होना तो यह चाहिए था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी विपक्षी सांसदों से संसद की सुरक्षा के मुद्दे पर चर्चा करने के लिए उन्हें बुलाते लेकिन बजाय किसी सार्थक पहल के उन्होंने पौराणिक ऋषिमुनियों सरीखे विपक्ष को यह श्राप दे दिया कि यदि विपक्ष का यही रवैया रहा तो 2024 के चुनाव में वे और भी कम सीटों के साथ विपक्ष में ही बैठे रहेंगे, यह श्राप अधिनायकवाद का एक बेहतर उदाहरण है.यह बात भी किसी सबूत की मोहताज नहीं रह गई है कि नरेंद्र मोदी और उन की सरकार अपनी आलोचना बर्दाश्त नहीं कर पाते हैं.

संसद से लगभग पूरा विपक्ष इसीलिए निलंबित है कि सुरक्षा के मसले पर सरकार घिरने लगी थी. उस की कमजोरियां सामने आ रही थीं. इन्हें ढकने और इस स्थिति से बचने के लिए उम्मीद के मुताबिक किया वही गया जो आमतौर पर धार्मिक किस्म की सरकारें करती हैं. संसद उन के लिए मंदिर, चर्च और मस्जिद है जिस के दरवाजे पुरोहित, उलेमा या पौप जब चाहे बंद कर सकते हैं. वही ओ पी धनखड़ ने किया.

लेरी डायमंड अमेरिका की स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी के राजनीति शास्त्र के प्रोफैसर हैं जो पिछले 10 सालों से कहते रहे हैं कि जिस तरह के बदलाव दुनिया भर की राजनीति में हो रहे हैं उन से लोग परेशान हैं क्योंकि लोकतंत्र को एक रेडीमेड चश्मे से देखा जाता था. किसी भी देश में लोकतंत्र को एक खास पैमाने पर तौला जाता था इसलिए नए बदलावों को लोकतंत्र के लिए खतरा बताया जा रहा है.

इस की वजह और उदाहरण भी हैं अमेरिकी संस्था प्यू की एक रिपोर्ट के मुताबिक 1958 में जहां 73 फीसदी लोग यह मानते थे कि उन की सरकार सही फैसले लेगी उन की संख्या इन दिनों सिमट कर 19 फीसदी रह गई है. भारत में अक्सर नरेंद्र मोदी को लोकतंत्र के लिए खतरा बताया जाता है यह ठीक है कि यह आरोप लगाने वाले वही विपक्षी होते हैं जो संसद के बाहर खड़े हायहाय कर रहे हैं. लेकिन सच यह भी है कि आम लोगों से यह उम्मीद करना बेकार है कि वे भाजपा के इशारे पर चल रही संसद पर कुछ बोलेंगे.

ऐसा क्यों , इस सवाल का जवाब बेहद साफ है कि अधिकतर देशों की तरह भारत के लोग भी अपनी ही चुनी गई सरकार से डरे हुए हैं. यह डर धर्म का है और सांसदों के निलंबन का मामला भी कुछ ऐसा ही है जैसे पुजारी ने भक्तों को मंदिर से बाहर कर मुख्यद्वार बंद कर लिया हो.
मंदिरों में प्रवेश के नियम बहुत कड़े होते हैं मसलन जनेऊ की अनिवार्यता जो न भी हो तो भक्तों से अपेक्षा की जाती है कि वे पूजापाठ के विधिविधान के दौरान खामोश रहेंगे और मंत्रोच्चार के वक्त तो पुतले बने खड़े रहेंगे. ऐसा न करने पर पुजारी को पूरा हक रहता है कि वह भक्तों को नास्तिक और विधर्मी करार देते बाहर खदेड़ दे.

यही ओ पी धनखड़ ने किया लेकिन इस से भी परे असल बात लोगों का वह डर है जो उन्हें चुप रहने मजबूर करता है. यह डर सिर्फ भगवान और दैवीय प्रकोप का होता है. अव्वल तो लोकतंत्र अगर है तो किसी को डरने की जरूरत नहीं लेकिन जब धार्मिक लोकतंत्र हो तो डरना जरूरी हो जाता है. डराने में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी माहिर हैं. काशी में अपने भाषण के दौरान उन्होंने महादेव के आशीर्वाद का जिक्र यों ही नहीं किया था.

अकेले वाराणसी में ही नहीं बल्कि हर जगह उन की वेशभूषा धार्मिक होती है. वे पुरोहितों जैसी पोशाक पहनते हैं, माथे पर त्रिपुंड लगाते हैं और हर भाषण में राम, शंकर, हनुमान और कृष्ण का नाम जरूर मौके और जगह के हिसाब से लेते हैं. उन की धार्मिक छवि ही उन्हें तथाकथित रूप से लोकप्रिय बनाती है और लोग ताली बजा कर उन का प्रवचननुमा भाषण आत्मसात कर लेते हैं.

पुराने दौर के राजामहाराजा भी इसी तरह भगवान के नाम पर ही जनता को नियंत्रित रखते थे. वह उन्हें भरोसा दिलाया करता था कि वह जनहित में जरूरी काम कर रहा है लेकिन कैसे, इस बाबत कोई आवाज नहीं उठनी चाहिए. इधर देश में जो जनहित के काम हो रहे हैं वे दरअसल में किस तरह बहुसंख्यकों को संतुष्ट करते हुए हैं, उन के बारे में देसी मीडिया से कोई उम्मीद करना बेकार है लेकिन विदेशी मीडिया खामोश नहीं रहता.

अमेरिकी विदेश नीतियों पर आधारित सब से पुरानी और लोकप्रिय मैगजीन ‘फौरेन अफेयर्स’ भारत में लोकतंत्र की हालत पर कहती है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी प्रैस की स्वतंत्रता अल्पसंख्यक अधिकारों और न्यायायिक स्वतंत्रता पर कुठाराघात कर रहे हैं.मोदी जी की यही अदा बहुसंख्यकों को भाती और लुभाती है. इस के लिए वे अपने व्यक्तित्व और पोशाक सहित भाषणों में धर्म का तड़का लगाते रहते हैं.

लेकिन 85 फीसदी लोग इस से मन ही मन असहमत होते हुए भी मज़बूरी में इसे स्वीकार लेते हैं क्योंकि वे मुख्यधारा में नहीं हैं. मुमकिन है इन में से मुट्ठी भर उन से सहमत होने लगे हों लेकिन वे अभी इतने नहीं हैं कि चुनावी बिसात पलट या उलट पाएं.

विपक्ष की मजबूरी

संसद की मौजूदा हालत पर कोई खास सुगबुगाहट देश में नहीं है क्योंकि इसे भी पूजापाठ में व्यवधान डालने जैसा प्रचारित कर दिया गया है. विपक्ष की मजबूरी यह है कि वह सरकार के धार्मिक चेहरे से नकाब नहीं उठा पा रहा है. धर्म को लोकतांत्रिक राजनीति से दूर क्यों रहना चाहिए इस के लिए उस के पास वे टोटके नहीं हैं जो भाजपा के पास इस बाबत हैं कि धार्मिक राजनीति लोकतंत्र में क्यों जरूरी है और विपक्ष अगर सत्ता में आया तो वह कैसे धर्म और हिंदुत्व को तहसनहस कर देगा.

ऐसी हालत में हालत बदलने की बहुत ज्यादा उम्मीद नहीं की जा सकती क्योंकि विपक्ष भी खुद को धार्मिक दिखाने लगता है जबकि उसे सिर्फ स्वास्थ, शिक्षा और रोजगार पर जोर देना चाहिए वह भी इस तरह कि लोग उस से इस बात को ले कर भयभीत और शंकित न रहें कि ये हमारी धार्मिक पहचान छीन लेंगे. इन लोगों को भाजपा से धर्म रक्षा की गारंटी मिली हुई है और इस का रोजरोज रिनुअल कराया जाता रहता है.

लोकसभा चुनाव सिर पर हैं ऐसे में यह रोग अभी और बढ़ेगा. पूरी दुनिया में राष्ट्रवाद का हल्ला है और इस के नाम पर वोट मांगे जा रहे हैं. यह डर 80 फीसदी काल्पनिक है लेकिन अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप खुलेआम कहने लगे हैं कि वे एक दिन का तानाशाह बन कर श्वेतों को देश का मालिक बना देना चाहते हैं. इस बात पर उन्हें अमेरिका के बहुसंख्यकों जो कम होते जा रहे हैं का समर्थन भी मिल रहा है क्योंकि ये लोग भी डर गए हैं कि उन का देश, जमीनजायदाद, धार्मिक पहचान, कारोबार वगैरह सब छीन लिए जाएंगे. अगर यह सब तानाशाही से बचता है तो सौदा घाटे का नहीं. दूसरी तरफ अश्वेत भी घबराए हुए हैं कि एक दफा ट्रंप के रहते तो श्वेत उन्हें शायद बख्श भी दें लेकिन जो बाइडेन शायद ही सरेआम होने वाली संभावित हिंसा से बचा पाए.

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