढ़ाई से हटाया था. पिताजी को भी घरवर ढूंढ़ने की प्रेरणा इन्हीं गोलों से मिली.
वे समझ गए कि लड़की बड़ी हो रही है और उस का मन पढ़ने में नहीं लग रहा है. ब्याह हो जाने पर स्कूल जाने से जान छूटेगी, ऐसा मान लिया था. शेष समय तकिए और चादर काढ़ने में खर्च किया जाने लगा था. उस जमाने में गली में उस उम्र की सभी लड़कियां यही करती थीं.
अजब प्रतियोगिता थी. किस की लड़की कितनी सुघड़ है, इस का आकलन बड़ेबूढ़े हाथ की दस्तकारी देख कर करते थे. तकियों पर ज्यादा ‘स्वीट ड्रीम’ काढ़े जाते. गली में डिजाइन छापने वाली जो दुकान थी वह लड़की की उम्र और कपड़े को देख कर डिजाइन छापती. सारा कढ़ाईबुनाई का कार्यक्रम उसी के बूते पर चलता था. तकिए, मेजपोश व चादर के बाद दहेज की साडि़यों का नंबर आ जाता. फिर सीखने को और भी कई चीजें थीं. गुडि़या वाली टिकोजी, मोतियों का पर्स, सितारों का हाथ से झलने वाला पंखा, दीवारों पर लगाने को तसवीरें…कशीदा कर के या पेंटिग कर के.
उस घड़ी तो मन ऐसे पुलक आया कि इतने नएनए कपड़े, गहने, लिपस्टिक, नेलपौलिश… सब. ये सब चीजें तो मां खरीदने ही न देती थीं, कहतीं, ‘यह सब सिंगारपटार अपने घर जा कर करना.’ अब चूंकि निर्मला की जिंदगी में वह समय आ गया था जब लड़की अपने घर यानी ससुराल जाती है. मां ने बिन मांगे खुद अपनेआप से रिश्ते की एक भाभी को रुपए निकाल कर दिए कि नए फैशन की क्रीम, पाउडर ला देना. सुना है, 22 रुपए की ऐसी कोई क्रीम आती है जिसे लगा कर लड़की गोरी हो जाती है. निर्मला का रंग सांवला तो नहीं है पर थोड़ा दबता हुआ तो है.
मां को जो सांवला न लगता था वही ससुराल वालों को काला लगा. विदा हो कर ससुराल पहुंची तो कोई मुंहफट बोली, ‘‘बहू तो काली ले आई हो. एकदम…’’ फिर तो यों समझें कि ससुराल में किसी को उस का निर्मला नाम ही याद न रहा. वह सीधे कल्लो हो गई. सास भी मुंह टेढ़ा करती, ‘इस कल्लो के मिजाज बहुत ही टेढ़े हैं.’
14-15 की उम्र, कल्लोकल्लो सुन जी जल जाता पर करती क्या. दिनभर चौकाबरतन, घर का कामकाज और ताने यानी कहानी वही जो एक गरीब की जिंदगी में होती है. गहने जहां से आए वहीं गए. रेशमी कपड़े सहेज कर धरे गए. आनेजाने, नातेरिश्तेदारों, ब्याहबरात के समय काम आएंगे. तन पर वही और वैसे ही जैसों की वहां आदत थी. नए हों तो सस्ते, पुराने हों तो घिसे, बाहर के लायक न रहे तो घर में पहने जा रहे हैं.
काम करना निर्मला की आदत में आया तो मन मार कर जीना भी आदत बना. छोटी किशोरी से वह बच्चे की मां भी बनी. जोड़तोड़ कर खर्चे को आमदनी में शामिल करना और आड़े समय के लिए बचा कर रखना भी धीरेधीरे सीखा. जैसे सब होती हैं, निर्मला भी धीरेधीरे पूरी घरजोड़ू औरत हो गई. सुघड़, सयानी, समझदार गृहस्थिन.
जीवन के छोटेछोटे सुख और दुख. सास झगड़ ली तो दुखी हो गई. पति ने प्यार से दो मीठे बोल बोले तो खुश हो गई. होतेहोते जीवन में एक सहज गति रही धीमी, लेकिन निरंतर, जैसे कोई नदी की धारा हो. घरपरिवार के तटों के बीच बहती, निश्चिंत लेकिन बंधी हुई. तट तोड़े तो विभीषिका बने. विभीषिका तो नहीं बनी लेकिन जीवन में कुछ ऐसा भी न हुआ जो बहुत गौरव की बात हो.
यह एक साधारण नारी की साधारण जिंदगी थी. कभी मन करता कि ससुराल को छोड़ कर पीहर लौट जाऊं, फिर खयाल आता कि इस में मांबाप की बेइज्जती होगी. दोचार दिन मन उदास होता, फिर आंसुओं से धुलपुंछ कर सब निखर जाता. अपना घरपरिवार अच्छा लगता, पति पर गर्व होता.
कभी मन उदास होता तो जी कुढ़ता कि क्या जिंदगी है. 2 कमरों के मकान में किसी तरह घिचपिच कर सब लोग रहते हैं. न कभी मन का खाया न पिया, न कभी घूमने गए और न कभी कुछ नया खरीदा. इस आमदनी में खर्च बड़ी मुश्किल से समाते हैं और कुछ न कुछ तंगी हमेशा लगी रहती है.
जैसी सब की जिंदगी होती है वैसी ही जिंदगी निर्मला की भी थी. घरगृहस्थी के साथ जिम्मेदारियां भी बढ़ीं. और एक प्राइमरी स्कूल में अध्यापिका की नौकरी भी लगी. अब एक प्राइमरी स्कूल की अध्यापिका की गृहस्थी जिस में कि मातापिता, 3 बच्चे और खुद 2 जने यानी कुल मिला कर 7 लोगों की गृहस्थी थी उस की. ऐसे में जैसे चलनी चाहिए वैसी ही चलती रही.
वैसे तो हरेक जिंदगी की अपनी एक कहानी होती है पर कहानी तो वही होती है जो कहनेसुनने लायक हो, अन्यथा तो बीऊ हुए, बीवी हुई, बच्चे हुए और मर गए. इस के अलावा जिंदगी की कहानी क्या है? निर्मला की सीधीसादी जिंदगी में एक टर्निंग पौइंट आया.
हुआ यह कि निर्मला का एक देवर जो किसी कारखाने में मामूली तकनीशियन था और दूर शहर में रहता था, उस की शादी एक बहुत धनी परिवार में बहुत सुंदर लड़की से तय हो गई. शादी तय होते ही घर में तूफान आ गया. लड़की सुंदर थी, निर्मला से ज्यादा पढ़ीलिखी थी और उस के आने से पहले घर में उस के लिए जो तैयारियां शुरू हुईं उसे देख कर निर्मला के दिल में एक कसक उठी कि मेरे लिए तो ऐसा कुछ नहीं हुआ था.
छोटी बहू के लिए एक कमरा होना चाहिए. रहेगी तो यहां नहीं, लेकिन जितने दिन भी ससुराल में रहे, यह न लगे कि किन कंगालों के घर आ गई. आशा तो यह थी कि बड़े बाप की बेटी अपने साथ बहुतकुछ ले कर आएगी. यही सोच कर छत पर 2 कमरे बनवाए गए. रंगरोगन हुआ. इस में कुछ फंड से भी खर्च करना पड़ा और कुछ कर्ज भी लिया गया. यह सोच कर कि कुछ देवर मदद करेगा और शायद कुछ शादी में भी मिलेगा पर यह सब न हुआ. राजकुमारी सी बहू, बड़ी ही गोरी, सासससुर ने उसे पलकों पर बैठाया.
छोटी बहू के मातापिता ने बहुत दिया पर कर्ज पटाने के लिए न तो फर्नीचर काम आया न बरतन ही. बहू के भाई विदेश में रहते थे और अपनी बहन को उस के पति सहित विदेश ही बुला लिया. ब्याह हो कर बहू क्या आई, बेटा परदेस का हुआ. लड़की के मातापिता ने गरीब घर का हीरा लड़का शायद छांटा ही इसलिए था कि वह बिना चूंचपड़ किए बेटी के साथ विदेश में ही बसे. ‘अब तो खूब डौलर में खेलोगी’, आपस में पड़ोसिनें कहतीं तो सास खुशी से फूली न समाती. इस में निर्मला को तो कुछ करना न था. छोटी के पीहर से एक साड़ी, एक अंगूठी मिली पर बहू के महीनाभर रहने में जो खर्च हुआ उस का हिसाब निर्मला किस को बताती.
सास छोटी बहू के गुण गाते न थकती. बहू कितनी सुंदर है, कितनी गोरी है, बड़े बाप की बेटी है, कितनी पढ़ीलिखी है और दूसरी तरफ निर्मला है, कुछ न आता था. उसे सास ने ही पढ़ायालिखाया और नौकरी पर लगवाया. अब यह कोई नहीं कहता कि घर का कामकाज करते हुए, पति के लिए समय निकाल कर, बच्चों को पालते हुए, कैसे पढ़ीलिखी और नौकरी कर रही है.
यह सही है कि पढ़ाईलिखाई का खर्च तो उसे पीहर से ले कर न आना पड़ा था, अपने पति की कमाई से ही पढ़ाई की. यदि सास ठसक से कहती कि उन्होंने पढ़ायालिखाया तो आखिर कमाई तो उन के बेटे की ही थी. निर्मला दिनभर छोटी बहू की तारीफें सुनती. वह भी ऐसी बहू की जो सास के साथ रही ही नहीं.
छोटी बहू जितने दिन ससुराल में रही, मेहमान की तरह रही. चूंकि उसे पता था कि जाना है इसलिए सिवा मीठे बोल के उसे करना क्या था. इस महीनेभर के प्रवास में वह कभी फेरा डालने पीहर चली गई तो कभी हनीमून के लिए कुल्लूमनाली. बाकी दिन नातेरिश्तेदारों के यहां लंचडिनर और ऐसे ही निमंत्रण. इस में उसे फुरसत न थी और शायद जरूरत भी न थी.
निर्मला के जीवन में वह एक तूफान की तरह थी जिस ने उस के सारे गुण तिनकेतिनके कर उड़ा दिए थे. निर्मला मुश्किल से दालरोटी बना पाती और छोटी बहू चाइनीज खाना, केक बना लेती है, कई तरह का सलाद बनाना जानती है. कौन्टिनैंटल व्यंजन के नाम भी निर्मला ने छोटी बहू के मुंह से ही सुने. जेब में पैसा हो तो आदमी क्याकुछ नहीं कर सकता.
आज छोटी बहू केक बना कर खिलाएगी. उस ने बनाया पर सामान तो बड़ी बहू को ही मंगाना पड़ा. नईनवेली बहू थोड़े ही पैसे निकाल कर देगी. खर्च बड़ी बहू का तारीफ छोटी बहू की. एक दिन छोटी बहू से खाना बनाने की बात चली तो उस ने फौरन सब को ले कर सिनेमा जाने की बात कह दी तो सुनने को मिला, ‘बड़ी तो कभी सिनेमा दिखाने नहीं ले गई पर छोटी ने जिद कर के सिनेमा दिखाया.’ सच तो यह है कि सारा परिवार एकसाथ सिनेमा देखने गया तो खर्च सारा बड़ी बहू का हुआ.
छोटी बहू की तारीफ के बीच जब निर्मला ने हिसाब बताया तो सास को अच्छा नहीं लगा, ‘महीनाभर अगर मेरी बेटी और बहू घर में रहे तो उस का हिसाब सुनाती हो.’ सास नाराज हो गईं. निर्मला के मन में एक कसक सी उठती कि मूर्ख तो मैं ही हूं कि अपनी हैसियत से बढ़ कर खर्च करती हूं. फिर भी जाते समय उन को कुछ न कुछ साड़ीगहने दिए जो उन्होंने अपनी बेटी को दिए हैं.
गुजरते समय के साथ छोटी बहू कभी विदेश से आई तो उस की आवभगत में निर्मला ने कोई कमी नहीं आने दी. लेकिन छोटी ने मकान में जब हिस्से की बात कही तो निर्मला अवाक रह गई. ‘‘अब वह भी अगर हिसाब लगाए कि मिनरल वाटर की बोतलें कितने की आईं, ‘जो बच्चे पैदा ही विदेश में हुए उन्हें इंडिया तो दिखाना ही था. बच्चों को कभी आगरा, कभी जयपुर, कभी दिल्ली, कभी मुंबई घूमने जाने में क्या पैसे खर्च नहीं होते. कभी मुंह खोल कर छोटी ने मन रखने के लिए भी यों न कहा कि चलो सोनू, मोनू, गुडि़या तुम्हें भी अमेरिका दिखा लाएं. अगर अमेरिका में पैदा हुए बच्चों ने इंडिया नहीं देखा तो इंडिया में पैदा हुओं को ही कौन सा देखने को मिला है? जितनी है उतनी तनख्वाह में तो जरूरी खर्च भी खींचतान कर समाते हैं. देवरजी होंगे अमीर, कमाते होंगे डौलर पर घर तो कभी पैसा भेजा नहीं. अरे, हमें न सही अपने बूढ़े मातापिता को ही भेज देते.
छोटी बहू के गुण गाने का इस के अलावा भी बड़ा कारण यह बना कि छोटे ने मातापिता को विलायत की सैर करा दी. बूढ़े मातापिता पहली बार हवाई जहाज में बैठे और लगभग 3 महीने विलायत में रह आए. सारा खर्च उन के होनहार सपूत ने किया. वीजा, पासपोर्ट के सिलसिले में दिल्ली के कितने ही चक्कर बड़े बेटे ने लगाए. वह सब तो बट्टेखाते में गया. साथ में जो ले जाना है उस की तैयारी भी महीनों चली. चीजें तो छोटीछोटी हैं पर इस इंडिया में भी तो कुछ मुफ्त नहीं आता.
अब मांबाप जा रहे हैं तो बेटाबहू के लिए, पोतीपोतों के लिए कुछ न कुछ तो ले ही जाएंगे. अब कोई हवाई जहाज में गठरी ले कर तो नहीं जा सकता. बढि़या किस्म की अटैची, बहू के लिए साड़ीगहने नहीं तो 10 किलो शुद्ध देसी घी तो चाहिए. सो जो सामान भेजा जा सकता था उस की सूची बनी. अचार, पापड़, मुरब्बे, बडि़यां और ऐसी ही कई चीजें तैयार करने में निर्मला के हाथों ने काम किया. फिर भी चलते समय सास ने पूछा, ‘बड़ी, तुम कुछ नहीं भेजोगी.’ तब बढ़ कर निर्मला ने जवाब दिया था, ‘हम पर कहां पैसे धरे हैं.’ बहुत दिन इस का गाना गाया जाता रहा कि बड़ी बहू इतनी कंजूस है कि बालकों के लिए दो पैसे की चीज भी नहीं भेजी.
इस के बाद निर्मला ने कभी न कुछ भेजा और न इस बारे में कुछ कहासुना.
जिंदगी तो अपनी गति से चलती है, ऐसी ही चली. वे जो बहुत रईस थे, जो हजारों मील दूर थे पर उन की कमाई का एक हिस्सा इस घर में तो न लगा और न उन्होंने किसी की मदद की. निर्मला का सारा जीवन उन की ही यश गाथा सुनते बीता.
निर्मला सोचती कि उस के हिस्से क्या पड़ा, काम ही काम, खर्चा और निरंतर छोटी बहू से अपनी तुलना, जिस में हमेशा छोटी का ही पलड़ा भारी पड़ता. सास छोटी बहू की तो तारीफों के पुल बांधती और निर्मला को चार बातें ही सुननी पड़तीं, काली कल्लो को तो कुछ आताजाता नहीं, मांबाप के घर से कुछ लाई नहीं. उस पर छोटी को देख कर जलती रहती है. दूसरी तरफ छोटी है कितनी सुंदर, कितनी गोरी, कितनी धनी और कितने मीठे बोल बोलने वाली. विलायत में रहती है पर जरा भी अहंकार नहीं.’
छोटी बहू की प्रशंसा सुन कर तो निर्मला को इतना बुरा न लगता जितना उस से अपनी तुलना सुन कर लगता. सुबह से शाम तक खटती रहती है निर्मला. छोटी बहू की तरह चहकती तो नहीं रहती. अरे, काम करे, घर को संभाले, स्कूल जाए, तब पता चले कि छोटी कितनी लायक है. मेहमान की तरह आती है, रहती है और चली जाती है.
गोरी चाची के आसपास बच्चे मंडराते तो फटकार भी पड़ती, ‘15 दिनों बाद परीक्षा है, चलो, पढ़ो.’
निर्मला सब सुनती. मन में कसक सी होती. चाहे कितना ही शांत करने की कोशिश करो, मन में कसक हो तो चेहरे पर खुशी आ ही नहीं सकती. कैसे भी बीते समय तो बीतता ही है. अब निर्मला भी अधेड़ हो गई. बच्चे पढ़नेलिखने में अच्छे निकले. मन में तो था कि अगर देवरजी मदद कर दें तो उस का भी एक लड़का विदेश में कहीं कमाने लगे और घर का दलिद्दर धुल जाए. पिछली बार कहा भी था, ‘बाबू, सोनू को भी वहीं कहीं नौकरी पर लगवा दो.’
‘किस कक्षा में पढ़ रहे हो?’
‘एम ए में.’
‘एम ए किस विषय से कर रहे हो?’
‘संस्कृत से.’
संस्कृत सुनते ही करंट सा लगा हो जैसे, उछल कर देवरजी बोले, ‘कुछ कंप्यूटर वगैरह नहीं सीखा, संस्कृत का क्या स्कोप है. आजकल संस्कृत पढ़ता कौन है.’ इस के बाद भाषण झाड़ेगा कि पढ़ेलिखे मातापिता हैं और यही पता नहीं कि पढ़ना क्या चाहिए. मतलब यह कि साफ हाथ झाड़ लिए. बेचारे बच्चे का मुंह जरा सा रह गया.
छोटे को विदेश में रहते अब 25 बरस हो गए हैं. इस अरसे में वे गिन कर 6-7 बार भारत आए होंगे. आए तो ज्यादातर अपनी ससुराल में रहे. सही भी है, जब इतनी दूर विदेश में रहते हैं तो कोई भी लड़की पीहर में रहेगी कि ससुराल में? जब भी छोटी बहू विदेश से आई तो ससुराल 2-4 दिन के लिए ही आई. मेहमान की तरह आई, मेहमान की तरह रही. खूब खातिरदारी हुई. निर्मला के लिए साड़ी, बच्चों के लिए कपड़े, छोटामोटा कोई बिजली का सामान लाए. कुल मिला कर गिफ्ट लाए तो गिफ्ट ले भी गए. अदले का बदला तो करना ही पड़ता है.
यहां संस्कृत की पढ़ाई में अपना जीवन बरबाद करने वाला उन का बेटा अब डिग्री कालेज में पढ़ाता है. बहू भी डिग्री कालेज में पढ़ाती है. छोटा बेटा बैंक में अधिकारी है. बेटी अपने घरबार की हुई. इस बार पहली बार निर्मला अपनी खुद की कार में बैठ कर पोते का मुंडन कराने हरिद्वार स्थित गंगा किनारे जा रही है. संग में पूरा परिवार है.
पहली बार निर्मला कार में बैठी है क्योंकि उस की अपनी कार है और हवा के झोंकों के साथ उसे बचपन में पड़ी एक कविता याद आ रही है, ‘छोटी सी मोटर मंगवा दो, हवा चमन की खाने को…’ निर्मला के झुरियोंभरे सांवले चेहरे पर सुखशांति की अपूर्व छाप है. अपना देश भी बहुत अच्छा है.