Health Update : मौडर्न मैडिकल साइंस के विकसित होने से पहले लोग मामूली बीमारी होने से भी मर जाते थे. प्लेग, हैजा, तपेदिक या बुखार से लाखों लोग मरे. मिर्गी, मलेरिया और डेंगू जैसी बीमारियों का इलाज नहीं था तब. इन के इलाज के नाम पर समाज में तरहतरह के टोटके प्रचलित थे. ये टोटके धर्म और अंधविश्वास की देन थे. लोग किसी भी अनहोनी को भगवान की करनी कहते थे. आज भी ऐसा कहने वाले लोग खूब हैं लेकिन वे भी इसे मानते नहीं. बावजूद इस के, भारत स्वास्थ्य के मामले में फिसड्डी है, आखिर क्यों?

तकरीबन डेढ़ सौ करोड़ की आबादी वाले हमारे देश की बुनियादी स्वास्थ्य सेवाएं बदतर हैं. सरकारी हौस्पिटलों में बेड नहीं हैं, एंबुलैंस नहीं हैं, पर्याप्त डाक्टर नहीं हैं. औक्सीजन की कमी से बीमार दुनिया से कूच कर जाते हैं. सरकारी हौस्पिटलों के ओपीडी में लंबीलंबी कतारें लगती हैं. औपरेशन के लिए लोगों को महीनों इंतजार करना पड़ता है.

देश की 90 प्रतिशत गरीब आबादी सरकारी अस्पतालों में इलाज के लिए जूझती है. लंबी लाइनों में धक्के खाती है और वक्त पर सही ट्रीटमैंट न मिलने की वजह से अपनों को खो देती है लेकिन सरकारों से सवाल नहीं करती. जनता की इसी उदासीनता की वजह से स्वास्थ्य जैसी बुनियादी बातें कभी चुनावी मुद्दा नहीं बन पातीं.

देश का अमीर वर्ग, धार्मिक गुरु और राजनेता देश की बुनियादी समस्याओं पर कभी भी बात नहीं करते क्योंकि उन्हें यह सब झेलना नहीं पड़ता. इन बड़े लोगों ने सरकारी अस्पताल का ओपीडी तक कभी नहीं देखा होता. ये खाएपिए व अघाए लोग मैडिकल इमरजैंसी होने पर बड़े सरकारी अस्पतालों में वीआईपी ट्रीटमैंट की सुविधा का भरपूर फायदा उठाते हैं और जनता से टैक्स के नाम पर वसूले गए पैसों से प्रदान की जा रही सरकारी सेवाओं का फायदा उठाने के बाद बड़ी बेशर्मी से मैडिकल साइंस के खिलाफ बोलते नजर आते हैं.

राजनेता और धर्मगुरु अगर सरकारी अस्पतालों में ठीक न हुए तो महंगे प्राइवेट हौस्पिटल तो हैं ही. वहां भी संतुष्टि न मिली तो इन वीआईपी लोगों के लिए विदेश तक के रास्ते खुले होते हैं. ऐसे में ये सक्षम लोग गरीबों के लिए अच्छी स्वास्थ्य सुविधाओं की फिक्र भी भला क्यों करें. धार्मिक गुरुओं की तो बात ही निराली है. ये लोग दिनरात धर्म का चूरन बेचते हैं. धर्म के नाम पर नफरत फैलाते हैं. मैडिकल साइंस को गरियाते हैं और जब खुद बीमार पड़ते हैं तो बेशर्मी की हदें पार कर मैडिकल साइंस का सहारा लेते हैं.

धर्मगुरुओं को मैडिकल साइंस का सहारा क्यों

आध्यात्म के सहारे भारत को विश्वगुरु बनाने वाले सद्गुरु उर्फ जग्गी वासुदेव पिछले वर्ष बीमार पड़े. इलाज के लिए उन्हें दिल्ली के इंद्रप्रस्थ अपोलो हौस्पिटल में भरती कराया गया. सिटी स्कैन, एमआरआई और तमाम तरह के दूसरे मैडिकल एक्जामिनेशनों से पता चला कि सद्गुरु के दिमाग में अंदरूनी ब्लीडिंग होने लगी थी. डाक्टरों की एक टीम ने उन का इलाज किया और वे खतरे से बाहर निकल आए.

सवाल यह है कि धर्म की पुरानी बातों को सूडो साइंस के नए फ्लेवर में परोस कर पढ़ेलिखे वर्ग को बेवकूफ बनाने वाले जग्गी महाराज को हौस्पिटल में भरती होने की जरूरत क्यों पड़ गई. सीटी स्कैन, एमआरआई जैसी चीजें तो पश्चिमी वैज्ञानिकों की देन हैं. जग्गी महाराज जिस आध्यात्म को भारत की हर समस्या का हल बताते फिरते हैं क्या उस में इतनी ताकत नहीं थी कि जिस से वे खुद की बीमारी को पहले ही पहचान सकते और उस का इलाज ढूंढ़ सकते.

पतंजलि कंपनी के मालिकों में से एक बालकृष्ण की तबीयत खराब हुई. 23 अगस्त, 2019 को आननफानन उन्हें पतंजलि योगपीठ के नजदीक के एक अस्पताल ले जाया गया. स्थिति इतनी खराब थी कि वे सही से बोल भी नहीं पा रहे थे. ट्रीटमैंट चला. कई मैडिकल टैस्ट हुए और आखिरकार उन्हें एम्स रैफर किया गया. उस दौरान बालकृष्ण और रामदेव की आयुर्वेदिक दवाएं फेल हो गईं. मैडिकल साइंस और एलोपैथी की मेहरबानी से बालकृष्ण ठीक हुए और ठीक होने के बाद दोनों पार्टनर मिल कर जनता को समझते रहे कि मैडिकल साइंस और एलोपैथी अंगरेजों की वाहियात देन हैं. सारा इलाज तो आयुर्वेद और पतंजलि की दवाओं में है.

राजीव दीक्षित अपनी पूरी जिंदगी मैडिकल साइंस को नीचा दिखाते रहे. एक दिन अचानक दिल का दौरा पड़ने से बाथरूम में गिरे तो उन्हें बीएसआर अपोलो अस्पताल में एडमिट कराया गया. डा. दिलीप रत्नानी की टीम ने उन का इलाज किया लेकिन वे बच न सके और 30 नवंबर, 2010 को हौस्पिटल में इलाज के दौरान उन की मौत हो गई.

बड़ेबड़े मुल्ला, उलेमा और मुफ्ती जो अपने भक्तों को समझते हैं कि अल्लाह की मरजी के बिना पत्ता भी नहीं हिलता लेकिन जब खुद बीमार पड़ते हैं तब सीधे हौस्पिटल की ओर भागते हैं और मैडिकल साइंस की बदौलत ठीक हो कर तथाकथित ऊपर वाले का शुक्रिया अदा करते हैं.

राजनेताओं का भी यही हाल

2018 के मार्च से जून के बीच गोवा के पूर्व मुख्यमंत्री मनोहर पर्रिकर का अमेरिका के न्यूयौर्क में पैनक्रियाटिक कैंसर का इलाज हुआ. इलाज के बाद वे भारत लौटे. सितंबर में उन की तबीयत फिर खराब हुई. उन्हें दिल्ली के एम्स में भरती कराया गया. लंबे इलाज के बाद 17 मार्च, 2019 को पणजी में उन की मृत्यु हो गई. मनोहर पर्रिकर उत्तर प्रदेश से राज्यसभा के सांसद रहे. 3 बार गोवा के मुख्यमंत्री रहे. भारत के रक्षामंत्री भी रहे. राजनीति में इतने लंबे वक्त की सक्रियता और सांसद से रक्षामंत्री व मुख्यमंत्री के पद तक पहुंचने के दौरान मनोहर पर्रिकर ने कितनी बार आम जनता के स्वास्थ्य की बात की होगी, यह तो पता नहीं लेकिन जब खुद बीमार पड़े तो दिल्ली के एम्स जैसे सरकारी संस्थान में एडमिट हुए और टैक्स के नाम पर जनता से वसूले गए पैसों से उन का इलाज हुआ.

6 अगस्त, 2019 को सुषमा स्वराज को दिल का दौरा पड़ा. उन्हें दिल्ली के एम्स ले जाया गया, जहां कार्डियक अरैस्ट से उन की मृत्यु हो गई. अरुण जेटली का इलाज भी एम्स जैसे बड़े सरकारी संस्थानों में आम जनता के टैक्स के पैसों से हुआ. यहां सवाल यह है कि अरुण जेटली और सुषमा ने अपने पूरे राजनीतिक कैरियर के दौरान कितनी बार हौस्पिटल जैसे मुद्दों पर बात की?

1988 में जब राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे, अटल बिहारी वाजपेयी को किडनी से संबंधित गहरी स्वास्थ्य समस्या हो गई थी. राजीव गांधी ने संयुक्त राष्ट्र संघ के एक आधिकारिक प्रतिनिधिमंडल में शामिल कर उन्हें न्यूयौर्क भिजवा दिया जहां टैक्सपेयर के पैसों से उन का इलाज हुआ, राममंदिर की चलती मुहिम उन के कोई काम में न आई. ऐसे राजनेताओं को वोट देने वाली जनता मामूली बीमारियों से जूझती रह जाती है लेकिन इन नेताओं से सवाल नहीं करती.

ईश्वर के सिस्टम को मैडिकल साइंस की चुनौती

100 साल पहले तक मामूली बीमारियां होने से भी लोग मर जाते थे. प्लेग और अकाल में लाखों लोग मरते थे. तपेदिक, मिर्गी, मलेरिया और डेंगू जैसी बीमारियों का इलाज न था. इलाज के नाम पर समाज में तरहतरह के टोटके प्रचलित थे. पिछले 100 साल में मैडिकल साइंस ने तमाम बीमारियों का इलाज ढूंढ़ निकाला है जिस की बदौलत ही आज बड़ीबड़ी बीमारियों का इलाज भी मुमकिन हो पा रहा है. चमत्कारों की कहानियों पर टिके धर्म व मजहब आज मैडिकल साइंस के आगे लाचार दिखाई देते हैं. आज भी भारत की स्वास्थ्य सेवाएं आम लोगों को बहला कर पूजापाठ, पाखंड की ओर ले जाती हैं.

आम जनता को दिनरात धर्म के चमत्कारों के किस्सों में बहकाए रखने वाले बड़ेबड़े उलेमा, महात्मा और संत बीमार होने पर मजहब के चमत्कारों पर भरोसा नहीं करते बल्कि ऐसे तमाम ढपोरशंखी मुश्किल वक्त में मैडिकल साइंस का ही सहारा लेते हैं. हर साल कुदरती आफतों में सैकड़ों लोग मरते हैं, हजारों लोग घायल होते हैं जिन का इलाज मैडिकल साइंस की बदौलत होता है.

कितने ही जन्मों के पापों से मुक्ति दिलाने वाले कुंभ के महा मेले में किसी को भी वास्तव में गंगा के पानी पर भरोसा नहीं था. तभी सरकार ने पहले से 100 बैड्स का एक केंद्रीय अस्पताल और 25 व 20 बैड्स के कितने ही अस्पताल बनाए थे जहां वैज्ञानिक शिक्षाप्राप्त डाक्टर थे, जटाधारी स्वामी और हवन करने वाले पंडे नहीं थे. हवन सामग्रियों की जगह इन अस्पतालों में एक्सरे, अल्ट्रासाउंड, ईसीजी, पैथोलौजी लैब्स, हार्ट स्पैशलिस्ट, गायनकोलौजिस्ट, और्थोपिडीशियन रखे गए थे. प्रबंधकों को मालूम था कि गंगा मैया की जय कहने से कोई ठीक नहीं होने वाला.

पैदाइशी रूप से कई बच्चे दिल और गुरदे की बीमारियों से ग्रसित होते हैं. उन के इलाज के लिए उन के परिवार के लोग दरदर भटकते हैं. धर्मगुरु कहते फिरते हैं कि ईश्वर के सिस्टम में कोई कमी नहीं. अगर ऐसा है तो जो लोग पैदाइशी तौर पर अंधे, गूंगे, बहरे या पोलियोग्रस्त होते हैं उस में किस की गलती है. क्या यह ईश्वर के सिस्टम की नाकामी नहीं है?

पैदाइशी तौर पर सिर से जुड़े बच्चों का गुनाहगार कौन है? यह कैसा ईश्वरीय सिस्टम है जिस में बच्चों को जन्म के साथ ही दर्दनाक जिंदगी हासिल होती है? बच्चों के साथ ही बच्चों के मांबाप को भी जो वेदनाएं झेलनी पड़ती हैं, क्या ईश्वर (यदि है तो) इस दर्द का अंदाजा भी लगा सकता है?

आइए अब कुछ ऐसे मामलों पर नजर डालते हैं जिन से ईश्वर के तथाकथित सिस्टम की सारी पोलपट्टी खुल जाती है, साथ ही, इन घटनाओं से हमें यह भी पता चलता है कि इंसानों का बनाया हुआ सिस्टम तथाकथित ईश्वरीय सिस्टम से कहीं ज्यादा बेहतर है. हाल के वर्षों में मैडिकल साइंस ने ऐसे कई कीर्तिमान स्थापित किए हैं जिन में ईश्वर की बिगाड़ी गई तकदीर को मैडिकल साइंस ने ठीक कर दिया.

सिर से जुड़ी 2 बहनों का सफल औपरेशन

पहली घटना उन 2 मासूम बच्चियों की है जिन की उम्र 1 साल थी. ये बच्चियां जन्म से ही आपस मे जुड़ी हुई थीं. इसराइल के सोरोका मैडिकल कालेज में सिर से जुड़ीं इन दोनों बहनों को उन के जन्म के 1 साल बाद सफल औपरेशन के जरिए अलग किया गया. डाक्टरों के मुताबिक, इन बच्चियों को अलग करने की सर्जरी काफी मुश्किल थी. दुनिया में ऐसी महज 20 सर्जरियां ही हुई हैं और इसराइल में इस तरह की यह पहली सर्जरी थी.

सोरोका अस्पताल के चीफ पीडियाट्रिक न्यूरोसर्जन डा. मिकी गिडोन कहते हैं कि यह सर्जरी इतनी जटिल और कठिन थी कि इस की तैयारी में ही कई महीने लग गए. सब से पहले इन बच्चियों का एक थ्रीडी वर्चुअल रिऐलिटी मौडल बनाया गया, ताकि डाक्टरों को औपरेशन की पेचीदगियां सम?ाने में आसानी हो. इस के बाद इन बच्चियों के सिर में फुलाए जा सकने वाले सिलिकौन बैग डाले गए और उन्हें कई महीनों तक धीरेधीरे फुलाया गया ताकि उन की स्किन फैल जाए.

औपरेशन के दौरान दोनों बच्चियों की खोपड़ी को भी नए सिरे से बनाया गया. दोनों बच्चों में गले को दिमाग से जोड़ने वाली खून की एक ही मुख्य नली होने की वजह से यह सर्जरी काफी जोखिम भरी थी. 2 अलगअलग दिमाग एक ही मुख्य नली से जुड़े हुए थे, जरा सी गलती से बच्चियों की जान जा सकती थी. आखिरकार औपरेशन सफल रहा और इस वक्त दोनों बच्चियां सामान्य जिंदगी की ओर लौट रही हैं.

मिली घुटनभरी जिंदगी से राहत

2017 में ऐसा ही एक जटिल औपरेशन भारत में भी हुआ और यह औपरेशन भी सफल रहा. यह औपरेशन दिल्ली के एम्स में हुआ. ओडिशा के जग्गा और कालिया, जो सिर से जुड़े हुए थे, दोनों बच्चों को अलग करने के लिए एम्स के डाक्टरों ने जो औपरेशन किया वह इतना मुश्किल था कि यह कारनामा रिकौर्ड बुक औफ लिम्का में दर्ज हो गया. इस कमाल के औपरेशन में देशविदेश के 125 डाक्टर शामिल हुए थे. 125 डाक्टरों की टीम के प्रमुख न्यूरोसर्जन प्रोफैसर अशोक कुमार महापात्रा और डा. दीपक कुमार गुप्ता ने इस औपरेशन को 2 हिस्सों में पूरा किया. पहला औपरेशन 28 अगस्त, 2017 को और दूसरा औपरेशन 25 अक्तूबर, 2019 को हुआ था जब पहला औपरेशन हुआ था, उस समय बच्चों की उम्र 28 महीने थी.

प्रो. महापात्रा ने बताया, ‘‘यह हमारे लिए बड़ी चुनौती थी, सिर से जुड़े बच्चों का भारत में यह पहला औपरेशन था, जिस में हमें सफलता मिली है. इस सर्जरी की बड़ी विशेषता यह भी थी कि इस में एम्स की वेन बैंक से नस ले कर कालिया के सिर में लगाई गई थी, क्योंकि दोनों बच्चों के सिर में एक ही प्रमुख नस थी.’’

यह वेन ग्राफ्टिंग का दुनिया का पहला औपरेशन था. इस औपरेशन की सफलता के लिए न्यूयौर्क के अल्बर्ट आइंस्टीन कालेज औफ मैडिसिन में पीडियाट्रिक न्यूरोसर्जन प्रो. जेम्स टी गुडरिच की सलाह ली गई थी, जो पहले ही ऐसे 2 औपरेशन कर चुके थे. प्रोफैसर जेम्स की देखरेख में इस औपरेशन को अंजाम देने से पहले 3 बार डमी औपरेशन किए गए थे. कालिया और जग्गा इलाज के लिए लगभग 2 सालों तक दिल्ली के एम्स में ही रहे और मैडिकल साइंस की बदौलत ही इस वक्त दोनों बिलकुल स्वस्थ जीवन जी रहे हैं.

ब्राजील में भी ऐसा कुछ

ब्राजील में ऐसा ही एक औपरेशन अभी हाल ही में हुआ है. सिर से जुड़े भाइयों बर्नाडो और आर्थर लीमा को सर्जरी के जरिए अलग किया गया. जन्म के 3 साल बाद कई देशों के नामचीन डाक्टरों ने मिल कर इस जटिल सर्जरी को अंजाम दिया और बच्चों को एकदूसरे से अलग करने में कामयाबी हासिल की. 3 साल के बर्नाडो और आर्थर लीमा की 7 सर्जरियां की गईं. ये सभी सर्जरीयां रियो डी जेनेरियो में अंजाम दी गईं. इस के बाद की देखरेख का सारा जिम्मा ग्रेट औरमंड स्ट्रीट अस्पताल के बाल रोग सर्जन डाक्टर नूरुल जिलानी ने किया. जिलानी ने ही इस सर्जरी के लिए फंडिंग भी की. एकसाथ कई देशों के सर्जन्स ने मिल कर इस जटिल प्रक्रिया को अंजाम दिया. डाक्टर जिलानी के मुताबिक, दुनिया में पहली बार अलगअलग देशों के सर्जन्स ने मिल कर एकसाथ एक ही वर्चुअल रिऐलिटी रूम में इस औपरेशन को अंजाम दिया.

औपरेशन सफल रहा और इस वक्त दोनों बच्चे सामान्य जिंदगी की ओर तेजी से लौट रहे हैं. इस औपरेशन की कामयाबी के बाद डाक्टरों के साथ ही बच्चों के मांबाप के चेहरों पर जो खुशी नजर आई उस की कोई मिसाल नहीं. साइंस ने बच्चों के होंठों की वह मुस्कान लौटा दी थी जिसे ईश्वर ने छीन लिया था.

दोनों हाथों का ट्रांसप्लांट

अमेरिका के वाल्टमर में रहने वाले 11 साल के जियान को 2 वर्ष की उम्र में सेप्सिस की बीमारी हो गई थी जिस कारण जियान के दोनों हाथ काटने पड़े थे. जियान दुनिया का पहला इंसान है जिस के दोनों हाथों का सफलतापूर्वक ट्रांसप्लांट किया गया है. जुलाई 2015 में 8 साल के जियान का ट्रांसप्लांट किया गया था. इस बात को अब 10 साल हो चुके हैं और जियान के दोनों हाथ बिलकुल स्वस्थ हैं.

धड़कते 2 दिलों का औपरेशन

केरल के एक शख्स के सीने में धड़क रहे थे 2 दिल और इन 2 दिलों में से एक महिला का था. केरल का यह शख्स देश में अकेला ऐसा इंसान है जिस के सीने में 2 धड़कते दिल हैं. खास बात यह है कि इन 2 दिलों में 1 महिला का है. हार्ट फेल होने के बाद इन का दुर्लभ हार्ट ट्रांसप्लांट किया गया, जिस के तहत पुराने दिल को नए से रिप्लेस नहीं किया गया बल्कि दोनों दिलों को जोड़ दिया गया, ताकि दोनों लोड को शेयर कर सकें.

बेंगलुरु में ब्रेन का अनोखा औपरेशन

बेंगलुरु में एक हौस्पिटल के औपरेशन थिएटर में एक पेशेंट की ब्रेन सर्जरी बड़े अनोखे अंदाज में हुई. यों तो औपरेशन थिएटर जैसी जगह में किसी भी तरह के शोरशराबे की मनाही होती है लेकिन यहां इस पेशेंट का इलाज ही तब हुआ जब उस ने गिटार बजाया.

इस अनोखे पेशेंट का नाम अभिषेक प्रसाद है और गिटार बजाना अभिषेक की रोजीरोटी का एकमात्र जरिया था. अचानक उसे गिटार बजाने में दिक्कत शुरू होने लगी. अभिषेक का इलाज बेंगलुरु के भगवान महावीर जैन हौस्पिटल में शुरू हुआ. भारत में अपनी तरह के इस अनोखे औपरेशन में अभिषेक को बेहोश नहीं किया गया था और वह पूरे समय गिटार बजाता रहा, क्योंकि यह प्रौब्लम उसी वक्त होती थी जब वह गिटार बजाता था.

औपरेशन के वक्त डाक्टरों के लिए अभिषेक की प्रतिक्रिया जरूरी थी. बिहार के रहने वाले अभिषेक का औपरेशन सफल रहा और अब वह पहले की तरह गिटार बजा सकता है. विडंबना यह है कि अस्पताल का नाम महावीर जैन पर है जिन की पूजा करने से यह रोग कभी ठीक नहीं होता.

इथोपिया पेशेंट का औपरेशन

इथोपिया की एक महिला सेफिनेश वोल्डे, जो सिरदर्द से बहुत परेशान थी, को एक आंख से दिखना बंद हो गया था. वह अपने सिरदर्द के इलाज के लिए दिल्ली पहुंची. डाक्टरों ने जांच में पाया कि उसे ब्रेन ट्यूमर है. डा. सुधीर कुमार और उन की टीम ने एक जटिल औपरेशन द्वारा उस औरत का ट्यूमर तो निकाला ही, साथ ही, उस की एक आंख की रोशनी भी लौटा दी.

होंठ कटे बच्चों के चेहरों पर मुसकान लाने की कोशिश हो या पैदाइशी तौर पर आपस में जुड़े बच्चों को अलग कर उन्हें नई जिंदगी देने की बात हो, ये सभी मामले ईश्वर के सिस्टम पर सवाल तो पैदा करते ही हैं, साथ ही, ये धर्म के तमाम चमत्कारों को झुठा साबित करने के लिए भी काफी हैं.

यदि ईश्वर है तो वह मासूम बच्चों के साथ ऐसा गंदा खिलवाड़ क्यों करता है? अगर पेट में पल रहे बच्चों पर उस का कंट्रोल नहीं है तो वह ताकतवर कैसे हुआ? यदि वह है तो ऐसे बच्चों को कितनी तकलीफें झेलनी पड़ती हैं और ऐसे बच्चों के पेरैंट्स पर क्या बीतती है, इस बात का क्या वह अंदाजा नहीं लगा सकता? इस से यह बात तो साबित हो ही जाती है कि ईश्वर का सिस्टम परफैक्ट नहीं है और ऐसा कोई ईश्वर, जिसे लोगों को तकलीफों में देख कर मजा आता है, दयालु भी नहीं हो सकता.

उपचार के नाम पर पंडों की लूट

बीती एक सदी में मैडिकल साइंस में खासी तरक्की हुई है. अब बड़ेबड़े धर्मगुरु, पादरी, पंडे और मुल्ला भी अपने धर्म से ज्यादा मैडिकल साइंस पर भरोसा करते हैं.

पिछले समय में ही नहीं, जब उपचार पर भी धर्म का कब्जा था, हकीम दवा से पहले दुआ पर यकीन करते थे और वैद्य औषधि से पहले प्रार्थनाओं पर भरोसा करते थे. तमाम धार्मिक ग्रंथों में अलगअलग बीमारियों के इलाज से संबंधित टोटके लिखे हुए हैं. मैडिकल साइंस के आने से पहले लोग उन टोटकों पर ही भरोसा करते थे. बच गए तो भगवान ने बचा लिया और मर गए तो भाग्य में लिखा हुआ था. इसी अंधविश्वास की बदौलत धूर्तों ने सदियों तक लोगों को बेवकूफ बनाया लेकिन स्वास्थ्य से संबंधित कोई आविष्कार नहीं किया. अफसोस यह है कि आज भी दोहरी मानसिकता वाले भारतीय स्वास्थ्य सेवाओं को पाखंडों के घेरे में रखते हैं और लगातार गैरवैज्ञानिक उपचारों की वकालत, हकीकत जानते हुए भी करते रहते हैं.

अन्य सभी धर्मों की तरह हिंदू धर्म में भी बीमारियों और उन के उपचार को ले कर अंधविश्वासों की आज भी भरमार है. हिंदू धर्म के अनुसार, बीमारियां पिछले जन्मों के पापों और इस जन्म के ईष्ट देवताओं की नाराजगी का परिणाम होती हैं. पुरोहितों ने भय दिखा कर लोगों की बीमारी से भी अपनी दक्षिणा का प्रबंध किया है. हर बीमारी के लिए किसी देवता को खुश करने की विधियां बनाई गई हैं. फलां बीमारी है तो 5 पंडों को दान दो. फलां बीमारी है तो पंडों को दक्षिणा में गाय दो. सिर की बीमारी है तो यह ब्रह्मव्याधि है जिस के उपचार हेतु पंडे को उस के सिर की पगड़ी के बराबर धातु दान में देनी चाहिए. छाती से जुड़ी बीमारी राजव्याधि है, इस के उपचार हेतु पंडे को छाती/बाजू में पहनने वाले आभूषण दान करने चाहिए.

कमर या पेट से जुड़ी बीमारी वैश्यव्याधि होती है, इस के उपचार हेतु पंडे को कमरबंद या धोती दक्षिणा में देनी चाहिए और अगर कमर से नीचे की कोई बीमारी है जैसे गुप्त रोग, बवासीर, गठिया या सूजन तो यह शूद्रदोष है इस के लिए पंडे के वजन के बराबर अनाज उसे दक्षिणा में देना चाहिए.

हमारी स्वास्थ्य सेवाओं में डाक्टरों की अथक मेहनत को नकारते हुए राजनीतिज्ञ रोज ढोल पीट कर लोगों को पंडों और मंदिरों व मसजिदों की तरफ धकेलते हैं.

पादरियों, पंडों व मौलवियों की इस तरह की सीधी लूट से बच भी गए तो लूटने की कई दूसरी पूजा विधियां भी तैयार हैं जिन से दक्षिणा सीधे पंडे के हाथों में न आ कर पंडे के तथाकथित इष्टदेव के चरणों में पहुंचती है, जिसे आखिरकार पंडे ही हड़पते हैं.

दुर्गा की पूजा करने से रोगों से मुक्ति मिलती है. विष्णु की पूजा करने से रोगों से मुक्ति मिलती है और स्वास्थ्य लाभ प्राप्त होता है. हनुमान की पूजा करने से रोगों से मुक्ति मिलती है. शिवलिंग पूजने से रोगों से मुक्ति मिलती है. नवरात्र पूजा करने से रोगों से मुक्ति मिलती है. हवन करने से रोगों से मुक्ति मिलती है. जप करने से रोगों से मुक्ति मिलती है. अश्वमेध यज्ञ करने से रोगों से मुक्ति मिलती है. राजसूय यज्ञ करने से रोगों से मुक्ति मिलती है. तुलसी का पत्ता कई रोगों को ठीक कर देता है. गंगाजल का सेवन करने से रोगों से मुक्ति मिलती है. आयुर्वेदिक औषधियां, जैसे कि त्रिफला, अश्वगंधा, अमलकी और अर्जुन की छाल से सारी बीमारियां दूर हो जाती हैं.

 

         महामृत्युंजय मंत्र का जाप करने से बीमारियों से मुक्ति मिलती है और आयु बढ़ती है-

  • ‘‘ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगंधिम् पुष्टिवर्धनम्, उर्वारुकमिव बन्धनान् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्.’’धन्वंतरि मंत्र का जाप करने से स्वास्थ्य और आयुर्वेद का ज्ञान प्राप्त होता है-
  • ‘‘ॐ धन्वंतरये नम:’’शिव मंत्र का जाप करने से रोगों से मुक्ति मिलती है और शांति प्राप्त होती है-
  •  ‘‘ॐ नम: शिवाय’’

यहां ध्यान देने वाली बात यह भी है कि इन पूजा विधियों और अनुष्ठानों के लिए पंडे या पुजारी का होना जरूरी है.

ईसा मसीह के चमत्कार

रोम के जेमेली अस्पताल में 5 सप्ताह इलाज कराने वाले पोप के भक्त ईसाइयों में आज भी चमत्कारों पर विश्वास किया जाता है. बीमारी के लिए पादरियों के टोटकों पर अमल करना आम बात है. ईसाई समाज में जीसस के जीवन से जुड़े चमत्कार, खासकर उन के द्वारा रोगियों को ठीक किए जाने की मान्यताएं, इतनी गहराई तक बैठी हुए हैं कि ईसाई लोग कई बीमारियों के लिए अस्पताल से पहले पादरियों के पास जाते हैं, हालांकि पादरी, चाहे वह पोप क्यों न हो, जब खुद बीमार पड़ता है तो सीधे हौस्पिटल पहुंचता है.

सोशल मीडिया पर आप ने ईसाइयों के कई ऐसे वीडियोज देखे होंगे जिन में पादरी अपने चमत्कार से बीमार लोगों को ठीक कर देता है. लंगड़े को चला देता है. अंधा व्यक्ति देखना शुरू कर देता है. गूंगा बोलने लगता है. वैज्ञानिक परीक्षणों पर इस तरह के चमत्कारों की तमाम घटनाएं फर्जी पाई जाती हैं. फिर भी लोग इन पादरियों के चक्कर में फंसते हैं तो इस में पादरियों का ही दोष नहीं.

कैथोलिक ईसाइयों के सब से बड़े धर्मगुरु पोप फ्रांसिस को 14 फरवरी, 2025 को सांस की समस्या के कारण रोम के जेमेली अस्पताल में भरती कराया गया. वे डबल निमोनिया (दोनों फेफड़ों में संक्रमण) से पीडि़त हैं, जिस से उन्हें सांस लेने में दिक्कत हो रही है. पोप फ्रांसिस पिछले 2 वर्षों में कई बार बीमार पड़ चुके हैं और हर बार इलाज के लिए उन्हें मैडिकल साइंस का सहारा लेना पड़ा. इस से यह पता चलता है कि ईसाइयों के सब से बड़े धर्मगुरु को ईश्वर के चमत्कारों पर भरोसा नहीं है. वे बीमार पड़े तो उन्होंने मैडिकल साइंस का ही सहारा लिया.

इतने बड़े पोप थे, वे ईश्वर से सीधे कौन्टैक्ट करते और प्रार्थनाओं से ठीक हो जाते लेकिन उन्हें पता था कि चमत्कार की बातें दरअसल, बेकार की बातें हैं. प्रार्थनाएं आम आदमी को भरमाने के लिए होती हैं. इमरजैंसी में ये काम नहीं आतीं, साइंस का ही सहारा लेना पड़ता है. इस से आम ईसाइयों को सबक ले कर चमत्कारों को नमस्कार करने की प्रवृत्ति से ऊपर उठना चाहिए.

बीमारी के चलते जेमेली हौस्पिटल के वीवीआईपी वार्ड में एडमिट पोप फ्रांसिस सामान्य प्रार्थनासभा में शामिल न हो पाने के कारण एक लिखित संदेश जारी कर कहा, ‘‘मैं आप की प्रार्थनाओं और समर्थन के लिए ईश्वर का धन्यवाद करता हूं.’’ यह भी ईसाइयों को बेवकूफ बनाने का तरीका है. ईश्वर का ही धन्यवाद करना था तो हौस्पिटल में एडमिट होने की जरूरत क्या थी?

बाइबिल में ऐसी कई घटनाओं का उल्लेख है जिन में ईसा मसीह ने अपनी दिव्यशक्ति से लोगों को बीमारियों से मुक्त किया था. ईसा ने एक कोढ़ी को ठीक किया था. जीभ की लार से कई अंधों की आंख की रोशनी लौटा दी थी. एक पोलियोग्रस्त आदमी से यीशु ने कहा, ‘‘उठो, और घर जाओ.’’ वह व्यक्ति तुरंत उठ गया और चलने लगा. तेज बुखार से पीडि़त व्यक्ति को यीशु ने छू कर ठीक कर दिया. एक औरत 12 साल से बीमार थी. भीड़ में यीशु से उस औरत के कपड़े का छोर छू गया तो वह ठीक हो गई.

जब ईसाई धर्म के मूल सिद्धांतों में ही चमत्कार को नमस्कार करने की अवधारणाएं मौजूद हैं तो आम ईसाई इस से कैसे बच सकता है. इन्हीं चमत्कारों के नाम पर पादरी पिछले 2000 वर्षों से ईसाई समाज को जोंक की तरह चूसते आए हैं.

मध्यकाल के यूरोप का इतिहास पादरियों के कुकर्मों से भरा पड़ा है. पादरियों द्वारा अमीरों को स्वर्ग बेचा गया. आम लोगों का शोषण हुआ. औरतों से बलात्कार हुए. तार्किक लोगों को जिंदा जलाया गया और वैज्ञानिकों को यातनाएं दी गईं. शताब्दियों तक चर्च इन सभी कुकर्मों के केंद्र बने रहे. यह सब हुआ सिर्फ धर्म के नाम पर.

इसलाम में रोगियों का उपचार

इसलाम की किताबों में बीमारियों के इलाज के लिए कई प्रकार के टोटकों का जिक्र मिलता है. हदीसों में गाय के दूध, ऊंटनी के मूत्र और शहद से तमाम तरह की बीमारियों के इलाज होने की डींगें मारी गई हैं.

कुरान में लिखा है, ‘‘इलाज के लिए हर प्रकार के फूलों का रस चूस और उस मक्खी के रस को भी जिस के अंदर से एक रंगबिरंगा शरबत निकलता है जिस से लोग शिफा पाते हैं.’’ (सूरा 16, आयत 69)

‘‘तुम अपने लिए शिफा की 2 चीजों को मजबूती से पकड़ लो, शहद और कुरान.’’ -इब्ने-माजा, पेज 3452

इसलाम में बीमारियों को अल्लाह (यदि है तो) की ओर से भेजी गई सजा के तौर पर देखा जाता है. अल्लाह अपने भक्तों को कुछ इस तरह से भी आजमाता है- ‘‘वह लोगों को तंगी और मुसीबत में डालता है, ताकि वे अल्लाह के आगे गिड़गिड़ाएं.’’ (सुरह 7, अल-आराफ, आयत 94)

इसलाम में रोगों को बुरी नजर का परिणाम भी माना जाता है. एक वक्त पर खुद पैगंबर हजरत मुहम्मद किसी की बुरी नजर का शिकार हो गए थे. इसलाम के अनुसार, इंसानों में होने वाली बीमारियां अल्लाह की मरजी, बुरी नजर और गुनाहों का परिणाम हैं. इन रोगों के इलाज के लिए इसलाम में कई दुआओं को ईजाद किया गया है. जैसे कि यह दुआ जिसे पढ़ कर हजरत मुहम्मद लोगों को चुटकियों में ठीक किया करते थे-

‘‘ऐ तकलीफ को दूर करने वाले अल्लाह, शिफा अता फरमा. तेरे सिवा कोई शिफा देने वाला नहीं. बस, तू ही शिफा देने वाला है. ऐसी शिफा अता फरमा कि बीमारी बिलकुल बाकी न रहे.’’ -बुखारी: 5742 और 5682

कुरान और हदीस में इस तरह की कई दुआएं बताई गई हैं जिन के जरिए बड़ीबड़ी बीमारियों को भी मात दी जा सकती है. हदीसों के अनुसार, हजरत मुहम्मद ने कई लोगों को अपनी इन्हीं दुआओं से ठीक किया. हजरत मुहम्मद ने एक बार एक बीमार व्यक्ति के लिए दुआ की. वह तुरंत ठीक हो गया.

सहीह बुखारी की हदीस नंबर 7-71-590 के अनुसार, ‘‘मदीने के कुछ लोग बीमार पड़े तो पैगंबर मुहम्मद ने उन्हें ऊंटनी का मूत्र पीने का आदेश दिया. इस से वे स्वस्थ हो गए.’’

गाय का मूत्र हो या ऊंटनी का मूत्र, यह पानी, यूरिया, अमोनिया, क्रिएटिनिन और आंतों के अपशिष्ट तरल पदार्थ ही होता है.

विश्व स्वास्थ्य संगठन यानी डब्ल्यूएचओ ने गाय या ऊंटनी के मूत्र में रोगों के ठीक होने के किसी भी दावे को स्वीकार नहीं किया है. ये पूरी तरह अवैज्ञानिक बातें हैं. जानवर के मूत्र में बैक्टीरिया और विषैले तत्त्व होते हैं जो इंसान के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हैं. यदि कोई व्यक्ति इसे पीता है तो उसे संक्रमण, यूरिनरी ट्रैक्ट संक्रमण (यूटीआई) और कई तरह की बैक्टीरियल बीमारियां हो सकती हैं.

हजरत मुहम्मद ने कई रोगियों को ऊंटनी का मूत्र, शहद और कलौंजी से ठीक किया. कई बीमार लोगों को दुआओं से ठीक किया. लेकिन जब खुद बीमार पड़े तो इन में से कुछ काम न आया और बीमारी की हालत में ही मर गए.

कुछ इतिहासकारों का मानना है कि हजरत मुहम्मद की मृत्यु जहर के कारण हुई थी जो खैबर की जंग के बाद उन्हें एक यहूदी महिला द्वारा दिया गया था. सहीह बुखारी किताब, 47, हदीस 786 और सहीह मुसलिम, किताब 26, हदीस 5430 के अनुसार, हजरत मुहम्मद ने कहा, ‘मुझ पर जहर का असर हो गया है, जो मुझे खैबर में दिया गया था.’

पिछले 1400 वर्षों से आम मुसलमानों के पास चिकित्सा पद्धति के नाम पर दुआएं और इसलामिक टोटके ही चलते रहे. अमीर मुसलमान इन टोटकों के बजाय यूनानी मैडिसिन का इस्तेमाल करते थे लेकिन गरीब मुसलमानों को दुआओं से काम चलाना पड़ता था. इसलाम के अनुसार, जिंदगी और मौत ऊपर वाले के हाथ में है, सब की मौत की तारीख तय है. इस मानसिकता के कारण ही चिकित्सा के क्षेत्र में मुसलमानों का कोई विशेष योगदान नहीं रहा.

बीमारियों को अल्लाह की आजमाइश सम?ाने की यह मानसिकता आज भी मुसलमानों में कायम है. इस मानसिकता की वजह से ही मुसलमान खानपान और रहनसहन की अपनी कुछ बुरी आदतों को बदल नहीं पाते. जब वे बीमार पड़ते हैं तो सरकारी अस्पतालों में धक्के खाते हैं. यही वजह है कि देश की जनसंख्या में मुसलमानों का हिस्सा 14 प्रतिशत है लेकिन सरकारी अस्पतालों में मुसलिम मरीजों की भागीदारी 40 प्रतिशत से ज्यादा है.

पुराने जमाने में हौस्पिटल नहीं होते थे. तब 2 तरह के इलाज चलन में थे. बड़े लोगों के लिए पर्सनल वैद्य होते थे तो आम आदमी का इलाज घरेलू टोटकों से होता था. बड़ी से बड़ी बीमारी में भी लोग इन्हीं 2 तरीकों से इलाज करवाते थे और ज्यादातर मरीज मर जाते थे.

आज भी देश में ऐसे बहुत से मंदिर और मजार हैं जहां शुगर, ब्लडप्रैशर, टीबी और पीलिया जैसे रोगों के उपचार के नाम पर पुराने टोटकों पर आधारित दवाएं दी जाती हैं और इन टोटकों की खातिर लंबी कतारें लगती हैं. इसे देख कर अंदाजा हो जाता है कि पुराने समय में आम आदमी का इलाज पूरी तरह भगवान भरोसे ही था.

हर गांव में आज भी बड़ी से बड़ी बीमारी के नुसखे बताने वाले मिल जाएंगे. शुगर है तो पपीते के पत्तों को उबाल कर खा लो. डेंगू हो गया है तो बकरी का कच्चा दूध पी लो. इन्फैक्शन है तो नीम के पत्तों को पीस कर चबा लो. हैरानी की बात है कि आज भी इस तरह के तमाम टोटकों को आजमाया जाता है.

एक आम धारणा यह भी है कि पुराने समय में लोग ज्यादा लंबी उम्र जीते थे. यह धारणा धर्मों की कहानियों से आई है जोकि बिलकुल गलत है. सच तो यह है कि मैडिकल साइंस की उन्नति और आम लोगों तक इस की पहुंच के साथ ही लोगों की औसत आयु में बढ़ोतरी हुई है.

प्रथम मुगल बादशाह बाबर बीमार पड़ा तो देशविदेश के वैद्यों व हकीमों ने उस का इलाज किया. लेकिन बाबर के स्वास्थ्य में कोई सुधार नहीं हुआ. आखिरकार, वह 1530 में 48 वर्ष की उम्र में मर गया. जरा सोचिए कि एक बादशाह की ऐसी स्थिति थी जिस के इलाज के लिए देशविदेश के वैद्य और हकीम लगे थे, फिर भी वह ठीक न हुआ और बीमारी की हालत में मात्र 48 वर्ष की आयु में ही मर गया तो उस वक्त की आम जनता का क्या हाल रहा होगा.

पुराने जमाने के इलीट वर्ग को तमाम सुखसुविधाएं हासिल हुआ करती थीं, इस के बावजूद उन की आयु आज के आम आदमी की औसत आयु से भी कम होती थी. वर्ष 1947 तक भारत में आम आदमी की औसतन आयु 32 वर्ष से ज्यादा नहीं थी. भारतीय लोग औसतन सिर्फ 32 साल तक ही जी पाते थे. गरीबी, अनाज की कमी और स्वास्थ्य व्यवस्थाओं के बदतर हालात इस के मुख्य कारण थे.

वर्ल्ड बैंक के अनुसार, आज 2025 में भारत की औसत आयु 70 साल हो चुकी है. 10 साल पहले तक भारतीयों की औसतन उम्र 67 साल 5 महीने थी. देश में 10 साल में औसत आयु 2 साल तक बढ़ी है तो इस का प्रमुख कारण है मैडिकल साइंस, बाकी बातें बाद में हैं. देश में गरीबी तो आज भी है लेकिन अब गरीब आदमी पहले की तरह देसी टोटकों पर निर्भर नहीं है. गरीब हो या अमीर, हर बीमारी का वैज्ञानिक पद्धति से इलाज हो रहा है.

स्वास्थ्य के पैमाने पर भारत की स्थिति

भारत में स्वास्थ्य पर जीडीपी का खर्च वर्ष 2023 में 2.1 फीसदी और वित्त वर्ष 2022 में 2.2 फीसदी था. इस तरह भारत स्वास्थ्य सेवा पर सब से कम खर्च करने वाले देशों में से एक है. प्रति व्यक्ति कुल स्वास्थ्य व्यय के हिसाब से भारत 77वें स्थान पर है.

इस खर्च में आजकल आयुर्वेदिक, योग, ध्यान आदि सेवाओं को दिया जाने वाला पैसा भी शामिल है. गोवा में एक विशाल आयुर्वेदिक संस्थान बनाया गया है. देखते हैं कि कौन सा बड़ा नेता दिल्ली के अस्पतालों में न जा कर गोवा एयरपोर्ट के निकट इस संस्थान में जाता है जिस का उद्घाटन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किया था.

लोकसभा में एक सवाल के जवाब में स्वास्थ्य मंत्रालय की ओर से नैशनल मैडिकल कमीशन की रिपोर्ट पेश की गई. उस में बताया गया है कि भारत में जून 2022 तक स्टेट मैडिकल काउंसिल और नैशनल मैडिकल कमीशन में 13,08,009 एलोपैथिक डाक्टर रजिस्टर्ड हैं. इस का मतलब यह हुआ कि भारत के 1 अरब, 30 करोड़ लोगों के लिए देश में 13 लाख पंजीकृत डाक्टर हैं. इस हिसाब से भारत में प्रत्येक 10,000 नागरिकों पर मात्र 1 डाक्टर मौजूद है. यही कारण है कि भारत में ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवाओं की उपलब्धता में बड़ा अंतर दिखाई देता है.

स्वास्थ्य के क्षेत्र में बढ़ते निजीकरण से भी आम आदमी को परेशानियां ?ोलनी पड़ रही हैं. सरकार के अनुसार, 80 करोड़ लोग ऐसी स्थिति में हैं जिन्हें 5 किलो मुफ्त अनाज पर गुजारा करना पड़ता है. ऐसे में इस 80 करोड़ आबादी के लिए निजी अस्पतालों में महंगा इलाज करवाने की बात तो सोचना भी मुश्किल है. आम आदमी छोटीमोटी बीमारियों से तो जैसेतैसे जूझ लेता है लेकिन कैंसर जैसी बड़ी बीमारियों में वह पूरी तरह बरबाद हो जाता है.

नैशनल कैंसर रजिस्ट्री प्रोग्राम की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में हर साल 13 लाख से ज्यादा लोग कैंसर जैसी गंभीर बीमारी का शिकार होते हैं. कैंसर के कई कारण होते हैं. प्रदूषणयुक्त वातावरण, जीवनशैली में साफसफाई की कमी, तंबाकू और शराब का सेवन इत्यादि. भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) का अनुमान है कि अगले 5 सालों में भारत में कैंसर के मामलों में 12 प्रतिशत की वृद्धि हो सकती है. स्तन कैंसर, गर्भाशय ग्रीवा कैंसर और मुंह का कैंसर आदि भारत में कैंसर के सब से आम रूप हैं.

भारत में पुरुषों में होने वाले सभी कैंसरों का लगभग 40 फीसदी और महिलाओं में लगभग 17 फीसदी कैंसरों का कारण तंबाकू होता है. ऐसे में यदि सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार न किया गया तो स्थिति भयावह हो सकती है और इस भयावह स्थिति का खमियाजा आम आदमी को ही भुगतना पड़ेगा.

आगे का अंश बौक्स के बाद 

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स्वास्थ्य के मामले में सब से आगे ये देश

स्वास्थ्य के मामले में दुनिया हम से बहुत आगे है. हमारे यहां की सरकारें आम आदमी को मंदिरमसजिद की राजनीति में उलझ कर बुनियादी मुद्दों से भटकाने का प्रयास करती हैं. यही कारण है कि स्वास्थ्य के मामले में भारत टौप 20 में भी शामिल नहीं है. दुनिया में अपने नागरिकों को बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं देने वाले टौप 10 देश कौन से हैं, जानते हैं यहां.

स्पेन : स्पेन दुनिया का सब से स्वस्थ देश है. स्पेन की सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा प्रणाली और स्वस्थ जीवनशैली स्पेन को स्वास्थ्य की सूची में नंबर वन पर देश बनाती है. यहां प्रति 1,000 व्यक्ति पर 4 डाक्टर हैं. यहां लोग औसतन 82 वर्ष तक जीते हैं.

इटली : यहां प्रति 1,000 व्यक्तिपर 8 डाक्टर हैं. बेहतर स्वास्थ्य व्यवस्था की बदौलत ही इटली के लोगों की औसत आयु 82 साल है.

आइसलैंड : आइसलैंड का स्वास्थ्य सेवा व्यय दुनिया में सब से अधिक है. आर्थिक सहयोग और विकास संगठन (ओईसीडी) के अनुसार, आइसलैंड अपने सकल घरेलू उत्पाद का 8.6 फीसदी स्वास्थ्य सेवा पर खर्च करता है जो ओईसीडी के औसत से अधिक है. यहां नागरिकों की औसत आयु 83 साल है.

जापान : जापान सरकार अपने नागरिकों के स्वास्थ्य पर जीडीपी का 10.74 फीसदी खर्च करती है. नतीजतन, जापान के लोगों की औसत आयु दुनिया में सब से ज्यादा, 84 वर्ष, है.

स्वीडन : स्वीडन दुनिया का 5वां सब से स्वस्थ देश है. यहां नागरिकों के लिए स्वास्थ्य सेवा की गारंटी है. ओईसीडी के आंकड़ों के अनुसार, स्वीडन अपनी जीडीपी का 9.9 फीसदी स्वास्थ्य सेवा पर खर्च करता है. स्वीडिश नागरिकों की औसतन आयु 82 वर्ष है.

आस्ट्रेलिया : आस्ट्रेलिया अपनी जीडीपी का 7.1 प्रतिशत अपने नागरिकों को मुफ्त चिकित्सा देने पर खर्च करता है. आस्ट्रेलिया में प्रति 1,000 लोगों पर 3 डाक्टर हैं. आस्ट्रेलिया के लोगों की औसतन आयु 83 वर्ष है.

स्विट्जरलैंड : स्विट्जरलैंड में सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा प्रणाली है जिस के द्वारा हर स्विस नागरिक को, चाहे उस की आर्थिक स्थिति कुछ भी हो, बुनियादी स्वास्थ्य सेवाएं हासिल हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, स्विट्जरलैंड में प्रति 1,000 व्यक्तियों पर 4.3 डाक्टर हैं. वहां औसतन आयु 83 वर्ष है.

नौर्वे : नौर्वे में प्रति 1,000 लोगों पर 4.9 डाक्टर और 18.3 नर्स होते हैं. नौरवेनियन लोगों की औसतन आयु 83 वर्ष है.

सिंगापुर : सिंगापुर में तपेदिक और एचआईवी/एड्स जैसी बीमारियां दुनिया में सब से कम हैं. सिंगापुर में प्रति 1,000 लोगों पर 6 डाक्टर हैं और औसत आयु 83 वर्ष है.

कनाडा : कनाडा के वासियों की औसत जीवन प्रत्याशा 82 वर्ष है. टीकाकरण और कैंसर जांच के मामले में कनाडा दुनिया में सब से आगे है. कनाडा में शिशु मृत्युदर दुनिया में सब से कम है.

सोर्स- ‘इंस्टिट्यूट औफ हैल्थ मैट्रिक्स एंड इवैल्युएशन’ व ‘ब्लूमबर्ग स्वास्थ्य सूचकांक सर्वे’

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आयुष्मान भारत योजना का सच

आयुष्मान भारत योजना को सितंबर 2018 में लौंच किया गया था. यह देश की सार्वजनिक स्वास्थ्य बीमा योजना है जिस का उद्देश्य देश की गरीब जनता को प्रति वर्ष 5 लाख रुपए तक के स्वास्थ्य लाभ की गारंटी प्रदान करना है. इस में कोई दोराय नहीं है कि इस योजना के लागू होने से कम आय वर्ग वाले लोगों को फायदा हुआ है लेकिन 140 करोड़ आबादी वाले इस देश के लिए यह योजना पर्याप्त नहीं है.

2018 में डब्ल्यूएचओ की एक रिपोर्ट में बताया गया कि इलाज पर होने वाले खर्च के कारण हर साल 6 करोड़ से अधिक भारतीय गरीबी में चले जाते हैं. आयुष्मान के लागू होने के बाद निसंदेह इन आंकड़ों में बदलाव आया है लेकिन देश की स्वास्थ्य व्यवस्था में सुधार किए बिना इस तरह की योजनाओं से जनता की समस्याओं को दूर करना नामुमकिन है. आज भी सरकारी अस्पतालों में लंबी लाइनें लगती हैं. मरीज को समय पर बैड नहीं मिलता. मामूली इलाज के लिए भी लोग धक्के खाते हैं.

ओमप्रकाश दिल्ली में काम करता था. एक दिन अचानक तबीयत खराब हुई तो वह नजदीक के एक सरकारी अस्पताल पहुंचा. जांच में डेंगू के लक्षण पाए गए. सरकारी अस्पताल में इमरजैंसी वार्ड में एडमिट तो कर लिया गया लेकिन 6 घंटे के ट्रीटमैंट के बाद ही बैड उपलब्ध न होने की बात कह कर ओमप्रकाश को डिस्चार्ज कर दिया गया. सफदरजंग हौस्पिटल पहुंचा तो वहां भी यही हाल था.

ओमप्रकाश के पास आयुष्मान कार्ड था और तबीयत भी बिगड़ती जा रही थी, इसलिए दोस्तों ने उसे प्राइवेट हौस्पिटल में एडमिट करवा दिया. हौस्पिटल में एडमिट कराए जाने के बाद पता चला कि ओमप्रकाश का आयुष्मान कार्ड आधार से लिंक नहीं था. एक सप्ताह इलाज के बाद हौस्पिटल ने ओमप्रकाश को सवा लाख रुपए का बिल थमा दिया. बिहार से परिजनों ने आ कर जैसेतैसे हौस्पिटल का बिल चुकता किया. इस घटना से आप अंदाजा लगा सकते हैं कि आम आदमी के लिए सरकारी अस्पताल कितने जरूरी हैं.

आयुष्मान भारत योजना के तहत उन बीमारियों को निजी अस्पतालों की लिस्ट से हटा दिया गया है जिन का इलाज सरकारी अस्पतालों में उपलब्ध है. इस का सीधा असर ग्रामीण क्षेत्र के मरीजों पर पड़ रहा है. उन इलाकों के सरकारी अस्पतालों में डाक्टर व संसाधनों की भारी कमी है. ऐसे में इस तरह की बीमारियों का उपचार वहां के जिला, सामुदायिक व प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में होना मुश्किल है. मरीजों के पास अब बड़े शहरों के सरकारी अस्पतालों के अलावा सिर्फ निजी अस्पताल में अधिक फीस दे कर उपचार करने का ही विकल्प बचा है.

कई राज्यों में अपैंडिक्सक, मलेरिया, हर्निया, पाइल्स, हाइड्रोसिल, पुरुष नसबंदी, डिसैंट्री, एचआईवी विद कौंप्लिकेशन, बच्चेदानी औपरेशन, हाथपांव काटने की सर्जरी, मोतियाबिंद, पट्टा चढ़ाना, गांठ संबंधित बीमारी, एथलीट फुट, रेनल कोलिक, यूटीआई, आंतों का बुखार और गैंगरीन जैसी बीमारियों के इलाज के लिए आयुष्मान कार्ड का कोई फायदा नहीं है क्योंकि इन बीमारियों को निजी अस्पतालों की लिस्ट से हटा दिया गया है. इन बीमारियों के इलाज के लिए आम जनता को सरकारी अस्पतालों की लाइनों में ही लगना होगा.

सरकारी अस्पतालों में गंभीर बीमारियों के उपचार की बेहतर व्यवस्था न होने की वजह से ज्यादातर लोग आयुष्मान कार्ड ले कर प्राइवेट हौस्पिटल का रुख करते हैं. वहीं, पैकेज से कुछ गंभीर बीमारियों को हटा देने की वजह से मरीजों को दिक्कत का सामना करना पड़ता है.

सर्दी के दिनों में पुष्पा की 6 साल की बेटी पिंकी गली में बच्चों के साथ खेल रही थी. गली में ही पड़ोस के किसी व्यक्ति ने आग तापने के लिए लकडि़यां जला रखी थीं. खेलने के दौरान पुष्पा की 6 साल की बेटी का चेहरा आग से झुलस गया. आननफानन उसे सरकारी हौस्पिटल के इमरजैंसी विभाग में एडमिट करवाया गया जहां 3 दिनों के इलाज के बाद उसे अस्पताल से छुट्टी मिल गई लेकिन चेहरे पर जलने के निशान बाकी रह गए. बुलंदशहर की रहने वाली पुष्पा अपनी बेटी की प्लास्टिक सर्जरी करवाने के लिए उसे बुलंदशहर के प्राइवेट अस्पताल ले गई तो मालूम चला कि आयुष्मान कार्ड में प्लास्टिक सर्जरी कवर नहीं होती. मजबूरन पुष्पा को अपनी बेटी के चेहरे को ठीक करवाने के लिए अपने गहने बेचने पड़े.

सरकार की दूसरी योजनाओं की तरह आयुष्मान भारत योजना भी भ्रष्टाचार से अछूती नहीं है. हाल के दिनों में निजी अस्पतालों द्वारा फर्जी मैडिकल बिल जमा कर के आयुष्मान भारत योजना के दुरुपयोग किए जाने के कई मामले उजागर हुए हैं. ऐसे लोगों की सर्जरी कर दी गई जिन्हें बहुत पहले छुट्टी दे दी गई थी और ऐसे अस्पतालों में डायलिसिस किया गया दिखाया गया जिन में किडनी प्रत्यारोपण की सुविधा ही नहीं है.

अकेले उत्तराखंड में ही ऐसे 697 फर्जी मामले सामने आए हैं जहां आयुष्मान योजना के तहत धोखाधड़ी के लिए अस्पतालों पर 1 करोड़ रुपए (2023 में 1.1 करोड़ रुपए) का जुर्माना लगाया गया है. भ्रष्टाचार को रोकने के सभी प्रयासों के बावजूद पीएम-जेएवाई में धोखाधड़ी और फर्जीवाड़ा देश के प्रत्येक राज्य में हो रहा है.

हौस्पिटलों में लूट

मनोज के पिता विजयकांत को हार्ट अटैक हुआ. मनोज अपने पिता को ले कर तुरंत नजदीक के हौस्पिटल पहुंच गए. जहां डाक्टर ने पेशेंट को आईसीयू में भरती कर हार्ट का औपरेशन कर दिया. औपरेशन और एक सप्ताह एडमिट रहने का बिल 2 लाख रुपए आया तो मनोज ने जैसेतैसे पैसों का इंतजाम किया और अपने पिता को ले कर घर आया.

घर पर विजयकांत को देखने जो भी रिश्तेदार आता, मनोज कहना शुरू कर देता कि प्राइवेट हौस्पिटल सिर्फ लूटते हैं. महंगी दवाएं लिखते हैं जिस से मरीज के घर वाले बरबाद हो जाते हैं और ये डाक्टर मरीजों को लूटलूट कर अमीर हो जाते हैं. मनोज की छोटी बहन रजनी मैडिकल की पढ़ाई कर रही थी और उसे मैडिकल फील्ड की नौलेज थी. एक दिन जब मनोज ने अपने चाचा के सामने यही बात दोहराई तो रजनी बोल पड़ी, ‘भैया, यह न भूलो कि अगर यह प्राइवेट हौस्पिटल न होता तो आज पापा जिंदा न होते.’

रजनी की बात सुन कर मनोज ने आंखें तरेरीं और बोला, ‘रजनी, तुम्हारी बात ठीक है कि पापा का औपरेशन हुआ और वे बच गए लेकिन इस में मेरे तो ढाईतीन लाख रुपए लग गए. क्या यह लूट नहीं है? डाक्टर ने इतनी महंगी दवाएं लिखी हैं कि मेरी सारी सैलरी इन दवाओं को खरीदने में खर्च हो रही है.’

रजनी ने कहा, ‘नहीं भैया, प्राइवेट हौस्पिटल में इलाज महंगा होने को लूट की संज्ञा देना उचित नहीं है. आप के ढाई लाख रुपए किसी ने हड़पे नहीं हैं, आप ने पापा के इलाज में ढाई लाख दे कर सिटी स्कैन, एमआरआई समेत जांच की दूसरी मशीनें, औपरेशन थिएटर की महंगी मशीनें, डाक्टर का हुनर, नर्सों की देखभाल और हौस्पिटल की अन्य फैसिलिटीज का उचित मूल्य चुकाया है. अगर आप को यह लूट लगती है तो आप सरकार से कहिए कि वह आम जनता से जो मोटा टैक्स वसूलती है उस के बदले में सरकारी अस्पतालों की व्यवस्था में सुधार करे ताकि आम आदमी को प्राइवेट हौस्पिटल न जाना पड़े.

‘सरकार हम से मोटा टैक्स वसूलती है और सरकारी अस्पताल भगवान भरोसे चलते हैं. प्राइवेट हौस्पिटल अपनी बेहतरीन सेवाओं के बदले आप से फीस लेते हैं तो यह आप को लूट लगती है लेकिन सरकार जो लूटती है उस पर आप एक शब्द नहीं बोलते. महंगी दवाओं में डाक्टरों का कमीशन होता है लेकिन आप बताइए कि इस देश में कमीशन कौन नहीं खाता. दवा कंपनियां रिसर्च पर भारी खर्च करती हैं जिस से नईनई कामयाब दवाएं बनती हैं और मार्केट की कई व्यावसायिक बाधाओं को पार कर ये दवाएं हम तक पहुंचती हैं, इसलिए महंगी हो जाती हैं.’

‘एलोपैथी एक बिजनैस है’. ‘डाक्टर लूटते हैं’. ‘एलोपैथी की दवाएं जहर होती हैं’. ‘दवा कंपनियां महंगी दवाएं बेच कर मोटा मुनाफा कमाती हैं’. आम आदमी के दिमाग में प्राइवेट हौस्पिटल के बारे में कुछ ऐसी ही धारणाएं बनी होती हैं. इन धारणाओं के पीछे बाबा रामदेव और राजीव दीक्षित जैसे लोग होते हैं जो एलोपैथी के बारे में अनापशनाप बातें लोगों के अवचेतन मन तक पहुंचाते हैं और आयुर्वेद को एलोपैथी के विकल्प के तौर पर स्थापित करने की कोशिश करते हैं. हालांकि, ऐसे लोग जब खुद मैडिकल इमरजैंसी में होते हैं तब एलोपैथी का ही सहारा लेते हैं. नीति आयोग के ताजा आंकड़ों के अनुसार, देश के 100 करोड़ लोग मात्र 8 हजार रुपए महीना पर गुजारा करते हैं.

ऐसे में घर का कोई सदस्य बीमार पड़ जाए और इमरजैंसी में प्राइवेट हौस्पिटल में इलाज करवाना पड़ जाए तो यह आम आदमी की जेब पर भारी पड़ जाता है. बजट बिगड़ जाता है. कर्ज हो जाता है. सो, आदमी को लगता है कि हौस्पिटल ने लूट लिया. निजी अस्पतालों की अपनी मजबूरियां होती हैं. खर्चे होते हैं. महंगी मशीनें, डाक्टर, नर्स समेत स्टाफ के खर्च के अलावा और भी बहुत से खर्चे होते हैं जिन की वजह से हमें सुविधाएं मिल पाती हैं. हालांकि, कुछ मामलों में निजी अस्पताल लोगों की मजबूरियों का फायदा उठा कर उन्हें लूटते भी हैं. इस में कोई दोराय नहीं है लेकिन सभी प्राइवेट हौस्पिटल ऐसे नहीं होते. कुछ करप्ट लोगों की वजह से पूरा मैडिकल सिस्टम बदनाम होता है.

हौस्पिटल ज्यादा जरूरी

आज की पूरी राजनीति मंदिरमसजिद के इर्दगिर्द घूम रही है. मंदिरमसजिद की घिनौनी राजनीति ने जनता के दिमागों को इतना बीमार कर दिया है कि लोग मंदिरमसजिद के आगे स्कूल, अस्पताल और रोजगार जैसी बुनियादी जरूरतों को भुला चुके हैं.

आम जनता को ये बुनियादी बातें तब याद आती हैं जब उन्हें खुद को जूझना पड़ता है. ग्रामीण स्तर पर सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं का बेड़ा गर्क हो चुका है. कोई पूछने वाला नहीं. छोटे से गांव में बड़ेबड़े मंदिर और आलीशान मसजिद मिल जाएंगे लेकिन ढंग का हौस्पिटल ढूंढ़ना हो तो शहर की ओर रुख करना होगा. शहरों में अस्पताल के नाम पर महंगे प्राइवेट हौस्पिटल हैं जो आम आदमी के बजट में फिट नहीं बैठते. बेहतर स्वास्थ्य के लिए नए सुविधाजनक अस्पतालों को बनाने के बजाय आयुष्मान योजना के नाम पर जनता को भरमाने की कोशिश की गई है.

देश में ज्यादातर सरकारी अस्पताल कांग्रेस की सरकार के दौरान बने हैं जिन पर देश की बढ़ती आबादी को स्वास्थ्य सुविधाएं देने का बोझ पहले से कई गुना बढ़ गया है. भाजपाशासित राज्य सरकारों व केंद्र की भाजपा सरकारों के लिए स्वास्थ्य जैसी बुनियादी चीजें अहमियत नहीं रखतीं. जब गायगोबर, मंदिरमसजिद और हिंदूमुसलमान के नाम पर वोट मिल ही जाता है तब भाजपा स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार जैसे मुद्दों के फेर में क्यों पड़े. यह बात तो भारत की जनता को सोचनी होगी कि उसे अपने बच्चों को धर्म के झंडे की खातिर दंगाई, बीमार भीड़ का हिस्सा बनते देखना है या स्वस्थ भारतीय समाज का एक स्वस्थ नागरिक.

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हौस्पिटल में मंदिरमसजिद का क्या काम

दिल्ली के अपोलो हौस्पिटल के प्रांगण में मंदिर बना है तो भीतर के एक कोने में नमाज के लिए जगह बनाई गई है. दिल्ली के ही बत्रा हौस्पिटल के रिसैप्शन के सामने ही दुर्गा का मंदिर बना है. मजीदिया हौस्पिटल के बेसमैंट में पांचों वक्त की नमाज पढ़ी जाती है. कुछ ऐसा ही हाल लगभग सभी प्राइवेट अस्पतालों का है. सरकारी अस्पतालों के किसी कोने में भी आप को कोई न कोई मंदिर नजर आ जाएगा.

मंदिर भगवान का घर होता है. मंदिर में जो मूर्तियां होती हैं वे सभी जीवित भगवानों की होती हैं क्योंकि पुरोहित मूर्ति में प्राण डाल कर उन की प्रतिष्ठा करने का दावा करता है. सवाल यह है कि इन जीवित भगवानों के होते हौस्पिटल की जरूरत ही क्यों पड़ती है? नमाज पढ़ने के लिए हौस्पिटल में मसजिद की भी क्या जरूरत है? क्या मसजिद का मौलवी और मंदिर का पुरोहित किसी साधारण बीमारी का भी इलाज नहीं कर सकता? यदि मंदिरमसजिद से इलाज हो जाता तो हौस्पिटल की क्या जरूरत और अगर हौस्पिटल से ही इलाज होना है तो हौस्पिटल में मंदिरमसजिद किसलिए?

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