चांद तनहा है, आस्मा तनहा, दिल मिला है कहांकहां तनहा

बुझ गई आस, छुप गया तारा, थरथराता रहा धुंआ तनहा 

जिंदगी क्या इसी को कहते हैं जिस्म तनहा है और जां तनहा

हमसफर कोई गर मिले भी कहीं दोनों चलते रहे यहां तनहा

अपने दौर की मशहूर और प्रतिभाशाली ऐक्ट्रैस मीना कुमारी उम्दा शायरा भी थीं जिनकी लिखी गजलें आज भी शिद्दत से पढ़ी और सुनी जाती हैं क्योंकि वे हर किसी की जिंदगी पर कभी न कभी फिट बैठती हैं. परवीन बौबी की जिंदगी पर नजर डालें तो लगता है कि वे मीना कुमारी की गजलों से निकली कोई किरदार हैं जो जिंदगीभर दुनिया के मेले में तनहा रहीं और आखिरकार एक दिन इसी तन्हाई में चल बसीं.

किसी भी जिंदगी की कहानी इतनी छोटी भी नहीं होती कि उसे चंद लफ्जों में समेट कर पेश या खत्म किया जा सके. बकौल फिल्म इंडस्ट्री के सबसे बड़े शो मेन राजकपूर हरेक कहानी का अंत एक नई कहानी का प्रारम्भ होता है. परवीन बौबी की जिंदगी एक तरह से मीना कुमारी की जिंदगी का री प्ले थी जिसे जिसने भी गहराई से समझा उसने दुनिया के कई रिवाजों और उसूलों को समझ लिया कि वह तन्हाई ही है जो पूरी वफा और इमानदारी से साथ देती है वर्ना तो सब मिथ्या है.

70 के दशक में हिंदी फिल्मों की अभिनेत्रियां आमतौर पर परंपरागत परिधान में ही नजर आती थीं. इसी वक्त में बौलीबुड में परवीन बौबी की एंट्री हुई थी जो निहायत ही स्टाइलिश ग्लैमरस खूबसूरत वसैक्सी भी थीं और ऐक्टिंग में भी किसी से उन्नीस नहीं थीं.

परवीन ने नायिका की नई इमेज गढ़ी जिसमें उसका सारा शरीर साड़ी ब्लाउज से ढके रहना जरुरत या मजबूरी नहीं रह गई थी हालांकि समाज और सोच में भी तब्दीलियां आ रहीं थीं लेकिन उन्हें मजबूत करने फिल्मों का सहयोग और योगदान जरुरी था जो परवीन जैसी खुले दिल और दिमाग वाली ऐक्ट्रैस ही दे सकती थीं.

पहली फिल्म की छाप

किसी भी कलाकार पर उसकी पहली फिल्म के किरदार का असर लम्बे समय तक रहता है. यही परवीन के साथ हुआ. उनकी पहली फिल्म साल 1972 में आई चरित्र थी जिसमें उनके अपोजिट क्रिकेटर से ऐक्टर बने सलीम दुर्रानी थे. बीआर इशारा की इस फिल्म में भी मध्यमवर्गीय युवतियों की मजबूरी दिखाई गई थी जिसके चलते वे शारीरिक शोषण का शिकार अपनी सहमति से होती हैं लेकिन फिल्म की खूबी उसका फलसफा था जो चरित्र की विभिन्न परिभाषाओं के इर्दगिर्द घूमता रहता है. फिल्म फ्लौप रही और चिकने चुपड़े चेहरे वाले सलीम दुर्रानी को दर्शकों ने नकार दिया पर परवीन को स्वीकार लिया.

चरित्र में परवीन ने एक मिडल क्लासी और कामकाजी लड़की शिखा की भूमिका अदा की थी जो आधुनिक है और शराब सिगरेट पीने में उसे किसी तरह की ग्लानि महसूस नहीं होती. पिता द्वारा गिरवी रखा घर बचाने शिखा को अपने बौस का बिस्तर गर्म करना पड़ता है.इस सौदे पर जरुर उसे गिल्ट फील होता है और वह आत्महत्या की कोशिश भी करती है.

एक तरह से वह बौस की रखैल बनकर रह जाती है जो उसके अंदर की औरत को कभीकभी खटकता भी है हालांकि वह इसे चरित्रहीनता नहीं मानती. फिल्म के टाइटल में बेकग्राउंड से परवीन बौबी की ही आवाज में गूंजता यह डायलाग फिल्म की जान है कि सोचना बहुत बड़ी बीमारी है लोग सोचते बहुत हैं इसलिए परेशान भी रहते हैं.

चरित्र की बोल्ड भूमिका निभाने के बाद परवीन ने फिर कभी मुड़कर नहीं देखा और एक से एक हिट फिल्में दीं. इन में मजबूर, कालिया, शान, नमक हलाल, महान, देश प्रेमी, खुद्दार,अर्पण,द बर्निंग ट्रैन, सुहाग, काला पत्थर और 36 घंटे जैसी हिट फिल्में शामिल हैं लेकिन एक परफैक्ट ऐक्ट्रैस की मान्यता उन्हें अपने दौर की सुपर हिट फिल्म 1975 में प्रदर्शित दीवार से मिली थी जिसमें उनके नायक अमिताभ बच्चन थे.

अमिताभ के अपोजिट परवीन ने सबसे ज्यादा 8 फिल्में की थीं जो सभी हिट रहीं थीं. दीवार में भी उनका रोल एक रखैल सरीखा ही था जो बुद्धिजीवी है. इस फिल्म में भी वे अमिताभ के साथ सिगरेट और शराब पीती नजर आई थीं. यह भूमिका सभ्य और आधुनिक समाज की आवारा औरत की थी.

रियल और रील लाइफ

यह महज इत्तफाक की बात है कि कुछ नहीं बल्कि कई मानो में परवीन की रील और रियल लाइफ में काफी समानताएं थीं. फिल्म इंडस्ट्री में अब बहुत कम लोग बचे हैं जो अधिकारपूर्वक उन्हें याद करें,हां वे अगर जिंदा होती तो जरुर बीती 3 अप्रैल को अपना 68 वां जन्मदिन समारोहपूर्वक मनाती दिखतीं.

51 साल की अपनीछोटी सीजिंदगी में परवीन ने कई जिंदगियों को जिया. गुजरात के जूनागढ़ के रईस मुसलिम परिवार में जन्मी इस ऐक्ट्रैस ने जिंदगी में जो कुछ भी देखा और भुगता वह किसी ट्रेजेडी फिल्म से कम नहीं है. उनके पिता वली मोहम्मद बौबी, बौबी राजघराने के नबाब जूनागढ़ के खास कारिंदे हुआ करते थे जो उन दिनों फख्र की बात हुआ करती थी.

परवीन अपने मांबाप की शादी के 14 साल बाद पैदा हुई थीं जाहिर है काफी लाडप्यार में उनकी परवरिश हुई थी लेकिन इस पर दुखद बात यह रही कि पिता का सुख उन्हें ज्यादा नहीं मिला. परवीन जब 5 साल की थीं तभी मोहम्मद बौबी चल बसे थे. इस हादसे का उनके नाजुक और भावुक मन पर पड़ा गहरा असर उम्र भर दिखता रहा.

माउन्ट कार्मल हाई स्कूल से स्कूली पढ़ाई पूरी करने के बाद अहमदाबाद के ही सेंट जेवियर्स कालेज से इंग्लिश लिटरेचर से एमए करने वाली परवीन तत्कालीन अभिनेत्रियों में सबसे ज्यादा शिक्षित थीं. पढ़ाई पूरी करने के बाद वे मौडलिंग के लिए मुंबई आ गईं और फिल्मों के लिए भी हाथपांव मारने लगीं.

एक खास किस्म की फिल्में बनाने के लिए बदनाम निर्माता निर्देशक बीआर इशारा ने उन्हें स्टाइल से सिगरेट पीते देखा तो तुरंत चरित्र फिल्म की शिखा के लिए चुन लिया. 1974 में उन्हें मजबूर फिल्म में अमिताभ के अपोजिट काम करने का मौका मिला यह फिल्म हिट रही थी इसके बाद तो उन पर दौलत और शोहरत बरस पड़े. लेकिन यह सिर्फ किस्मत या सैक्सी और ग्लैमरस होने की वजह से नहीं था बल्कि उनकी जबरजस्त अभिनय प्रतिभा के चलते ऐसा हुआ था.

यह वह दौर था जब बौलीबुड में हेमा मालिनी, रेखा, राखी, रीना राय, जया भादुरी और मुमताज जैसी ऐक्टर्स का नाम सिक्कों की तरह चलता था. इनके रहते इंडस्ट्री में अपना नाम और मुकाम हासिल कर पाना जीनत अमान के बाद अगर किसी के लिए मुमकिन था तो वे परवीन बौबी थीं.

1972 से लेकर 1982 तक परवीन का जादू इंडस्ट्री में सिर चढ़कर बोला करता था. अपनी जिंदगी की तरह फिल्मी भूमिकाओं के प्रति भी वे कभी गंभीर नहीं रहीं. कामयाबी के दिनों में उन्होंने वही जिंदगी जीई जो मीना कुमारी जिया करती थीं. परवीन के आसपास सिगरेट के धुएं के छल्लों और शराब के प्यालों के अलावा कुछ और नहीं होता था.

अपनी शर्तों पर जीना कतई एतराज या हर्ज की बात नहीं लेकिन यह भी सच है कि जब आप दूसरों की शर्तों पर जीने लगते हैं तो जिंदगी इतनी दुश्वार हो जाती है कि उसे सलीके से जीना दूभर हो जाता है. यही परवीन के साथ हुआ जिन्होंने शादी का बंधन पसंद नहीं किया और एक बार किसी की भी पत्नी बनने के बजाय हर बार प्रेमिका बनना पसंद किया.

उभरते ऐक्टर और खलनायक डेनी डेंजोगाप्पा से उनका लम्बा अफेयर रहा और स्टाइलिश हीरो कबीर बेदी से भी जिनके लिए वे अपना कैरियर तक कुर्बान करने तैयार हो गईं थीं. कबीर शादीशुदा थे इसलिए इस रिश्ते को अंजाम तक पहुंचाने की हिम्मत नही जुटा पाए. उसी दौर में फिल्मों में जमने हाथ पैर मार रहे निर्देशक महेश भट को वे सचमुच दिल दे बैठीं थीं जिनका नाम इंडस्ट्री के कामयाब निर्देशकों में शुमार होता है.

महेश भट्ट और परवीन बौबी की लव स्टोरी वाकई अजीब थी जिसे आज भी चर्चित प्रेम कथाओं की लिस्ट में सबसे ऊपर रखा जाता है. महेश भट्ट की पहली शादी अपने स्कूल की सहपाठी लारेन ब्राईट से हुई थी जिन्होंने अपना नाम किरण रख लिया था. पूजा भट्ट और राहुल भट्ट  इन्ही दोनों की संतानें हैं.

आशिकी फिल्म महेश ने अपने पहले प्यार को लेकर ही बनाई थी. इसके बाद भी उनकी तमाम फिल्मों में उनकी व्यक्तिगत जिंदगी दिखी.जब 70 के उत्तरार्ध में महेश और परवीन के रोमांस के किस्से आम होने लगे तो लारेन ने स्वभाविक एतराज जताया जिसके चलते यह शादी टूट गई. महेश भट को एक खब्त और सनकी डायरैक्टर कहा जाता था लेकिन उनके टेलेंट का कायल भी उतने ही थे.

एक वक्त में यह लगभग तय हो गया था कि परवीन बौबी और महेश भट्ट शादी कर लेंगे लेकिन ऐसा नहीं हुआ. क्यों नहीं हुआ यह तो शायद अब महेश भी न बता पाएं लेकिन इसकी बड़ी वजह खुद परवीन बौबी का असमान्य होता व्यवहार और उटपटांग हरकतें थीं. परवीन को लगता था कि कोई उनकी जान लेना चाहता है.वे शूटिंग के दौरान भी काफी भयभीत दिखने लगी थीं. यह दरअसल में पेरानायड सिजोफ्रेनिया नाम की दिमागी बीमारी थी जिसका अनजाने में ही वे शिकार हो गईं थीं.

इंडस्ट्री में हर कोई कहता है कि डेनी और कबीर के बाद महेश ने भी परवीन का शोषण किया. उनका इस्तेमाल किया, ठगा और धोखा दिया. लेकिन यह पूरा सच नहीं लगता क्योंकि महेश उन्हें लेकर काफी संजीदा थे और इलाज के लिए अमेरिका तक ले गए थे.

शायद महेश और किरण के अलगाव की वजह परवीन खुद को मानने लगीं थी क्योंकि वे पत्नी और बच्चों को छोड़ उन्ही के साथ रहने लगे थे. इस पर परवीन इतना गिल्ट फील करने लगी थीं कि अर्ध विक्षिप्त हो गईं थीं. चरित्र फिल्म की शिखा उनके भीतर कहीं रह गई थी जो रखैल शब्द सुनते ही डिप्रेशन में आ जाती थी.अब परवीन शराब के नशे में धुत रहते अपना गम भुलाने की वही गलती भी करने लगीं थीं जो कभी मीना कुमारी ने की थी.

1984 में परवीन को न्यूयौर्क एयरपोर्ट में हथकड़ी पहने देखा गया था लेकिन यह किसी फिल्म की शूटिंग नहीं थी बल्कि उनकी दिमागी हालत की वजह से था. एयरपोर्ट पर वह अजीबोगरीब व्यवहार कर रहीं थीं और सिक्योरटी स्टाफ को अपनी पहचान तक नहीं बता पा रहीं थीं.पागलों सी हरकतें देख पुलिस ने उन्हें पागलखाने में पागलों के साथ बंद कर दिया था. जब एक भारतीय एजेंसी के अधिकारियों ने उन्हें छुड़ाया तब वे हंस रहीं थीं मानो कुछ हुआ ही न हो.

साल 1982 में महेश ने समान्तर फिल्म अर्थ बनाई थी जो अनधिकृत तौर पर हकीकत में उन्ही की जिंदगी पर आधारित थी. फिल्म के हीरो कुलभूषण खरबंदा थे जो पत्नी शबाना आजमी को छोड़कर प्रेमिका स्मिता पाटिल के साथ रहने लगते हैं. स्मिता पाटिल को सिजोफ्रेनिया का मरीज अर्थ में बताया गया है जिसे हर वक्त यह महसूस होता रहता है कि कोई खासतौर से शबाना आन्मी उन्हें मार देना चाहती हैं क्योंकि उन्होंने उसका पति उनसे छीन रखा है.

फिल्म में जब भी स्मिता का सामना शबाना से होता है तो उनके हाथ पैर कांपने लगते हैं और दौरे से पड़ने लगते हैं. एक दृश्य में जब दोनों का सामना होता है तो शबाना स्मिता पर ताना कसते कहती हैं कि किताबों में लिखा है कि पत्नी को बिस्तर में वेश्या होना चाहिए जो तुम हो.

वास्तविकता पर आधारित अर्थ ने ऊपर के दर्शकों को झकझोर दिया था. स्मिता पाटिल और शबाना आजमी ने जो शानदार जानदार एक्टिंग की थी अब शायद ही कोई कर पाए.कुलभूषण खरबंदा भी महेश भट के रोल में प्रभावी अभिनय कर गए थे कि कैसे कोई एक मर्द दो औरतों के बीच चक्की के पाटों सा पिसता रहता है. वह न तो पत्नी को छोड़ सकता और न ही प्रेमिका को.

फिल्म चली और खूब चली जिसे कई पुरस्कार भी मिले थे.परवीन बौबी की जिंदगी पर वो लम्हे शीर्षक से फिल्म भी बनी थी जो उतनी ही फ्लौप रही थी जितनी इसी उसी साल इसी थीम पर बनी वेब सीरिज रंजिश ही सही रही थी.

अर्थ के प्रदर्शन से2 साल पहले रमेश सिप्पी की सबसे महंगी और शोले की तरह मल्टी स्टारर फिल्मशान की शूटिंग के दौरान परवीन बौबी का पागलपन सार्वजनिक हुआ था, जब एक लटकते झूमर को देख चिल्ला पड़ी थीं कि अमिताभ बच्चन उन्हें इसके जरिए मार देना चाहते हैं.

परवीन को शक था कि यह झूमर उनके सर पर गिरा दिया जाएगा. इसके बाद वे शूटिंग छोड़ घर चली गईं. पूरी यूनिट हैरानी से परवीन को देखती और पूछती रह गई थी कि यह इन्हें क्या हो गया. इस सवाल का जवाब सालों बाद लोगों को मिल भी गया था.

यह सब कुछ अचानक नहीं हुआ था बल्कि धीरेधीरे हुआ था जिसका अहसास परवीन को भी नहीं था कि वे एक भयानक दिमागी बीमारी की चपेट में आती जा रहीं हैं जिसमें मरीज डर और आशंकाओं के साए में रहता है. वह कल्पनाएं करता है और उन्हें ही सच मानने लगता है फिर हकीकत से कोई वास्ता उसका नहीं रह जाता. पहले परवीन को सिर्फ अमिताभ पर शक था कि वे उनकी हत्या की साजिश रच रहे हैं लेकिन फिर इस लिस्ट में प्रिंस चार्ल्स, अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन सहित भाजपा सरकार तक का नाम शामिल हो गया था.

सिजोफ्रेनिया का मरीज अपने वहमों के प्रति कितना आत्मविश्वासी होता है. यह परवीन की हरकतों से भी उजागर हुआ था जब उन्होंने अपने संभावित हत्यारों के खिलाफ क़ानूनी कार्रवाई तक कर डाली थी. उम्मीद के मुताबिक अदालत से ये मुकदमे खारिज हो गए थे.

कोई बात न बनते देख महेश भट्ट ने 1986 में अभिनेत्री सोनी राजदान से शादी कर ली. आलिया भट्ट इन्ही दोनों की संतान हैं. शान के रिलीज होने के 2 साल बाद परवीन बौबी रहस्मय ढंग से गायब हो गईं तो उनके प्रशसंकों सहित फिल्म इंडस्ट्री सकते में आ गई थी. कहा यह गया था कि अंडरवर्ल्ड के सरगनाओं ने उन्हें किडनेप कर लिया है क्योंकि तब परवीन के पास बेशुमार पैसा था और वे सुकून शांति और स्थायित्व के लिए अकेली भटक रहीं थीं.

अपने कंधों पर अपनी मजार

1983 में गायब हुईं परवीन कोई 6 साल बाद मुंबई में प्रगट हुईं उन्होंने लोगों को बताया कि दरअसल में आध्यात्मिक शांति के लिए एक आश्रम में चली गईं थीं. अधिकतर लोगों का अंदाजा था कि यह ओशो रजनीश का आश्रम हो सकता है जहां शांति की तलाश में अपने दौर के दिग्गज अभिनेता विनोद खन्ना भी गए थे और वहां सेवादारों की तरह झाड़ू भी लगाते थे. सच जो भी हो इसके बाद परवीन के खाते में कोई उल्लेखनीय फिल्म नहीं आई. 1983 में उनकी 2 फ़िल्में ही चलीं पहली थी अर्पण और दूसरी थी धर्मेन्द्र हेमा मालनी अभिनीत एतिहासिक फिल्म रजिया सुल्तान जिसमें वे एक छोटे से रोल में थीं.

परवीन आखिरी बार 1988 में प्रदर्शित आकर्षण फिल्म में नजर आईं थी जो कि उनकी पहली फिल्म चरित्र से भी ज्यादा फ्लौप रही थी. इसके बाद वे दक्षिणी मुंबई के एक रिहायशी इलाके में फ्लेट लेकर रहने लगीं थीं. अकेली, तनहा और गुमनाम,जहां उनका सहारा वही शराब और सिगरेटें थीं जो चरित्र की शिखा पीती थी और दीवार की अनीता भीलोग उन्हें भूलने लगे थे.

कभी उनके घर निर्माता निर्देशकों की लाइन लगी रहती थी लेकिन अब कोई अजनबी भी भूले से उनके फ्लेट की कालबेल नहीं बजाता था. अपने पड़ोसियों से भी वे कोई वास्ता नहीं रखती थीं. फिर एक दिन 22 जनवरी 2005 को फिर से सनसनी मची जब अपने दौर की बोल्ड ऐक्ट्रैस परवीन बौबी की सड़ी गली लाश फ्लेट में मिली.

उनके फ्लेट के दरवाजे के आगे दूध के पेकेट और अख़बार 3 दिन तक पड़े देख सोसायटी वालों ने पुलिस को इसकी सूचना दी तो उजागर हुआ कि वे भूखी मरी थीं लेकिन प्यासी नहीं क्योंकि शराब की बोतलें उनके पास से मिली थीं. पलंग के पास एक व्हील चेयर भी मिली थी जिससे अंदाजा लगाया गया कि वे चलनेफिरने से भी मोहताज हो गईं थीं.

इसके बाद परवीन बौबी और उनकी संदिग्ध मौत को लेकर तरहतरह की अफवाहें उड़ती रहीं जिनके कोई खास माने नहीं थे. परवीन की यह आखिरी ख्वाहिश भी पूरी नहीं हो पाई कि उनका अंतिम संस्कार क्रिश्चियन रीतिरिवाजों से किया जाए क्योंकि कुछ साल पहले वे इसाई धर्म अपना चुकी थीं. उनके परिवारजनों ने लाश क्लेम कर मुंबई के सांता क्रूज शमशान में उन्हें इस्लामिक रीतिरिवाजों के मुताबिक दफना दिया.

परवीन का जिस्म दफनाया जा सकता है उनका वो फलसफा नहीं जिसके तहत एक आजाद ख्याल औरत वैसे भी रह और जी सकती है जैसे वे रहीं थीं. उनकी जिंदगी और मौत दोनों सबक हैं कि दुनिया और समाज में उसके तौरतरीकों से रहना ही बेहतर होता है नहीं तो अंत कैसा होता है सबने देखा. उनकी दुखद मौत पर भी मीना कुमारी की गजल का यह शेर मौजू है –

यूं तेरी रहगुजर से दीवाना – वार गुजरे

कांधे पे अपने रख के अपना मजार गुजरे

बैठे हैं रास्ते में दिल का खंडहर सजा कर

शायद इसी तरफ से एक दिन बहार गुजरे…

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