प्रचंड गरमी के बीच राज्य से ऐसी खबर आई कि जनता से अभियंता तक सभी चिंतित हैं. चिंता लाजिमी है, एक बार फिर से विकास पानी में जो बह गया था. करोड़ों रुपए की लागत से तैयार होने वाला पुल उद्घाटन से पहले ही नदी में ढह गया.
गत वर्ष कभी पुल का स्ट्रक्चर हवा में उड़ गया, तो कभी अरबों रुपए का निर्माणाधीन पुल नदी के जल में ढह गया था. पुल की भ्रूणहत्या थी या आत्महत्या?
इस संदर्भ में निर्माण एजेंसी बचाव और सरकार बयान की तैयारी में जुट गए. रही बात जनता की, तो क्षेत्रीय जनता ने विकास न सही लेकिन पुल के सुपर स्ट्रक्चर के रूप में विकास का ट्रेलर तो देख ही लिया था. सदियों से बिना पुल के रह रहे हैं, दोतीन दशक और नाव-डेंगी से गुजारा कर लेंगे, तो कौन सा मंगल ग्रह पर जीवन का लोप होने वाला है.
वैसे भी, जनता नामक जीव की सहनशीलता एमआरएफ टायर की तरह मजबूत होती है. नेताओं के आश्वासन की हवा पर दोतीन पीढ़ियों का सफर तो ये आराम से काट ही लेते हैं.
जिस प्रकार समाज में विवाहोपरांत विदाई और सुहागरात की विधि होती है, वैसे ही हमारे देश में हादसा के बाद विपक्षविलाप और जांच आयोग का गठन अनिवार्य प्रक्रिया है.
करोड़ों रुपए का पुल गुल हो गया. मीडिया और विपक्ष का दबाव देख आननफानन माथा महतो और पच्ची सिंह की दो-सदस्यीय जांच समिति का गठन किया गया.
जांच आयोग घटनास्थल पर पहुंचता, उस से पहले ही संतरी से मंत्री तक निर्माण एजेंसी की तात्कालिक सेवा पहुंच गई. साथ ही, पुल का पाया जल में एवं माया माननीयों के महल में.
“यह तो हद हो गई माथा भाई, भारतीय मुद्रा और गठबंधन सरकार की तरह सारा पुल ही भरभरा कर गिर गया…” घटनास्थल का मुआयना करते हुए पच्ची सिंह ने अपनी उत्सुकता जाहिर की.
“सच कहते हो भाई, राजधानी में बेटियां और इस प्रदेश में पुल तो बिलकुल भी सुरक्षित नहीं हैं. लोहा का पुल हो तो चोरी होने में और कंक्रीट का हो तो गोताखोरी करने में विलंब नहीं करता भाई,” माथा महतो ने अपना अनुभव साझा किया.
घंटों स्थल एवं निर्माण मैटीरियल का निरीक्षण कर माथा-पच्ची ने अपनी रिपोर्ट तैयार की. जांच आयोग एवं पदाधिकारियों द्वारा प्रैस कौन्फ्रैंस बुलाई गई.
“सर, अरबों रुपए का पुल स्ट्रक्चर आखिर कैसे गिर गया?” पहला प्रश्न बाल की खाल न्यूज चैनल के पत्रकार ने किया.
“देखिए, सृष्टि और संहार तो प्रकृति का नियम है, इंसानी जीवन का कोई भरोसा नहीं, यह तो कृत्रिम पुल मात्र है,” माथा महतो ने जवाब दिया.
“तो इस में सरकार दोषी है या निर्माण एजेंसी?” अगला प्रश्न कह के लूंगा मीडिया के रिपोर्टर का था.
पच्ची सिंह ने गहरी सांस ली और कहना शुरू किया, “आप लोग भी न, कमाल करते हैं. जब सरकार को पुल गिराना ही होता तो वह बनवाती ही क्यों? और कभी सुना है कि जन्म देने वाली मां बच्चे को जन्म देने से पहले ही मार डालना चाहती हो, तो फिर निर्माण करने वाले मासूम इंजीनियर भला क्यों बनने से पहले ही पुल गिराना चाहेंगे.”
“तब फिर पुल गिरा कैसे?” उपस्थित सभी पत्रकार एकसाथ पूछ बैठे.
“वही बताने के लिए आप लोगों को बुलाया है,” माथा-पच्ची संयुक्त स्वर में बोले, “देखिए, हम गहराई से तफतीश कर इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि पुल न तो घटिया मैटीरियल और न ही निर्माण एजेंसी की गलती से गिरा है. ऐसा है कि घटना वाले दिन वातावरण का तापमान 52 डिग्री से ज्यादा था. प्रचंड गरमी के कारण पुल का पाया पिघल गया और उद्घाटन से पहले ही पुल भरभरा कर गिर गया.”
माथा-पच्ची की बात सुन सभी मीडियाकर्मी एकदूसरे का मुंह ताकने लगे.
“असंभव, गरमी की वजह से पुल का पिलर कैसे पिघल सकता है?” समाज तक का रिपोर्टर पूछ बैठा.
“भाई जी, जब थाना मालखाना से करोड़ों रुपए की शराब चूहा पी सकता है, चुनाव में कम सीट आने पर ईवीएम दोषी हो सकती है तो ग्लोबल वार्मिंग से पुल का पिलर नहीं पिघल सकता क्या!”
माथा-पच्ची के इस बयान के बाद प्रैस कौन्फ्रैंस और जांच की प्रक्रिया का संयुक्त रूप से आधिकारिक समापन कर दिया गया.