2024 लोकसभा चुनाव की शुrउआत में युवा वोटरों की बहुत चर्चा थी. इस की वजह सोशल मीडिया पर युवाओं का दिख रहा उत्साह था. लोगों को लग रहा था कि बेरोजगारी, परीक्षा पेपर का आउट होना, महंगाई जैसे तमाम ऐसे मुददे हैं जिन पर युवा वोट कर सकते थे. लेकिन सब से कम उम्र के मतदाता यानी 18 साल से ले कर 25 साल तक के युवा अपना वोट डालने के लिए अनिच्छुक दिखे.

2024 में देशभर के कुल युवाओं में से 40 फीसदी से कम ने मतदान के लिए रजिस्ट्रेशन कराया. बिहार, दिल्ली और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में रजिस्ट्रेशन की दर और भी कम थी. चुनाव आयोग के आंकड़ों से पता चलता है कि इस आयुवर्ग में अनुमानित 4.9 करोड़ नए वोटर्स थे जिन में से केवल 38 फीसदी ने ही अपने वोटर कार्ड बनवाए.
जिन की चुनाव में हिस्सेदारी है, उन से ही सब से ज्यादा उम्मीद थी मगर उन की ही रुचि चुनावी प्रक्रिया में सब से कम दिखी. जबकि यह वर्ग स्कूलकालेजों में मतदान करने के पक्ष में प्रचार करते दिखा. कई सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर्स और युवा कलाकारों को चुनाव आयोग ने मतदान करने के प्रचार में लगाया. चुनाव आयोग का सोचना था कि युवाओं को अपने वर्ग के लोगों का प्रचार पंसद आएगा. वह अपने वर्ग के लोगों को वोट देने को निकलेगा.

चुनाव के 7 चरणों में कहीं ऐसी बड़ी लाइन या भीड़ नहीं दिखी जिस में युवा वोटर दिखे हों. जबकि, सोशल मीडिया पर चुनावी कमैंट में यह वर्ग आगे था. इस की कुछ वजहें थीं. सोशल मीडिया पर कमैंट करने में समय कम लगता है. अधिकतर युवा कट पेस्ट करते हैं. मतदान देने के लिए घर से बाहर जा कर लाइन लगने के बाद वोट डालना था. आलसी स्वभाव के कारण वे वोट डालने नहीं गए. सोशल मीडिया ने ऐसे युवाओं को आलसी बना दिया है. वे लिखनेपढ़ने में भी अपने विचार नहीं दे पाते.

युवाओं में बढ़ती विचारों की शून्यता

सोशल मीडिया पर इन की पोस्ट कम होती है. यह दूसरे की पोस्ट को ही लाइक, शेयर, कमैंट करते हैं. जिन अखबारों या पत्रिकाओं को ये सब्सक्राइब भी करते हैं उन के भी पूरे लेख और समाचार को नहीं पढ़ते हैं ये. इन को खबर या लेख के जितने हिस्से को पढ़ने की जरूरत होती है उस को ही पढ़ते हैं. सामान्यतौर पर जैसे पहले अखबारों और पत्रिकाओं को युवा पढ़ते थे, उन के नोट्स बनाते थे, अपने विचारों को लेख, खबर या संपादक के नाम पत्र में लिखते थे, अब वह नहीं दिख रहा है.

आज के युवा सामान्य ज्ञान की छोटीछोटी चीजों के लिए गूगल पर निर्भर होते हैं. इन का सामान्य ज्ञान बेहद कमजोर होता जा रहा है. यह सोशल मीडिया पर आरक्षण और संविधान के बारे में जितना बोलते दिखे वह व्हाट्सऐप पर आए मैसेज से होता है. अगर वह गलत है तो उस को ये सही नहीं कर पाते. पहले युवा को याद रहता था कि कितने संविधान संशोधन हुए, आरक्षण के पीछे की वजहें क्या हैं आदि. ये आरक्षण की पैरवी केवल सरकारी नौकरी के हिसाब से करते हैं. धर्म किस तरह से जीवन को प्रभावित करता है, इन को नहीं पता. युवाओं के सामने विचारों की शून्यता आती जा रही है. इस कारण ये चुनाव और मतदान के महत्त्व को समझ नहीं पा रहे हैं.

सोच का अभाव

चुनाव में युवाओं की सहभागिता बढ़ाने के लिए राजनीतिक दल को भी कदम उठाने होंगे. पहले छात्रसंघ के चुनाव होते थे, जिस की वजह से कालेज के दिनों से ही युवा चुनाव और मतदान के महत्त्व को समझ लेता था. आज छात्रसंघ के चुनाव सीमित होने लगे हैं. युवाओं को यह लगता है कि राजनीति करने की उम्र 45-50 साल होती है. अभी उन के दिन मौजमस्ती करने के हैं. राजनीतिक दलों में युवा इकाई अभी भी है पर वह सक्रिय नहीं है. ऐसे में युवा की राजनीति में रुचि नहीं रह गई. राजनीति उन की सोच का हिस्सा नहीं रह गई.

जिस तरह से राजनीतिक दलों में परिवारवाद चल रहा है उस में युवा को लगता है कि उन के सक्रिय होने से क्या होना है. टिकट तो नेताजी के बेटे को ही मिलना है. अगर युवाओं को टिकट मिलते तो युवा वोटर के मन में भी उत्साह आता. आज वह सोचता है कि पुराने नेताओं को वोट दे कर क्या मिलेगा वे करेंगे तो अपने ही मन की.

राजनीतिक व्यवस्था से उदासीनता

युवाओं में मतदान के प्रति उदासीनता की भावना इसलिए भी आ रही है क्योंकि प्रमुख दलों का नेतृत्व वरिष्ठ नेता कर रहे हैं. पर्याप्त युवा नेता या उम्मीदवार नहीं होते जिन से युवा जुड़ सकें. अब राजनीतिक दलों को सोचना है कि वे युवाओं को राजनीतिक और चुनावी प्रणाली से किस तरह जोड़ें. पिछले कुछ चुनावों में राजनीतिक दलों ने नौकरी और रोजगार को ले कर जो वादे किए थे वे पूरे नहीं हुए, इस से भी इस चुनाव में युवा वोटर मतदान करने नहीं गया. उसे लगा कि वोट देने के नाम पर उस को ठगा जाता है.
चुनाव में युवा के मुद्दे नहीं होते, न उन की शादी की बात होती है और न ही युवाओं में बढ़ते डिप्रैशन की बात होती है. जाति और धर्म के नाम पर उन को बांटने का काम होता है. युवाओं में जाति और धर्म की भावना कम होती है. कालेज में उन के दोस्त हर जाति और धर्म से होते हैं, जबकि चुनाव में जाति और धर्म के नाम पर बांटा जाता है. यह भी एक बड़ा कारण है युवाओं के मोहभंग का. सोशल मीडिया पर भले ही युवा राजनीति में रुचि दिखा रहा हो पर वोट डालने का नंबर आया तो वह पीछे हो गया.

युवाओं को वोटिंग प्रणाली से जोड़ने के लिए आमूलचूल बदलाव करने होंगे. केवल प्रचार करने से काम नहीं चलने वाला. देश में युवा वर्ग की संख्या अधिक है. जब तक उस का जुड़ाव नहीं होगा, चुनाव का असली मकसद पूरी नहीं होगा. सरकार बनाने और हटाने दोनों प्रक्रिया में युवाओं को अपनी जिम्मेदारी उठानी पड़ेगी और अपने महत्त्व को समझना होगा.

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