मैं कार से आफिस जा रहा था. अचानक मोबाइल की घंटी बजी. कार किनारे लगा कर फोन उठाया.
‘‘सिंगापुर पुलिस.’’ उधर से आवाज आई.
एक क्षण के लिए दिमाग घूम गया. सबकुछ कुशल तो है. सिंगापुर में मेरे बेटेबहू हैं. 2 बार मैं भी वहां जा चुका हूं. बेटेबहू ने कुछ ऐसा तो
नहीं कर डाला कि वहां की पुलिस
को मु झे फोन करना पड़ गया. दिमाग
में एक के बाद एक बुरे खयाल आते रहे.
‘‘आप मिस्टर दत्त हैं?’’
‘‘जी…’’ मैं ने कहा.
‘‘कविता दत्त, जो सिंगापुर में रहती हैं, आप की डौटर इन ला हैं…’’
‘‘जी हां. क्या बात है. सबकुछ ठीक तो है?’’
‘‘घबराने जैसा या नर्वस होने जैसा कुछ नहीं है. कविता दत्त के फादर का नाम?’’
‘‘के.के. शर्मा.’’
‘‘कविता दत्त की आयु और उस के पति का नाम?’’
थोड़ी देर की खामोशी के बाद फिर…
‘‘सुबह से उस का कोई फोन आप के पास आया…उस ने आप को कुछ बताया?’’ सिंगापुर पुलिस पूछती है.
‘‘नहीं तो…’’
‘‘कविता दत्त को भूलने की आदत है. वह भुलक्कड़ है?’’
मैं हंसा, ‘‘यह बात तो उस की मदर इन ला बेहतर बता सकती हैं या उस के फादर.’’
‘‘ऐनी वे…वे अपना मोबाइल टैक्सी में भूल गई हैं. टैक्सी ड्राइवर ने पुलिस स्टेशन में मोबाइल फोन जमा कर दिया है. हम उसे फोन कर रहे हैं. आप भी उसे फोन कर दें कि वे पुलिस स्टेशन से आ कर अपना मोबाइल ‘कलैक्ट’ कर लें.’’
पुलिस का यह आचरण आश्चर्य- जनक लगा. मु झे सहज भरोसा नहीं हुआ कि पुलिस इस तरह की अप्रत्याशित सहायता भी कर सकती है.
‘‘आप धन्यवाद के, बधाई के, प्रशंसा के पात्र हैं,’’ मैं ने कहा.
‘‘इस में प्रशंसनीय कुछ नहीं. नागरिकों की सहायता करना पुलिस का कर्तव्य है. आप को धन्यवाद देना ही है तो उस टैक्सी ड्राइवर को दीजिए जो अपना पैट्रोल खर्च कर पुलिस स्टेशन आया,’’ सिंगापुर की पुलिस ने कहा.
आगे कहने को कुछ नहीं था. मैं ने कविता को फोन कर दिया. सहसा मु झे अपना मोबाइल खोने का प्रसंग याद आ गया.
प्राथमिकी दर्ज कराने के लिए मु झे 300 रुपए देने पड़े थे. प्राथमिकी दर्ज कराने के दौरान मैं ने पुलिस वाले से पूछा था कि मेरा मोबाइल तो मिल जाएगा.
‘‘मोबाइल मिल जाएगा,’’ वह आश्चर्य से हंसा, ‘‘यहां आदमी नहीं मिलता और आप मोबाइल मिलने की बात कर रहे हैं. उम्मीद कम ही है, सम झ लीजिए नहीं है.’’
मैं चुपचाप बाहर निकल आया. मोबाइल तो गया. ऊपर से 300 रुपए और गए. तब जा कर प्राथमिकी की प्रति मिली, जिस से मोबाइल कंपनी मेरे मोबाइल नंबर को ‘लौक’ कर देगी ताकि मेरे नंबर का अनुचित उपयोग न हो सके.
मैं यही सोच रहा हूं कि हम भारतीय उस स्तर पर कभी पहुंच पाएंगे? या ऐसा व्यवहार यहां अविश्वसनीय और कपोल कल्पित ही रहेगा.
कुछ देर बाद कविता का फोन आया. वह पुलिस स्टेशन से अपना मोबाइल ले आई थी.
‘‘कुछ पैसे लगे?’’
‘‘दिस इज नौट इंडिया, पापा,’’ उस ने हंस कर कहा.
मेरा सिर कुछ इस तरह झुक गया जैसे यहां की पुलिस का मैं कोई प्रतिनिधि होऊं.