सीमा और अमित अपने डेढ़ साल के बेटे अंशुल के साथ एक पारिवारिक शादी में गए थे. नन्हा अंशुल अपनी मां सीमा की गोद में बैठा आइसक्रीम के मजे ले रहा था, तभी अमित की बूढी नानी आ गयी. सीमा ने झुक कर उनके पैर छुए, उसको आशीर्वाद देते नानी के हाथ जैसे ही अंशुल को दुलारने के लिए आगे बढ़े, अंशुल चीखें मार कर रोने लगा. दरअसल नानी के बूढ़े झुर्रियोंदार चेहरे से वह बुरी तरह डर गया था. उसने कभी अपने घर में इतनी ज़्यादा उम्र का बुजुर्ग नहीं देखा था. दिल्ली में सीमा और अमित परिवार से दूर अपने अलग फ्लैट में रहते थे. दोनों जवान थे. अमित जहां अभी 28 साल का था वहीं सीमा की उम्र भी महज 26 वर्ष की थी. दोनों ने लव मैरिज की थी, इसलिए अपने घर की शान्ति के लिए शुरू से ही दोनों अपने अपने परिवार से दूर ही रहे. यहां दिल्ली में उनके फ्लैट पर आने वाले अधिकतर युवा लोग ही थे. उनके साथ नन्हा अंशुल बहुत जल्दी घुलमिल जाता था. मगर नानी जैसा बूढ़ा चेहरा देख कर तो वह घबरा ही गया.
पार्क में साथ खेल कर लौटी प्रिया और आरती किसी बात पर जोर जोर से हंस रही थीं. मां ने पूछा तो बोली – मम्मी आज राहुल अपनी दादी को लेकर पार्क में आया था. उसकी दादी चल तो पाती नहीं हैं. पूरे वक़्त राहुल का हाथ पकड़ कर पार्क में घूमती रही. उसको हमारे साथ खेलने भी नहीं दिया. बूढी को दिखाई भी कम देता है. पार्क के गेट पर लुढ़क गयी. फिर एक अंकल ने उनको उठाया. सारे लोग देख देख कर हंस रहे थे.
मां ने समझाया – ”बेटा किसी को देख कर ऐसे हंसते नहीं हैं.”
आरती – ”अरे मम्मी तुम देखती तो तुम भी हंसते हंसते पागल हो जातीं.” कहते हुए दोनों अपने कमरे में भाग गयीं. इनमे से प्रिया की उम्र 13 साल और आरती 15 साल की थी.
मेट्रो ट्रेन में जिन युवाओं या कॉलेज स्टूडेंट्स को सीट मिल जाती है, देखा गया है कि किसी बुजुर्ग के मेट्रो में चढ़ने पर वे अपनी सीट उनके लिए नहीं छोड़ते. ऐसे में कई स्टेशन तक बुजुर्ग यात्री खड़े खड़े ही यात्रा करते हैं. रास्तों पर भी अब किसी बुजुर्ग को रास्ता पार करने के लिए युवा हाथ कम ही आगे बढ़ते हैं.
बुजुर्गों के साथ बैठना, उनसे बातें करना, उनके अनुभवों से लाभ उठाना या उनकी छोटी छोटी जरूरतों को पूरा करने की चाह आज के युवाओं में नहीं देखी जाती. महान साहित्यकार मुंशी प्रेमचंद की एक कहानी याद आती है – बूढी काकी. बूढी काकी जिसने बुढ़ापे में अपना घर और जमीन अपने भतीजे के नाम लिख दी. जायदाद मिलने के बाद काकी के भतीजे और बहु का व्यवहार ही उनसे बदल गया. वे ना उनके खाने का ध्यान रखते और ना उनकी किसी जरूरत की परवाह करते थे. काकी अपने ही घर के बाहर बनी एक कोठरी में अकेली पड़ी रहती थी. घर के सभी लोग उसको दुत्कारते, सिर्फ एक किशोर उम्र की लड़की को छोड़ कर. काकी के भतीजे की बेटी जो कोई 12 साल की थी, आज अपनी मां की रसोई से अक्सर बूढी काकी के लिए खाने की चीजें चुरा कर उनको चुपके से खिला आती थी. बूढी काकी के प्रति उसका स्नेह और अपनत्व था और काकी भी उसको खूब प्यार देती थी, उसको खूब अच्छी अच्छी बातें करती थी. अच्छी सीख देती थी. दोनों के बीच अच्छी बॉन्डिंग थी. दो पीढ़ी पहले तक के बच्चों में अपने घर के बड़े-बूढ़ों के साथ ऐसी ही बॉन्डिंग हुआ करती थी. मगर वर्तमान पीढ़ी में यह ख़त्म हो रहा है और कई जगह पूरी तरह ख़त्म हो चुका है. बूढ़े लोगों के प्रति संवेदनहीनता और कई बार निर्ममता समाज में दिखने लगी है. इसकी कई वजहें हैं –
एकल परिवार
आजकल ज़्यादातर युवा शादी के बाद अपने मातापिता से अलग घर लेकर रहने लगे हैं. यह दूरी अच्छा करियर बनाने और नौकरियों के कारण भी आयी है. आज लड़के लड़कियां पढ़ाई ख़त्म करके अन्य शहरों में या मेट्रो सिटीज में जौब ढूंढते हैं ताकि वे कुछ आजाद रह सकें. जो युवा सरकारी नौकरी में आ जाते हैं उनकी भी पोस्टिंग अन्य शहरों में होती है. शादी के बाद वे पत्नी को अपने माता पिता के पास नहीं बल्कि अपने पास रखते हैं. अगर लड़की भी नौकरीपेशा है तो वह पति के साथ ही रहना चाहती है. ऐसे में संयुक्त परिवार अब लगभग टूट चुके हैं, जिसमें बच्चों को प्यार करने वाले दादा दादी मिलते थे. संयुक्त परिवारों में अक्सर रिश्तेदारों का भी आना जाना लगा रहता थे. कभी नानी नाना आ रहे हैं, कभी बुआ दादी चली आ रही हैं. तो बचपन से ही उनका अपने बुजुर्गों के साथ एक करीबी आत्मीय सम्बन्ध बन जाता था. वे जैसा घर के बुजुर्गों के साथ प्रेमपूर्ण व्यवहार करते थे, घर के बाहर मिलने वाले बुजुर्गों के साथ भी वैसा ही व्यवहार रखते थे. उनकी परेशानी और जरूरतें भी आसानी से समझ जाते थे. मगर एकल परिवार के बच्चे ना तो बुजुर्गों के सानिध्य में रहते हैं, ना उनके प्रति कोई अपनत्व या स्नेह का भाव उनमें पैदा होता है. लिहाजा बाहर नज़र आने वाले बूढ़े लोगों के प्रति भी वे उपेक्षा का व्यवहार रखते हैं.
बुजुर्गों के प्रति उनकी संतानों का बुरा व्यवहार
बहुत से घरों में बहू का अपनी सास के साथ सम्बन्ध अच्छा नहीं होता है. दोनों लड़ती रहती हैं. एक दूसरे के बारे में गलत बातें कहती हैं. आयेदिन अखबारों में अनेक समाचार बुजुर्गों को प्रताड़ित करने के छपते हैं. कई बार तो बेटा बहू मिल कर बूढ़े मां बाप पर अत्याचार करते हैं. वहीं अपने बच्चों को भी उनके पास जाने से रोकते हैं और बच्चों के मन में दादा दादी के प्रति नफरत भरते हैं. बच्चे जब बहुत कम उम्र से अपने घर के बुजुर्गों को अपमानित होते देखते हैं तो उनके दिमाग में यह बात घर कर जाती है कि बूढ़े लोग अच्छे नहीं होते हैं, तभी तो उनको दुत्कार कर रखा जाता है. उनको गाली दी जाती है, भूखा रखा जाता है, या बासी खाना दिया जाता है अथवा मारा-पीटा जाता है. ऐसे बच्चे बड़े होकर कभी भी परिवार और समाज के बुजुर्गों के लिए प्रेम या सदाचार का भाव प्रकट नहीं कर सकते. क्योंकि बुजुर्गों के साथ उनका कभी अपनत्व भाव रहा नहीं. ऐसे ही बच्चे मेट्रो ट्रेन या बस में बूढ़ों को खड़े देख कर भी अपनी सीट उनके लिए नहीं छोड़ते. ऐसे ही बच्चे सड़क पार करते किसी बूढ़े का हाथ थामने के लिए अपना हाथ आगे नहीं बढ़ाते बल्कि इयरफोन कान में ठूंसे खटाखट खटाखट उनके बगल से होकर गुजर जाते हैं. उनको यह अहसास भी नहीं होता कि वह बुजुर्ग असहाय और जरूरतमंद है.
बीते तीन दशकों में वृद्धाश्रमों में बुजुर्गों की संख्या में बहुत तेजी से इजाफा हुआ है. अब इंसान की जीवन प्रत्याशा भी काफी बढ़ गयी है. पहले जहां साठ-पैंसठ की उम्र तक ही लोग जीते थे, अब अस्सी-नब्बे साल तक जी रहे हैं. साठ साल में रिटायर होने के बाद आगे तीस साल वे घर में खाली बैठे हैं. बहुत से बुजुर्ग तो कुछ ना करने के कारण ही चिड़चिड़े हो जाते हैं. जीवन के चालीस साल काम किया और अचानक बिलकुल खाली होकर बैठ गए.
ऐसे में वे बेटे बहू के काम में टांग अड़ाने लगते हैं. उन्हें मश्वरे देने लगते हैं जो अक्सर उन्हें पसंद नहीं आते और वे चाहते हैं कि उनके बूढ़े पिता या तो अपने कमरे में रहें या भगवान् भजन करें. ऐसे ही बूढी औरतें अक्सर अपनी बहुओं के काम में नुक्स निकालती रहती हैं या रिश्तेदारों या मोहल्ले वालों से उसकी बुराई करने में लगी रहती हैं. जिससे रिश्तों में खटास पैदा हो जाती है. ऐसे बूढ़े फिर अपनी ही संतानों को बोझ लगने लगते हैं. यही वजह है कि अनेक परिवार अपने बूढ़ों को त्याग रहे हैं. वे उनके साथ नहीं रहना चाहते. उनकी जरूरतें एक बोझ सी महसूस होती हैं. उनके लिए समय निकालना या उनसे थोड़ी देर बैठ कर बात करना भी वे गवारा नहीं समझते.
नौकरीपेशा बहुओं को अपने सास ससुर के लिए अलग से सादा खाना पकाना एक बोझ सा लगता है. पहले पति और बच्चों के लिए बनाओ, फिर सास ससुर के लिए बनाओ. उनके कारण वे कहीं बाहर घूमने-फिरने नहीं जा सकते. सास ससुर बीमार हो जाएं तो दिन भर उनकी देखभाल करो. महंगी दवाएं, टौनिक, डाक्टर की फीस भरो. ऐसी तमाम जिम्मेदारियां आज के बहु बेटे नहीं उठाना चाहते हैं. वे उनसे मुक्त होने के लिए छटपटा रहे हैं. इसलिए या तो नौकरी के बहाने वे मां बाप को छोड़ कर अन्य शहर में रह रहे हैं या वृद्ध माता पिता को वृद्धाश्रम में पहुंचा देते हैं. दादा दादी के प्रति मां बाप का ऐसा उपेक्षित व्यवहार देख कर बच्चे भी वैसा ही व्यवहार अपने बुजुर्गों के साथ करते हैं. फिर चाहे वे घर में हों या बाहर.
समाज और परिवार का तानाबाना ना बिखरे. इंसान का इंसान से प्रेम और स्नेह बना रहे इसके लिए बहुत जरूरी है कि हमारी सामाजिक संस्थाएं, स्कूल, कालेज और सरकार सब मिल कर बच्चों और बुजुर्गों के बीच स्नेह की डोर को मजबूत करें. बच्चों और बुजुर्गों को साथ लाकर ही उनके बीच के अजनबीपन को मिटाया जा सकता है.
स्कूलों में छोटी उम्र के बच्चों से टीचर्स पूछें या निबंध के रूप में लिखवाएं कि उनके अपने दादा दादी, नाना नानी के साथ कैसे रिश्ते हैं? वे उनसे क्या सीखते हैं? वे उनके साथ घूमने जाते हैं या नहीं? वे उनका ख्याल रखते हैं या नहीं? वे उनके साथ खाना खाते हैं या नहीं? इन सवालों के जवाब देते हुए बच्चे बहुत कुछ सीख भी जाएंगे और यदि उनके माता पिता घर के बुजुर्गों के साथ कोई अशोभनीय हरकत करते हैं तो उन पर भी रोक लगेगी.
समय समय पर स्कूलों में पेरैंट-टीचर मीटिंग होती है. ऐसे ही स्कूलों में ग्रैंड पैरेंट-टीचर मीटिंग्स भी होनी चाहिए जिसमें बच्चे अपने दादा दादी के साथ आएं. ऐसी मीटिंग्स होंगी तो दादा दादी को भी अपनी कुछ अहमियत महसूस होगी. बच्चों के साथ उनके प्रेम की डोर और मजबूत होगी, यही नहीं जब उनके जवान बेटे बहू देखेंगे कि बच्चों के स्कूल में दादा दादी भी इन्वाइट किये जा रहे हैं तो इस डर से कि कहीं उनकी कही कोई गलत बात वे बच्चों की टीचर से ना कह दें, अपने माता पिता के साथ ठीक व्यवहार करने लगेंगे. इसके साथ वे यह भी चाहेंगे कि उनके बच्चों के स्कूल में जब दादा दादी जाएं तो अच्छे कपड़े-जूते वगैरह पहन कर जाएं. इसलिए वे अपने बुजुर्गों के लिए कुछ शौपिंग भी करेंगे. उनके लिए अच्छे कपड़े भी खरीदेंगे. बहू सास को कोई अच्छी साड़ी निकाल कर पहनने के लिए देगी. अच्छी सैंडल और पर्स देगी ताकि उसके बच्चे के स्कूल में उसकी इज्जत ना घटे. फिर बच्चे भी दूसरे बच्चों से अपने दादा दादी को मिलवा कर खुश होंगे. वहाँ अन्य बुजुर्ग भी एक दूसरे से मिलेंगे, बात करेंगे. अगर बच्चों और बुजुर्गों के बीच स्नेहिल संबंधों को बनाने की शुरुआत स्कूल से हो तो इसका असर परिवार, समाज और मानवता पर गहरा पड़ेगा.
स्कूल अक्सर बच्चों को चिड़ियाघर, पिकनिक पर या ऐतिहासिक स्मारकों को दिखाने के लिए ले जाते हैं. इस लिस्ट में उन्हें वृद्धाश्रमों को भी शामिल करना चाहिए. टीचर्स बच्चों को वहाँ ले जाएं. दिन भर उनके साथ व्यतीत करें. उनके साथ गेम्स खेलें. साथ खाना खाएं. उनसे कहानियां सुने. वहां ऐसे लैक्चर भी हों जिनसे बच्चे यह जानें कि किन मजबूरियों के कारण वे बुजुर्ग परिवार से अलग वहां आकर रह रहे हैं. इससे बच्चों के अंदर अपने समाज के बुजुर्गों के लिए संवेदनशीलता पैदा होगी. वह उनकी मजबूरियों और जरूरतों को भी समझेंगे.
छोटी कक्षाओं से ही बच्चों को कहानियों की ऐसी किताबें पढ़ने को मिलनी चाहियें जिसमें दादा दादी, नाना नानी की उनके ग्रैंड चिल्ड्रेन्स के साथ बौन्डिंग की कहानियां खूब हों. इससे उनके अंदर बचपन से ही अपने बड़े-बूढ़ों के प्रति सम्मान और स्नेह विकसित होगा. टीचर्स उनको कुछ ऐसे टास्क दे सकते हैं जिसमें वे अपने क्षेत्र के किसी जरूरतमंद बुजुर्ग के लिए कुछ कर के दिखाएं. वे अपने द्वारा किये गए कार्य को लिखें और फिर सबसे अच्छा कार्य जिस बच्चे ने किया उसे पेरैंट-टीचर मीटिंग के दिन या किसी अन्य फंक्शन पर सारे पेरेंट्स और बच्चों के सामने पुरस्कृत किया जाना चाहिए. इससे सभी बच्चों में अपने आसपास के बूढ़े लोगों के प्रति जागरूकता और संवेदनशीलता बढ़ेगी और उनके माता पिता भी अपने बुजुर्गों से अच्छा व्यवहार करेंगे.
बच्चे वही सीखते हैं जो उनके माता पिता उनके सामने करते हैं. अगर माता पिता किसी बुजुर्ग के प्रति अच्छा व्यवहार नहीं कर रहे हैं, तो उनको बच्चों के माध्यम से ही सही रास्ते पर लाया जा सकता है और इसकी शुरुआत स्कूलों से होनी चाहिए.