बात 1982 की है. केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी. इंदिरा ने 1980 का लोकसभा चुनाव जीत कर प्रधानमंत्री के रूप में वापसी की थी. उत्तर प्रदेश कांग्रेस में उठापटख और गुटबाजी चल रही थी. इंदिरा गांधी को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में ऐसे चेहरे की तलाश थी जिस को ले कर कोई विवाद और गुटबाजी न हो. तलाशने के बाद इन में से एक नाम श्रीपति मिश्र का सामने आया.

19 जुलाई 1982 को इंदिरा गांधी ने श्रीपति मिश्र को उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बना दिया. 2 साल यानि 1984 तक वह मुख्यमंत्री रहे. सुल्तानपुर जिले के सुरापुर कस्बे के रहने वाले श्रीपति मिश्र बेहद सरल, सज्जन और मृदुभाषी थे. ऐसे ही नारायण दत्त तिवारी का मसला भी था.

कुछ इसी तरह से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी अपने मुख्यमंत्रियों को बदलने का काम करते हैं. जिस गुजरात के वह करीब 13 साल लगातार मुख्यमंत्री रहे उस गुजरात में अब मुख्यमंत्री ताश के पत्ते की तरह से फेंट कर बदल जाते हैं. 2001 से ले कर 2014 तक 13 साल नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री रहे. इस के बाद 2014 से 2022 के 8 सालों में आनंदी पटेल, विजय रूपाणी और भूपेन्द्र पटेल 3 मुख्यमंत्री बदले. 13 साल एक मुख्यमंत्री और 8 साल में 3 मुख्यमंत्री बनाए गए.

उत्तराखंड का उदाहरण भी काफी मजेदार है. 2017 के विधानसभा चुनाव के बाद उत्तराखंड में भाजपा ने अपने बड़े नेताओं को दरकिनार कर त्रिवेन्द्र सिंह रावत को मुख्यमंत्री बनाया. 2021 में त्रिवेन्द्र सिंह रावत को हटा कर तीरथ सिंह रावत को मुख्यमंत्री बनाया और 2022 में पुष्कर सिंह धामी को मुख्यमंत्री बनाया. नए नेताओं को मुख्यमंत्री बनाया जिन को कोई अनुभव नहीं था. यही बात मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव के बाद देखने को मिली जब विधानसभा चुनाव जितवाने वाले षिवराज सिंह चौहान की जगह पर मोहन यादव को मुख्यमंत्री बनाया.

अनुभवी नेताओं को दरकिनार कर के छत्तीसगढ़ विष्णुदेव साय और राजस्थान भजन लाल शर्मा को इसी तरह से मुख्यमंत्री बनाया गया. असल में मुख्यमंत्री बनाने में योग्यता नहीं देखी जाती. पहले कांग्रेस इसी तरह से मुख्यमंत्री बदलती थी अब भाजपा उसी राह पर है. विधायक अब पार्टी के गुलाम बन गए हैं. उन से जिन के नाम का प्रस्ताव कराना हो कर देते हैं. पार्टी अध्यक्ष से ले कर जिला अध्यक्षों तक सारे फैसले हाई कमान करता है. हर दल में आंतरिक लोकतंत्र खत्म हो गया है. संगठन में चुनाव नहीं नियुक्तियां होने लगी है.

जनता के नहीं पार्टी के प्रतिनिधि हो गए एमपी एमएलए

चुनाव सुधारों के लिए काम करने वाले एक्टिविस्ट प्रताप चंद्रा कहते हैं, “असल में जब संविधान ने चुनाव की व्यवस्था बनाई तो लोकसभा सदस्य और विधानसभा सदस्य चुने जाने का विधान था. यह सदन में अपना नेता चुनते थे. 1967 में जब कांग्रेस का विभाजन हुआ. तो इंदिरा गांधी ने काग्रेस आई बनाई. जिस का निशान हाथ का पंजा था.
“इंदिरा गांधी ने चुनाव आयोग से इसी निशान को अपने लिए रिजर्व करने के लिए चुनाव आयोग से कहा. इस के बाद पार्टी तंत्र विकसित होने लगा. 1985 में राजीव गांधी ने जब बदलबदल कानून बनाया तब से विधायक सांसद पार्टी व्हिप के दबाव में आने लगे. 1989 के बाद राजनीतिक दलों का रजिस्ट्रेशन शुरू हुआ. धारा 29 ए मे पार्टी रजिस्टर्ड होने लगी. 29 बी चुनाव चिन्ह और 29 सी दलों की आय के बारे में नियम बन गया.

“इस के बाद विधायक और सांसद जनता के नहीं राजनीतिक दलों के प्रतिनिधि बन गए. वह जनता के हित के बजाए पार्टी हित में काम करने लगे. पार्टी व्हिप को न मानने से सदस्यता जाने का खतरा बढ़ गया था.”

पौराणिक कथाओं का प्रभाव

हमारे समाज की मूल भावना योग्यता की जगह परिपाटी को महत्व दिया जाता है. इस के तमाम उदाहरण हैं. संयुक्त हिंदू परिवारों में यह चलन था कि घर का बड़ा बेटा ही राज्य चलाएगा. वह योग्य न हो तो भी घर चलाने का अधिकार उस का होता था. छोटा भाई असहमति भी जाहिर नहीं कर सकता था. हमारे समाज में असहमति को विरोध समझ लिया जाता है.

महाभारत को भी जानते थे. धतराष्ट्र बड़े थे लेकिन अंधे होने के कारण उन को राजा नहीं बनाया गया इस के बाद भी वह खुद को राजा मानते रहे. उन के छोटे भाई पांडु की मृत्यू के बाद जब धतराष्ट्र ने राजपाट संभाला तब उन्होने तय कर लिया कि भले ही बड़े पुत्र युधिष्ठर हो राजा उन का बेटा दुर्योधन ही बनेगा.

पांडवों में भी यही भावना थी. पांचों भाइयों में युधिष्ठर सब से बड़े थे. इस कारण उन के ही आदेशों को माना जाता था. दुर्योधन के साथ जुआ खेलने के लिए युधिष्ठर ही आगे आए. जब महाभारत युद्ध हुआ तो योग्यता के हिसाब से सब से बड़ी जिम्मेदारी अर्जुन के कंधों पर आई. क्योकि वह सब से योग्य थे. उन को ही कृष्ण ने गीता सुनाई. अगर परिवार में बड़े होने के कारण युधिष्ठर ही युद्ध का संचालन करते तो महाभारत के युद्ध का नतीजा अलग हो जाता. योग्यता के अनुसार अगर जिम्मेदारी न दी जाए तो हार तय होती है. इतिहास में बहुत ऐसे उदाहरण हैं जहां बड़े बेटे को अयोग्य होने के बाद भी राजा बना दिया गया वह राज्य बरबाद हो गया.

इस को आज के दौर में घर परिवार के उदाहरण को समझें तो कई कारोबारी घराने, सामान्य परिवार इस कारण खत्म हो गए क्योंकि उन्होंने बड़े बेटे को जिम्मेदारी सौंप दी. धारणा, परिपाटी और रूढ़ीवादी सोच के कारण अगर अयोग्य होने के बाद भी बडे बेटे को ही अधिकार सौंप दिए जाएंगे तो परिवार का विनाश तय है.
राजनीति से ले कर घरपरिवार तक में यही कहा जाता है कि जो बड़ा है उसे ही असल अधिकार है. राजनीति दलों में इसी बड़े को हाई कमान कहा जाता है. जब हाई कमान योग्यता के आधार पर फैसले नहीं करता है तो वह पार्टी डूब जाती है. कांग्रेस इस का उदाहरण है.

एक ही रंग में रंग गए कांग्रेस-भाजपा

कांग्रेस की तरह से भाजपा में भी हाई कमान कल्चर बढ़ गया है. हिंदुत्व के पुट को अगर किनारे क दिया जाए तो इंदिरा गांधी और नरेंद्र मोदी की कार्यशैली एक जैसी है. प्रधानमंत्री रहते दोनों ही पार्टी और देश दोनों चला रहे हैं. चुनाव लड़ने के टिकट बंटवारे का मसला हो, मुख्यमंत्री बदलने का मसला हो प्रधानमंत्री का ही आदेश चलता है. दूसरे प्रधानमंत्रियों के जमाने में मंत्रिमंडल का फैसला होता था. अब मसला वित्त का हो तो फैसला प्रधानमंत्री लेते हैं. विदेश का हो तो प्रधानमंत्री लेते हैं. रक्षा का हो तो प्रधानमंत्री लेते हैं. ऐसे में वित्त, विदेश और रक्षा मंत्री को रखा ही क्यों गया है ?

सारे देश के फैसले पीएमओ लेने लगे हैं. ऐसे में जनता के प्रतिनिधि होने को मतलब क्या रह गया? जब वित्त, विदेश और रक्षा मंत्री जैसे दूसरे विभागों के फैसले पीएमओ को ही करने हैं तो इतने मंत्री रखने का जरूरत क्या है ? प्रदेश को चलाने के लिए मुख्यमंत्री की योग्यता को देखने का जरूरत नहीं है तो मुख्यमंत्री के तामझाम पर पैसा खर्च करने की जरूरत क्या है ? पीएमओ और अफसर प्रदेश भी चला सकते हैं. राम के खड़ाऊ रख कर राज चलाया जा सकता है तो पीएमओ देश को क्यों नहीं चला सकता ?

राजा और मुखिया में दिखते है भगवान

संविधान ने एमपी, एमएलए को जनता का प्रतिनिधि माना है. वह जनता के वोट से चुन कर जाते हैं. सदन में वह वहीं बात करेंगे जो उन की पार्टी यानि मुखिया का आदेश होगा. उस की असहमति को विरोध समझा जाएगा. जिस के फलस्वरूप उन की सदस्यता जा सकती है. एमपी, एमएलए जनता का प्रतिनिधि नहीं पार्टी का प्रतिनिधि हो गया है. पार्टी के मुखिया यानि हाईकमान का आदेश ही राजा का आदेश हो गया है.

जैसे घरपरिवार में पिता का राज होता है. बेटे का अधिकार नहीं होता कि वह अपनी मर्जी से शादी कर सके. अपनी बात न मानने पर पिता अपनी जायदाद से उस को बेदखल कर सकता है. परिवार और राजनीति दोनो ही एकदूसरे के उदाहरण दे कर अपनी बात को सही साबित करते रहते हैं. पिता भी राजा की तरह होता है राजा को भी पिता कहा जाता है. दोनों ही भगवान जैसे होते हैं भगवान का आदेश कौन टाल सकता है ?

मनोहर लाल खट्टर कितने भी योग्य हों राजा के आदेश की अवहेलना नहीं कर सकते. हाईकमान के रूप में नरेंद्र मोदी को लोग भगवान का अवतार बताते हैं. चुनावी टिकट से ले कर मुख्यमंत्री बदलने तक के सारे फैसले कबूल कर लिए जाते हैं.

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