देश की मौजूदा केंद्र सरकार भारतीय चुनाव आयोग (इलैक्शन कमीशन औफ इंडिया- ईसीआई) और सर्वोच्च न्यायालय (सुप्रीम कोर्ट- एससी) को भी पंगु बना कर अपने अभिन्न मगर अदृश्य व अनिर्वाचित प्राइम मिनिस्टर औफिस (पीएमओ) के फंदे में ले आना चाहती है. नए प्रस्तावित चुनाव आयोग के कानून में मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति में जो परदे डालने का प्रावधान है वह चुनाव आयोग को पूर्व चुनाव आयुक्त टी एन शेषन के पहले वाले युग में ले जाने वाला है जिस में चुनाव आयोग सरकार का एक अंग होता था.

आज सरकार का मतलब संसद या विधानसभाएं नहीं रह गई हैं. आज सभी फैसले प्राइम मिनिस्टर औफिस द्वारा लिए जा रहे हैं. पीएमओ यानी प्रधानमंत्री कार्यालय ही आज नई योजनाएं बनाता है और वह ही उन्हें लागू करता/करवाता है. आज संसद में बहस नहीं होने दी जाती. केंद्रीय मंत्री केवल पीएमओ से स्वीकृत भाषण पढ़ते हैं. नीतियां पीएमओ बनाता है और संसद आंख मूंद कर उन्हें पास करती है. यहां तक कि भाजपा के नएपुराने मुख्यमंत्री भी जनादेश की नहीं,  मंत्रियों की नहीं, मंत्रिमंडल की नहीं बल्कि पीएमओ पर निर्भर होने को मजबूर हैं.

जहां भी शब्द ‘सरकार’ आता है वहां अर्थ पीएमओ हो गया है क्योंकि वही तय करता है कि देश कब वहां कैसा फैसला लेगा. चुनाव आयुक्त की नीति, उस के कार्यकाल, आयुक्त की शक्तियां, सुविधाएं, पहुंच अब धीरेधीरे खिसक कर पीएमओ के हाथ में पहुंच रही हैं. देश को दिशा देने के लिए यूपीएससी की परीक्षाओं से निकल कर आए व 20-25 वर्ष की नौकरी के बाद घाघ बन गए सरकारी अफसर अब जनता के माईबाप बन गए हैं. मंत्रियों की तो कोई पूछ है ही नहीं, खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह जो फैसले लेते हैं, उन की सारी पृष्ठभूमि भी पीएमओ तैयार करता है.

भारतीय जनता पार्टी का हर नेता जानता है कि पीएमओ ने इतने अधिकार अपने पास रख रखे हैं और इतने राज वहां फाइलों में रखे हैं कि वह जब चाहे किसी की भी बांहें मरोड़ सकता है. चुनाव आयुक्त भी आमतौर पर इसी पीएमओ के तहत आते हैं और वे यह जानते हैं कि पीएमओ की सामूहिक शक्ति कितनी है, कैसी है और कहांकहां तक फैली है.

आज पीएमओ में वे वरिष्ठ आईएएस और आईपीएस अफसर हैं जो कभी न कभी गुजरात में रहे हैं और एक तरह से उन पर मोदी व शाह का विश्वास है. यह विश्वास इस तरह का हो गया है कि मोदी और शाह अब उन की सहमति के बिना कोई काम नहीं करते.

नेहरू और इंदिरा के शासन में फैसले मंत्रिमंडल लेता था जिस का जमीन से जुड़ाव था. आज जमीन से जुड़े लोगों के हक गायब हो गए हैं. वे मोहरे बना दिए गए हैं और चुनाव आयोग भी ऐसा ही एक मोहरा है.

अगर चुनाव आयोग की विश्वसनीयता कम होती गई तो एक दिन देश की जनता का लोकतंत्र से विश्वास उठ जाएगा. और तब, जनता पर थानेदार, टैक्स कलैक्टर, इंस्पैक्टर, नगरनिकाय विभाग उसी तरह से कहर ढाने लगेंगे जैसे मुगलराज के पतन के बाद हुआ था, जिस का पूरा लाभ ईस्ट इंडिया कंपनी ने उठाया जो व्यापार करतेकरते शासक बन बैठी.

चुनाव आयुक्त वह नियंत्रक है जो देश के लोकतंत्र को बचा सकता है पर अगर वह लोकतंत्र की लूट होते देख चुप रहता है तो इस लूट का भागीदार उसे भी माना जाएगा. विपक्षी दल इस ओर दबे मुंह से शिकायत कर रहे हैं पर वे मुखर नहीं हो रहे हैं क्योंकि वे जानते हैं कि चुनाव आयोग भी पीएमओ के कीकर के जंगल का हिस्सा ही है.

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