अनंत ने बस इतना ही तो कहा था फोन पर कि आज रात तक पहुंच जाऊंगा, फिर क्यों इतने बेचैन हो उठे थे अखिलेश भैया.

अनंत आ रहा है शिमला से. आते ही न जाने कितने प्रश्न पूछेगा कि मेरा कमरा गंदा क्यों है. यूनिफौर्म ठीक से क्यों नहीं धुली. इस घर में इतना शोर क्यों है. आजकल उस का हर सवाल इतना अजीब होता है कि भैया को सम?ा नहीं आता कि वे क्या जवाब दें. कुछ कहने की कोशिश करते भी हैं तो पूरा घर ज्वालामुखी के मुहाने पर जा बैठता है.

कब से आराम कुरसी पर निश्चेष्ट से पड़े थे भैया. कहने को सामने अखबार खुला पड़ा था, पर एक भी पंक्ति नहीं पढ़ी गई थी उन से. शाम घिर आई थी, थकेमांदे पक्षी अपनेअपने नीड़ को लौट चुके थे.

हर बार यही होता. जब भी भैया परेशान होते हैं, इसी तरह वीराने में आ कर बौखलाए से चक्कर लगाते रहते हैं या फिर अखबार खोल कर एकांत में बैठ जाते हैं. तब मैं ही आ कर उन्हें इस संकट से उबारता हूं और वे नन्हे, अबोध बालक की तरह चुपचाप मेरे पीछेपीछे चले आते हैं.

लेकिन आज ऐसा नहीं हुआ. सुबह से वे यहीं बैठेबैठे न जाने कितनी बार, टेपरिकौर्डर में ‘यों हसरतों के दाग मोहब्बत में धो लिए, खुद दिल से दिल की बात कही और रो दिए…’ गीत रिवाइंड कर के सुन चुके थे. जैसे, घर के अंदर जाने का मन नहीं कर रहा था उन का. सिर्फ अनंत के कमरे की बत्ती जल रही थी. घर की एक चाबी अब उस के पास भी रहती है. खुद ही दरवाजा खोल कर चला आता है. वैसे भी, अब उमा भाभी तो रही नहीं जो उन की प्रतीक्षा में भूखीप्यासी बैठी रहें.

‘‘कब से पड़े हैं आरामकुरसी पर, ठंडी हवाओं ने कहीं हड्डियों में छेद कर दिया तो लकवा मार जाएगा. पड़े रहेंगे फिर बिस्तर पर,’’ अनंत ने घर में घुसते ही कमर पर हाथ रख कर पुलिसिया अंदाज में कहा तो भैया ने मुंह दूसरी ओर फेर लिया.

‘‘क्यों ऐसे कड़वे शब्द मुंह से निकाल रहा है. तुझे तो मालूम है आज भाभी की पुण्यतिथि है.’’

‘‘हुंह, जब तक जिंदा थीं तब तक तो चोंच लड़ाने की फुरसत नहीं थी, मरने के बाद अब मगरमच्छ के आंसू बहा रहे हैं,’’ अनंत ने टेपरिकौर्डर पर लगा कैसेट निकाल कर भजन का कैसेट लगा दिया तो भैया की आंखों से नि?र्ार अश्रुधारा बह निकली.

‘‘यह क्या किया तू ने. मां की पसंद की गजल को कुछ देर सुन लेता तो तेरा कद क्या छोटा हो जाता?’’

‘‘सुननी ही थी तो मां जब गाती थीं तब सुनते. घडि़याली आंसू बहा कर दुनिया को क्या दिखाना चाह रहे हैं. भजन सुनिए, मां की आत्मा को शांति तो मिलेगी.’’

‘‘जरा धीरे बोल, अनंत. भैया को बुरा लगेगा. वैसे ही उन का मन छोटा हो रहा होगा.’’

‘‘जैसा बोलेंगे वैसा ही तो सुनेंगे,’’ बेटे के मुंह से निकले व्यंग्यबाणों से भैया का अंतर्मन तक बुरी तरह घायल हो गया. वे रोंआसे हो उठे.

‘‘इसे इन सब बातों से कोई सरोकार नहीं, कोई मरे या जिए. इस समय उमा होती तो गरम दोशाला कंधों पर डाल कर जबरन घर के अंदर ले जाती,’’ भैया बोल पड़े.

‘‘अगर होती तब न. अब तो वे नहीं हैं इस दुनिया में,’’  अनंत भी रोंआसा सा हो उठा.

मैं सोच रही थी, इंसान मरने के बाद क्या इतना महान हो जाता है. जीतेजी पत्नी में दोष निकालने वाले भैया को देख कर लगता, इन्हें पत्नी कभी सुहाई ही नहीं. प्यार, ममता, सामंजस्य, सहानुभूति, समर्पण की प्रतिमूर्ति, गौरवर्णा भाभी पति के सिवा परिवार के हर सदस्य की चहेती थीं पर भैया के हृदय की कभी साम्राज्ञी नहीं बन पाईं. (1)

भैया स्वभाव से ही अहंकारी थे. स्वयं को सुपरमैन समझाना उन की आदत में शुमार था. इसीलिए वे उन के हरेक काम में मीनमेख निकालते थे.

भैया की इसी आदत से परेशान हो कर एक दिन मां ने उन्हें सम?ाया था, ‘तेरे ऐसे व्यवहार से बहू का दिल टूट जाएगा, अखिल. कितना मानसम्मान देती है वह हम सब को. तेरे मुंह से प्यार के दो शब्द कभी नहीं निकलते, फिर भी हम सब को हंसाती रहती है. खुद भी हंसती रहती है. घृणा, मनमुटाव जैसे विचार तो कभी हावी होते ही नहीं उस पर.’

भैया को उपदेश सुनने की आदत नहीं थी. बाबूजी मां को हमेशा सम?ाते, पत्थर पर सिर पटकोगे तो चोट खुद को ही लगेगी पर मां न जाने किस मृगतृष्णा में जीती थी.

भैया को भाभी के मायके वालों का अनादर करते देख बाबूजी ने आगाह किया था, ‘अगर उस के घर वालों का अनादर करोगे तो उसे भी हम सब का अनादर करते देर नहीं लगेगी.’ पर भैया तो अहंकार के मद में झमते थे.(2)

जब भैया का विवाह हुआ था तब मैं बहुत छोटी थी, फिर भी कुछ घटनाएं ऐसी हैं जो मेरे मानसपटल पर जस की तस अंकित हैं.

भैया के विवाह की पहली वर्षगांठ थी. भाभी यह दिन बड़ी धूमधाम से मनाना चाह रही थीं. भैया को घूमनेफिरने, सभासोसाइटियों में जाने का शौक नहीं था. स्वभाव चिड़चिड़ा था, इसीलिए मित्रों व परिचितों का दायरा भी सीमित था. भाभी सुबह से ही रोमांचित और उत्साहित थीं. भैया के कठोर स्वभाव को देख कर मां हमेशा भाभी की हर छोटीबड़ी खुशियों का ध्यान जरूर रखती थीं. आननफानन फोन पर ही मित्रों व परिजनों को निमंत्रण भेज दिया गया. भाभी ने तरहतरह के व्यंजन खुद तैयार किए. उस के बाद दौड़तीभागती, पसीना पोंछती वे घर को नए सिरे से सजाने में जुट गईं. मैं भी अपने नन्हेनन्हे और भोलीभाली सम?ा से, उन का हाथ बंटाती रही.

शाम को भैया दफ्तर से लौटे तो उन का मुंह फूल कर कुप्पा हो गया. मां कुरेदती रहीं, भाभी पूछती रहीं लेकिन उन के मुंह से एक भी शब्द न निकला था.

कुछ ही देर में पूरा घर मेहमानों से भर गया. भाभी सभी के आकर्षण का केंद्र बनी हुई थीं. तभी एक धमाका हुआ.

भाभी के कालेज के दिनों के एक मित्र ने भैया को घेर लिया, जो भैया के भी मित्र थे.

‘आज तो हम उमा से गजल सुनेंगे. अरे भई, बहुत कशिश है उन की आवाज में,’ भाभी के सहपाठी ने बड़े उत्साह से बताया तो भैया आश्चर्य से केवल उस का चेहरा भर देखते रह गए, ‘क्या कह रहे हो!’

‘सही कह रहा हूं, बहुत बार सुनी है.’

‘अरे, नहीं भाई, कोई और होगी,’ भैया बोले, मगर मित्र की आवाज से आश्चर्य की परिसीमा और एक अतिरिक्त आवेग ?ालक रहा था, जो वास्तव में भैया को नहीं सुहाया था. बस, कुछ ही देर में, ‘यों हसरतों के दाग…’ गजल भाभी ने गाई तो सभी ने मुक्तकंठ से उन की तारीफ की.

सुवीरा भी उस पार्टी में आई थी. भैया के औफिस में ही तो काम करती थी, बोली, ‘आप बहुत खुशहाल हैं अखिलेश साहब, आप की पत्नी जितनी सुंदर हैं उतनी ही सुशील और गुणवान भी हैं.’

सभी से तारीफ बटोरने और मेहमानों से विदा लेने के बाद भाभी कमरे में पहुंची ही थीं कि भैया के चीखने का स्वर उभरा. वे बारबार भाभी का रिश्ता उन के उस सहपाठी से जोड़ रहे थे जिस ने पार्टी में गजल सुनने की उन से फरमाइश की थी.

भाभी जब सुबह उठीं तो उन की आंखें सूजी हुईर् थीं, चेहरा बु?ा हुआ था. किसी से शिकायत भी तो नहीं करती थीं, लेकिन उस दिन मां ने दुलारा तो वे छलक उठीं थीं. भैया को इस बात से चिढ़ थी कि उन की इजाजत बिना पार्टी का आयोजन क्यों किया गया. भाभी ने सार्वजनिक रूप से गजल क्यों गाई. भाभी का उस दिन भैया के शंकालु स्वभाव से पहली बार सामना हुआ था.

अगले दिन रविवार था. भैया बहुत अच्छे मूड में थे. कोई सुंदर सी धुन गुनगुना रहे थे. काफी देर तक उन के कमरे से हंसीठट्ठा की आवाज सुनाई देती रही. अम्माबाबूजी के चेहरे पर संतोष की चिलमन छाई हुई थी.

कुछ ही समय में हम सब भैयाभाभी के कमरे में पहुंच गए. मां ने भैया को मीठी सी ?िड़की दी, ‘खुद गीत गुनगुना रहा है, बहू ने गाया तो चिढ़ गया.’

‘तो, सुन लो अपनी बहू से गाना,’ भैया ने चहक कर कहा तो भाभी ने दूसरा गीत गाया, ‘रहते थे कभी जिन के दिल में हम जान से भी प्यारों की तरह…’ हम सब भावविभोर हो कर गीत सुन रहे थे. अचानक भैया को क्रोध आ गया और वे तेजी से भुनभुनाते हुए सीढि़यां उतर गए, ‘जब गाएगी दुखभरा गीत ही गाएगी.’ उस समय भाभी की सिसकियां रसमय वातावरण को गमगीन बना गई थीं. उस दिन तो अम्मा के मन में अपनी बहू के प्रति ऐसी संवेदना उपजी कि वे फूटफूट कर रो पड़ी थीं, लेकिन उस के बाद भाभी ने हमेशाहमेशा के लिए सुरताल से नाता तोड़ लिया.

‘इस घर में उमा को अनादर, अपमान, अवहेलना के अलावा कभी कुछ नहीं मिलेगा. मैं तो हीरा चुन कर लाई थी पर अखिलेश ने पत्थर समझ कर रौंद डाला मेरी बहू को,’ मां ने अफसोस जताया.

‘धीरज रखो, सुमन. एक बच्चा होगा तो सब ठीक हो जाएगा,’ बाबूजी बोल पड़े थे.

‘इसी बात की तो चिंता है. उमा मां बनने वाली है. ऐसे वातावरण में बच्चों को क्या संस्कार मिलेंगे.’

गर्भवती भाभी की सेवाटहल करतीं मां अब उन्हें पहले से दोगुना प्यार देने लगी थीं. मां ने भैया को भी सम?ाया कि अपनी पत्नी के साथ नम्रता से पेश आए लेकिन भैया न डरे न झोंपे बल्कि ऊंची आवाज में चिंघाड़े, ‘बहुत सिर चढ़ा रखा है तुम ने अपनी बहू को, अम्मा. इसे समझ दो, रहना है तो मेरे तरीके से रहे.’ (3)

‘क्या मतलब?’

‘इस घर में मेरी मरजी चलेगी. मेरी पसंद का भोजन पकेगा. मेरी पसंद से घूमनाफिरना, पहननाओढ़ना होगा.’

‘क्यों?’

मां, भैया का इशारा साफ सम?ा

गई थीं.

‘क्योंकि मैं मर्द हूं. उमा मेरी पत्नी है.’

उस दिन तो बेटे की आंखों के लाल डोरे देख मां का भी स्वर कांप उठा था, ‘वही तो करती है बहू.’

‘हां, उस के बाद ‘यों हसरतों के दाग…’ गा कर सब के सामने आंसू भी तो बहाती है,’ भैया ने मुंह बिचका कर कहा तो मां सर्पणी की तरह फुंफकार उठी थीं, ‘जब समझाता ही है तो दुख क्यों देता है बेचारी को.’

‘हुंह, बेचारी, दुख मैं नहीं तुम सब देते हो मुझे.’

7 महीने का अंतराल चुपचाप दरक गया आहिस्ता से. प्रसव पीड़ा ?ोलती भाभी ने भैया से अस्पताल साथ चलने की अनुनय की तो जीवन की हर सचाई को सूक्ष्मता से निरखनेपरखने की शक्ति रखने वाली मां अच्छी तरह सम?ा पा रही थीं. ऐसे समय में जीवनमृत्य के बीच उल?ा औरत हर अच्छेबुरे परिणाम के लिए तैयार रहती है, इसलिए अपने सिरहाने पति का चेहरा ही देखना पसंद करती है, लेकिन संवेदनहीन भैया को भला ऐसी बातें कैसे सम?ा आतीं. एक बार उन्होंने ठान ली नहीं जाने की तो नहीं ही गए.

कठोर व्यवस्था के बोझ तले दबती चली गईं भाभी. सालदरसाल इसी ऊहापोह में बीतते रहे- मेरा ब्याह हुआ, अनंत का सरकना, घुटनों चलना, तुतला कर बोलना चलनाफिरना. मां को पूरा विश्वास था कि अनंत अपनी नटखट अदाओं से मातापिता के बीच गहराती खाई को पाट देगा लेकिन ऐसा हुआ नहीं. उस का किंडरगार्टन से ले कर 8वीं कक्षा तक का लंबा सफर भाभी ने अपने ही बलबूते पर काटा. भैया तो उन्हें अपने हुक्मों के चक्रवात में ही उलझाए रखते.

ऐसा वे पितृत्व की भावना के तहत करते थे पुरुषदंभ के वशीभूत हो कर. इतना तो भाभी नहीं सम?ा पाती थीं लेकिन मातृत्वबोध की भावना से भी वंचित नहीं थीं वे. कभी दबी जबान से प्रतिकार किया भी तो भैया को सहन नहीं हुआ. जब भी मौका मिलता वे पत्नी पर बीस होने का प्रयास ही करते.

अकेली पड़ती चली गईं भाभी. पिता के रौद्र रूप से पुत्र को बचाने के लिए वे अनंत को दादादादी के पास या स्वयं से चिपका कर रखती तो थीं पर इतना जानती थीं कि व्यावहारिकता के धरातल पर अपने पिता से दूर रह कर अनंत का सर्वांगीण विकास रुक जाएगा.

बेटे की शैक्षणिक प्रतिभा और व्यक्तित्व निर्माण के प्रति पूरी तरह से सजग भाभी, जब दूसरे बच्चे को अपने पिता के साथ हंसतेखेलते देखतीं तो उन के सीने में कसक सी उठती. खुद को समझ कर बेटे को दुलारपुचकार कर पति के पास पहुंचतीं भी तो उन का उग्र स्वभाव और कठोर रुख उन्हें पलभर के लिए भी ठहरने नहीं देता था.

एक ही साल के अंतराल में मांबाबूजी दोनों का देहांत हो गया. जिस कंधे पर सिर रख कर प्यार, दुलार, अपनत्व की उम्मीद करती आई थीं भाभी वही छिन गया तो मानसिक अवसाद से घिरती चली गई थीं. न ढंग से खातीं न ही किसी से बातें करतीं.(4)

उन का अब पूरा ध्यान अनंत पर ही केंद्रित रहता था. भैया औफिस से लौटते तो सुवीरा भी कई बार साथ चली आती थी. थोड़ाबहुत समय उस के साथ अच्छा बीत जाता था उन का. सुवीरा के साथ, भैया भी घंटों हंसते, चुटकुले सुनाते तो भाभी हैरान रह जाती थीं तो इस का मतलब, अखिलेश हंस भी सकते हैं. अपने मन की बात दूसरे से कह सकते हैं और दूसरे की सुन भी सकते हैं. तो क्या उन का पूरा पौरुष, पूरा अहंकार पत्नी के लिए ही है.

आत्मबल, आत्मचेतना रहित भाभी के सुप्त मनोबल को उठाने का प्रयास किया था मैं ने एक दिन, ‘कब तक घुटती रहेंगी भाभी आप. घरगृहस्थी निभातेनिभाते आप ने अपनी प्रतिभा तक को रौंद डाला.’

‘प्रतिभा, कौन सी प्रतिभा.’

‘गायन प्रतिभा, लेखन प्रतिभा. पति ने वर्जनाएं लगाईं तो गाना बंद कर दिया.’

‘मेरी मां गाती हैं?’ अनंत ने आंखें फैला कर पूछा. मेरी बात पर जैसे विश्वास ही नहीं हो रहा था उसे.

‘हां, सरस्वती का वास है इन के कंठ में. तुम्हारे पापा को बुरा लगता है, इसलिए नहीं गातीं.’

‘सुम्मी, अनंत को ऐसी शिक्षा मत दो. उसे सभ्य और सुसंस्कृत बनाने में मैं ने अपने जीवन का अहम हिस्सा लगा दिया है. एक बार इस के मन में नफरत की जड़ें पैठ गईं तो पित्रापुत्र के बीच ऐसी दूरी पैदा होगी जो मिटाए नहीं मिटेगी,’ भाभी ने सम?ाया था.

जिन हाथों में अपमानित होती रहीं, उसी के सुख की कामना करती भाभी को देख मैं सोच रही थी, क्या भाभी का मन कभी दुखी नहीं होता होगा. अंतरात्मा कभी चीत्कार नहीं करती होगी. सिर्फ यही देखदेख कर खुश होती रहती थीं कि उन का बेटा तो उन की भावनाओं, संवेदनाओं को सम?ाता है.

घंटों मांबेटे को एकसाथ बोलतेबतियाते देख ईर्ष्यालु भैया ऐसा रौद्र रूप धारण कर लेते कि वे दोनों बुरी तरह सहम जाते, लेकिन अपने स्वभाववश ही तो स्वयं को पत्नी और पुत्र से अलग कर के भैया ने उन्हें अपना बनाने का मौलिक अधिकार खोया था.

एक दिन इस असहनीय परिस्थिति से स्वयं को बचाने के लिए भाभी ने लिखना शुरू कर दिया. बहुत खुश हुई थी उस दिन मैं कि कम से कम उस घुटनभरे माहौल से मुक्ति तो मिलेगी भाभी को. धीरेधीरे डायरी के पन्नों पर मोती से अक्षर टंकते गए. इंद्रधनुष के सात रंग भाभी की कविता में सिमटते गए.

अब तो भाभी कहानियां भी लिखने लगी थीं. उन की प्रकाशित कृतियों से घर भर गया. लोग पढ़ते, प्रशंसा पत्र भेजते.

एक दिन 11 हजार रुपए का पुरस्कार भी मिला था उन्हें, ‘आरोही’ पत्रिका की ओर से. मैं दौड़ी चली गई थी. भैया घर पर ही थे. सुवीरा भी पास बैठी थी. आजकल वह अकसर यहीं बैठी रहती थी. मैं ने उन्हें सारी बात बताई.

‘ इतना मानसम्मान मिल रहा है आप की पत्नी को और आप यों गुमसुम बैठे हैं. मिठाई खिलाइए. इन्हें प्रथम पुरस्कार मिला है,’ सुवीरा बोली.

भैया ऐसे चौंके जैसे न जाने किस की बात हो रही थी. फिर बोले, ‘क्या कविता कहानी लिखने से पेट भरता है?’

कब से आस लगाए बैठी थीं भाभी कि शायद तारीफ के दो शब्द पति से भी मिल सकें लेकिन भैया ने तो बिना कुछ पढ़े ही अपना अहं शांत कर लिया. आलू को प्याज की टोकरी में डाल कर, लहसुन को अदरक से अलग कर के, पत्नी के कपड़े अपनी अलमारी में ठूंस कर, अपने धुले कपड़े बाथरूम में पटक कर, ऐसे मौकों पर अपनी मर्दानगी का सुबूत देने से कब चूकते हैं वे. (5)

कहते हैं, मनुष्य स्वभाव के वश में नहीं होता. भाभी स्वभाव से ही सहिष्णु थीं. किसी का अपमान करना तो दूर, किसी का दिल भी दुखाना नहीं आता था उन्हें. अपने स्वभाव का यह आकस्मिक परिवर्तन वे स्वयं ही बरदाश्त नहीं कर पाईं और कई तरह के रोगों से घिरती चली गईं. ऊपरी तौर पर चाहे प्रतिकार न करतीं हों, मन में खुद को कोसती रहती थीं.

भैया ने भाभी की बीमारियों को कभी गंभीरता से नहीं लिया. वैसे भी, वे भाभी में दिलचस्पी लेते ही कब थे. वे तो अपनी ही जिंदगी से दुखी थे. पत्नी की कमियों का बखान सुवीरा से कर के इस तरह सहानुभूति बटोरते कि मासूम अनंत, कभी मां के चेहरे पर उभर आई आड़ीतिरछी रेखाओं को देखता तो कभी सुवीरा के चेहरे पर आए संतुष्टि के भाव देख चिड़चिड़ाता.

एक दिन पलंग पर लेटेलेटे ही भाभी ने दम तोड़ दिया. यह सब अप्रत्याशित भी तो नहीं था. भाभी की शांत देह, टिकठी पर रखी थी. भैया की आंखों से नि?र्ार अश्रुधारा बह निकली. लोगों की भीड़ जमा थी. अचानक अनंत जोरजोर से रोने लगा, ‘बूआ, इन से कहो, मां की रस्सियां खोल दें. कितना कस कर बांधा है. दर्द हो रहा होगा इन्हें.’ पिता के प्रति उस की दृष्टि में घृणा की परछाइयां तैरने लगी थीं, ‘इन्होंने मारा मेरी मां को, इन्होंने.’

मां की आंखें मुंदते ही पिता पराए हो गए अनंत के लिए. खुद को घर के अंधियारे कोने में कैद कर लिया था उस ने. न कुछ कहता न किसी से मिलता. तिमाही परीक्षा में ही उसे 50 प्रतिशत अंक मिले थे. स्कूल के प्रिंसिपल ने विशेष रूप से भैया को बुलवा भेजा था और कहा था, ‘कितना कमजोर हो गया आप का बेटा पढ़ाई में. आप की पत्नी के रहते हर क्षेत्र में अव्वल रहता था अनंत. थोड़ा ध्यान दीजिए. अगर छमाही का परीक्षा फल ऐसा रहा तो स्कूल से निकलवाना पड़ेगा.’

अपना अपमान सह सकें, ऐसा तो स्वभाव ही नहीं था भैया का, लगे सुवीरा पर चिल्लाने, ‘नियमित रूप से आती हो अब. कितना ध्यान रखा तुम ने अनंत का.’

‘जैसा बीज बोया वैसा ही तो फल मिलेगा. इस की जड़ें ही कमजोर हैं,’ सुवीरा ने भैया की तेजी से अपनी तेजी एक डिगरी बढ़ा कर रखी तो वे सहम गए थे.

अनंत ने मां की तारीफ सुनी तो भला लगा था उसे, परंतु पिता के मुख से छिछली टिप्पणियां सुन कर क्रोध में कांपने लगा था. काश, मां ने भी इसी तरह पलट कर जवाब दिया होता. पढ़ातेपढ़ाते मां के माथे पर पसीने की बूंदें छलछला जाती थीं, काली घुंघराली लटें बिखर जाती थीं पर तब तो पापा ने कभी मां से धीमी आवाज में बात नहीं की.

भैया का घर बिखर गया था. न ढंग से खाना पकता, न ही कोई खाता. अकेली भाभी कितने सुचारु रूप से घर की व्यवस्था बनाए रखती थीं. मैं अकसर भैया के पास आ जाती थी. अपने घर से कुछ भी पका कर लाती और दोनों को खिलाती, लेकिन ऐसे कोई कब तक अपनी गृहस्थी छोड़ कर दूसरे का घर व्यवस्थित कर सकता है.

‘इसे होस्टल में डाल दें.’ हैरानपरेशान से भैया ने अपने अव्यवस्थित हो गए घर को सुव्यवस्थित करने के लिए सुवीरा को अपनी पत्नी बना कर घर लाने के लिए भूमिका बनाई थी या सच में वे बेटे के भविष्य के प्रति चिंतित थे, यह तो वे ही जानें लेकिन सुवीरा के सूखे कपोलों की आभा और भैया की उम्र देख कर मैं इतना तो अच्छी तरह समझ गई थी कि 40 वर्ष की उम्र में पेट की भूख के साथ ही शारीरिक क्षुधा शांत करने का एकमात्र उपाय पुनर्विवाह ही तो है और भैया के हृदय के किसी कोने में यह कामना, लालसा अब भी शेष थी.

कुछ दिनों तक तो सब ठीक चलता रहा लेकिन भैया अपने पुरातन स्वरूप में जल्दी ही लौट आए थे. सुवीरा के सामने प्रणय निवेदन करतेकरते वैसा ही रोब जताने लगे जैसा उमा भाभी पर जताते थे. कभी नमक कम, कभी सब्जी में तेल ज्यादा. पका कर लाती तो सुवीरा अपने घर से ही थी और प्रेम से परोसती भी थी, लेकिन भैया का अनर्गल संभाषण सुन कर उमा भाभी की तरह पत्ते की तरह कांपने के बजाय ईंट का जवाब पत्थर से देने से भी नहीं चूकती थी. तब भैया का चेहरा उतर जाता. मगर वे प्यार करते थे सुवीरा से, अर्धांगिनी बनाने की कसम ली थी, इसलिए चुप थे लेकिन ऐसा महसूस होने लगा था कि मन ही मन वे अपने इस निर्णय पर पछता भी रहे थे.

मन बहलाने के लिए भैया दूध वाले से मोलभाव करते, दुकानदार से ढंग से सामान तुलवाते, समय बिताने के लिए अलमारी खोल कर उमा भाभी का अलबम देखते. उन के साथ अपने फोटो देख कर मंदमंद मुसकराते.

एक दिन अचानक सुवीरा न जाने कहां से आ टपकी, ‘अजीब किस्म के इंसान हो तुम, अखिलेश. जब तक पत्नी जीवित थी, जोंक की तरह खून चूसते रहे. पैरों की जूती सम?ाते रहे. अब मरने के बाद आंसू बहा रहे हो. हो सकता है ब्याह के बाद मेरे साथ भी ऐसा ही व्यवहार करो, फिर तो मेरे संकल्प रेत की दीवार की तरह बिखर जाएंगे न.’

सुवीरा का रौद्र रूप ऐसा लग रहा था जैसे अंधी सुरंग के बीच अग्निशिखा दमक उठी हो.

कितना समझाती थीं भाभी लेकिन अहंकार के मद में चूर अपने सामने दूसरे को कुछ न समझाने की भैया की आदत ने उन्हें बराबरी का दरजा देना तो दूर, पायदान से ज्यादा कुछ न सम?ा.

2 महीने बाद ही सुवीरा के विवाह का कार्ड भैया के हाथ में फड़फड़ा रहा था. हर दिन की तरह अपने घर का काम निबटा कर मैं अनंत को अपने साथ ले कर भैया के घर चली आई थी. भावनात्मक रूप से जुड़ी थी मैं इस परिवार से. भैया का उदास चेहरा देख कर मुझे उन पर तरस आने लगा था. आत्मग्लानि से अभिभूत उन का चित्त शोकविह्लल हो गया. पश्चात्ताप ने उन्हें अर्धविक्षिप्तता जैसी स्थिति में पहुंचा दिया था.

रसोई में जा कर मैं ने वही पकाया जो हमेशा उमा भाभी पका कर भैया को खिलाती थीं. उन की पुण्यतिथि के अवसर पर इस से बड़ी श्रद्धांजलि क्या होती मेरे लिए. टेप रिकौर्डर पर चल रही गजल का एकएक शब्द सुन कर रोते जा रहे थे भैया, मानो कह रहे हों, ‘काश, मैं ने उमा के साथ वैसा बरताव न किया होता.’

मैं उन बुझती, बेजान आंखों में पहचान की कोमल कौंध देख रही थी. दर्द के उस दरिया में मोहममता की एक झलक भी नहीं मिली. मैं ने सांत्वना के लिए उन के सिर पर हाथ रखा तो मानो संयम के सारे तटबंध ही टूट गए. रोतेबिलखते बोले, ‘‘मन नहीं लग रहा, सुम्मी. उमा के पास जाना है.’’

यह सुन कर हैरान रह गई. सोचने लगी कि इंसान अपने सोच के दायरे में जब तक कैद रहता है उसे अपना दुख ही बड़ा लगता हैं, किंतु जब वह अपनी सोच की दिशा बदल देता है तब उसे समझ में आता है कि दूसरे का दुख उस से कहीं ज्यादा है.

काश, भैया ने जीतेजी उमा भाभी की भावनाओं को सम?ा होता तो यों भीड़ में अकेले न होते कभी भी. पश्चात्ताप की अग्नि में जलते भैया को सांत्वना देने के लिए मेरे सारे शब्द ही चुक गए थे. टेपरिकौर्डर पर उमा भाभी की पसंद की गजल अब भी बज रही थी.

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