वृद्धाश्रम के गेट पर कार रुकते ही बहू फूटफूट कर रोने लगी थी,”मांजी, प्लीज आप घर वापस चलो…’’ उस की सिसकियों की आवाज में आगे की बात गुम हो गई थी. मांजी ने अपनी बहू के सिर पर प्यार से हाथ फेरा,”बेटा, तुम उदास मत हो. मैं कोई तुम से रूठ कर थोड़ी न वृद्धाश्रम रहने आई हूं. मुझे यहां अच्छा लगता है.’’
‘‘नहीं मांजी, मैं आप के बगैर वहां कैसे रहूंगी.’’
कुसुम कुछ नहीं बोली. केवल अपनी बहू आरती के सिर को सहलाती रही. कार का दरवाजा विजय ने खोला था. उस ने सहारा दे कर अपने पिताजी को कार से बाहर निकाला फिर पीछे बैठी अपनी मां की ओर देखा. मां उस की पत्नी के सिर पर हाथ फेर रही थीं और आरती बिलखबिलख कर रो रही थी. उस की आंखें नम हो गईं.
‘‘मां, आप यहां कैसे रह पाएंगी. कुछ देर यहां घूम लो फिर हम साथ वापस लौट चलेंगे,’’ विजय ने अपना चेहरा दूसरी ओर घुमा लिया था ताकि उस की मां उस के बहते आंसुओं को न देख सकें. पर पिता की नजरों से उस के आंसू कैसे छिप सकते थे.
‘‘विजय, तुम रो रहे हो? अरे, हम तो यहां रहने आए हैं और कोई दूर भी नहीं है. जब मन करे यहां आ जाया करो. हम साथ में मिल कर यहां रह रहे बजुर्गों की सेवा करेंगे.’’
‘‘पर बाबूजी, आप लोगों के बगैर हमें अपना ही घर काटने को दौड़ेगा. हम आप के बगैर नहीं रह सकते,” विजय अपने पिता के कांधे पर सिर रख कर फूटफूट कर रोने लगा.
कुछ देर शांति छाई रही फिर कुसुम ने अपने पति का हाथ पकड़ा और वृद्धाश्रम के गेट से अंदर हो गई. उन के पीछेपीछे आरती और विजय उन का सामान हाथ में उठाए चल रहे थे.
‘‘आरती, मांबाबूजी का सारा सामान अच्छी तरह से रख दिया था न?’’
‘‘हां, मैं ने मांजी से पूछ कर सामान बैग में जमा दिया था.’’
‘‘और वह मांजी की दवाई?’’
‘‘हां, वह भी कम से कम 2 महीनों के हिसाब से रख दी हैं. फिर जब हम आएंगे तो और लेते आएंगे.’’
मांबाबूजी को वृद्धाश्रम में छोड़ कर लौटने के पहले विजय ने वद्धाश्रम के मैनेजर से बात की थी और उन्हें बाबूजी की देखभाल करते रहने का अनुरोध किया था. वह कुछ पैसे भी उन के पास छोड़ कर आया था, ‘‘कभी जरूरत पड़े तो आप उन्हें दे देना, मेरा नाम बताए बगैर,” मैनेजर विजय को श्रद्धा के भाव से देख रहा था.
‘‘यहां जो भी बुजुर्ग आते हैं वे अपने बेटे और बहू द्वारा सताए हुए होते हैं पर तुम तो बिलकुल अलग ही हो, विजय.’’
‘‘मैं तो चाहता ही नहीं हूं कि मां और पिताजी यहां रहें. उन की ही जिद के कारण उन को यहां लाना पड़ा. मालूम नहीं हम से क्या अपराध हो गया है,” उस की आंखों से आंसू बह निकले.
मैंनेजर बोला, ‘‘तुमलोग जाओ, मैं उन का ध्यान रखूंगा.”
विजय और आरती भारी कदमों से वृद्धाश्रम से बाहर निकले. वे चाहते थे कि लौटते समय उक बार और मांजी से मिल लें पर आरती ने रोक दिया था.
कुसुम और केदार आश्रम की खिड़की के झरोखे से विजय और आरती को लौटते हुए देख रहे थे, ‘‘बहुत उदास हैं दोनों.”
“हां कुसुम, मगर हम ने उन्हें छोड़ कर कोई गलती तो नहीं की?’’ पहली बार केदार के चेहरे पर सिकन दिखाई दी थी. कुसुम ने पलट कर अपने पति की ओर देखा,”नहीं, हम कोई नाराज हो कर थोड़ी न आए हैं. जब हमें लगेगा कि यहां मन नहीं लग रहा है तब हम अपने घर लौट चलेंगे, कुसुम ने साड़ी के पल्लू से आंखें पोंछते हुए कहा.
केदार कुछ नहीं बोले. वृद्धाश्रम आने का निर्णय उन का ही था. वे ही तो गहेबगाहे इस आश्रम में आतेजाते रहते थे. उन का मित्र रंजीत यहां रह रहा था. रंजीत को तो उन का बेटा ही आश्रम में छोड़ गया था, ‘‘देखो पिताजी, आप हमारे साथ शूट नहीं होते इसलिए आप यहां रहें. जितना खर्चा लगेगा मैं देता रहूंगा…’’ रंजीत आवाक उस की ओर देख रहे थे, ‘‘बेटा इस में शूट नहीं होता का क्या मतलब? मांबाप तो अपने बेटों को पालते ही इसलिए हैं कि वे उन के बुढ़ापे का सहारा बनें.’’
‘‘होता होगा पर हमलोग आप के साथ ऐडजस्ट नहीं कर पा रहे हैं,’’ रंजीत कुछ नहीं बोला और चुपचाप वृद्धाश्रम आने की तैयारी करने लगा. उन्होंने अपने मित्र रंजीत को जरूर बताया था, ‘‘यार, अब हम मिल नहीं पाएंगे.’’
केदार को आश्चर्य हुआ, ‘‘क्यों?’’
‘‘मेरा बेटा मुझे वृद्धाश्रम छोड़ रहा है…’’
‘‘वृद्धाश्रम… पर क्यों?’’ रंजीत कुछ नहीं बोला. केदार ने भी उसे नहीं उकेरा.
‘‘देखो रंजीत, हम तो मिलेंगे ही, यहां नहीं तो मैं वृद्धाश्रम आ कर मिलूंगा,’’अरे नहीं केदार, तुम्हारा बेटा तो हीरा है. तुम उस के साथ ऐंजौय करो.’’
रंजीत की आंखें बरस रहीं थीें. बहुत छिपाने के बाद भी उन की सिसकियां केदार तक चहुंच चुकी थीं. केदार ने रंजीत से मिलने वृद्धाश्राम जाना शुरू कर दिया था. वे दिनभर वहां रहते और रंजीत के दुख को हलका करते. वहां रह रहे और वृद्धजनों से भी मिलते. केदार जब भी वृद्धाश्रम जाते अपने साथ खानेपीने का कुछ न कुछ सामान ले कर जाते. सारे लोगों के साथ बैठ कर खाते और मस्ती करते. केदार को वृद्धाश्रम में अच्छा लगने लगा था. कई बारे वे अपनी पत्नी कुसुम को भी ले कर जाते .
‘‘विजय मुझे कुछ पैसे दोगे?’’
‘‘जी बाबूजी, कितन पैसे दूं?’’
‘‘यही कोई ₹5 लाख,” केदार बोल पङे.
‘‘जी बाबूजी, मैं चेक दे दूं कि नगद दूं?” केदार को इस बात पर जरा सा भी आश्चर्य नहीं हुआ था कि विजय ने उन से यह नहीं पूछा कि इतनी सारी रकम की उन्हें क्या जरूरत आ पड़ी है. विजय कभी भी अपने पिताजी से कोई सवाल करता ही नहीं था. वे जो कह देते उसे उन का आदेश मान कर तत्काल उस की पूर्ति कर देता था.
‘‘चेक दे दो.’’
‘‘जी बाबूजी,” विजय ने तुरंत ही चेक काट कर उन के हाथों में थमा दिया.
‘‘नालायक, यह तो पूछ लिया होता कि मुझे ₹5 क्यों चाहिए…’’
‘‘मैं आप से भला कैसे पूछ सकता हूं…आप को पैसे चाहिए तो कोई अच्छे काम के लिए ही चाहिए होंगे.’’
‘‘हां, वह तो ठीक है पर फिर भी मैं बता देता हूं. वहां एक वृद्धाश्रम है न… मैं वहां एक कमरा बनवा रहा हूं.”
‘‘जी, यह तो अच्छी बात है बाबूजी. और पैसे चाहिए हों तो बता देना…’’
विजय इस से अधिक कुछ और जानना भी नहीं चाहता था.
विजय उन का इकलौता बेटा था. उन्होंने उसे खूब पढ़ायालिखाया और उसे किसी चीज की कभी कमी नहीं होने दी. वे सरकारी अधिकारी थे तो शहरशहर उन का ट्रांसफर होता रहता. पर जब वे रिटायर्ड हुए तो अपनी जन्मभूमि में ही आ कर रहने लगे. विजय को पढ़ाया तो बहुत उसे इंजीनियर भी बना दिया पर उसे नौकरी पर नहीं जाने दिया. उन्होंने उस के लिए बड़ा सा व्यापार खुलवा दिया. व्यापार अच्छा चल रहा था. उस की शादी आरती से हुई. आरती बेटी बन कर ही घर आई. वे और कुसुम भी उसे बेटी की तरह ही प्यार करते और आरती भी उन्हें सासससुर न मान कर मांपिताजी ही मानती. विजय अपनी दुकान चला जाता और कुसुम और आरती अपने में ही उलझे रहते तो केदार अपने रंजीत के साथ अपना टाइम काटते. रात में सभी लोग एकसाथ खाने की टेबल पर बैठ कर खाना खाते और दिनभर की गतिविधियों की चर्चा करते. ऐसा कभीकभार ही होता जब रात में खाने की टेबल पर सभी साथ न हों.
“बाबूजी और अम्मां आप के साथ बैठ कर खाना न खाओ तो पेट ही नहीं भरता.’’
‘‘हां रे… बड़ा हो गया पर अभी भी छोटे बच्चे जैसा करता है. ले एक रोटी और ले…’’ कुसुम का लाड़ टपक पड़ता.
‘‘नहीं अम्मां, अच्छा दे ही दो… नहीं तो आप नाराज हो जाओगी…’’
कुसुम प्यार से उस के सिर पर हाथ फेरतीं तो वह उन के आंचल से चिपक जाता.
केदार इस मामले में अपनेआप को बहुत खुशकिस्मत मानता कि भले ही उन के एक ही बेटा है पर वह बेटा श्रवण कुमार बन कर उन की सेवा करता है. केदार वृद्धाश्रम में रंजीत के साथ ही अपना ज्यादातर समय काटते. कई बार कुसुम भी उन के साथ वहां जाती. वृद्धाश्रम में उन का मन लगने लगा. केदार ने विजय से पैसे ले कर 2 कमरे बना लिए. एक कमरा तो उस ने रंजीत को रहने के लिए दे दिया पर दूसरा कमरा खाली ही था. उन्होंने वहां रह रहे वृद्धजनों से भी आग्रह किया पर वे अपने कमरों में खुश थे. वह कमरा बंद ही था. इस बंद कमरे को देख कर ही उन के मन में खयाल आया कि क्यों ने वे और कुसुम यहां रहने लगें और जैसे वे यहां रंजीत से मिलने आते हैं वैसे ही वे वहां विजय से मिलने चले जाया करेंगे. उन्होंने अपने विचारों को कुसुम के साथ भी साझा किया.
‘‘हां, यह तो अच्छी बात है पर विजय इस के लिए तैयार नहीं होगा और वह मेरी बेटी आरती…वह तो सारा घर अपने सिर पर उठा लेगी,” कुसुम जानती थी कि आरती उन से दूर नहीं रह सकती. वह आम बहुओं के जैसी थोड़ी न है जिन के लिए सास सिरदर्द होती हैं. केदार भी इस बात को जानते थे कि ऐसा संभव नहीं है पर प्रयास तो करना ही चाहिए.
केदार और कुसुम ने धीरेधीरे वृद्धाश्रम में अपनी उपस्थिति बढ़ा ली थी. कई बार तो वे रात वहीं रह भी जाते थे. विजय और आरती झुंझला जाते पर वे कुछ बोल नहीं पाते थे. विजय और आरती को अपने मातापिता का व्यवहार कुछ अजीब सा लगने लगा था,”आरती, कोई बात तो नहीं हो गई है? मांबाबूजी आजकल वृद्धाश्रम में कुछ ज्यादा ही समय दे रहे हैं…” उस के स्वर में चिंता साफ झलक रही थी.
‘‘नहीं तो, पर यह तो सच है कि वे अब वहां कुछ ज्यादा ही रुकने लगे हैं,’’
आरती का स्वर भी उदास था.
वे अपने मातापिता से कुछ भी पूछने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे थे. एक दिन उन के पिता ने ही उन से कह दिया था,”विजय, हम लोग सोच रहे हैं कि कुछ दिनों के लिए वृद्धाश्रम रहने चले जाएं,” विजय के साथ ही साथ आरती भी चौंक गई थी.
‘‘अरे बाबूजी, हम से कोई गलती हो गई क्या?’’ उस का चेहरा रुआंसा हो गया था.
‘‘नहीं… तुम तो मेरा बेटा है. तुझ से गलती हो ही नहीं सकती और हो भी जाए तो उस के लिए मेरे हाथ में डंडा है न,” केदारा जानते थे कि वे जब भी इस बात को कहेंगे तब ही विजय की प्रतिक्रया ऐसी ही आएगी.
‘‘फिर बाबूजी, आप वहां क्यों जाना चाहते हैं, अपने बेटे को छोड़ कर?’’
‘‘अपने बेटे को कैसे छोड़ सकते हैं हम. वहां केवल इसलिए जा रहे हैं ताकि हम जैसे लोगों के साथ अपना समय काट सकें. हमें वहां बहुत अच्छा लगता है इस कारण से भी.’’
‘‘यह क्या बात हुई बाबूजी…’’
‘‘तुम नहीं समझोगे, इतना समझ लो कि हम ने तय कर लिया है कि हम वहां जाएंगे.’’
‘‘मां को क्यों ले जा रहे हैं आप?’’
‘‘इस उम्र में मैं अपनी पत्नी से कैसे दूर रह सकता हूं? हम दोनों जाएंगे अब इस पर और कोई बात नहीं होगी,” जानबूझ कर केदार ने जोर से बोला था ताकि वे अपने बेटे के प्रश्नों से बच सकें. उन के पास उन प्रश्नों का कोई उत्तर था भी नहीं.
विजय की आंखों से आंसू बह निकले थे. आरती तो भाग कर अपने कमरे में जा कर सिसक रही थी, उस की सिसकियों की आवाज बाहर तक आ रही थी.
विजय और आरती अपने मातापिता के निर्णय को स्वीकार नहीं कर पा रहे थे. उन्होंने उन्हें बहुत समझाया भी पर वे नहीं माने तो अंततः उन्हें कुछ दिनों के लिए जा रहे हैं कि संभावनाओं के साथ वृद्धाश्रम छोड़ आए थे. केदार और कुसुम जानते थे कि विजय के लिए ऐसा करना कठिन होगा पर उन के पास और कोई विकल्प था भी नहीं. वे अपने बेटे और बहू के साथ रह तो बहुत अच्छी तरह से रहे थे, बेटा और बहु उन की बहुत ध्यान रखते भी थे पर इस के बाद भी वे एकाकी बने हुए थे. विजय से वे सीमित ही बात कर पाते थे और विजय भी उन से ज्यादा कुछ बोलता नहीं था. अमूमन यही स्थिति कुसुम की भी थी. वृद्धाश्रम में उन का एकाकीपन दूर हो जाता था. यहां वे बहस कर लेते लड़ लेते और मस्ती भी कर लेते थे. उन्होंने अपना सारा जीवन जिस शाही अंदाज में व्यतीत किया था वैसे जीवन से वे निराश हो चुके थे.
केदार और कुसुम को वृद्धाश्रम में रहते हुए 1 साल से अधिक का समय हो गया था. विजय और आरती नियमित उन से मिलने आते थे और कई बार वे फैस्टिवल पर उन्हें घर भी ले जाते थे, ‘‘आप के बिना तीजत्योहार अच्छे नहीं लगते. आप को चलना ही पड़ेगा,’’ आरती की जिद के आगे कुसुम समर्पण कर देती और वे 1-2 दिनों के लिए घर चले जाते पर तुरंत ही लौट कर आश्रम आ जाते. उन का मन आश्रम में अच्छी तरह लग चुका था. वे यहां मुक्तभाव से रहते थे. विजय और आरती ने भी धीरेधीरे अपनेआप को ढाल लिया था. आज ही वृद्धाश्रम के मैनेजर ने बताया था कि आरती बाथरूम में फिसल गई है और उस के पैरों में पलास्टर चढ़ा है. यह सुनते ही कुसुम की आंखों से आंसू बह निकले,‘‘अरे, विजय ने बताया ही नही,” उन की नारजगी अपने बेटे के प्रति बढ़ रही थी.
औटो उन के मकान के सामने आ कर रूक गया था. औटो से सब से पहले केदार उतरे फिर कुसुम. दोनों कुछ देर तक अपने मकान को यों ही देखते रहे. बहुत दिनों के बाद वे अपने घर आए थे. उन के हाथ में केवल एक ही थैला था. गेट को पार कर जैसे ही वे अंदर के कमरे की में पहुंचे उन्हें आरती बैड पर लेटी दिखाई दे गई. कुसुम ने बहू को निहारा. आरती कुछ दुबली लग रही थी. उस के पैर में बंधा पलास्टर दिखाई दे रहा था. कुसुम का वात्सल्य उमड़ आया,”बहू…” उस की आवाज में अपनत्व भरी मिठास थी. आरती को झपकी लग गई थी पर उस ने कदमों की आहट को सुन लिया पर जैसे ही उस के कानों में ‘बहू’ शब्द गूंजा वह हडबड़ा गई, ‘‘यह तो मांजी की आवाज है,” उस ने झट आंखें खोल लीं. मांजी को अपने सामने खड़ा देखा तो उस की आंखें बरस गईं. उस ने उठने की कोशिश की.
‘‘रहने दो बहू, सोई रहो…’’ कुसुम उस के सामने आ कर खड़ी हो गई थी.
‘‘कैसी हो बिटिया…’’ अब की बार केदार ने उसे पुकारा था.
‘‘बाबूजी…’’ आरती की सिसकियों भरी आवाज कमरे में गूंज गई.
विजय शायद अंदर था. वहीं उस ने आरती के सिसकने की आवाज सुनी थी. वह दौड़ कर बाहर आया तो सामने अपने पिताजी और मां को देखा.
‘‘अम्मां…बाबूजी…’’ वह उन से लिपट गया. केदार उसे अपने सीने से लगाए उस के सिर पर हाथ फेर रहे थे और कुसुम आरती के सिर को सहला रही थी.
‘‘अबे नालायक, जब बहू के पैर में फ्रैक्चर हो गया इस की सूचना भी तुम ने मुझे देना जरूरी नहीं समझा…’’ केदार की आवाज में कठोरता थी.
‘‘हां बेटा, तुझे हमें बताना चाहिए था. यह तो तेरी गलती है…’’ कुसुम का स्वर भी नाराजगी भरा था.
‘‘क्या करूं बाबूजी, अब मैं आप को तकलीफ नहीं देना चाहता था. आप को दुख होता यह सोच कर आप को नहीं बताया.’’
‘‘यह तो गलत है बेटा. मैं घर से भले ही दूर चला गया हूं पर तुम तो अपने से ही हमें दूर करने में लगे हो…’’ केदार का स्वर भीग गया था. बहुत देर तक दोनों सुखदुख की बातें करते रहे.
‘‘सुनो बेटा, अब कुसुम जब तक बहू के पैर का प्लास्टर नहीं उतर जाता तब तक यहीं रहेगी और मैं कल सुबह ही आश्रम चला जाऊंगा.’’
‘‘आप भी क्यों नहीं रुकते यहां. वैसे भी आपने बोला था कि आप कुछ दिनों के लिए ही आश्रम जा रहे हैं. अब तो बहुत दिन हो गए. नहीं बाबूजी, अब हम आप लोगों को नहीं जाने देंगे,’’ विजय ने जोर से केदार को जकड़ लिया था.
‘‘देखो बेटा, आश्रम तो हम को जाना ही होगा….हम ने वहां का कमरा थोड़ी न छोड़ा है… वैसे भी वहां रह रहे सभी लोग हमारा इंतजार कर रहे होंगे पर कुसुम अभी कुछ दिन यहीं रहेगी, आरती के स्वस्थ होने तक…’’ विजय कुछ नहीं बोला वह जानता था कि बाबूजी उस की बात नहीं मानेंगे.
सुबह जल्दी ही केदार अपना थैला उठा कर आश्रम की ओर चल दिए थे. जातेजाते कुसुम को बोल गए थे, ‘‘देखो बहू के स्वस्थ होते ही तुम आ जाना. वहां तुम्हारे बगैर मेरा मन नहीं लगेगा.’’
कुसुम के गालों में लालिमा दौड़ गई थी.