इस साल अप्रैल में ऐक्ट्रैस सामंथा रुथ प्रभु की फिल्म ‘शकुंतलम’ रिलीज हुई थी. फिल्म में स्वर्ग की अप्सरा मेनका और विश्वामित्र से जन्मी शकुंतला की कहानी को दिखाया गया था. फिल्म की शुरुआत तपस्या कर रहे विश्वामित्र से शुरू हुई. इस तपस्या से डरे इंद्र स्वर्ग की अप्सरा मेनका को विश्वामित्र की तपस्या को भंग करने के लिए धरती पर भेजते हैं. पौराणिक कथाओं में अप्सराएं स्वर्ग की वे सुंदरियां हैं जो हर किसी को सैक्ससुख देती हैं. महाभारत में उर्वशी अर्जुन को उस के साथ इस कारण सैक्स न करने पर श्राप देती है कि, अर्जुन के अनुसार, वह इंद्र, उस के पिता के साथ सोती है. उर्वशी का कहना था कि, वह सभी दादाओं और पोतों को खुश करती रही है, अर्जुन यह कह कर उसका अपमान कर रहा है, वह उसे एक वर्ष तक के लिए किन्नर बन जाने का श्राप देती है.

एक ऋषि विश्वामित्र से संभोग के बाद शकुंतला जन्म लेती है जिसे मेनका धरती पर छोड़ क़र स्वर्ग लौट जाती है. जब महर्षि कण्व की नजर उस पर पड़ती है तो वह उसे अपने साथ आश्रम ले आते हैं. कुछ सालों बाद राजा दुष्यंत उस आश्रम में आते हैं और तब उन की मुलाकात शकुंतला से होती है. वे उस से गंधर्व विवाह कर लेते हैं. और वह गर्भवती हो जाती है. कुछ समय बाद वे अपने सैनिकों के साथ उसे लेने आएंगे, ऐसा वादा कर के वे अपने राज्य लौट जाते हैं. काफी समय तक जब राजा दुष्यंत उसे लेने नहीं आते तो गर्भवती शकुंतला उन के पास खुद चली जाती है. लेकिन राजा दुष्यंत उसे पहचाने से इनकार कर देते हैं.

गर्भवती शकुंतलाका क्या हुआ, राजा दुष्यंत ने उसे क्यों नहीं पहचाना,  फिल्म ‘शकुंतलम’ यही कहानी बताती है. फिल्म देखने के बाद यह कहा जा सकता है कि यह फिल्म वही कहानी बताती है जो अब तक हम देखतेसुनते आए हैं. इस फिल्म ने एक बार फिर यह साबित कर दिया है कि किसी की ऐसी हिम्मत नहीं जो धर्मग्रंथों की नैतिकता और असलियत पर सवाल उठाए. इस फिल्म ने भी वैदिक देवता इंद्र, पौराणिक ऋषि विश्वामित्र, मेनका, कण्व, राजा दुष्यंत के चित्रों को महान बनाकर प्रस्तुत किया है. जबकि, इन में से हरेक का चरित्र बेहद घटिया और विवादस्पद ही नहीं है, उस से आज भी आम जनता गलत सबक सीखती है और औरतों को वह इस्तेमाल करने की वस्तु मात्र मानती है.

शंकुतला और दुष्यंत की पौराणिक कहानी क्या वैसी ही है जैसी इस फिल्म में दिखाई गई या इस से पहले कई फिल्मों में दिखाई गईथी अथवा बच्चों और बड़ों को पढ़ाई जाती है या इस की सचाई कुछ और ही है. जो मूल कहानी में स्पष्ट है, क्या इस कहानी से हमें कोई ज्ञान और सही आदर्श मिलता है. यह बस धर्म का पालन करना सिखाती हुई पाखंडी व गलत बातों पर धार्मिक स्टैंप लगाती प्रतीत होती है जो हमारी अनैतिकता का कारण है.

हम से बारबार कहा जाता है कि देवताओं में कोई डर, कोई लालच नहीं होता. वे विश्व कल्याण के लिए ईश्वर की उत्पत्ति हैं. पर अगर देवता इंद्र में डर नहीं था तो वे ऋषि विश्वामित्र की तपस्या को भंग क्यों करना चाहते थे. क्यों वेअपनी सत्ता खोने से डर रहे थे. देवताओंके पास बहुत शक्ति होती है तो क्या देवता इंद्र शक्तिविहीन थे जो उन को षड्यंत्र की जरूरत पड़ गई. हमारे देवताओं का यह कौनसा रूप है. क्या हमें षड्यंत्र करने वाले देवताओं से सीख लेने की जरूरत है. एक ऐसे देवता जिसे अपनी कुरसी खोने का डर है, हमें उस से जिंदगी जीने के गुण सीखने चाहिए? दूसरी मुख्य बात यह है कि पौराणिक ग्रंथ कुछ नहीं बताते कि यह कैसी तपस्या है जिस से इंद्र का सिंहासन डोल सके. सिर्फ स्थिर बैठ कर, ध्यान लगाने से क्या इंद्र का स्थान जीता जा सकता है. यदि कुछ स्थान पाने के लिए सिर्फ बैठना है, तो देवताओं ने क्यों असुरों से युद्ध किए, क्यों अमृतमंथन किया?

वायु देवता भी इंद्र के इस षंडयंत्र में शामिल थे. उन्होंने ही योजना के अनुसार मेनका के कपड़े शरीर से उड़ा दिए. क्या  देवताओं को ऐसा करना शोभा देता है? देवता हमें ये सब क्या सिखा रहे हैं. यह स्त्री के सम्मान को ठेस पहुंचाने के समान है. धर्म के ठेकेदार तो हमें यह बताते हैं कि हमारे देवता सचरित्र थे. लेकिन यह कैसा सचरित्र है जो किसी स्त्री की मानमर्यादा का हनन कर रहा है. हम अपने देवताओं से ये सब सीखें और सीखकर क्या करें महिलाओं का शोषण. सब से बड़ी बात यह है कि स्वर्ग में मेनका, रंभा और उर्वशी जैसी कामसुख देने वाली स्त्रियां थीं ही क्यों. आज भी देश में लाखों वेश्यालयों को अप्सराओं की परंपरा को ढोना पड़ रहा है और उसे धर्म की मान्यता मिली हुई है.

दूसरे मुख्य पात्र हैं विश्वामित्र. उन्हें एक महान ऋषि कहा जाता है. वे कैसे अपनी कामुकता पर नियंत्रण नहीं रख पाए और देवताओं को कामुकसुख देने वाली अप्सरा मेनका से संभोग कर बैठे. जो व्यक्ति अपने काम पर नियंत्रण नहीं रख सकता वह महान ऋषि कैसे हुआ. क्या हमें ऐसे ऋषियों को अपना आदर्श मानना चाहिए. अगर किसी महिला के शरीर से उस के कपड़े हट जाएं तो क्या हमें उस के साथ संबंध बना लेने चाहिए. इस तरह से तो बलात्कार को बढ़ावा मिलेगा. तो क्या विश्वामित्र हमें बलात्कार करने की ओर प्रेरित कर रहे हैं. अगर मणिपुर में 2 कुकी औरतों के पहले कपड़े हटा दिए गए तो हटाने वाले क्या वायु देवता का काम कर रहे थे और बाद में अगर उस युवती के साथ मां के सामने बलात्कार हुआ तो क्या बलात्कारी ऋषि विश्वामित्र के दिखाए धर्मसम्मत काम को ही कर रहे थे.

मेनका के कपड़े उतरने के बाद विश्वामित्र ने उसे दूसरे कपड़े न दे कर उस स्थिति का फायदा उठाया. उस के कपड़े उतरने पर वे अपना मुंह भी तो फेर सकते थे न. लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया. क्या किसी नंगी लडक़ी को देख लेने से अपनी कामवासना को रोका नहीं जा सकता. क्या यह कठिन है. विश्वामित्र जैसे महान तेजस्वी ऋषि क्या हमें यही सिखा रहे हैं कि नंगी स्त्री को देखने पर उस के साथ संबंध बना लिए जाने चाहिए. कहने का मतलब यह है कि अगर कोई लडक़ी नंगी नहा रही है और उसे किसी पुरुष ने देख लिया तो उसे यह धार्मिक हक मिल गया कि वह उस लडक़ी के साथ सैक्स संबंध बना ले. क्या यह सच नहीं कि यही सब पढ़ पढ़ क़र हमारे समाज के पुरुष पथभ्रष्ट हो गए है और बलात्कार को पुरुषत्व ऋषित्व से जोड़ क़र देखने लगे हैं.

क्या हमारे ग्रंथ हमें यही पढ़ाते हैं. इस तरह से तो वे औरत को एक सामान की तरह पेश कर रहे हैं, जिस से समयसमय पर अपना काम निकलवाया जाए. क्या हमें ऐसे समाज की जरूरत है जहां षड्यंत्र हो, जहां महिलाओं के साथ बलात्कार किया जाए. इस का जवाब होगा- नहीं – लेकिन धर्मग्रंथ तो हमें यही बता रहे हैं कि देवताओं और ऋषियों ने ऐसा ही किया था. क्या इन देवताओं और ऋषियों ने गलतियां की हैं.

महर्षि वेदव्यास द्वारा लिखे महाभारत, जिसे गीताप्रेस गोरखपुर ने प्रकाशित किया है, के प्रथम खंड आदिपर्व और सभापर्व के 71वें अध्याय से 74वें अध्याय तक में शंकुतला और दुष्यंत की कहानी को वर्णित किया गया है. इस कहानी के माध्यम से हम यह भलीभांति जान सकते हैं कि हमारे धर्मग्रंथ ही हमें औरतों के साथ भेदभाव करना सिखाते हैं.

यह भेदभावआज भी हमारे अंतर्मन का हिस्सा है. शिक्षा के बावजूदयह भेदभाव कम नहीं हुआ है. जब राजा इलिल के पुत्र दुष्यंत महर्षि कण्व के आश्रम में गए तो वहां उन का सामना शकुंतला से हुआ. शंकुतला को देखकर राजा दुष्यंत उस की ओर आकर्षित हो गए और उस की सुंदरता का वर्णन करते हुए कहा-

सुव्रताभ्यागतं तं तु पूज्यं प्राप्तमथेश्वरम्,

रूपयौवन संपन्ना शीलाचारवती शुभा.

अर्थात, उत्तम व्रत का पालन करने वाली वह सुंदरी कन्या रूप, यौवन, शील और सदाचार से संपन्न थी. महाभारत के अनुसार, औरत की खूबसूरती उस के यौवन, रूप,अच्छे आचरण और व्यवहार से है. अगर कोई औरत इन मापदंडों पर खड़ी नहीं उतरती तो क्या वह औरत कहलाने के काबिल नहीं है. यदि औरत तेज आवाज में बात करे तो क्या वह औरत नहीं कहलाएगी.

गुस्सा अपनी भावनाओं को व्यक्त करने का एक रूप है और अपनी भावनाओं को व्यक्त करने का अधिकार हमारा संविधान हमें देता है. लेकिन अगर हम महाभारत में कही गई बातों को मानें तो यह हमारे संवैधानिक अधिकारों का हनन होगा. अकसर गुस्सा आने पर लोग तेज आवाज में बात करने लगते हैं. ऐसे में अगर औरत को गुस्सा आता है तो उस की आवाज भी तेज हो जाती है. लेकिन हमारे सब धर्मग्रंथों ने यह अधिकार भी औरतों से छीन लिया है. वे कैसा महसूस कर रही हैं, यहबताने का अधिकार भी उन को नहीं है. यह व्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन नहीं तो और क्या है. जबकि, पुरुष अपने गुस्से को दिखा सकता है. वह तो गुस्से में युद्ध भी कर सकता है. लेकिन औरत तो ऐसा नहीं कर सकती क्योंकि धर्मग्रंथ उसे ऐसा करने की इजाजत नहीं दे रहे.

* इस तरह से हमारे धर्मग्रंथ सदैव पुरुषों के हित में रहे हैं. एक औरत की पहचान केवल उस का रूपरंग होता है. क्या उस की सारी विशेषताएं उस के रूप में होती हैं. इस के अलावा क्या उस का कोई अस्तित्व नहीं. वेदव्यास के महाभारत के पृष्ठ 208 में वर्णित वैशम्पायन उवाच के श्लोक 10 और 11 से तो यही साबित होता है. इस तरह के श्लोकों का सहारा लेकर धर्म-पाखंडी हमेशा औरतों को दबाते रहे हैं और अपने तथ्यों को इन श्लोकों के माध्यम से सही कहते रहे हैं.

* महाभारत में स्त्री के जांघों की तुलना हाथी की सूंड से की गई है. क्या औरतों के लिए ऐसी भाषा का प्रयोग करना उचित है? क्या हमारे धर्मग्रंथ हमें यही सिखाते हैं. अगर महाभारत जैसा ग्रंथ हमें यह सिखा रहा है तो देश के घरघर में महाभारत पढ़ी जाती है या टीवी पर देखी जाती है और उस की दिखाईसिखाई बातें मान्य बन जाती हैं. इस का अर्थ तो यह हुआ कि औरतों का सम्मान न करना इन्हीं धर्मग्रंथों की उपज है. सडक़ पर चलते हुए जब औरतों को मनचलों की तरहतरह की बातों का सामना करना पड़ता है तो जितना दोष उन मनचलों का है उतना ही दोष धर्मग्रंथों का भी है क्योंकि ये सीख तो वे लोग हमारे धर्मग्रंथों से ले रहे हैं. महाभारत और अन्य पौराणिक ग्रंथों में लिखी ऐसी बातों की वजह से समाज में औरतों का शोषण होता आ रहा है.

स्त्री की विशेषताओं का वर्णन केवल उस की सुंदरता में किया गया है. इस के तहत उन के प्रति सुंदर भौहों वाली, हाथी के सूंड के समान जांघोंवाली जैसे शब्दों का प्रयोग किया गया है. मानो, स्त्री की विशेषता, बस, यही हो. इन में कहीं भी उसे साहसी और शक्तिशाली नहींबताया गया. क्या हम अपने समाज की स्त्रियों को यही संदेश देना चाहते हैं कि आप, बस, अपनी सुंदरता पर काम करें.

धर्मग्रंथ हमें संस्कार सिखाते हैं. औरत की जाघों की तुलना हाथी की सूंड से करना शरीर पर इस तरह की बात करना कौन से संस्कार सिखाते हैं. जो लोग ऐसे संस्कारों की बात करते हैं, वे दरअसल जाहिल हैं. अगर यही संस्कार हैं तो उखाड़ फेंक देना चाहिए ऐसे संस्कारों को जो औरतों का शोषण करना सिखाते हैं.

तीसरे मुख्य पात्र दुष्यंत ने जब ने जब कहा कि क्षत्रिय कन्या के सिवा दूसरी किसी स्त्री की ओर मेरा मन कभी नहीं जाता. अपने से भिन्न वर्ण की कुमारियों और स्त्रियों की ओर भी मेरे मन की गति नहीं होती. ऐसा कहने वाले दुष्यंत उन सभी स्त्रियों का अपमान कर रहे हैं जो क्षत्रिय नहीं हैं. उन के कहने का अर्थ है यह कि उन्हें केवल क्षत्रिय कन्या ही आकर्षित कर सकती है. इस कहानी को बारबार बच्चों और बड़ों को पढ़ा कर हमवर्णव्यवस्था को बढ़ावा दे रहे हैं जोकि एक आदर्श समाज के लिए खतरा है.

हमारे धर्मग्रंथ ही हमें इस तरह की बातें सिखा रहे हैं. इस का मतलब है कि समाज में होने वाला भेदभाव इन्हीं की देन है.स्त्रियों के शोषण के पीछे असली किरदार तो ये धर्मग्रंथ ही निभा रहे हैं.

पिता हि मे प्रभुर्नित्यं दैवतं परमं मतम्.

यस्य वा दास्यति पिता स मे भर्ता भविष्यति..

पिता रक्षति कौमारे भर्ता रक्षति यौवने.

पुत्रस्तु स्थविरे भावे न स्त्री स्वातन्त्रयमर्हति..

अमन्यमाना राजेन्द्र पितरं मे तपस्विनम्.

अधर्मेण हि धर्मिष्ठ कथं वरमुपास्महे..

* जब दुष्यंत शकुंतला से गंधर्व विवाह करने को कहते हैं तो शकुंतला कहती हैं कि मेरे पिता (ऋषि कण्व) ही मेरे प्रभु है. वे मुझे जिसे सौंपदेंगे, वही मेरा पति होगा. शकुंतला का ऐसा कहना एक स्त्री से उसके पति को चुनने के हक को खत्म कर देता है. कुमारावस्था में पिता, जवानी में पति और बुढ़ापे में बेटा रक्षा करता है. स्त्री को कभी स्वतंत्र नहीं रहना चाहिए. उन के ऐसा कहने के पीछे धर्म, पांखडिय़ों का मकसद स्त्रियों को पुरुषों के अधीन रखना है. ऐसा सीख देने वाला महाभारत एकस्त्री के अस्तिव पर प्रश्नचिह्न लगाता है. शंकुतला कहती है कि पिता की अवहेलना कर वह अधर्मपूर्वक किसी पति को अपना नहीं सकती. इस का मतलब तो यह हुआ कि गंधर्व विवाह करने वाली सभी लड़कियां अधर्म कर रही हैं.

* शंकुतला सेये सब बातें किस ने कहीं,इन पुरुषों ने ही. ये पुरुष भला क्यों चाहेंगे कि एक स्त्री अपने फैसले खुद ले. वे तो उसे हमेशा अपनी छत्रछाया में ही रखना चाहेंगे ताकि वह अपनेलिए आवाजन उठासके. वे उसे चारदीवारी से बाहर निकलने देना नहीं चाहते, इसलिए इन धर्मग्रंथों में लिखी स्त्रीविरोधी बातों का समर्थनलेकर वे स्त्रियों को दबाना चाहते हैं.

* हमारे धर्मग्रंथ ने स्त्री को अपना वर चुनने के अधिकार से वंचित रखा है. यही कारण है जो आज भी हमारे देश में प्रेमविवाह को नफरत की नजर से देखा जाता है. इन धर्मग्रंथों ने ही समाज को यह पट्टी पढ़ा रखी है कि स्त्रियों को हमेशा अपने वश में रखो, तभी तुम्हारा पौरुषत्व है और यह समाज अंधा हो कर इस बात का अनुसरण कर रहा है.

दुष्यंत कहते हैं कि गंधर्व विवाह धर्म का मार्ग है. इस बात को मानकर शकुंतला उन से शादी करने को राजी हो गई. शकुंतला के साथ एकांतवास बिताने के बाद उन के अनुराग से जन्मे पुत्र को राजकुमार बनाने और उन्हें यहां से ले जाने के वादे के साथ दुष्यंत अपने नगर चले गए. सवाल यह है कि दुष्यंत उसे अपने साथ उसी वक्त क्यों नहीं ले गए. जब वे शादी कर सकते हैं तो साथ क्यों नहीं ले जा सकते. एक शादीशुदा महिला अपने पति के स्नेह की हकदार होती है. ऐसे में अगर उसे दूर रहने की पीड़ासहन करनी पड़ रही है तो यह उस के साथ अन्याय है.

ततो धर्मिष्टतां वव्रे राज्याच्चास्खलनं तथा,

शकुंतला पौरवाणां दुष्यंतहितकाम्यया.

इस श्लोक में शकुंतला अपने लिए कुछ न मांग कर दुष्यंत के लिए वरदान मांगती है. वह कहती है कि धर्म में उन का विश्वास बना रहे और वे राज्य के प्रति अपने कतर्व्य से न हटें.

महिलाओं के दिमाग में धर्म के नाम पर इतना कुछ भर दिया गया है कि वे अपने लिए कुछ नमांग कर अपने पिता, पति, पुत्र के लिए ही वरदान मांगती हैं. करवाचौथ ऐसा ही एक व्रत है जो पति की लंबी उम्र के लिए पत्नियों द्वारा रखा जाता है. क्या पति नहीं चाहता कि उस की पत्नी की उम्र लंबी हो. क्या ऐसा भी कोई व्रत है जो पुरुषों द्वारा महिलाओं के लिए रखा जाता है. ऐसा ही एक व्रत अहोई का व्रत भी है जो माताएं अपनी संतान के लिए रखती हैं.

दिवारात्रमनिद्रैव स्नानभोजनवर्जिता,

राजप्रेषणिका विप्रा श्रतुरङगबलै: सहा.

अद्यश्र्वो वा परश्वोवासमायान्ततीति निश्चिता,

दिवसान् पक्षानृतून् मासानयनानि च सर्वश,

गण्यमानेषु सर्वेषु व्यतीयुस्त्रीणि भारत.

शंकुतला को न तो दिन में नींद आती, न ही रात में. उस का स्नान और खाना दोनों ही छूट गया. उसे यह विश्वास था कि राजा दुष्यंत के सिपाही आएंगे. लेकिन दिन, महीने और साल बीतते गए. 3 साल बाद भी कोई सिपाही न आया. किसी भी स्त्री को अपने पति की सब से ज्यादा जरूरत गर्भावस्था के समय होती है, ऐसे में उस के साथ न होना गलत है.

एक स्त्री का अपने पति पर इतना अडिग विश्वास होता कि वह उस का सालों इंतजार करती रहती है. उस को यह समझा रखा जाता कि वह अपने पति के पास खुद नहीं जाएगी, उसे इंतजार करना होगा चाहे यह इंतजार कितना ही लंबा क्यों न हो. ऐसी ही स्त्रियों का हवाला देकर आज भी महिलाओं से यह उम्मीद की जाती है कि वे अपने पतियों का सदियों तक इंतजार करें.

क्या कभी किसी महिला के पति ने उस का वर्षों तक इंतजार किया है? ऐसा कहीं देखनेसुनने को नहीं मिला तो महिला से ये उम्मीद क्यों की जाती है. इन दीमक लगे ग्रंथों का हवाला देकर आज के समय की स्त्री को चारदीवारी के अंदर कैद करने के सौ बहाने ढूंढे जाते हैं.

गर्भ सुषाव वामोरु: कुमारमममितौजसम्,

त्रिषु वर्षेषु पूर्णेषु दीप्तानलसमद्युतिम्,

रुपौदार्य गुणोपेतं दोषयन्तिं जनमेजय.

इस श्लोक में कहा गया है कि जब एक स्त्री शिशु को जन्म देती है तो वह 206 हड्डियों का दर्द सहन करती है. ऐसे में उन पलों का वर्णन नहीं किया जा सकता है. लेकिन महर्षि वेदव्यास के महाभारत के इस श्लोक में उन पलों को वर्णित करते हुए कहा गया है कि सुंदर जांघों वाली शकुंतला ने अपने गर्भ से एक कुमार को जन्म दिया, जो राजा दुष्यंत के वीर्य से जन्मा था. ऐसी महिला जो दर्द में है वहां उस की जांघों की खूबसूरती देखी जा रही है न कि उस की पीड़ा, उस का दर्द.

जब शकुंतला ने लडक़े को जन्म दिया तो आसमान से फूलों की बारिश होने लगी, देवताओं के बाजे बजने लगे, अप्सराएं नाचने लगीं. इन्हीं घटनाओं ने तो पुरुषों को स्त्री पर हावी होने का साहस दिया है. क्या लडक़ी के जन्म पर भी ऐसा ही होता है. लड़कियों के जन्म पर तो शोक मनाने की घटनाएं सामने आती रही है. जिस तरह उस समय के लड़कों के साथ व्यवहार होता था वैसा ही आज भी होता है और जिस तरह की उपेक्षा महिलाओं को पहले झेलनी पड़ती थी वहीउन्हें आज भी झेलनी पड़ती है.

यही वजह है कि लड़कियों के जन्म पर अधिक खुशियां नहीं मनाई जाती हैं. यह धार्मिक ग्रंथों की ही देन है जो लड़कियों को बचपन से ही भेदभाव का सामना करना पड़ता है.

पति के वियोग में शकुंतला कमजोर और गरीब दिखाई देने लगी. उस के कपड़े मैले दिखने लगतेहैं. पति के बिना पली की यही हालत होती है. उस का अपना कोई अस्तित्व नहीं. स्त्री की सुंदरता क्या उस के पति से ही है. जब शरीर स्त्री का है तो सुंदरता का भार पति पर क्यों है.

पतिशुश्रूणं पूर्वे मनोवाक्कायचेष्टितै,

अनुज्ञाता मया पूर्वे पूजचैतद् व्रतं तव,

एतेनैव व वृत्तेन विशिष्टां लप्स्यसे श्रियम्.

इस श्लोक में ऋषि कण्व, उस के पालने वाले पिता, शकुंतला को सती स्त्री के कर्तव्य बताते हुए कहते हैं कि वह मन, वाणी, शरीर और चेष्टाओं द्वारा पति की सेवा करती रहे. तुम पतिव्रता का पालन करती रहो. इसी से ही तुम अलग शोभा प्राप्त कर सकोगी.ऐसी ही धारणाओं नेस्त्री को जकड़ रखा है. इन्हीं ग्रंथों ने पुरुष को स्त्री का शोषण करने का अधिकार दिया है. इन्हीं के चलते आज भी पत्नियों से पतिव्रता होने की उम्मीद की जाती है जिन के पति उन को छोड़ चुके है उन के प्रति भी.

वहीं अगर पत्नी अपने पति से यह उम्मीद करें तो इस पितृसत्तात्मक समाज को यह मंजूर नहीं है. ऐसे ग्रंथों में पतियों से क्यों नहीं कहा गया कि पत्नी के लिए उनके क्या कर्तव्य और जिम्मेदारी है. क्या पति के लिए सिर्फ पत्नी के ही कर्तव्य होते हैं,पत्नी के लिए पति के नहीं. पत्नी उस पति के लिए पतिव्रता बनी रहे जो उसे सालों तक छोड़ क़र अपनी जिंदगी जीता रहा. उस की खोजखबर तक नहीं ली कि वह कैसी है. ऐसा पाठ पढ़ाने वाली कथा का बारबार मंचन किया जाता है, चित्र-कथाएं बना कर बच्चों को पढ़ाया जाता है, फिल्में बनाई जाती हैं, मूर्तियां स्थापित की जाती हैं.

काफी सालों तक जब दुष्यंत शकुंतला को लेने नहीं आते तो कण्व उस से खुद दुष्यंत के पास जाने को कहते हैं कि तुम मेरी इस आज्ञा के उलट कोई जवाब मत देना. ऐसा कहकर एक स्त्री से उस की अपने विचार वक्त करने की स्वतंत्रता छीनी जा रही है. अगर कोई महिला अपने पति के पास नहीं जाना चाहती तो यह उस का निजी विचार है. लेकिन पौराणिक ग्रंथों की अगर बात की जाए तो उन में भरभर के ऐसे उदाहरण देखने को मिलते हैं जिन में स्त्रियों का शोषण किया गया हो न केवल पति द्वारा, अनजाने पुरुष द्वारा बल्कि पिता तक द्वारा भी. आज के समय में भी स्त्री से यही अपेक्षा की जाती है कि उस के घर के मर्द जो फैसला करेंगे उसे वही मानना होगा. न पिता न भाई उस का कोई साथ नहीं देता है.

कण्व कहते हैं कि पतिव्रताओं पर सभी वरों को देने वाले देवता लोग भी संतुष्ट रहते हैं. इस का अर्थ तो यह निकलता है कि जो स्त्रियां पतिव्रता नहीं हैं उन से देवता संतुष्ट नहीं होते हैं. मानो, एक स्त्री की पहचान, बस,पतिव्रता हो.पतिव्रतादेवियों को पति के प्रसाद से शुद्धता मिलती है, इसलिए तुम्हें अपने पति की आराधना करनी चाहिए. ऐसा कहने वाले कण्व समाज की स्त्रियों को यह बताना चाह रहे हैं कि स्त्रियों को अगर शुद्धता प्राप्त करनी है तो उन्हें अपने पतियों की सेवा करनी होगी. लेकिन उन्होंने पतियों के लिए ऐसा कुछ नहीं कहा, क्यों? क्या पति शुद्धता नहीं चाहते? राजा दुष्यंत क्या विवाहित नहीं थे और उन्होंने क्या अपनी पत्नी से छल नहीं किया?

नारीणां चिरवासो हिं बान्धवेषु न रोचते,

कीर्ति चारित्र धर्म घ्रस्त स्मात्रयत मा चिरम.

इस श्लोक में कण्व स्त्रियों को अपने भाईबंधुओं के यहां अधिक दिनों तक रहने की मनाही करते हैं. विवाह के बाद भी भाईबंधुओं के घर रहने वाली स्त्रियां पातिव्रत्य धर्म का नाश करती हैं. ऐसी स्त्रियों को बिना देर किए अपने पति के घर पहुंचा देना चाहिए. ऐसा कहना स्त्री के साथ भेदभाव करना है. यह उन केसाथकिएजाने वाला सब से बड़ा शोषण है.

पिता के घर में रहने का जितना हक बेटे का है उतना ही हक बेटी का भी है. यह हक हमारे देश का संविधान तो देता है पर पौराणिक ग्रंथों की सोच इस हक को छीन लेती है. लेकिन यह पुराण, पुरुषवादी समाज बेटियों को यह हक देना नहीं चाहता. वे स्त्रियां जो गलत शादी का शिकार हो गई हैं, जिन के पति उन्हें मारतेपीटते है या जिन का तलाक हो गया है, अगर वे स्त्रियां अपने पिता के घर में रह रही हैं तो, इस ग्रंथ के अनुसार,वे गलत हैं. उन का अपने ही घर में रहना कैसे गलत हो सकता है. इन्हीं ग्रंथों को आदर्श मानकर चलने वाले पथभ्रष्ट लोग स्त्रियों को ऐसी बातें बताकर उन से अपनी बात मनवाते हैं.

सा भार्या गृहे दक्षा सा भार्या या प्रजावती,

सा भार्या या पतिप्राणा सा भार्या या पतिव्रता.

महाभारत के इस श्लोक में बताया गया है कि सिर्फ वह ही अच्छी पत्नी है जो घर का कामकाज अच्छे से जानती हो, जिस के बच्चे हों,

जो अपने पति को अपने प्राणों के समान प्रेम करती हो और जो पतिव्रता हो. पत्नी की इसी परिभाषा ने आज के समय में भी पत्नियों का जीना दूभर किया हुआ है. ग्रंथों में लिखी ऐसी बातों ने ही इन पुरुषों का दिमाग खराब किया हुआ है. इन्हीं बातों को पढ़पढ़ क़र सास अपनी बहू से यह आशा करती है कि वह घर के सभी कामअच्छे से करे, उसे सभी तरह का खाना बनाना आता हो. इस के अलावा वह शादी के एक साल बाद ही पोते की मांग करने लगती है. क्या केवल पत्नी की परिभाषा यहीं तक सिमटी हुई है. अगर वह खाना बनाना नहीं जानती तो वह एक अच्छी पत्नी नहीं है. यह बात लोगों ने इन्हीं ग्रंथों से सीखी है.

पुत्रास्त्रो नरकाद् यस्मात् पितरं त्रायते सुत,

तस्मात् पुत्र इति प्रोक्त : स्वयमेव खयम्भुवा.

महाभारत में लिखे इस श्लोक में कहा गया है कि बेटा पिता की नरक से रक्षा करता है. इस की जगह यह भी कहा जा सकता था कि संतान नरक से पिता की रक्षा करता है. लेकिन ऐसा न कहकर सिर्फ बेटे की बात की गई है. क्या बेटी अपने पिता की रक्षा नहीं कर सकती. यहां सीधेसीधे बेटी की उपेक्षा की गई है.

महाभारत के एक श्लोक में पत्नी को पति का आधा अंग और पति का सब से अच्छा दोस्त कहा गया है. पर यह भ्रामक मात्र है क्योंकि तथ्य कुछ और हैं. अगर दुष्यंत शकुंतला को आधे अंग की संज्ञा देते तो वे उस से गंधर्व विवाह कर के अपने साथ ले जाते, न कि उसे विरह की आग में जलने देते.

लेकिन यह सच से कोसों दूर है. इस पथभ्रष्ट समाज के लोग आज भी पत्नी को आधा अंग तो दूर की बात,इंसानहोने का दर्जा भी नहीं देते. वे न सिर्फ सड़कों पर उस की बेइज्जती करते हैं बल्कि उस को मारतेपीटते भी हैं. कई बार तो उसे जान से भी मार दिया जाता है.सुप्रीम कोर्ट तक ऐसे मामले गए हैं जिन में पति छोड़ी गई पत्नी को गुजारे के लिए 5,000 रुपए भी नहीं देना चाहता.

इसी महाभारत के एक श्लोक में यह कहा गया है कि अगर साध्वी स्त्री पहले मर गई हो तो परलोक में जा कर वह पति का इंतजार करती है और अगर पति पहले मर गया हो तो सती स्त्री पीछे से उस का पालन करती है. अगर किसी स्त्री का पति मर गया है तो क्या उस के जीने का हक खत्म हो गया है. उस की जिंदगी उस की है, न कि किसी और की. इन्हीं विचारों के आधार पर देश के कई हिस्सों में आज भी सती प्रथा का प्रचलन है. ऐसे विचारों को अब बदलने की बहुत ज्यादा जरूरत है क्योंकि यह स्त्री से उस के जीने का हक छीन रहा है. काशी और वृंदावन के विधवा आश्रमों में आज भी युवा विधवाएं लाई जा रही हैं.

महाभारत के एक श्लोक में कहा गया है कि पति अपनी उस पत्नी को माता के समान माने जिस ने बेटे को जन्म दिया है. यहां सिर्फ बेटा पैदा करने वाली स्त्री की बात कही गई है, बेटी पैदा करने वाली स्त्री की नहीं. इसी श्लोक से लडक़ालडक़ी के भेदभाव को समझा जा सकता है कि किस तरह हमारे ग्रंथों में पुरुष को श्रेष्ठ दर्जा दिया गया है जबकि बच्चा पैदा करने का कष्ट तो स्त्री ही सहती है. आज विज्ञान ने साफ कर दिया है कि बेटेबेटी पैदा करने के गुण पुरुष में होते हैं, स्त्री में नहीं. अगर इन ग्रंथों में विज्ञान पहले से ही भरा है तो यह उलटी बात क्यों कहीं गई.

अंतरात्मैव सर्वस्य पुत्रनास्त्रोच्यते सदा,

गती रूपं च चेष्टा च आवर्ता लक्षणानि च,

पितृणां यानि दृश्यन्ते पुत्राणां सन्ति तानि च,

तेषां शीलाचारगुणास्तत्सम्पर्काच्छुमाशुभा.

इस श्लोक में कहा गया है कि  एक पुत्र ही पिता की तरह चाल पाता है. एक पुत्र ही अपने पिता का रूपरंग पाता है. पुत्र में वैसी ही चाल और लक्षण होते हैं जैसे पिता के होते हैं. पिता से ही पुत्र में सारे गुण आते हैं. इस श्लोक में कहा गया है कि पिता के गुण बेटे में होते हैं, कहीं भी बेटी का जिक्र नहीं किया गया है. क्या बेटी पिता की संतान नहीं है. क्या उस के गुण पिता से नहीं मिल सकते. ऐसे ही जगहजगह पर बेटों को बेटियों से ज्यादा महत्त्व दिया गया  है जो कि भेदभाव को दर्शाता है.

महिलाओं को पीछे करने में इस तरह की बातों ने सब से ज्यादा योगदान दिया है. यह समाज जोकि पितृसत्तामक सोच पर बना है, कभी नहीं चाहेगा कि स्त्रियां पुरुषों से आगे निकलें. वे उन्हें, बस, अपने पैरों में रखना चाहते हैं.

समाज में फैली रूढ़िवादी सोच से ग्रसित लोगों को शादी के लिए कुंआरी लड़की ही चाहिए चाहे वह खुद कुंआरे न हों. इस रूढ़िवादी समाज से तो महिलाओं की दूसरी शादी भी पचाई नहीं जाती है.

महाभारत के सम्भवपर्व भाग के श्लोक 117 में दुष्यंत कहते हैं कि,“अगर मैं सिर्फ शकुंतला के कहने पर इसे अपना लेता तो सब लोग इस पर शक करते. वे इसे शुद्ध मानते.”वे कहते हैं,‘‘यह समाज समझता कि मैं अपनीकामवासना पर नियंत्रण नहीं रख सका.” ऐसा कहकर दुष्यंत शकुंतला की गरिमा को चोट पहुंचा रहे हैं. और अपनी निरर्थक सफाई दे रहे हैं जबकि दोषी वही हैं.लेकिन जब देवता और तपस्वी ऋषि शकुंतला को पतिव्रता बताते हुए फूलों की वर्षाकरते हैं तो दुष्यंत शकुंतला और अपने बेटे को अपनाने के लिए तैयार हो जाते हैं.

कृतो लोक परोक्षोऽयं संबंधो वै त्वया सह,

तस्मादेतन्मया देवि त्वच्छुद्धयर्थ विचारितम्.

इस श्लोक में दुष्यंत कहते हैं कि,“मैंने जो तुम से विवाह किया. वह लोगों के सामने नहीं किया. मैंने ये सब तुम्हारी शुद्धि के लिए किया.” अगर दुष्यंत और शकुंतला का विवाहसमाज के सामने होता तो शकुंतला को बच्चे के पिता का सुबूत देने की जरूरत न होती. दुष्यंत, जो लोकलाज के चक्कर में अपनी पत्नी का निरादर करते हैं, कैसे एक अच्छे राजा साबित हो सकते हैं. अगर उन्हें समाज की इतनी ही फ्रिक थी तो वे समाज के सामने शकुंतला से शादी करते. संबंध बनाते समय वे समाज को भूल गए और अपनाते समय उन्हेंसमाजका खयाल आ रहा है.

हमारे पौराणिक ग्रंथों को समाज को आदर्श समाज व्यवस्था देने वाला कहा जाता रहा है क्योंकि यहां शादी का चलन है. वहीं, पश्चिमी समाज को गलत कहा जाता है क्योंकि वहां अवैध संबंध होना सामान्य बात है. लेकिन शकुंतला तो असल में विश्वामित्र और मेनका के अवैध संबंधों से जन्मी संतान थी. इन की शादी नहीं हुई थी तो हमारा समाज आदर्श कैसे हुआ. दुष्यंत और शकुंतला का संबंध भी बिना विधिवत विवाह के हुआ तो वह कैसे आदर्श हुआ. जिस आदर्श समाजकीबात हमेंबताईगईहै वह इन धर्मग्रंथों से अलग है. हमारे समाज को अब नए मापदंडों की जरूरत है जिन पर चलकर हमारा देश विकास कर सके.

हमारा संविधान, आज के बनाए कानून, आज का सुप्रीम कोर्ट कानूनों की व्याख्या कर के जिस समाज को बना रहा है वह उस से कहीं अधिक श्रेष्ठ है जो पौराणिक ग्रंथों में वर्णित है और जिस के पात्रों को भगवान मान करउन्हें पूजा ही नहीं जाता बल्कि ‘महान’ नरसंहार तक उन के नाम पर कर दिए जाते हैं. विधर्मियों और दलितों-शूद्रों को तो छोडि़ए, राजाओं के घरों की स्त्रियों से ले कर आज की सवर्ण जातियों की स्त्रियां तक तकरीबन सभी इसी पौराणिक मान्यता की शिकार हैं.

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