लेखिका - अनुपमा श्रीवास्तव 

ट्रिनट्रिन, ट्रिनट्रिन... ‘‘हैलो 343549, तुहिन स्पीकिंग...’’ ‘‘आहा, तो आप ही हैं. मुझे यकीन था, फोन आप ही उठाएंगे.’’ ‘‘तुम फिर...’’ ‘‘हां, मैं फिर. क्या आप को मेरी आवाज पसंद नहीं है?’’ ‘‘देखो...’’ ‘‘क्या देखूं? मिस्टर स्मार्ट, सितम तो यही है कि फोन में कुछ दिखाई नहीं देता, सिर्फ और सिर्फ सुनाई देता है.’’ ‘‘देखो, तुम जो भी हो, मुझे क्यों परेशान करती हो? तुम्हारे घर वाले...अगर उन्हें खबर हो गई तो?’’ ‘‘खबर होती है तो हो जाए. मैं किसी से नहीं डरती. मेरे पापा यहां रहते नहीं, आर्मी में हैं और अम्मी को समाज सेवा से फुरसत नहीं. अकेली औलाद हूं जनाब, सरआंखों पर बिठाया जाता है मुझे. हर जिद पूरी की जाती है मेरी.

‘‘पापा ने टेलीफोन का एक कनेक्शन अलग से सिर्फ मेरे लिए लगवाया है ताकि मैं जब चाहूं उन से बात कर सकूं. पापा हर रात फोन करते हैं. मेरी पढ़ाई का हाल पूछते हैं, तबीयत का हाल पूछते हैं, ढेर सारी हिदायतें देते हैं, बहुत फिक्र करते हैं मेरी. वह यही चाहते हैं कि मैं खुश रहूं, हमेशा...अच्छा, यह सब छोडि़ए. कुछ अपने बारे में बताइए. क्या आप भी मेरी ही तरह इकलौते हैं? कौन से कालिज में पढ़...उफ, फिर काट दिया.

लानत...’’ ट्रिनट्रिन... अगले दिन फिर फोन की घंटी बजती है. दूसरी तरफ से फोन उठाए जाने पर आवाज आती है, ‘‘जनाब को मेरा सलाम, लेकिन सुनिए, आप को आप के घर वालों की कसम, आइंदा अगर मेरा फोन काटा तो.’’ ‘‘देखो...’’ ‘‘क्या देखूं? कल से कितनी बार यह नंबर डायल किया. कभी कोई उठाता है, कभी कोई. मेरी हालत पर जरा भी तरस नहीं आता आप को? अकेली हूं मैं. दोस्ती करना चाहती हूं आप से. फोन से निकल कर काट नहीं खाऊंगी आप को...’’ फोन से दूसरी तरफ जोरदार ठहाके की आवाज आती है.

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