फरवरी के तीसरे सप्ताह यानी कि 16 फरवरी को वक्फ एक्ट की आड़ में जमीन हड़पने की कहानी बयां करती मुकुल विक्रम निर्देशित फिल्म ‘आखिर पलायन कब तक’, शांतनु अनंत तांबे निर्देशित ‘दशमी’, रिजवान सिद्दीकी निर्देशित ‘इमामदस्ता’, जी अशोक निर्देशित फिल्म ‘कुछ खट्टा हो जाए’ सहित 4 फिल्में प्रदर्शित हुईं. इन में से एक भी फिल्म पूरे सप्ताह में एक करोड़ रुपए भी बौक्सऔफिस पर इकट्ठा नहीं कर पाई. पूरे सप्ताह बौक्सऔफिस पर मायूसी छाई रही. इस से बुरी दुर्गति भारतीय सिनेमा की और क्या हो सकती है.
शांतनु अनंत तांबे निर्देशित फिल्म ‘दशमी’ बामुश्किल पूरे सप्ताह में मात्र 60 हजार रुपए एकत्र कर सकी. फिल्म उन बलात्कारियों को मारने की कहानी बयां करती है जो बच्चियों का बलात्कार कर रहे हैं. मगर फिल्म का पोस्टर और फिल्म का नाम इसे दशहरा पर्व से जोड़ता महसूस होता है.
फिल्म ‘दशमी‘ पारंपरिक सिनेमा की सीमाओं को पार कर नैतिक आत्मनिरीक्षण और सामाजिक परिवर्तन की अनिवार्य आवश्यकता पर एक मार्मिक बयान के रूप में उभरती है. वास्तव में दक्षिणापंथियों के दबाव में फिल्मकार ने अपने धन की होली जला डाली. भरणी रंग, संजना विनोद तांबे और सारिका विनोद तांबे निर्मित इस फिल्म में अपने समय के मशहूर खलनायक अमरीश पुरी के पोते वर्धन पुरी, आदिल खान, मोनिका चौधरी, गौरव सरीन, राजेश जैस, दलजीत कौर, संजय पांडे, मनोज टाइगर और कई अन्य प्रतिभाशाली कलाकारों ने अहम किरदार निभाए हैं. यह फिल्म इस कदर असंवेदनशील है कि दर्शकों ने इस से दूरी बनाए रखा.
भोजपुरी फिल्मों की ही तरह पंजाबी फिल्मों में भी गायक के रूप में शोहरत मिलते ही फिल्मों में हीरो बनने का चलन है. पर पंजाबी गायक गुरु रंधावा ने एक कदम आगे बढ़ते हुए पंजाबी के बजाय हिंदी फिल्म ‘कुछ खट्टा हो जाए’ से बतौर अभिनेता कदम रखा.
फिल्म का संदेश यह है कि प्यार से बड़ा दोस्त होता है. इस फिल्म के निर्देशक जी अशोक है जो कि पहले ‘दुर्गामती’ जैसी फिल्म निर्देशित कर चुका है. वह यहां बुरी तरह से मात खा गया है. फिल्म की कहानी कई पुरानी फिल्मों की खिचड़ी के अलावा कुछ नहीं है. फिल्म में गुरु रंधावा के अलावा अनुपम खेर व साई मांजरेकर हैं.
इस फिल्म में हर कलाकार अपने अभिनय से यह बताने में असफल रहा कि उसे अभिनय आता है. परिणामतया यह फिल्म सप्ताहभर में बौक्सऔफिस पर बामुश्किल एक करोड़ रुपए ही कमा सकी.
16 फरवरी को ही प्रदर्शित निर्माता सोहनी कुमार और निर्माता मुकुल विक्रम ने अपनी फिल्म ‘आखिर पलायन कब तक’ की सफलता के बड़ेबड़े दावे किए थे. मगर फिल्म के नाम से ही एहसास हो गया था कि यह फिल्म दक्षिणापंथियों को खुश करने के मकसद से बनाई गई है. ऊपर से फिल्म के ट्रेलरलौंच के अवसर पर हिंदू महासभा के पदाधिकारी के नेतृत्व में कुछ पीड़ितों को बुला कर मुसलिम समुदाय के खिलाफ नारेबाजी से फिल्म का बंटाधार कर डाला.
निर्देशक मुकुल विक्रम ने दावा किया कि उन की फिल्म उस कानून की बात करती है जिसे दबा कर रखा गया और उस कानून की वजह से एक खास समुदाय के लोगों ने देश के कई शहरों व गांवों से हिंदुओं को पलायन करने पर मजबूर किया और आज भी हिंदू परिवार पलायन करने को मजबूर हो रहे हैं.
वैसे भी कहा जाता है कि जब इंसान के इरादे नेक न हों तो उसे अच्छे परिणाम नहीं मिलते. 20 करोड़ की लागत में बनी यह फिल्म बौक्सऔफिस पर महज 25 लाख रुपए ही एकत्र कर सकी. यानी, फिल्म निर्माण के दौरान चाय पीने पर खर्च की गई धनराशि भी नहीं वसूल कर पाई.
फिल्म की कहानी व पटकथा काफी लचर है. वक्फ एक्ट 1995 का जिक्र फिल्म में क्लाइमैक्स से चंद मिनट पहले बहुत हलके से होता है. मतलब, फिल्मकार इस कानून की जटिलता व इस के चलते आम इंसानों को जिन मुसीबतों का सामना करना पड़ रहा है, उस की कोई बात नहीं करता. पूरी फिल्म तो हिंदूमुसलिम के बीच की दरार के अलावा एक ताकतवर मुसलिम नेता द्वारा हिंदुओं की जमीन हड़पने वाली कहानी बन कर रह गई है.
परिणामतया फिल्म का जो असर लोगों तक पहुंचना चाहिए, वह नहीं पहुंचता. यह लेखक व निर्देशक की सब से बड़ी कमजोरी है. फिल्म देख कर एहसास होता है कि फिल्मकार जमीन हड़पने की कहानी बयां कर रहे थे पर अचानक दक्षिणापंथियों के दबाव में आ कर अंतिम चंद मिनटों में वक्फ एक्ट 1995 को जोड़ा जिस से फिल्म की कहानी पर भी असर पड़ा और वे फिल्म के साथ न्याय नहीं कर पाए. पता नहीं फिल्मकार अपनी फिल्म को येनकेन प्रकारेण प्रोप्रगंडा या दक्षिणापंथी फिल्म का रूप दे कर अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने को क्यों उतारू हैं.