भारत में उगने वाले अनाज में पहला स्थान धान का है जिस से चावल बनता है और दूसरे नंबर पर है गेहूं, जिस से आटा तैयार होता है. भोजन के लिए रोटियां बनाने में गेहूं के आटे का प्रयोग ही सब से ज्यादा होता है. सदियों से गेहूं के आटे की रोटियां हमारे खाने का खास हिस्सा रही हैं. मगर अभी कुछ समय से यह बात सारी दुनिया में फैलाई जा रही है कि गेहूं हमारे स्वास्थ्य के लिए नुकसानदेह है.
दुनियाभर में लोग गेहूं के आटे से बनी रोटियों से दूर हो रहे हैं. जो भी मोटा हो रहा है उस को पहली सलाह यह दी जा रही है कि गेहूं के आटे की रोटी खाना छोड़ दो. उस की जगह चावल खाओ. व्हाट्सऐएप यूनिवर्सिटी पर तो इस को ले कर तमाम रील्स दिखाई जा रही हैं. कोई कह रहा है कि आटे में उपस्थित ग्लूटेन आंतों में जम कर बीमारियां पैदा करता है तो कोई समझाने की कोशिश कर रहा है कि गेहूं में बहुत अधिक मात्रा में ग्लैडिन पाया जाता है, जो एक प्रोटीन है और भूख बढ़ाने का काम करता है. इस कारण से गेहूं का सेवन करने वाला व्यक्ति एक दिन में अपनी जरूरत से ज्यादा कम से कम 400 कैलोरी अधिक सेवन कर जाता है. इसलिए गेहूं के आटे की रोटी को अपनी रसोई से बाहर कर दें.
अमेरिका के एक हृदय रोग विशेषज्ञ हैं डा. विलियम डेविस. उन की एक किताब इन दिनों बड़ी चर्चा में है. ‘व्हीट बेली’ यानी गेहूं की तोंद, नामक इस किताब में उन्होंने गेहूं से होने वाले शारीरिक नुकसान के बारे में विस्तार से लिखा है. डा. विलियम लिखते हैं कि यदि लोगों को डायबिटीज और हृदय रोगों से मुक्ति चाहिए तो गेहूं छोड़ कर पुराने लोगों की तरह मोटा अनाज यानी ज्वार, बाजरा, रागी, चना, मटर, कोडव, जौ और सावां जैसे अनाजों की रोटी खानी चाहिए.
डा. विलियम का कहना है कि भारत के लोग सुबहशाम गेहूं खाखा कर महज 40 वर्षों में ही मोटापे और डायबिटीज का शिकार हो रहे हैं. इस मामले में भारत दुनिया की राजधानी बन चुका है. एक पीढ़ी पहले तक भारत में मोटा होना आश्चर्य की बात होती थी. मोटे लोगों की शादियां बड़ी मुश्किल से होती थीं मगर आज 30 वर्ष की उम्र पार का हर दूसरा भारतीय मोटापा चढ़ाए घूम रहा है. डा. विलियम का सुझाव है कि मोटापे और मोटापे के कारण होने वाले रोगों से मुक्ति के लिए हमें अपनी रसोई में 80 से 90 प्रतिशत जगह मोटे अनाज को देनी होगी और गेहूं को मात्र 10 से 20 प्रतिशत देना होगा.
गौरतलब है कि भारत में गेहूं की सालाना पैदावार 109.6 मिलियन टन है. इस के बाद रूस 76.1 मिलियन टन, यूएसए 44.8 मिलियन टन और फ्रांस 36.5 मिलियन टन का नंबर आता है. 2021 के डेटा के मुताबिक यूक्रेन में सलाना 32.1 मिलियन टन गेहूं का उत्पादन होता है. चीन 21वीं सदी के पहले 2 दशकों में 2.4 बिलियन टन के साथ दुनिया का सब से बड़ा गेहूं उत्पादक देश रहा है, जो वैश्विक कुल गेहूं का 17 फीसदी है. विश्व में सब से ज्यादा गेहूं पैदा करने वाला उत्तर चीन है. 2020 तक यहां गेहूं का उत्पादन 1,34,250 हजार टन था जो दुनिया के गेहूं उत्पादन का 20.65 फीसदी हिस्सा है. सारी दुनिया में गेहूं का खूब उत्पादन हो रहा है और खूब खपत भी हो रही है. भारत में कुल उत्पादन का मात्र एक फीसदी ही निर्यात होता है, बाकी यहीं खप जाता है.
भारत में उत्तर प्रदेश सब से बड़ा गेहूं उत्पादक राज्य है, इस के बाद पंजाब, हरियाणा और मध्य प्रदेश आते हैं. भारत में गेहूं का उपयोग खाने के तौर पर हजारों वर्षों से हो रहा है. मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की खुदाई से पता चलता है कि साढ़े चार हजार साल पहले सिंधु घाटी की सभ्यता में गेहूं की खेती होती थी. यानी, 5,000 वर्ष से भी अधिक समय पहले से भारत में गेहूं का उत्पादन हो रहा है.
गौर करने वाली बात यह है कि हजारों सालों से गेहूं का आटा भारतीय रसोई का खास हिस्सा होने के बावजूद यहां मोटापे की समस्या इस हद तक कभी नहीं हुई जैसी आजकल देखी जा रही है. वजह यह कि भारतीय मानस जम कर रोटी, प्याज और नमक खाने के बाद दिनभर खेतों में कड़ी मेहनत करता था. जो लोग सेना में होते थे वे भी दिनभर शारीरिक कार्य करते थे. शहरी लोग भी मेहनतमशक्कत में कम नहीं थे. मोटर गाड़ियां और लग्जरी जीवन तो था नहीं, एक जगह से दूसरी जगह अधिकांश लोग पैदल यात्रा करते थे या घोड़े की सवारी होती थी. अंगरेजों के जमाने में भारत में साइकिल आई तो धनाढ्य वर्ग ने इस की सवारी करनी शुरू कर दी, जिस में भी खासी मेहनत लगती है.
पुराने समय में और आज भी गांवदेहात में महिलाएं घरों में सारा काम स्वयं करती हैं. जब तक घरों में नल नहीं आए थे, महिलाओं के हिस्से कुओं से पानी भर कर लाना, हाथचक्की चलाना, खेतों में काम करना, जानवरों की देखभाल करना, दूध दुहना, जानवरों को चराने ले जाना, घर में चूल्हा फूंकना, जलावन की लकड़ी जंगलों से इकट्ठा करना, खाना बनाना, कपड़े धोना, घरों को लीपनापोतना, बच्चों को पालना आदि सब शारीरिक काम होते थे, तो गेहूं के आटे की 10-12 रोटियां खा कर भी किसी के शरीर पर कभी मोटापा नहीं चढ़ता था. आज भी ग्रामीण भारत में मोटापे के लक्षण नहीं दिखते हैं. हां, लिवर सिरोसिस, किडनी की बीमारी या मच्छरों के काटने से होने वाले बुखार की जद में वे ज्यादा आते हैं.
लिवर और किडनी के रोग ग्रामीण और शहरी दोनों जगहों पर बढ़ रहे हैं जो मुख्यतया इस कारण से हैं क्योंकि खेतों में फसलों, दालों और सब्जियों पर जरूरत से ज्यादा कीटनाशकों का इस्तेमाल होने लगा है. गोबर की खाद किसानों को उपलब्ध नहीं है. पशुधन इतना महंगा है कि हर किसान गायभैंस नहीं पाल सकता. लिहाजा, फसलें उगाने के लिए यूरिया और कीटनाशकों की मदद ली जा रही है. कृषिभूमि और सिंचाई का पानी इन कीटनाशकों की वजह से बहुत हद तक जहरीला हो चुका है.
शहरी लोगों के पास पैसा है, ऐशोआराम है, लग्जरी गाड़ियां हैं, फास्ट फूड है, कोल्ड ड्रिंक है, मेक्डोनाल्ड का फ्राइड चिकन है, पिज्जा हट का मेयोनीज और चीज से भरे पिज्जा बर्गर हैं. रसोई में जो काम महिलाएं पहले हाथ से करती थीं, उन सब की जगह अब मशीनों ने ले ली है. लाइटर की एक क्लिक से चूल्हा जल जाता है. मसाला पीसने के लिए मिक्सी है. कपड़े धोने के लिए वाशिंगमशीन है. घर साफ करने के लिए वैक्यूम क्लीनर या मेड है. कहीं आनेजाने के लिए स्कूटर या गाड़ी है. खाना पकाने का मन नहीं है तो होटल और रैस्तरां हैं. फिर मोटापे और बीमारियों के लिए सारा इलजाम गेहूं के आटे से बनी रोटी को देना क्या उचित है?
आप रोटी खाएं या चावल अथवा मोटा अनाज, यदि शारीरिक श्रम नहीं होगा तो मोटापा और बीमारियां तो बढ़नी ही हैं. भारत में मोटापे का शिकार बच्चे भी हो रहे हैं क्योंकि उन को भरभर के फास्टफूड खिलाया जा रहा है. वे हर दिन कोल्डड्रिंक गटक रहे हैं. ब्लौटिंग पेपर और क्रीम से बनी आइसक्रीम खा रहे हैं. स्कूलों और कालेज की कैंटीन में अब खाने की वह थाली गायब हो चुकी है जिस में दाल, रोटी, सब्जी, दही, चावल होता था. अब मिलते हैं तले हुए पकौड़े, समोसा, पैटी, बर्गर, नूडल्स, पिज्जा, मोमोज और पौलिश्ड चीनी से भरे एनर्जी ड्रिंक्स.
इस तरह का खाना पेट में भर कर दिनभर बच्चे क्लासरूम में बैठे रहते हैं. उस के बाद ट्यूशन क्लास में चले जाते हैं. वहां से निकले तो घर आ कर मोबाइलफोन, औनलाइन गेम या टीवी देखने में बिजी हो गए. मैदान में जा कर खेलने, व्यायाम करने या स्विमिंग-साइक्लिंग करने का समय उन के पास कहां हैं? तो मोटापा बढ़ने की असली वजह यह है, न कि गेहूं के आटे की दो रोटी, जिस को रसोई से निकालने का षड्यंत्र बड़े व्यापक रूप से चलाया जा रहा है.
पिछले कुछ समय से भारत की केंद्रीय सरकार मिलेट्स को बढ़ावा देने में जुटी है. मिलेट्स यानी मोटा अनाज. सरकारी कार्यक्रमों में आजकल मिलेट्स से बने पकवान परोसे जा रहे हैं. ज्वारबाजरे की रोटियां, खीर आदि बन रही हैं. कुछ बड़े नामी होटल भी अब मोटे अनाज को बढ़ावा देने के लिए पकवान तैयार कर परोसने में लगे हैं. सवाल यह है कि मोटा अनाज भारत में कितना उगाया जाता है? क्या यह भारत की 140 करोड़ जनता का पेट भरने लायक उगता है? बिलकुल नहीं.
भारत का किसान मुख्य रूप से धान और गेहूं की फसल ही उगाता है. खेतों में इन 2 फसलों की अच्छी पैदावार हो जाए तो उस के परिवार की दो जून की रोटी का इंतजाम कर देती है. चना, बाजरा, ज्वार, कोदो जैसा मोटा अनाज तो वह बहुत कम उगाता है. अगर खेत में जगह बचती है या 2 फसलों के बीच जब खेत खाली होते हैं तब ये फसलें उगाई जाती हैं. ऐसे में अचानक गेहूं के आटे के प्रति उपभोक्ता के मन में बीमारी का डर पैदा कर किसानों के पेट पर लात मारने के षड्यंत्र के पीछे सरकार और मल्टीनैशनल कंपनियों की मिलीभगत साफ नजर आती है. गेहूं के प्रति भय पैदा कर के उपभोक्ता द्वारा गेहूं की मांग जब कम की जाएगी तो इस का बुरा प्रभाव सीधे किसानों पर पड़ेगा.
जब किसान की फसल कम बिकेगी तब मल्टीनैशनल कंपनियां पूरी साजिश के साथ उन की मदद को आगे बढ़ेंगी और कम कीमत पर उन का अनाज खरीद कर अपने गोदाम भरेंगी. यह भी गौर करने वाली बात है कि भारत के स्वास्थ्य, मोटापे और हृदय रोगों के बढ़ने के संबंध में किताब लिखने वाले डा. विलियम डेविस अमेरिकी लोगों के मोटापे की वजह नहीं बताते, जहां भारत के मुकाबले मोटापे की समस्या चारगुना अधिक है. जबकि अमेरिकी रसोई में गेहूं के आटे की रोटी भारतीय परिवारों के अलावा शायद ही किसी अमेरिकी के घर में बनती हो. हां, ब्रेड का इस्तेमाल वहां जरूर होता है.
दरअसल मोटापे और बीमारियों की मुख्य वजह फास्ट फूड, कोल्डड्रिंक, रिफाइंड औयल में तले हुए खाद्य पदार्थ, चौकलेट्स, फ्रोजन फूड और विभिन्न प्रकार के प्रोटीन व एनर्जी ड्रिंक हैं. वहीं, शारीरिक श्रम बिलकुल खत्म हो चुका है. खासतौर पर उच्च और मध्य वर्ग की महिलाएं बहुत ज्यादा आलसी व फूडी हो गई हैं. उन का हर काम मशीनें कर रही हैं और उन का पूरा वक्त फास्टफूड या चौकलेट्स खाते और टीवी देखते गुजर रहा है. यही आदतें उन्होंने अपने बच्चों में डैवलप कर दी हैं. नतीजा, मोटापा और मोटापे से जुड़ी बीमारियां बढ़ रही हैं.
क्या आप ने सोचा है कि गांव की औरतों में या आप के घर में काम करने वाली मेड के शरीर पर चरबी क्यों नहीं चढ़ती? वे क्यों नहीं मोटी, थुलथुल नजर आतीं जबकि उन की खुराक अपनी मालकिन की खुराक से दुगनीतिगुनी होती है. आप अगर लंच और डिनर में 4 रोटी खाती हैं तो आप की मेड दिनभर में 12 से 15 रोटियां गेहूं के आटे की खाती है, फिर भी वह दुबलीपतली है क्योंकि वह सारा दिन शारीरिक श्रम करती है. जबकि, आप खाना खा कर बिस्तर या सोफे पर ही पड़ी रहती हैं.
अगर मोटापे और बीमारी से दूर रहना है तो शरीर को हिलाना और उस से काम लेना बहुत जरूरी है. बूढ़े हों, बच्चे हों, पुरुष हों या स्त्री, उतना ही खाएं जितनी भूख है और उस खाने को पचाने व ऊर्जा में परिवर्तित करने के लिए नियमित व्यायाम और श्रम करें. गेहूं के आटे को रसोई से निकालने की जरूरत नहीं है बल्कि मोमोज, नूडल्स, पिज्जा, बर्गर, फ्राइड चिकन, फिंगर चिप्स, केक, पैटीज, पेस्ट्री, कोल्डड्रिंक जैसे जंक फूड को अपने जीवन से निकालना जरूरी है.