‘इंडिया’ गठबंधन की बैठकों की एक खास बात यह भी होती है कि सभी घटक दलों के नेता बराबरी से बैठते हैं, अपनी बात कहते हैं और दूसरों की भी पूरी शिद्दत से सुनते हैं. अपनी सहमति या असहमति वे बिना किसी डर या झिझक के दर्ज कराते हैं. उन का कोई बौस नहीं है जिस के लिहाज में उन्हें बुत की तरह हां में हां मिलाते सिर हिलाना पड़ता हो. अपने मन की बात या मतभेद वे छिपाते नहीं हैं और कभीकभी बोझिल माहौल को हलका करने के लिए हलकाफुलका मजाक भी कर लेते हैं.

अपनेअपने राज्यों के इन सियासी दिग्गजों को एहसास है कि 2024 के चुनावों की लड़ाई आसान नहीं है, इसलिए वे काफी गंभीर भी दिख रहे हैं. यह सोचना बेमानी है कि वे सिर्फ अपनीअपनी दुकानें चलाने के लिए इकट्ठे हुए हैं. ऐसा पहली बार हो रहा है कि वे वाकई में देश और जनता के लिए सोच रहे हैं और इस के लिए वे अपने छोटेबड़े स्वार्थ छोड़ने में हिचकिचा नहीं रहे. अगर ऐसा न होता तो उन्हें गठबंधन बनाने की जरूरत ही न पड़ती. अपनेअपने राज्यों में कम से कम 6-7 दल बिना गठबंधन के भी मजबूत हैं लेकिन वे देश के लोकतंत्र पर मंडराते खतरे से नहीं निबट पा रहे थे.

उन का खतरा उन्मादी धार्मिक राजनीति है जिस का तोड़ वे कई बैठकों के बाद भी फिलहाल नहीं ढूंढ़ पाए हैं. यह काम आसान भी नहीं है क्योंकि बिसात के दूसरी तरफ बैठी भाजपा मूल्यों या मुद्दों की नहीं, बल्कि सनातन धर्म की आड़ में धार्मिक भावनाओं को भड़काने की राजनीति करती है. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, भाजपा, मौजूदा भगवा सरकार के मुखिया नरेंद्र मोदी और ऊंची जातियों के स्वार्थियों ने आज्ञाकारियों व आस्थावानों की बड़ी भीड़ इकट्ठा कर रखी है. वे जनता को गुमराह और विचलित कर देने के हुनर में सदियों से माहिर हैं. तमाम समस्याओं का हल वे इकलौता विकल्प धर्म, आस्था, पौराणिक ग्रंथों और पौराणिक कथाओं का देते हैं.

एक वजीर

राजनीति की शतरंजी बिसात में नरेंद्र मोदी अपने खेमे के वजीर हैं लेकिन उन के चारों तरफ के खानों में प्यादे ही प्यादे हैं जिन की मार सिर्फ एक घर तक होती है, जबकि, इंडिया गठबंधन में सभी थोड़े ज्यादा ताकतवर हैं जो ढाई घर तक मार करने वाले हैं. एक और फर्क जो व्यक्तिवादी राजनीति की बेहतर मिसाल है वह यह है कि नरेंद्र मोदी के मुंह से निकली हर बात वेदों की ऋचा और गीता का श्लोक या फिर रामचरितमानस की चौपाई होती है जिस में कोई प्यादा मीनमेख निकालने की जुर्रत नहीं करता. उलट इस के, इंडिया गठबंधन में लोकतंत्र है जिस में हर कोई अपनी बात आजादी से कहता है यानी अपनेअपने मन की बात हर कोई कह देता है. इसी मनभेद को भाजपा बड़ी चतुराई से प्रचारित कर के गठबंधन में एकता न होने का भ्रम फैला देती है.

आंतरिक लोकतंत्र की दुहाई देने वाली भाजपा खुद ही आंतरिक तानाशाही का शिकार हो कर रह गई है जिस में दूसरीतीसरी पंक्ति के नेता भी अपना वजूद खो चुके हैं. राजनाथ सिंह, नितिन गडकरी, एस जयशंकर जैसे दर्जनभर मंत्री इस की मिसाल हैं. फिर, यशवंत सिन्हा और शत्रुघ्न सिन्हा जैसों की तो बात करना ही बेकार है जिन्हें ‘मोदीद्रोह’ की सजा देते पार्टी ने उन्हें पार्टी से बाहर कर दिया.

यानी साफ तौर पर इंडिया गठबंधन का मुकाबला नरेंद्र मोदी से है. इस का फायदा उस के नेता कैसे उठा पाते हैं और उठा भी पाते हैं या नहीं, यह देखना कम दिलचस्प नहीं होगा. ज्यादा बड़ी बात यह है कि भावी चुनाव के बाद देश को जिम्मेदार शासन मिलेगा या धर्मराज की स्थापना करने वाला शासन.

यह कहना कतई ज्यादती की बात नहीं कि भाजपा में एकोहम द्वितियो नास्ति की थ्योरी पर काम हो रहा है. यह कैसे देश के लिए नुकसानदेह है, यह अगर इंडिया गठबंधन लोगों को सलीके से सम?ा पाए तो काफी फायदे में रहेगा कि नरेंद्र मोदी का मकसद सेवा नहीं, बल्कि शासन करना है और इस के लिए जो भी उन के रास्ते में आता है उस का वजूद बेरहमी से पार्टी व संघ खत्म कर देते हैं.

हालिया 3 राज्यों के विधानसभा चुनावों में जीत के बाद जब मुख्यमंत्रियों के चुनाव की बात आई तो तीनों राज्यों में पसंद विधायकों या स्थानीय नेताओं की नहीं चली. इस के पहले भी ऐसा दूसरे तरीके से होता रहा है.

राजनीति में दिलचस्पी रखने वालों को ही याद होगा कि भाजपा के प्रमुख मुसलिम चेहरा मुख्तार अब्बास नकवी ने कभी यह गुस्ताखी की थी. जब जदयू से निकाले गए नेता साबिर अली को पार्टी में शामिल किया गया था तब उन्होंने ट्वीट किया था कि साबिर अली यासीन भटकल के दोस्त हैं और जल्द ही दाऊद इब्राहिम को भी शामिल किया जाएगा. यह सब सामूहिक फैसले के तहत हो रहा है क्या? लंबे वक्त तक मुख्तार अब्बास नकवी को कोई भाव नहीं दिया गया तो वे घबरा उठे और एक प्यादे की तरह ही वजीर की पनाह में आ गए. अब वे विपक्ष को 440 वोल्ट का करंट लगने की बात कहते मोदी की गारंटियों का बखान कर रहे हैं.

सार यह कि भाजपा में मोदी का विरोध करने की इजाजत किसी को नहीं है. हां, उन की मनमानियों से सम?ाता कर लेने वालों को माफी और पनाह

मिल जाती है. रविशंकर प्रसाद, रमेश पोखरियाल, राजीव प्रसाद रूड़ी, प्रकाश जावडे़कर, हर्षवर्धन, मेनका गांधी, उमा भारती, सुरेश प्रभु, अनंत हेगड़े, जयंत सिन्हा, के जे अल्फांसो, महेश शर्मा और वीरेंद्र सिंह की हालत भी मुख्तार अब्बास नकवी से जुदा नहीं है जो 2024 की बिसात पर अब प्यादे की हैसियत भी नहीं रखते.

नए प्यादे

भाजपा के हाशिए पर पड़े नेता कम प्रतिभावान, कम जु?ारू या कम मेहनती नहीं हैं, इस के बाद भी उन्हें कोई स्पेस नहीं दिया जा रहा तो मतलब साफ है कि पार्टी कोई जोखिम नहीं लेना चाहती और नरेंद्र मोदी कोई खतरा नहीं पालते. वे अपनी महत्त्वाकांक्षाएं पूरी करने के लिए सख्त कदम उठाने से नहीं चूकते.

साल 2014 में प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होंने अमित शाह के सहयोग से कैसे लालकृष्ण आडवाणी जैसे दिग्गज को मार्गदर्शक मंडल के नाम पर किनारे किया था, यह मसला अभी लोगों के जेहन में जिंदा है. राममंदिर की प्राण प्रतिष्ठा समारोह में उन्हीं के इशारे पर लालकृष्ण आडवाणी और मंदिर आंदोलन के दूसरे नायक मुरली मनोहर जोशी को राममंदिर ट्रस्ट के सचिव चंपत राय के जरिए रोकने की कोशिश सेहत और उम्र का बहाना ले कर की गई थी.

नरेंद्र मोदी नहीं चाहते कि इस और ऐसे अहम मौकों पर ऐसा कोई शख्स नजर आए जिस से कैमरा शेयर करना पड़े. अपनी पीढ़ी के बराबर नेताओं की प्रासंगिकता कम करने का मौका भी वे नहीं छोड़ते. मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ राज्यों के मुख्यमंत्री उन्होंने जो बनाए वे किसी चिंतनमंथन की देन नहीं हैं बल्कि आरएसएस के दिमाग की उपज हैं. पीढ़ी परिवर्तन की आड़ में सिर्फ मोदी को चमकाए रखने के लिए दूसरी पीढ़ी के जमीनी और अनुभवी नेताओं को हाशिए पर धकेल दिया गया.

इन राज्यों में भाजपा को जीत हमेशा की तरह धर्म के चलते ही मिली थी. हिंदी पट्टी में उस का हिंदुत्व का एजेंडा लोगों के सिर चढ़ कर बोलता है तो इस की अपनी वजहें भी हैं. अयोध्या, काशी, मथुरा और उज्जैन जैसे ब्रैंडेड मंदिरों से ले कर छोटे शहरों और कसबों तक के छोटेमोटे मंदिरों के पुजारी उस के एजेंट हैं जो दिनरात भाजपा और मोदी का प्रचार करते रहते हैं. भाजपा सत्ता में न हो तो भी इन का मीटर चलता रहता है. बहुत से कांग्रेसी और समाजवादी भी इन मंदिरों के नियमित भक्त हैं और उन में प्रवचनों में बढ़चढ़ कर बैठते हैं.

हिंदुत्व पर मंडराते खतरों के नाम पर जो दहशत फैलाई जाती है उस को जमीनी तौर पर लाने का श्रेय इन्हीं लाखों एजेंटों को जाता है. आम भक्त ही इन का पालकपोषक है और बतौर रिटर्न गिफ्ट, असल ज्ञान भी उसे इन्हीं से मिलते हैं कि धर्म है तो देश है, जमीनजायदाद, जाति और बीवीबच्चे हैं. अगर धर्म ही नहीं रहेगा तो इन का क्या अचार डालोगे.

यह मुहिम चलती रहे, इस बाबत मध्य प्रदेश में मोहन यादव, राजस्थान में भजनलाल शर्मा और छत्तीसगढ़ में विष्णुदेव साय को मुख्यमंत्री बनाया गया है. राजनीतिक पंडितों और मीडिया का यह विश्लेषण बहुत परंपरागत और सतही है कि नए लोगों को मौका दे कर भाजपा जातिगत समीकरण साध रही है. ये तीनों ही आरएसएस के अखाड़े के पट्ठे यानी स्पौट बौय हैं जिन का काम सिर्फ और सिर्फ हिंदुत्व को और पुख्ता करने का रहेगा. रहा प्रशासन, तो वह भगवान और आईएएस अधिकारियों के भरोसे रहेगा.

शिवराज सिंह चौहान, वसुंधरा राजे सिंधिया और रमन सिंह को बलात वानप्रस्थ आश्रम में धकेल दिया गया है जिस से इन के मन में कभी केंद्र में मजबूत बनने की इच्छा जोर न पकड़े क्योंकि वानप्रस्थी का बड़ा काम प्रभु का भजन करना होता है. वैसे भी, ये तीनों हिंदूवादी होते हुए भी उतने कट्टर नहीं हैं जितने कि लोकसभा चुनाव के मद्देनजर चाहिए.

एक दूसरी मंशा राज्यों को केंद्र से हांकने की भी है जिस में ये तीनों नातजरबेकार अड़ंगा नहीं बनेंगे, जिन्होंने मुख्यमंत्री पद पर अपने नाम के ऐलान के तुरंत बाद भगवान के साथसाथ नरेंद्र मोदी का भी आभार माना. अपनी कुरसी पर बैठने से पहले विकसित भारत संकल्प यात्रा के रथ के पहिए खींचते ये नजर आए. आइंदा भी ये तीनों कोई बड़ा फैसला लेने से पहले दिल्ली की तरफ ताकेंगे. एहसान से दबे इन मुख्यमंत्रियों को अपना मंत्रिमंडल तक बनाने की आजादी भाजपा ने नहीं दी. ये लिस्टें भी दिल्ली से बन कर आईं.

अफसोस है कि ऐसी हालत में जनता की आवाज कौन सुनेगा, इस को इंडिया गठबंधन जोरदार तरीके से उठा नहीं पा रहा. मोदी की मनमानी के आगे भाजपाइयों का नतमस्तक होना लाजिमी है लेकिन इंडिया गठबंधन को तो मुखर और आक्रामक होना पड़ेगा जो हालफिलहाल सीट शेयरिंग में उलझ है.

कितनी कारगर होगी यह चाल

इंडिया गठबंधन की दिल्ली बैठक तक भाजपाई उस का मजाक बना रहे थे कि अभी तक तो ये लोग अपना प्रधानमंत्री तय नहीं कर पाए. इन में तो हर कोई प्रधानमंत्री बनना चाहता है. ऐसे में ये क्या खाक मोदी का मुकाबला करेंगे. यह सच भी था क्योंकि माना यह जा रहा था कि ममता बनर्जी भी प्रधानमंत्री बनना चाहती हैं और नीतीश कुमार, शरद पवार भी और फलां भी और फलां भी. कांग्रेस की तरफ से राहुल गांधी को प्रधानमंत्री पद का स्वाभाविक उम्मीदवार माना जा रहा था लेकिन उन के नाम पर सभी सहमत नहीं थे. हालांकि, खुद राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री बनने की इच्छा जाहिर नहीं की.

सधी हुई ढाई घर की चाल चलते टीएमसी मुखिया ममता बनर्जी ने कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे के नाम का प्रस्ताव रखा तो तुरंत ही नीतीश कुमार को छोड़ सभी ने उन का समर्थन कर दिया. इन में दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल प्रमुख हैं. यह भी बहुत साफ और नैसर्गिक था कि सब से बड़ा दल होने के नाते प्रधानमंत्री कांग्रेस का होना चाहिए लेकिन गठबंधन में राहुल गांधी के नाम पर सहमति नहीं बन पा रही थी तो यह समस्या भी हल हो गई. इस चाल का जवाब अब भाजपा को देना है. वैसे, यह सवाल बिलकुल बेमतलब का है कि जब बराबर की पार्टियां साथ मिल कर चुनाव लड़ रही हैं तो प्रधानमंत्री पद का फैसला पहले किया जाए. यह तो बाद में होगा.

मल्लिकार्जुन खड़गे एक बेदाग नाम है. उन के पास सियासी तजरबा भी तगड़ा है और सब से बड़ी बात, वे दलित समुदाय के हैं जिस के लगभग 25 फीसदी वोट देश में हैं. दलित हमेशा से ही हर चुनाव में बड़ा फैक्टर रहे हैं लेकिन प्रधानमंत्री के नाम पर यह समुदाय हमेशा ही ठगा जाता रहा है. ‘सरिता’ के दिसंबर (प्रथम) अंक में यह संभावना पहले ही जताई गई थी कि दलित प्रधानमंत्री की मांग अब जोर पकड़ेगी और यह भी उजागर किया गया था कि कैसे पहले कांग्रेस और फिर जनता पार्टी ने दलित दिग्गज नेता बाबू जगजीवन राम को प्रधानमंत्री नहीं बनने दिया था.

अब कांग्रेस ने तो अपनी गलती या भूल सुधार ली है लेकिन भाजपा इस मुद्दे पर खामोश है और स्वाभाविक तौर पर 2024 का प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ही घोषित करती रहती है. अब दलितों व पिछड़ों को यह एहसास कराना इंडिया गठबंधन का काम है कि भाजपा कभी दलितों या पिछड़ों की सगी नहीं रही और उस ने 9 वर्षों के अपने शासन के दौरान दलित नेतृत्व को तहसनहस कर रख दिया है. बसपा प्रमुख मायावती इस का बेहतर उदाहरण हैं जो, बिसात से बाहर ही सही, बैठीं तो प्यादे की तरह ही हैं.

दलित होने के नाते मायावती से हर किसी को उम्मीद थी कि वे मल्लिकार्जुन खड़गे के नाम का स्वागत करेंगी लेकिन वे अब भगवा चक्रव्यूह में फंस चुकी हैं. दलित हितों से उन्हें कोई सरोकार ही नहीं रहा है और जो रहा है वह इतना भर है कि जितना ज्यादा से ज्यादा हो, दलित वोट भाजपा की तरफ शिफ्ट हो जिस से नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने रहें ताकि उन की अकूत दौलत पर किसी आईटी या ईडी की नजरें तिरछी न हों. अब यह और बात है कि मायावती एक और बड़ी खुशफहमी में जी रही हैं कि भगवा कृपा उन पर हमेशा यों ही बनी रहेगी.

धार्मिक लोकतंत्र का तिलिस्म

इस बात पर यकीन कर पाना और उसे जस्टिफाई करना बेहद मुश्किल काम है कि इंडिया गठबंधन हर लिहाज से नरेंद्र मोदी पर भारी पड़ता है लेकिन उन की धार्मिक छवि और पौराणिक आवरण का कोई जवाब या तोड़ गठबंधन के किसी नेता के पास नहीं. एक जाल या कवच कुछ भी कह लें नरेंद्र मोदी ने अपने इर्दगिर्द बुन रखा है जिसे सभी दल मिल कर भी भेद नहीं पा रहे.

9 साल पहले वे एक प्रधानमंत्री के तौर पर स्वीकृत किए गए थे लेकिन अब उन की पहचान एक ऐसी रहस्यमय चमत्कारी विभूति की बनती जा रही है जो सनातन धर्म की रक्षा के लिए हिमालय से अवतरित हुआ सिद्ध महात्मा पुरुष हैं.

कांग्रेस सहित इंडिया गठबंधन के दूसरे घटक हर कभी जनता को याद दिलाते रहते हैं कि इन्हीं नरेंद्र मोदी ने हर साल 2 करोड़ नौकरियां देने का वादा किया था. उन्होंने हरेक के खाते में 15 लाख रुपए आने की बात भी कही थी, उन्होंने देश से महंगाई, आतंकवाद और भ्रष्टाचार खत्म कर देने के भी वादे व दावे किए थे. इस सच्चाई को जनता बखूबी सम?ाती है लेकिन इस के बाद भी वोट उन्हीं को देती है. कम से कम हिंदी पट्टी में तो यह ट्रैंड अपवादस्वरूप कायम है. 3 राज्यों में भाजपा की अप्रत्याशित जीत इस की पुष्टि भी करती है.

जिस दिन चंपत राय पूरी चतुराई से यह कह रहे थे कि लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी से अयोध्या न आने का आग्रह किया गया है उसी दिन पूरी आस्था से उन्हें यह कहने में भी रत्तीभर संकोच नहीं हुआ था कि नरेंद्र मोदी विष्णु के अवतार हैं. यह कोई नई बात नहीं है बल्कि एक सुनियोजित षड्यंत्र है जो पूरा भगवा गैंग रच रहा है.

13 अक्तूबर, 2018 को महाराष्ट्र भाजपा के एक नेता अवधूत बाघ ने भी मोदी को विष्णु का 11वां अवतार कहा था. भाजपा की तरफ से लोकसभा चुनाव लड़ने की तैयारी कर रही ऐक्ट्रैस कंगना रनौत ने 1 नवंबर, 2023 को नरेंद्र मोदी को कृष्ण अवतार बताते कहा था कि उन का जन्म देश के उद्धार के लिए हुआ है.

धर्म की राजनीति जवाब नहीं

धर्म की राजनीति से सत्ता के शिखर तक तो पहुंची मगर भाजपा के दूसरीतीसरी पंक्ति के नेता बेचारगी के शिकार हैं क्योंकि कभी खुद उन्होंने भी इस में जम कर हिस्सेदारी की थी. अब हालत यह है कि जनता मोदी सरकार से खुद से जुड़े मुद्दों के हल होने की उम्मीद छोड़ चुकी है और कोई राष्ट्रीय विकल्प न दिखने के चलते नरेंद्र मोदी को वोट दे रही है.

लेकिन ऐसा बहुत बड़े पैमाने पर नहीं हो रहा, वह बहुत सीमित है और रामचरितमानस से प्रभावित हिंदीभाषी राज्यों तक ही सिमटा हुआ है. कर्नाटक और तेलंगाना के नतीजे इस की गवाही देते हैं और आंकड़े भी इंडिया गठबंधन को आश्वस्त करने वाले हैं कि नरेंद्र मोदी और भाजपा को शिकस्त दी जा सकती है.

साल 2019 के आम चुनाव में भाजपा को महज 37.30 फीसदी वोट मिले थे जो इंडिया गठबंधन के प्रमुख घटक दलों के लगभग बराबर ही हैं. इस चुनाव में कांग्रेस को 19.46, टीएमसी को 4.06, सपा को 2.55, शिवसेना को 2.09, डीएमके को 2.26, सीपीआईएम को 1.77, जेडीयू को 1.45, आरजेडी को 1.08 और एनसीपी को 1.38 फीसदी वोट मिले थे. आप और ?ामुमो को एकएक फीसदी से भी कम वोट मिले थे लेकिन अब आप की ताकत पंजाब में बढ़ी है और ?ामुमो भी ?ारखंड में ताकत बढ़ा रहा है.

लेकिन यह शिकस्त धर्मस्थलों और पूजापाठ से हो कर नहीं जाती. हिंदी पट्टी में ही कांग्रेस यह असफल प्रयोग कर मुंह की खा चुकी है. मध्य प्रदेश में कमलनाथ, राजस्थान में अशोक गहलोत और छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल ने यही गलती की थी जिस की सजा पूरी कांग्रेस को मिली. हालांकि पूरा दोष इन नेताओं का भी नहीं क्योंकि खुद उन के नेता राहुल गांधी भी इसी गलतफहमी का शिकार हो गए थे कि पूजापाठ कर, जनेऊ दिखा कर, गोत्र बता कर, वैष्णो देवी और कैलाश मानसरोवर की यात्रा कर चुनाव जीते जा सकते हैं. राहुल गांधी अपनी दूसरी भारत जोड़ो यात्रा यानी भारत न्याय यात्रा में धर्मस्थलों को न छूने की हिम्मत कर सकते हैं या नहीं, यह देखना है.

इंडिया गठबंधन के लिए सबक तो यही मिलता है कि उसे अपनी चालें बहुत सोचसम?ा कर चलनी होंगी. अगर वह धर्म की आलोचना करेगा तो भी वोटर की नाराजगी का शिकार होगा और धर्म का ज्यादा दिखावा करेगा तो वोटर की अनदेखी उस के हिस्से में आएगी क्योंकि फिर वोटर धर्म की बड़ी दुकान की ओर ही जाएगा. सही रास्ता यही है कि जनता के मुद्दे उठाए जाएं और बिना किसी पूर्वाग्रह के आप के मुखिया अरविंद केजरीवाल की तर्ज पर राजनीति की जाए जिस में धर्म आटे में नमक के बराबर होता है.

कमोबेश ममता बनर्जी भी इसी राह पर चल कर भाजपा को पश्चिम बंगाल से दूर रखने में कामयाब रही हैं. जदयू मुखिया नीतीश कुमार और राजद के लालू यादव सहित उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव भी शुरू में सफल इसीलिए रहे थे कि वे भाजपा की मंदिर नीति पर बौखलाते नहीं थे. लेकिन जब से अखिलेश यादव ने धर्मकर्म की राजनीति शुरू की, तब से वोटरों ने समाजवादी पार्टी को भी भाव देना कम कर दिया.

इस में कोई शक नहीं कि नरेंद्र मोदी ने भारतीयों की कमजोर नब्ज धर्म पकड़ रखी है जिस में पूरा भगवा गैंग उन का साथ देता है. ये लोग 24×7 काम करते हैं और सुबह से ही लोगों को इसलाम व ईसाइयत का डर दिखाना शुरू कर देते हैं. सोशल मीडिया को इन्होंने बहुत बड़ा हथियार बना रखा है. ये लोग पहले डराते हैं, फिर उस से बचने का रास्ता भी दिखाते हैं कि चुनो नरेंद्र मोदी को और वोट दो भाजपा को, नहीं तो अंजाम भुगतने को तैयार रहो और इंडिया गठबंधन, दरअसल सनातन विरोधी गिरोह है जो तुम्हारे धर्म और संस्कृति को नष्टभ्रष्ट करने को इकट्ठा हुआ है.

हकीकत यह है कि हिंदू इस से जरूरत से ज्यादा कट्टर होता जा रहा है जो न खुद उस के लिए बल्कि देश के लिए भी घातक और नुकसानदेह साबित होगा. अब यह बात इंडिया गठबंधन कैसे लोगों को सम?ा पाता है, यह उस की एकता और एकजुटता पर निर्भर करता है. अफगानिस्तान, पाकिस्तान, ईरान के उदाहरण सामने हैं जहां धर्मसत्ता ने पूरी जनता को पहले सामरिक खतरों में ?ांक दिया और फिर फटेहाली में.

लोकतंत्र अलग लोगों के अलग विचारों का सम्मान करता है और उस में न केवल हर रंग के लोग हो सकते हैं, बल्कि स्त्रीपुरुष का भेद भी गौण हो जाता है. औरतों के सही अधिकार लोकतंत्रों में मिले हैं, न कि राजशाहियों और धर्मतंत्रों में. 50 फीसदी औरतें फैसला कर सकती हैं कि वे बेडि़यां पहनाने वाली, जुए में चढ़ाने वाली, चुड़ैल और जूती सम?ाने वाली परंपरा के साथ हैं या अपनी और अपने घरों की आजादी के.

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