रात काफी हो गई थी. शिवा और सृजा घर पर चल रही पार्टी खत्म होने का इंतजार कर रहे थे. जैसे ही सारे मेहमान विदा हुए, शिवा बोले, ‘‘आज की पार्टी देख कर मेहमानों की आंखें फैली रह गईं. उन्होंने हमारी ओर से ऐसी पार्टी की कभी कल्पना भी नहीं की होगी.’’
‘‘आज सब के सामने हमारी इज्जत बहुत बढ़ गई, शिवा. काश, हमारे पास ढेर सारा रुपया होता तो हम आएदिन ऐसी ही पार्टी करते रहते.’’
‘‘चिंता क्यों करती हो? पापा के पास बहुत सारी प्रौपर्टी है. उन के अपने खर्चे तो कुछ हैं नहीं. उन के जाने के बाद वह सबकुछ हमारा हो जाएगा और फिर हम सबकुछ बेच कर ऐसे ही ऐश करेंगे.’’
‘‘तुम ने उन्हें वसीयत के बारे में याद दिला दिया था न?’’
‘‘पापा से कहने की मेरी हिम्मत नहीं पड़ती. मम्मी को कई बार कह चुका हूं. वे हर बार यह बात टाल जाती हैं.’’
‘‘जितनी जल्दी हो सके उन का सबकुछ अपने नाम करवा लो, तभी हमारी जिंदगी सुकून से चल सकती है. हमारे अपने खर्चे अब तनख्वाह से पूरे नहीं होते हैं. बैंक बैलेंस की हालत तुम देख ही रहे हो. किटी पार्टीज और क्लब मैंबरशिप में बहुत रुपए निकल जाते हैं. यही हाल रहा तो कुछ समय बाद परेशानियां खड़ी हो जाएंगी.’’
‘‘मैं तुम्हारी बात समझ रहा हूं, सृजा. लेकिन यह मेरे हाथ में नहीं है.’’
‘‘एक बार जा कर उन से बात कर लो.’’
‘‘वहां जा कर क्या होगा? ढेर सारे उपदेश सुनने पड़ेंगे और संयमित जीवन जीने का पाठ पढ़ाया? जाएगा. मुझे इन सब पचड़ों में नहीं पड़ना. मुझे इन में कोई इंटरैस्ट नहीं है. बस, जो कुछ उन्होंने जोड़ा है चाहता हूं कि वह जल्दी से जल्दी हमारे नाम हो जाए, जिस से हमारी जिंदगी इसी तरह ऐशोआराम से गुजरती रहे.’’
‘‘रात काफी हो गई है. अब सो जाओ. कल मम्मी को फिर से याद दिलाऊंगा,’’ कह कर उस ने बात खत्म कर दी.
शाम का समय था. उस की मम्मी चारु और पापा विवेक साथ बैठ कर चाय पी रहे थे. तभी अचानक मोबाइल की घंटी बज उठी. चारु ने चाय का कप मेज पर रखा और चश्मा लगा कर मोबाइल पर नाम पढ़ने लगी. शिवा का नाम पढ़ते ही उस की आंखों में चमक आ गई. विवेक समझ गए किसी करीबी का फोन है. वह बोली, ‘‘कैसे हो बेटा?’’
‘‘अच्छा हूं मम्मी.’’
‘‘बहुत दिनों से तुम्हारे फोन का इंतजार कर रही थी. हमारा ध्यान तुम पर ही लगा रहता है.’’
‘‘नौकरी के सिलसिले में समय ही कहां मिलता है मम्मी?’’
‘‘इस उम्र में अपना ध्यान कहीं और लगाया करें मम्मी, सांसारिक मोहमाया में नहीं. वैसे भी मेरी बातें आप एक कान से सुन कर दूसरे से निकाल देती हैं. मैं आप से पहले भी एक ही बात कई बार कह चुका हूं. उस के बारे में आप ने क्या सोचा?’’
‘‘तुम किस बारे में बात कर रहे हो?’’
‘‘हर बार आप यही पूछती हो.’’
‘‘समझ गई. अभी मैं ने तुम्हारे पापा से बात नहीं की है.’’
‘‘कितना समय लगा दिया है आप ने इतनी सी बात पूछने में. यह काम समय रहते हो जाना चाहिए. आप जानती ही हैं, आप दोनों उम्र के उस पड़ाव में हैं जहां पर बीमारी और दुख बता कर नहीं आते.’’
‘‘नाराज मत हो. मैं तुम्हारे पापा से अभी बात कर लूंगी.’’
‘‘ठीक है रखता हूं. फिर बात करूंगा. अभी मुझे जरूरी काम निबटाने हैं,’’ इतना कह कर शिवा ने फोन कट कर दिया.
फोन पर नाम पढ़ते हुए जो चमक चारु के चेहरे पर आई थी वह बात करते हुए धीरेधीरे गायब हो गई. उस ने मोबाइल वापस मेज पर रख दिया और चुपचाप चाय पीने लगी.
‘‘क्या कह रहा था तुम्हारा जिगर का टुकड़ा?’’ विवेक ने पूछा तो चारु ने सूनी आंखों से उन की तरफ देखा. विवेक को अपने शब्दों पर पछतावा होने लगा था. चारु को देख कर लग रहा था जैसे वह अभी रो देगी. बात को संभालते हुए वे बोले, ‘‘उम्र के इस पड़ाव पर बातों को दिल से नहीं लगाते चारु. क्या कह दिया उस ने?’’
‘‘हर बार एक ही बात कहता है. हमारे सुखदुख से जैसे उसे कोई वास्ता ही नहीं रह गया. एक बार भी नहीं पूछा आप और पापा कैसे हैं?’’
‘‘जानता है ठीक ही होंगे तभी तो इतनी ऊंची आवाज में बात कर रहा था फोन पर.’’
‘‘जरा सा हमारे बारे में भी पूछ लेता तो उस का क्या चला जाता? हम उस से और किसी बात की अपेक्षा नहीं रखते. दो बोल प्यार के बोल दे तो हमारी तबीयत वैसे ही संभल जाती. 2 हफ्ते बाद आज उस का फोन आया वह भी सिर्फ अपनी बात याद दिलाने के लिए.’’
‘‘चलो, इसी बहाने कम से कम उसे याद तो है कि उस के भी मम्मी और पापा हैं. बच्चों की बातें गंभीरता से न लिया करो और अपनेआप में खुश रहना सीखो. मैं हूं न तुम्हारे साथ,’’ विवेक बोले तो चारु थोड़ा सा सहज हो गई.
‘‘मैं भी पता नहीं क्याक्या सोचने लगती हूं? भला फोन से कोई 2 शब्द प्यार के बोल भी दे तो उस से क्या फर्क पड़ जाता? नहीं पूछा तो क्या हो गया? हम जैसे हैं वैसे ही भले हैं और आगे भी रहेंगे.’’
‘‘आज उस के फोन ने मुझे बहुतकुछ सोचने पर मजबूर कर दिया है, चारु. शिवा की बात अपनी जगह पर सही है.’’
‘‘तुम भी उस का पक्ष ले रहे हो?’’
‘‘जैसा भी है अपनी औलाद है. कुछ भी कह लो. घुमाफिरा कर हमारी सारी अपेक्षाएं और उम्मीदें औलाद पर ही आ कर टिक जाती हैं.’’
‘‘तुम कहना क्या चाहते हो?’’
‘‘यही कि हमें उस की बात मान लेनी चाहिए.’’
‘‘कैसी बातें करते हो? जो अभी हमें नहीं पूछता है वह बाद में क्या पूछेगा?’’
‘‘तुम जरा ठंडे दिमाग से सोचना. तुम्हें उस की और मेरी बातें ठीक लगेंगी. उम्र का क्या है यह तो चंद अंकों का जोड़ होता है. मन में जीने की लालसा हो तो इंसान कई सालों तक निरोगी रहते हुए अपनी जीवन यात्रा पूरी कर लेता है.’’
‘‘कहीं ऐसा न हो हमें कोई ऐसा रोग लगे जिस से हमें दूसरे का मुहताज होना पड़े.’’
‘‘मुहताज तो हम आज भी किसी के नहीं हैं और न कभी होंगे. अपने जीतेजी हम ने इतनी कमाई जरूर की है कि अपना खयाल खुद रख सकें. कभी अपने हाथ से न कर पाएंगे तो किसी को मदद के लिए रख लेंगे फिर भी किसी के आगे हाथ नहीं फैलाएंगे.’’
‘‘तुम बात को घुमा कर कहां की कहां ले जाते हो.’’
‘‘मेरे कहने का यह मतलब नहीं था चारु.’’
‘‘जब से उस का फोन आया है तब से हम दोनों इसी विषय पर बात कर रहे हैं. टहलने का टाइम हो गया है. पार्क में हमारे दोस्त इंतजार कर रहे होंगे,’’ विवेक बोले.
‘‘आज समय का पता ही नहीं चला. मैं अभी तैयार हो कर आती हूं,’’ इतना कह कर चारु शूज पहनने चली गई. विवेक ने अपनी छड़ी उठाई और बाहर आंगन में उस का इंतजार करने लगे. पार्क उन के घर से जरा सी दूरी पर था. शाम को 2 घंटे के लिए वे वहां चले जाते और दोस्तों के साथ अच्छा समय बिता कर वापस आते. चारु अपनी हमउम्र साथियों के साथ वक्त बिता कर दिनभर की थकान भूल जाती. घर लौट कर आने पर शांताबाई आ जाती और वह उन का रात का खाना तैयार कर देती.
कहने को दोनों को घर में कोई परेशानी न थी. नौकरचाकर सब काम निबटा जाते. मोबाइल पर औनलाइन सुविधा होने के कारण विवेक को भी बिजली, पानी, भवन कर आदि के बिल जमा करने की टैंशन नहीं थी. मन बहलाने के लिए घर का सामान कभी वे खुद ले आते और कभी औनलाइन और्डर कर देते.
आज न जाने क्यों उन के चेहरे पर रोजमर्रा वाली खुशी नहीं दिख रही थी.
‘‘क्या बात है, विवेक. तुम्हारी तबीयत तो ठीक है?’’ विकास ने पूछा.
‘‘मुझे क्या हुआ है? एकदम फिट और हैल्दी हूं.’’
‘‘मुझे लगा किसी बात को ले कर तुम्हारे मन में दुविधा चल रही है.’’
‘‘मान गए तुम्हें. अब तुम अखबार के साथ दूसरों का मन भी पढ़ लेते हो.’’
‘‘दूसरों की नहीं कह सकता लेकिन अपने करीबियों को पढ़ने की कोशिश करता हूं,’’ विकास बोले.
‘‘एक बात बताओ, तुम्हारे भी 2 बच्चे हैं. वे तुम्हारी खबर लेते रहते हैं?’’
‘‘आज का जमाना तुम जानते ही हो. सब बच्चे अपनेआप को बहुत व्यस्त जताते हैं. बेटे का फोन हफ्ते 10 रोज में आ जाता है लेकिन बिटिया मां को फोन करना नहीं भूलती.’’
‘‘सही बोले. बेटियां होती ही ऐसी हैं.’’
‘‘सच पूछो तो बेटियां अच्छे संयोग से ही मिलती हैं. आज तुम यह सब क्यों पूछ रहे हो?’’
‘‘ऐसे ही कभीकभी मन भटकने लगता है. चारु ज्यादा सैंसिटिव है. बच्चों के फोन नहीं आते तो परेशान हो जाती है.’’
‘‘मुझे लगता है कि भाभी के बहाने तुम अपने दिल की बात कह रहे हो.’’
‘‘यही समझ लो. याद तो हर समय उन की आती रहती है लेकिन मर्द हूं मन को संभाल लेता हूं. चारु अपनी भावनाएं दबा नहीं पाती और कभीकभी बहुत भावुक हो जाती है.’’
‘‘उन के साथ तुम हो तो.’’
‘‘समझने की कोशिश करता हूं लेकिन मां का मन कहां मानता है? वह हर समय बच्चों पर ही लगा रहता है. खाते, जागते, उठतेबैठते बस उन्हीं के बारे में सोचती रहती है. अपना ध्यान उन से हटा नहीं पाती.’’
‘‘बुढ़ापे में जब शरीर शिथिल होने लगता है तो दिमाग ज्यादा तेज दौड़ता है. यह उसी का परिणाम है. मन के घोड़े एक सैकंड में कहां से कहां पहुंच जाते हैं इस की हम कल्पना भी नहीं कर सकते.’’
‘‘छोड़ो इन बातों को. यह बताओ कि आज का दिन कैसा रहा?’’
‘‘रोज की तरह एकदम बढि़या.
सुबह के काम निबटा कर बाजार की तरफ निकल जाता हूं. समय कब कट जाता है पता ही नहीं चलता.’’
‘‘इस से ज्यादा हमें और क्या चाहिए?’’ विकास बोले.
‘‘चाहिए तो बहुतकुछ होता है लेकिन उतना सब मिलता कहां है. मन बहलाने के लिए उसे कहीं न कहीं लगा कर रखना पड़ता है और वह काम मुझे बखूबी आता है.’’
तभी वहां पर नरेन आ गए और उन की बातों का सिलसिला वहीं पर छूट गया. उस के बाद राजनीति की बातें घर जातेजाते तक खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही थीं. वापस लौट कर आने पर चारु और विवेक दोनों का मन हलका हो गया था. शांताबाई उन के लौटने का इंतजार कर रही थी.
‘‘आज आने में जरा देर हो गई. तुम कब आईं शांताबाई?’’
‘‘अभी आई हूं, दीदी.’’
‘‘ज्यादा इंतजार तो नहीं करना पड़ा?’’
‘‘मुझे चिंता हो रही थी आप लोग कहां चले गए? कहीं जाते हैं तब उस की खबर पहले कर देते हैं.’’
‘‘शांताबाई, आज बातों में समय का पता ही नहीं चला.’’
शांताबाई ने उन के लिए सूप बनाया और उस के बाद खाना बनाने लगी.
चारु सोचने लगी कि इंसान जीवनभर परिवार के लिए कितनी मेहनत करता है और आखिर में उस के हाथ क्या लगता है? बच्चे बड़े होते ही अपने रास्ते चल देते हैं. पीछे से बूढ़े मम्मी और पापा उन्हें याद करने के लिए रह जाते हैं.
शांताबाई भी अपने परिवार के लिए दिनरात काम में जुटी रहती. उस ने दोनों बेटों की कम उम्र में घर बसा दिए. वे भी मेहनतमजदूरी कर के अपना परिवार पाल रहे थे. शांताबाई के ऊपर अभी बेटी की जिम्मेदारी थी. उसी की खातिर वह इतनी मेहनत कर कुछ रुपए जुटा रही थी जिस से अच्छे घर में बेटी का रिश्ता कर सके.
एक दिन चारु ने पूछा, ‘‘चित्रा का रिश्ता कहीं तय हुआ?’’
‘‘बात चल रही है, दीदी. वे कुछ दिन में जवाब दे देंगे.’’
‘‘तेरी बेटी बहुत गुणवान है. जिस घर में जाएगी उसे खुशहाल बना देगी.’’
‘‘यही सोच कर उस के लिए अच्छा घर देख रही हूं जिस से उसे शादी के बाद मेरी तरह घरघर जा कर काम न करना पड़े. चित्रा के जाने पर घर सूना हो जाएगा. यह खयाल आते ही मन घबराने लगता है. उस के बगैर मैं कैसे रहूंगी. वह मेरा बहुत खयाल रखती है. घर पर मुझे कुछ नहीं करने देती.’’ शांताबाई की बात सुन कर चारु को अपने पुराने दिन याद आने लगे. वह भी बच्चों के अपने से दूर जाने की कल्पना मात्र से ही डर जाती थी.
ऐसे मौके पर शिवा मम्मी की हिम्मत बढ़ाता, ‘‘मम्मी, आप बेकार में चिंता करती हो. मैं पढ़ाई करने दूर जा रहा हूं. दिल से थोड़े से जा रहा हूं. जब मौका लगेगा झट घर आ जाऊंगा.’’
उस की बात सच थी. पढ़ाई के दौरान उस का मन होस्टल में बिलकुल न लगता. कभी वे उस से मिलने वहां चले जाते और कभी वही छुट्टी लेकर घर आ जाता. इंजीनियरिंग की पढ़ाई के शुरू के 2 साल शिवा ने बड़ी मुश्किल से गुजारे. तीसरा साल शुरू होते ही सृजा उसी कालेज में फर्स्ट ईयर में आ गई. दोनों के बीच पहले दोस्ती हुई और वह प्यार मे बदल गई. डिग्री मिलते ही उसे एक अच्छी कंपनी में नौकरी मिल गई.
सृजा की पढ़ाई अभी बाकी थी. शिवा को जब भी समय मिलता वह मम्मी और पापा के पास आने के बजाय सृजा से मिलने पहुंच जाता. चारु और विवेक इस परिवर्तन को महसूस कर रहे थे.
एक दिन चारु ने हंसते हुए उस का दिल टटोला तो उस ने अपने दिल की बात बता दी. ‘‘मम्मी, मेरे साथ कालेज में सृजा पढ़ती थी. मुझे वह बहुत अच्छी लगती है. हम दोनों शादी करना चाहते हैं. अभी उस की पढ़ाई में एक साल बाकी है.’’
‘‘वह कहां की रहने वाली है?’’
‘‘कानपुर शहर की है,’’ शिवा बोला. उसे सृजा के बारे में जितनी भी जानकारी थी उस ने मम्मी को दे दी. उन्हें यह सब बता कर उस का मन हलका हो गया था.
विवेक और चारु उस की पसंद जान कर खुश हो गए. शिवा की खुशी में ही उन की खुशी शामिल थी. एक साल बाद सृजा की पढ़ाई पूरी होते ही शिवा ने उस की नौकरी का इंतजाम उसी कंपनी में कर दिया जिस में वह काम कर रहा था. अब दोनों का एकदूसरे से दूर रहना मुश्किल हो रहा था. सृजा ने अपने मम्मीपापा से शिवा के बारे में बात की. उन्हें इस शादी से कोई एतराज न था. दोनों परिवारों की रजामंदी से शिवा और सृजा का प्यार विवाह बंधन में बदल गया. सब खुश थे. शिवा के पैर धरती पर नहीं पड़ रहे थे.
शादी के बाद एक हफ्ते घर रह कर वे हनीमून पर निकल गए. वहीं से वे दोनों अपनेअपने काम पर चले गए. उन्हें जब भी मौका मिलता वे घर आने के बजाय घूमनेफिरने निकल जाते. सृजा को अपनी मम्मी और पापा से विशेष लगाव था. अकसर वह उन से मिलने चली जाती.
धीरेधीरे शिवा और सृजा इतने व्यस्त हो गए कि घर आना तो दूर फोन पर बात करने का भी उन के पास समय न था. सृजा कभी भी चारु और विवेक को अपने दिल और जिंदगी में वह जगह नहीं दे पाई जो उस ने अपने मम्मी और पापा के लिए सुरक्षित रखी थी. शादी के 5 साल के भीतर शिवा 2 बच्चों का पापा बन गया था. कभीकभी वे दोनों ही अपने पोते और पोती से मिलने उन के पास चले जाते. बच्चे भी उन से ज्यादा घुलतेमिलते नहीं थे.
विवेक नौकरी से रिटायर हो गए थे. वे पत्नी के साथ आराम से अपने दिन बिता रहे थे. इधर कुछ समय से शिवा लगातार उन के ऊपर वसीयत कराने का जोर डाल रहा था. उसे मम्मी और पापा के सुखदुख से कोई मतलब न था लेकिन उन की अर्जित की हुई संपति से बहुत लगाव था.
पापा से बात किए शिवा को काफी समय हो गया था. 2-3 हफ्ते में वह मम्मी को इस की याद जरूर दिला देता. इस से ज्यादा उस का अपने मम्मी और पापा से कोई जुड़ाव नहीं रह गया था. विवेक इस बात को बड़ी शिद्दत से महसूस कर रहे थे. उन का मन यह सुन कर खराब हो जाता. शिवा ने स्पष्ट शब्दों में कभी नहीं कहा कि सबकुछ मेरे नाम कर दो लेकिन उस के कहने का आशय वे भलीभांति समझ रहे थे.
शिवा उन की इकलौती औलाद था. उस से बड़ी उन की एक बेटी थी जो कैंसर के कारण वक्त से पहले चल बसी. उस का परिवार अमेरिका में रह रहा था. उन का भी इन से कोई संपर्क नहीं रह गया था. लेदे कर जो कुछ भी था सबकुछ शिवा का था फिर भी उसे मम्मी और पापा पर भरोसा न था, तभी वह इसी बात को ले कर बारबार जोर दे रहा था.
आज चारु की आंखों के भाव देख कर विवेक का मन कसैला हो गया था. उन्हें लगा जो बेटा जीतेजी उन का नहीं हो सका वह उन के जाने के बाद चारु को कभी नहीं पूछेगा. रहरह कर यही बात उन के दिमाग में घूम रही थी. उन्हें अपनी पत्नी से बहुत प्रेम था. वह उन के हर सुख और दुख की साथी रही. उम्र के इस पड़ाव में जब उस के अलावा चारु का कोई न था तब उसे देख कर उन्हें दया आती थी. उन के अंदर मर्द होने का दंभ था. यह सब महसूस कर वे हर हाल में अपनेआप को संभाल लेते लेकिन पत्नी की ओर से हमेशा सशंकित रहते. चारु खाना खाने के बाद दवाई ले कर आराम से सो गई थी. उस की यही बड़ी विशेषता थी. वह ज्यादा देर किसी बात को अपने अंदर न रख पाती. उसे रो कर या फिर विवेक को बता कर खुद हलकी हो जाती.
आज विवेक की आंखों में नींद न थी. पता नहीं क्यों पत्नी की सुरक्षा को ले कर उन्हें बहुत डर लग रहा था. सारी रात करवट बदलते गुजरी थी. सुबह वे देर से उठे. चारु ने आ कर पूछा, ‘‘क्या हुआ? तुम्हारी तबीयत तो ठीक है?’’
‘‘आज देर तक आंख लग गई.’’ उठ कर व्यायाम करने के बाद वे नहाधो कर बोले, ‘‘मैं बाजार जा रहा हूं कुछ लाना हो तो बता दो.’’
‘‘पता नहीं क्यों लग रहा है तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं है. तुम मुझ से कुछ छिपा रहे हो.’’
‘‘कैसी बात करती हो चारु? मैं ने तुम से कभी कुछ छिपाया है जो अब छिपाऊंगा,’’ विवेक बोल तो गए लेकिन अंदर ही अंदर डर रहे थे. इतने साल साथ रहने के कारण चारु उन की हर सांस को अच्छी तरह पहचानने लगी थी. घर से निकल कर वे सीधे कचहरी पहुंचे. वहां अपने वकील से मुलाकात की और फिर उसे पूरी बात समझा दी.
‘‘आप निश्चिंत रहें. मैं 2 दिन में कागज तैयार कर दूंगा. उस के बाद आप को जरा देर के लिए यहां आना पड़ेगा. अब सबकुछ औनलाइन होता है वरना मैं घर पर औपचारिकताएं पूरी कर देता.’’
वकील से मिल कर विवेक को लगा जैसे उन्होंने अपनी सारी परेशानी उस के सिर डाल दी. घर आ कर वे अपने को काफी हलका महसूस कर रहे थे.
चारु बोली, ‘‘खुली हवा में जा कर आप की चेहरे की रंगत बदल जाती है.’’
‘‘यह तुम ठीक कह रही हो. दिनभर घर में रह कर कभीकभी मन उकता जाता है. पता नहीं, तुम कैसे रह लेती हो?’’
‘‘शादी के बाद से घर पर ही रहने की आदत रही है. अब छूटती ही नहीं.’’
‘‘तुम्हें खुश देख कर मुझे भी अच्छा लग रहा है.’’
थोड़ी देर तक वे इधरउधर की बात करते रहे. शाम को दोस्तों के साथ पार्र्क में समय बिता कर विवेक को रोज की तरह बहुत अच्छा लगा था.
2 दिन बाद वकील का फोन आ गया. विवेक चारु से बोले, ‘‘चलो मेरे साथ.’’
‘‘कहां जाना है?’’
‘‘बताता हूं. तुम पहले तैयार हो जाओ.’’
चारु तैयार होने लगी. इतनी देर में ड्राइवर ने गाड़ी बाहर निकाल दी थी.
‘‘आज मैं तुम्हारे बेटे की इच्छा पूरी करने जा रहा हूं.’’
‘‘तुम बड़ी उस की बात मानने लगे?’’
‘‘और कोई चारा भी नहीं था, चारु. क्या करता वह अपना हो कर भी अपना नहीं रहा. बस, दिल में एक ही तमन्ना है कि मेरी अंतिम विदाई तुम्हारी नजरों के सामने इसी घर से हो.’’
‘‘ऐसी बात कहोगे तो मुझे नहीं जाना तुम्हारे साथ.’’
‘‘मजाक कर रहा था, तुम तो बुरा मान गईं.’’
‘‘सच बताना, तुम इतनी जल्दी उस की बात कैसे मान गए?’’
‘‘उस की बात नहीं मानूंगा तो किस की मानूंगा? आखिर है तो अपना खून.’’ विवेक की बातें आज चारु को बड़ी अजीब लग रही थीं. कल तक वे उस की कोई बात मानने को राजी नहीं थे आज उन के सुर बिलकुल बदले हुए थे. वकील के चैंबर में आ कर वे उन का इंतजार कर लगे. कुछ देर में वे आ गए.
‘‘ज्यादा इंतजार तो नहीं करना पड़ा विवेकजी? एक बार वसीयत पढ़ कर सुना देता हूं. अभी भी कुछ बदलाव करना चाहें तो कर सकते हैं,’’ इतना कह कर उन्होंने वसीयत पढ़ कर सुना दी, जो कुछ इस तरह थी-
‘मैं विवेक कुमार अपने होशोहवास में अपनी समस्त चल और अचल संपत्ति अपनी धर्मपत्नी चारु कुमार के नाम करता हूं. मेरी मृत्यु के बाद मेरी समस्त चल और अचल संपत्ति की एकमात्र वारिस श्रीमती चारु कुमार होंगी. वे उस का उपयोग और हस्तांतरण अपने ढंग से करने के लिए स्वतंत्र होंगीं…’
वकील के कहे हर शब्द के साथ चारु के चेहरे के हावभाव बदलते जा रहे थे.
‘‘बिलकुल ठीक है. इस में कुछ बदलने की गुंजाइश नहीं है.’’
‘‘ठीक है, चलिए मेरे साथ.’’ वे दोनों वकील के पीछे चल दिए.
चारु हौले से बोली, ‘‘यह आप ने क्या किया?’’
‘‘तुम्हारी सुरक्षा का इंतजाम कर दिया है, चारु. शिवा बहुत दिनों से कह रहा था न कि अपने होशोहवास में रहते वसीयत कर दो. उस का आशय मैं अच्छे ढंग से समझ रहा था.’’
‘‘आखिर बात तो वहीं आ कर अटक गई. संपत्ति मेरे नाम हो या तुम्हारे, शिवा को इस में से कुछ नहीं मिला. उसे यह जान कर बुरा लगेगा.’’
‘‘मुझे उस के जज्बात की कोई चिंता नहीं है. जब उसे हमारी परवा नहीं तो हम उस की परवा क्यों करें? यह बताओ, तुम्हें यह सब सुन कर कैसा लगा?’’
‘‘ऐसा कभी न हो कि मुझे यह दिन देखना पड़े. मैं अंतिम सांस तक आप के साथ चलना चाहती हूं. मैं अकेले होने की कल्पना भी नहीं कर सकती.’’
‘‘एक न एक दिन तो हम दोनों में से किसी एक को अपनी जीवनयात्रा पर अकेले आगे जाना होगा. अभी तक सबकुछ मेरे नाम है, तुम्हारे कुछ नहीं.
तुम ने कभी इस की शिकायत तक नहीं की. अगर मैं पहले निकल गया तो मेरे बाद सबकुछ तुम्हारा होगा चारु. तुम किसी की मुहताज नहीं रहोगी. कोई जरूरी नहीं कि हम अपनी जीवनभर की कमाई उस इंसान को सौंप दें जो कहने को तो हमारी औलाद है लेकिन उस ने औलाद होने का कभी कोई फर्ज नहीं निभाया. हम कभी उस के मुहताज नहीं थे और न कभी होंगे. हम अंतिम सांस तक अपने दम पर सबकुछ करेंगे. इस के लिए हमें गैरों की सहायता लेनी पड़े तो मुझे उस में एतराज नहीं.’’
विवेक की बातें सुन कर चारु की आंखें भर आई थीं. किसी तरह उस ने दुपट्टे के कोने से उन्हें पोंछ दिया. आज यहां आने की उस की कोई जरूरत नहीं थी. फिर भी विवेक उसे अपने साथ लाए थे. यह देख कर उसे बहुत अच्छा लगा. सब काम संपन्न हो जाने के बाद वे घर लौटते हुए बोले, ‘‘तुम मेरे इस फैसले से खुश तो हो न चारु?’’
‘‘सच पूछो तो मैं ने इतनी दूर तक कभी सोचा ही नहीं. कभी कल्पना भी नहीं की कि मुझे तुम्हारे बगैर जीना पड़ सकता है,’’ आंखों में आए आंसुओं को रोकते हुए वह बोली.
‘‘यह खुशी का समय है दुखी होने का नहीं. हम दोनों ने अपनी सुरक्षा का इंतजाम पूरा कर लिया है और शिवा की इच्छा भी पूरी हो गई. अब जब उस का फोन आए तो बता देना पापा ने पूरे होशोहवास में वसीयत कर दी है. उसे चिंता करने की जरूरत नहीं.’’
‘‘तुम्हारी वसीयत से उस की चिंता कम होने के बजाय और बढ़ जाएगी. कह नहीं सकती यह जान कर वह कैसी प्रतिक्रिया देगा,’’ चारु बोली.
पूरे 10 दिन बाद शिवा का फोन आया और उस ने अपनी बात एक बार फिर से दोहरा दी.
‘‘चिंता मत करो बेटा पापा ने वसीयत कर दी है.’’ यह सुन कर शिवा खुश हो गया.
‘‘देर से ही सही, पापा को मेरी बात सम?ा में आ गई. आप जानती हैं ऐसे मामलों में बाद में कितनी परेशानियां खड़ी हो जाती हैं. हमारे पास इतना समय नहीं है कि इन सब लफड़ों में पड़ें.’’ अपनी खुशी दिल में दबाते हुए शब्दों को संयत कर शिवा बोला.
‘‘अभी इन सब की जरूरत नहीं पड़ेगी, बेटा. तुम निश्ंिचत रहो और कामना करो कि तुम्हारे मम्मीपापा की उम्र लंबी हो और वे हमेशा स्वस्थ रहें. तुम अपने पापा को जानते हो. वे बहुत सोचसम?ा कर ही कोई फैसला लेते हैं.’’
‘‘मैं आप के कहने का मतलब नहीं समझा.’’
‘‘तुम्हारे पापा ने अपनी सारी प्रौपर्टी मेरे नाम कर दी है. कौन जाने हम दोनों में से कौन पीछे छूट जाए? उसे कम से कम रहने के लिए छत और खानेपीने की कोई कमी तो न रहेगी.’’
यह सुन कर शिवा के हाथ से फोन छूट गया. उस ने क्या सोचा था और क्या हो गया. वह जल्दी से जल्दी सबकुछ अपने नाम करा लेना चाहता था और विवेक थे कि उसे लटकाते चले जा रहे थे. अब सबकुछ उस के बरदाश्त से बाहर होने लगा. उस के सारे अरमान धरे के धरे रह गए.
इंतजार खत्म होने का नाम नहीं ले रहा था और बढ़ता ही जा रहा था.
चारु सोच रही थी कि पता नहीं अब उस का फोन कितने दिनों बाद आएगा. फोन का इंतजार कर के करना भी क्या है? फोन से बस एक उम्मीद जगती है शायद दूसरा उस के सुखदुख में शामिल है. यहां कोई न पूछने वाला है और न उन के लिए दुख मनाने वाला. अपना साथी साथ रहे बस इतना ही बहुत है. उस के मन में रहरह कर उठ रही शंका ने मूर्तरूप ले लिया था. वह समझ गई कि यह सब जानने के बाद शायद शिवा की आवाज सुनने को भी उस के कान तरस जाएंगे. उस ने तुरंत अपनी शंका को दूर झटक दिया और मन ही मन विवेक की लंबी आयु की कामना करने लगी.