Romantic Story : आज सवेरे जब कामायनी दिल्ली से कालेज के लैक्चरर (वनस्पति विज्ञान) के पद का साक्षात्कार दे कर घर लौटी तो उत्साह के अतिरेक में अपने पिता के प्रौढ़ कंधों पर झूल गई,”पापा, “मेरा इंटरव्यू बहुत बहुत अच्छा हुआ. अब मुझे दिल्ली के किसी कालेज में अवसर मिलने की पूरी संभावना है, जो मेरा एक सपना भी है.”

पापा उस के सपनों को मीठी थपकियां देते बोले,”अरे बेटी, यह तो बड़ी उपलब्धि होगी पर यह तो बताओ कि आखिर तुम से क्या प्रश्न पूछे और तुम ने उत्तर क्या दिए?” कामायनी संयत हो कर सोफे पर बैठते हुए बताने लगी तो उस की आंखों में उम्मीद का एक आसमान पसरने लगा.

विचारमग्न होते पापा उस आसमान का एक छोर पकडना चाहते हैं कि आखिर उन की बेटी इतनी कड़ी प्रतिस्पर्धा में अपना चयन होने की उम्मीद कैसे कर रही है, न कोई सिफारिश, न कोई जरिया.

कामायनी,”पापा, मेरे इंटरव्यू बोर्ड में 3 सदस्य थे, एक प्रौढ़ महिला जो संभवतया बोर्ड की चेयरपर्सन थीं जिस की आंखों पर गोल, सुनहरी फ्रेम का चश्मा चढ़ा हुआ था. दाएंबाएं पुरुष सदस्य बैठे थे. एक सदस्य ने कुरसी पर बैठने का इशारा किया. दूसरे सदस्य ने पूछना शुरू किया,’क्या नाम है आप का? कहां से आई हैं आप?'”

“जी, मैं कामायनी हूं, बांसवाड़ा से हूं.”

पहला सदस्य,”आप के शहर के इस नाम का क्या लौजिक हो सकता है?”

सर,”बांसिया राजा के नाम पर यह नाम पङा है.”

चेयरपर्सन महिला जो कोई कागज पढ़ने में व्यस्त थीं, उन की चेयर थोङी घूम कर सीधी हुई. उन के प्रतिक्रियाहीन चेहरे पर कोई तरंग प्रकट होने लगी,”आप के शहर के नाम का कोई दूसरा लौजिक भी हो सकता है क्या?”

“जी मैम, बांसवनों की बहुतायत के कारण भी, बांसवाड़ा नाम पङा.”

चेयरपर्सन दूसरे सदस्य से मुखातिब हुई,”देखिए, कितना बोटैनिकल नेम है इस शहर का. राजस्थान का नाम आते ही लोगों के मन पर मरुधरा का वह चित्र साकार होने लगता है, जिस में रेगिस्तान में डग भरते ऊंट दिखाई देते हैं पर यह शहर इस के उलट राजस्थान का चेरापूंजी कहा जाता है, सिटी औफ हंड्रैड आई लैंड, फिर बांस से बनी बांसुरी इस बोटैनिकल नेम को नाद तत्त्व से भर देती हैं, वंडरफुल.”

फिर आंखों से चश्मा उतार कर प्रतिप्रश्न किया,”एम आई करैक्ट?”

कामायनी ने चहक कर सहमति में सिर हिलाया, “जी मैम.”

वह देख रही थी कि मैम की प्रतिक्रियाहीन चेहरे की महानदी में अचानक अनेक द्वीपों के बिंब उतर आए थे. उन्होंने दूसरे सदस्य की ओर प्रश्न पूछने का इशारा किया और मौन हो गईं जैसे कामायनी के चेहरे को पढ़ रही हों.

दूसरे सदस्य ने पूछा,”आप गुलमोहर के बारे में क्या जानती हैं?”

कामायनी,”सर, गुलमोहर का वानस्पतिक नाम है डेलोनिक्स रेजिया रौयल पांइसियाना.”

फिर तो दोनों सदस्यों ने गुलमोहर पर प्रश्नों की बौछार कर दी. चेयरपर्सन मैम मौन थीं पर कामायनी के चेहरे को लगातार पढ़ रही थीं.

कामायनी के उत्तर थे,”सर, संस्कृत में इसे कृष्णचूड़, राजआभूषण भी कहते हैं. भरी गरमियों में गुलमोहर के पेड़ पर पत्तियां तो नाममात्र की होती हैं पर फूल इतने अधिक होते हैं कि गिनना कठिन. गुलमोहर के फूल मकरंद का अच्छा स्त्रोत हैं, शहद की मक्खियां फूलों पर खूब मंडराती हैं.गुलमोहर का पहला फूल खिलते ही 1 सप्ताह के भीतर पूरा वृक्ष गाढ़े लाल रंग के अंगारों से भर जाता है. ये फूल लाल के अलावा नारंगी और पीले रंग के भी होते हैं.

“गुलमोहर को आग का पेड़ भी कहते हैं, क्योंकि जंगल में यह एक लौ की तरह दिखता है.”

मैम के भीतर जैसे कतारबद्ध गुलमोहर के पेड़ खड़े हों जिस की रोशनी की लौ बाहर आ रही हो. अचानक अपना मौन तोड़ते हुए पूछ बैठीं,”कामायनी, आप के छोटे शहर में अंगरेजों के जमाने का एक प्राइमरी स्कूल भी है, जिस पर किसी अंगरेज का नाम लिखा है और उस के सामने खेल के बडे मैदान में एक गुलमोहर का पेड़ भी है.

कामायनी,”जी हां, मैम यह स्कूल अभी भी है पर गुलमोहर तो वहां कहीं नहीं है.”

असहज हुई थी मैम,”क्या हुआ उस पेड़ को? किसी ने बचाने का प्रयास नहीं किया? पेड़ काटना तो कानूनी अपराध है.” मैम के स्वर में आक्रोश उभर रहा था.

“काटने वाले तो काट कर भाग गए होंगे पर उन्हें पता कितने पक्षी बेघर हो गए होंगे. कितने बच्चे जो उन घोसलों में थे यकायक बिना किसी अपराध के काल कवलित हो गए.लौट कर आए पक्षियों के शोकगीत से पेड़ पर बचे हुए इक्कादुक्का गुलमोहर के फूल भी मुरझा गए होंगे.”

कामायनी ने देखा, मैम थोडा अपसेट लग रही हैं. जैसे ही स्कूल और गुलमोहर का जिक्र आया उस के पापा भी स्मृतियों की महीन डोर से दूसरे छोर पर टंगे व्यतीत के कोठार में चले गए. उन को लगा, फूलों की लौ में हर चीज साफसाफ दिखाई दे रही है.

कभीकभी तेज हवा के प्रवाह में किताब के पन्ने पक्षियों के पंख की तरह फड़फड़ाते हैं और नई उड़ान पर निकल जाते हैं, ठीक उसी तरह कामायनी के पापा भी 50 वर्ष पूर्व की स्मृतियों की चौखट पर पहुंच गए. उन दरवाजों से निकल कर एक किशोर अपना बस्ता लटकाए अंगरेजों के नाम वाले उसी प्राइमरी स्कूल में जा रहा था.

उस कसबे में केवल एक ही स्कूल था जिस में उस की कक्षा में 30 छात्रों का रोल रहा होगा. चूंकि उस कसबे में बहुत कम लड़कियां पढ़ने जाती थीं, जो पढ़ती थीं उन के लिए भी कोई अलग से स्कूल नहीं था. उस की कक्षा में 29 छात्र थे, केवल एक लड़की पढ़ती थी. वह भी यहां की स्थानीय नहीं थी, उस के पापा यहां कोई सरकारी नौकरी करते थे. उन की हैसीयत का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि उन के पास साइकिल भी थी और साइकिल उस कसबे में स्टेटस सिंबल हुआ करती थी.

चूंकि वह एक अकेली लड़की थी इसलिए अध्यापक भी उसे वीआईपी ट्रीटमैंट देते थे. लड़कों के लिए तो आकर्षण का केंद्र थी ही, उस का बस्ता, उस के रंगबिरंगे मंहगे कपङे, जूते, बोलने का ढंग, गुलमोहर के फूल की तरह खिला हुआ चेहरा, सबकुछ कौतुहल…

अपनी कक्षा में वह अकेली लड़की पढ़ती थी. वैसे स्कूल में कुल जमा 7-8 लड़कियां थीं जो छोटी कक्षाओं में थीं. स्कूल तो उस के बैच के साथ प्राथमिक से माध्यमिक की और बढ़ रहा था. ठीक उसी तरह उस लड़की की लंबाई भी बढ़ रही थी. स्कूल के सामने पसरे मैदान पर एक अकेला गुलमोहर का पेड़ था जिस पर लालपीले गुलमोहर खिल रहे थे. बाद में उसे आश्चर्य हुआ कि अरे, इस लड़की का नाम तो अपनेआप में यूनिक है. उस ने आज से पहले किसी लड़की का नाम गुलमोहर नहीं सुना था और यह गुलमोहर थी भी फूलों की तरह खिली हुई. उन दोनों में परस्पर कोई संवाद नहीं था. शाही प्रकृति थी, किसी के साथ अनावश्यक बातचीत नहीं करती थी.

एक दिन एक घटना ऐसी घटी की उन की मैत्री का कारण बन गई. छुट्टी से पहले वाला घंटा बागवानी विषय का था जो उस को फूटी आंख नहीं सुहाता. बागवानी के अध्यापक ने जांचने के लिए उन की कौपी मांगी, जो एकदम खाली देख कर मास्टरजी का पारा सातवें आसमान पर चढ़ गया.

खाली कौपी उस के मुंह पर मारी और फटकार कर बोले,”नहीं पढ़ना है तो मांबाप का पैसा क्यों बरबाद कर रहे हो, स्कूल छोड़ कोई और धंधा तलाश कर लो. तभी छुट्टी की घंटी बजी. जाते हुए सहपाठी उसे घूर रहे थे. वह अपनेआप को अपमानित महसूस कर रहा था. उस का घर जाने का भी मन नहीं था. घर वालों को पता लगेगा तो वह अलग मिट्टी पलीद करेंगे. स्कूल बंद होने वाला था. वह कहां जाए. उसे लगा अपमानित होने की इस घड़ी में दूर खड़ा गुलमोहर का पेड़ उसे बुला रहा है, सांत्वना दे रहा है.

अनमने से वह पेड़ के नीचे खड़े हो कर सामान्य होने का प्रयास कर रहा था. तभी गुलमोहर भी उधर आने लगी. वह घबरा गया,’अब यह जले पर नमक छिडकने आ रही है क्या?’ लेकिन हुआ सोच के विपरीत.

गुलमोहर,”देखो, अध्यापकजी ने ठीक नहीं किया पर निराश क्यों होते हो, कल बागवानी का होमवर्क पूरा कर के ले आना.”

“अरे, तू क्या जाने… मुझे तो कुछ विषयों से चिढ़ है और बागवानी उन में से एक है.”

गुलमोहर,”सब से पहले तो मुझे ‘तू’ नहीं ‘तुम’ कह कर बुलाना. मेरी मां कहती हैं कि हर किसी से हमें सलीके और अदब के साथ बात करनी चाहिए. जैसे मैं तुम्हें ‘तुम’ कहती हूं.” उस का अवसाद कुछ घुलने लगा.

गुलमोहर,”दूसरी बात, हर बच्चे को हर विषय पसंद हो यह जरूरी भी नहीं है. जैसे मेरी समझ में हिंदी नहीं आती है. तुम को तो सारी कविताएं और दोहे कंठस्थ हैं, मैं नहीं समझ पाती. देखो, वे किस कवि का कौन सा दोहा,’छाछ के लिए नाच हो रहे हैं…'”

“वे कौन से कवि हैं जो कामरी, लकङी के लिए राज्य को ठोकर मार रहे हैं,” उस की हंसी छूट गई.

वह थोङा सहज हो कर समझाने लगा,”या लकुटी अरु कामरिया की, ताहि अहीर की छोहरियां छछिया भरी छाछ पे नाच नचावे…”

गुलमोहर भी उस हंसी में सम्मिलित हो गई. पूछने लगी,”तुम ने गंगारंगा की कहानी सुनी है. एक के पांव नहीं हैं, दूसरे के हाथ नहीं हैं. दोनों मिल कर काम करते हैं और गाङी चल पङी.”

लाओ, तुम्हारी बागवानी की कौपी लाओ. घर के बगीचे में मां ने कई गमले रखे हैं, उन की पत्तियां इस में टांक कर ले आऊंगी. शुरुआत तुम करो. गुलमोहर के फूल तोड़ कर मुझे दो. इस को सब से पहले टांक दूं.

उस ने जब एक गुलमोहर का फूल, गुलमोहर की हथेली पर रखा तब लगा कि बागवानी नीरस विषय नहीं है.

“जाओ, अब सीधे घर जाओ, चाचीजी तुम्हारी चिंता कर रही होंगी.” वह एक आज्ञाकारी बालक की तरह घर की ओर चल पङा.

आगे कुछ ऐसा ही क्रम बन गया. जब भी कुछ समझ में नहीं आता, तो वह कभी रेसस में या छुट्टी के बाद गुलमोहर के पेड़ तले बैठ कर एकदूसरे से समझ लेते. इन का गुलमोहर तले जा कर बैठना, दूसरे सहपाठियों को अटपटा लगता. एक दिन किसी सहपाठी ने उस को टोक भी दिया,”क्या लड़का हो कर लड़कियों से दोस्ती करता हो.” नतीजा यह हुआ कि 2-4 दिनों तक वह गुलमोहर से कन्नी काटता रहा.

दूर से देखता कि गुलमोहर बराबर वहां जाती है, कुछ देर रुकती है. लगता है, जैसे किसी की प्रतीक्षा में खड़ी हो, फिर पेड़ पर लगे हुए फूलों को निहारती है और आहिस्ताआहिस्ता अपने गंतव्य को लौटने लगती है. उसे लगता है कि अभी पीछे से आ कर कोई कहेगा कि रुको गुलमोहर, पर ऐसा कुछ हुआ नहीं.

5वें दिन उस के कदम बडी व्यग्रता के साथ रेसस के कुछ समय पहले ही गुलमोहर के पेड़ की तरफ बढ़ गए. वह पेड़ तले प्रतीक्षा में खड़ी थी. गुलमोहर ने कुछ नजदीक से जब उसे देखा तो यकायक पीछे घूमने की कोशिश करने लगी. कल रात को ही उस ने कहीं पढ़ा था कि जब उदास गोपियों को उद्धव सारा ज्ञान बघार चुके और फिर भी नहीं समझीं तो उन्होंने कहा कि मथुरा से गोकुल की दूरी सिर्फ 5 कोस है. तुम सभी वहां जा कर कन्हैया से मिल लो. उन्हें उलाहना दो.

तब गोपियों ने कहा,”मथुरा से गोकुल की दूरी सिर्फ 5 कोस है फिर भी प्रश्न यह स्वाभिमान का है.” तब उद्धव निरुत्तर हो गए थे.

वह समझ गया कि गुलमोहर रुष्ट हो गई है, इसलिए आगे बढ़ कर उस ने आवाज लगाई,”रुको, गुलमोहर…”

“हम नहीं रुकते, हमारी कुट्टी हो गई,” उस की आवाज में तल्खी थी.

“हमारी तो बुच्ची ही है,” उस ने हकलाते हुए सफाई दी.

“तुम विवशता समझो, गुलमोहर. सहपाठी हंसते हैं कि क्या लड़की से दोस्ती करता है…”

अनायास ही उस की हंसी छूट जाती है. एकदम उन्मुक्त, ऊपर डाल पर खिल रहे सुर्ख लाल गुलमोहर की तरह.

वैसे तो उस के रंगबिरंगे कपड़ों को ले कर स्कूल के बच्चों में सदैव उत्सुकता बनी रहती पर ऋतु परिवर्तन के साथ ही यह उत्सुकता चरम पर पहुंच जाती. वर्षा ऋतु में भी यह विभिन्न प्रकार के रेनकोट से ले कर रंगबिरंगी, सतरंगी छतरियों में दृष्टिगोचर होती.

चेरापूंजी नाम को सार्थक करते कसबे में जब मेह की झड़ी लग गई, आसमान ने कुहासे की चादर ओढ़ ली, तब उस दिन स्कूल में समय से पहले ही छुट्टी की घंटी बजा दी गई.
स्कूल तो बंद हो रहा था, मगर उस के पास छतरी थी नहीं, इसलिए बरसात के रुकने की प्रतीक्षा में पेड़ के नीचे खड़ा हो गया. सतरंगी छतरी में आ रही गुलमोहर ने पास आ कर कहा,”चलो, आओ…”

“एक छतरी में दोनों भीगेंगे, इस से अच्छा है तुम चली जाओ.”

“और तुम यहां पूरे भीग कर बीमार हो जाओगे, इस से अच्छा है थोड़ाथोड़ा भीग कर दोनों चले जाएंगे. मैं कोई मोम की तो नहीं हूं जो गल जाऊंगी.”

“नहीं, यह बात नहीं है, तुम्हारी मां तुम्हें डांटेंगी.”

“मेरी मां ऐसी नहीं है.”

“चल़ो, आओ…”

अब वह इस आदेश को टालने की स्थिति में नहीं था. छतरी में उस ने दोनों के बस्ते संभाले, वह छतरी संभाल रही थी. उस का घर पहले आता था, जहां पहुंच कर उस ने छतरी देते हुए कहा,”यह ले कर जाओ.”

उस ने कहा,”इस की जरूरत नहीं है, अब बरसात भी कम हो रही है.” उस ने छतरी हाथ में थमा दी.

वह घर लौटते हुए सोच रहा था कि क्या जीवन भी सतरंगी छतरी की तरह खुल कर आकाश के वक्ष का इंद्रधनुष हो जाता है…

शरद ऋतु में उस की झलक उस के गरम कपडों से मिलने लगी. अलगअलग रंग के कार्डिगन, हाथ से बुने हुए रंगबिरंगे गरम ऊनी बनियान, आधी बांह, पूरी बांह, चित्ताकर्षक कढ़ाई, बुनाई किए हुए शौल, दुशाले… उस के आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब उस ने बताया कि मां को कढ़ाईबुनाई का बहुत शौक है. वे अपने खाली वक्त में बुनती रहती हैं.

एक दिन उस ने गुलाबी रंग की गरम ऊनी बनियान पहन रखी थी जिस पर कलात्मक ढंग से बुना हुआ श्वेत खरगोश शावक का चित्र बहुत सुंदर लग रहा था. उस ने कहा था,”ओहो, इतना सुंदर सजीव दिखता खरगोश, हाथ से छू कर सहलाने को जी करता है.”

उस ने तपाक से उस का हाथ अपने हाथों में लिए और कहा,”तो छू लो.”

दिन, महीने, साल किश्त दर किश्त गुजरते गए. सांसों की गंध जीवन की पोथी के अभिलेखागार में सुरक्षित होती चली गई. पर जीवन तो एक महासागर है, शांत, धीर समंदर एक सरीखा तो नहीं रहता. ज्वारभाटों के घातप्रतिघात से उठे चक्रवात न जाने कब वज्रपात से उस के सीने को छलनी कर देते हैं.

कक्षा 5वीं से 7वीं तक की पढ़ाई का 3 वर्ष का यह सफर अपने चौथे वर्ष में प्रवेश करने ही जा रहा था कि तभी समाचार आया की उस के पापा का यहां से बहुत दूर द्वारका में ट्रांसफर हो गया है. गुलमोहर के पेड़ के साए में इस सफर की कोई आखिरी शाम रही होगी, जब शब्द अपना सामर्थ्य खो चुके थे, भाषा उस विस्तार को छूने में अक्षम थी और कुछ बोल पाना सहज नहीं था. उस धुंधलके में यह भी नहीं दिखाई दे रहा था कि पलकों के लिए कितना कठिन होता है आंखों के मुहानों पर ठहरी हुई नदियों को रोक पाना.

गुलमोहर का पेड़ अब भी वहीं खड़ा था मजबूती से, अटल… मगर गुलमोहर चली गई थी बहुत दूर. जीवन से तथागत होने का अर्थ जीवन का शून्य हो जाना तो नहीं होता है.

बाद के जीवन में जब एक बार वह द्वारिका की यात्रा पर निकल पङा तो उस ने कल्पना की थी कि कहीं कान्हा की मुरली की तान सुनाई दे.चारों तरफ पसरे हुए सन्नाटे में वह खोज रहा था द्वारका, जो कब का समुंदर में समा चुका था.

कामायनी,”अरे पापा, आप कहां खो गए? मैं ने अपना पूरा इंटरव्यू बता दिया और आप सो गए. आप ने कुछ सुना ही नहीं, क्या पापा…आप भी न…”

पापा,”मैं सुन तो रहा था.”

कामायनी,”नहीं सुना हो तो सुनो, मुझे लगता है कि वे मैम इस शहर से किसी न किसी रुप में परिचित हैं और यही मुझे अपना सिलैक्शन होने की संभावना लगती है. और पता है, पापा जब मैं इंटरव्यू दे कर खड़ी हुई तो उन्होंने अचानक पूछ लिया,”कामायनी, आप के पापा का नाम क्या है?”

मैं ने कहा,”प्रसाद… एक क्षण के लिए वे हतप्रभ रह गईं, कुछ सोचने लगीं फिर संयत हो कर कहा कि अच्छा तुम्हें पता है कि जयशंकर प्रसाद की सुप्रसिद्ध कृति का नाम भी कामायनी है?”

मैं ने स्वीकृति में सिर हिलाया,”जी मैम…”

पापा भी एक क्षण के लिए कुछ सोचते हैं,” बेटी, तुम ने उस मैम का नाम नहीं पूछा?”

“पापा, मैं उस मैम का नाम कैसे पूछ सकती थी. क्या यह आउट औफ कर्टसी नहीं होता?”

तभी उस की मम्मी प्यालों में कौफी ले कर आ गई,”आखिर मुझे भी तो पता चले कि बापबेटी के मन में किस बात के लड्डू फूट रहे हैं, रिजल्ट तो अभी आया नहीं है.

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