भारत में जी-20 सम्मेलन का आयोजन हुआ. दिल्ली दुलहन की तरह सजाई गई पर दिल्ली वालों के लिए 8 से 10 सितंबर के बीच लौकडाउन जैसे हालात रहे. स्कूल, दफ्तर, मौल, बाजार सहित कई चीजें ऐसी हैं जो इन दिनों बंद रहीं. 8 सितंबर को सुबह 5 बजे से 10 सितंबर को रात 11:59 बजे तक नई दिल्ली का पूरा क्षेत्र ‘नियंत्रित क्षेत्र-ढ्ढ’ माना गया, एक तरह का कर्फ्यू एरिया.

चलो, बड़ा आयोजन था तो लोग यह सोच कर थोड़ीबहुत परेशानी झेल भी गए कि इस से नई पीढ़ी को रोजगार पाने के बेहतर अवसर मिलेंगे पर नई पीढ़ी किस हाल में है, यह जानने की फुरसत किस सत्ताधारी खादीधारी को है, यह नहीं दिखाई दिया. जी-20 सम्मेलन के ठाट से अंगड़ाई लेती दिल्ली से राजस्थान के कोटा की दूरी तकरीबन 500 किलोमीटर है और वहां जो कोचिंग संस्थानों के या दूसरे तमाम होस्टलों के कमरों की छत पर लटके लेटैस्ट तकनीक से बने ‘ऐंटी सुसाइड फैन’ भी छात्रों को खुदकुशी करने से रोक नहीं पा रहे हैं, तो जान लीजिए कि दिल्ली के जी-20 सम्मेलन के सारे ताम झाम फुजूल हैं.

रविवार, 27 अगस्त, 2023 को कोटा में 2 बच्चों ने पढ़ाई के बोझ तले दब कर अपनी जिंदगी खत्म कर ली. एक बिहार के रोहतास जिले का आदर्श राज था तो दूसरा महाराष्ट्र के पिछड़े जिले लातूर का रहने वाला अविष्कार संभाजी कासले. पहला महज 18 साल का था और दूसरा तो अभी 16 साल का ही हुआ था.

 

देश से विदेश पढ़ने जाने वालों की संख्या 7 लाख क्यों पार कर गई. शिक्षा मंत्रालय के नए आंकड़ों के अनुसार, 2022 में 7,70,000 से अधिक भारतीय छात्र अध्ययन के लिए विदेश गए, जो 6 साल का उच्चतम स्तर है.

 

चिट्ठी में छिपा दर्द

जान देने वाले एक छात्र की लिखी आखिरी चिट्ठी के अंश देखिए :

‘अभिनव मेरे भाई, तुम कभी कोटा न आना. मैं नहीं चाहता कि तुम भी मेरी तरह दिमागी रूप से परेशान हो जाओ. मैं यहां सिर्फ और सिर्फ पढ़ाई करता हूं. अकेला हो गया हूं. मोबाइल है नहीं तो कई दिनों से यह लैटर लिख रहा हूं. जब मौका मिल पाया था तब भेजा.

‘अभिनव, तुम पेंटिंग बनाओ. सोशल मीडिया का इस्तेमाल करो. हो सकता है कि तुम को घर बैठे ही कहीं से और्डर आ जाएं. तुम बहुत बड़े आर्टिस्ट बन जाओ.

‘अंत में मम्मीपापा, एक बात आप से बताना भूल गया. भूला नहीं शायद हिम्मत नहीं जुटा पाया. पिछले हफ्ते एक टैस्ट हुआ था, पापा. 50 मार्क्स का था. मैं 35 नंबर ला पाया, जो क्लास में सब से कम थे. सब के नंबर अच्छे थे. कोचिंग वाले बोले कि मार्कशीट घर जाएगी. शायद अब तक पोस्ट भी हो गई होगी, लेकिन उस से पहले मैं आप सभी से माफी मांग रहा हूं. मम्मीपापा, आप का सपना अब अभिनव पूरा करेगा. मैं उस लायक नहीं बना.

‘अभिनव, तुम रोना नहीं. बस, यह सोच लेना भैया का सपना भी तुम को पूरा करना है.

‘अलविदा.’

राजस्थान के कोटा को आईआईटी और नीट के इम्तिहान को क्रैक करने का हब माना जाता है. यह अपनी पढ़ाई के लिए इतना ज्यादा मशहूर है कि ‘कोटा मौडल’ की चर्चा दुनियाभर में होती है. यही वजह है कि कोटा में हर साल उच्च शिक्षा की तैयारी करने के लिए आने वाले छात्रों का आंकड़ा बढ़ता जा रहा है.

साल 2021-22 में यहां 1,15,000 छात्र कोचिंग के लिए पहुंचे थे तो 2023-24 में यह आंकड़ा 2,05,000 तक पहुंच गया है. कोटा में कोचिंग इंडस्ट्री की कुल नैटवर्थ तकरीबन 5,000 करोड़ रुपए है. यहां 3,000 से ज्यादा होस्टल, 1,800 मैस और 25,000 पीजी कमरे हैं.

कहने का मतलब है कि कोटा में पढ़ाई के संसाधन इतने ज्यादा मजबूत हैं कि ‘कोटा मौडल’ अपनेआप में एक मिसाल बन गया है, जहां छात्रों के लिए शानदार कोचिंग सैंटर, पढ़ाने के लिए उम्दा टीचर, एक से बढ़ कर एक लाइब्रेरी, पढ़ने की लाजवाब सामग्री… और भी न जाने क्याक्या मुहैया है. इस सब से छात्रों को यह लगने लगता है कि जो कोटा से पढ़ लेगा वह डाक्टर या इंजीनियर तो बन ही जाएगा.

लेकिन इसी ‘कोटा मौडल’ का एक भयावह रूप भी है. इस साल वहां 24 छात्र पढ़ाई और मानसिक दबाव में अपनी जान दे चुके हैं. हालात इतने बदतर हो रहे हैं कि वहां कोचिंग संस्थानों और होस्टलों में ‘ऐंटी सुसाइड फैन’ लगाने के आदेश जारी होने के बाद भी रविवार, 27 अगस्त, 2023 को 4 घंटे के भीतर 2 छात्रों ने अपनी जान दे दी थी.

आंकड़ों पर नजर डालें तो साल 2015 में 17 छात्रों ने सुसाइड किया, जबकि साल 2016 में 16, 2017 में 7, 2018 में 20, 2019 में 8, 2020 में 4 और 2022 में 15 छात्रों ने अपनी जान दे दी.

दरअसल, कोटा का एजुकेशन सिस्टम सारे देश में फैल चुका है और हर जगह अब हर तरह से फेल होता नजर आ रहा है. हर शहर में कोचिंग मैनेजमैंट चरमरा गया लगता है और छात्रों को इंसान कम, फीस भरने का एटीएम ज्यादा सम   झा जाने लगा है.

कोचिंग सिस्टम के अपने ही कायदे बने हुए हैं. वे 9वीं क्लास से ही आईआईटी और नीट के लिए कोर्स शुरू कर देते हैं. कोचिंग संस्थानों में एक साल में एक बच्चे के रहने का खर्च तकरीबन ढाई लाख रुपए के आसपास का है. एक से डेढ़ लाख रुपए कोचिंग की फीस है. इस के अलावा बच्चों के दूसरे तमाम खर्चे भी होते हैं. सबकुछ जोड़ कर देखें तो एक साल में एक बच्चे पर तकरीबन 4 लाख रुपए तक भी खर्च हो जाते हैं.

प्रतियोगिता के इस दौर में कोचिंग एक आवश्यक शर्त बन गई है. पिछले लगभग 25 सालों में तो इस क्षेत्र में बहुत उबाल आया है. कोचिंग की बढ़ती मांग को देखते हुए लोगों ने अपनी मोटी तनख्वाह वाली नौकरी छोड़ कर देशभर में कोचिंग सैंटरों शुरू कर दिए हैं. अनगिनत मातापिता के ख्वाब पलते हैं इन कोचिंग सैंटर के तले, क्योंकि ख्वाब, दरअसल बच्चों के नहीं मातापिता के होते हैं, जिन्हें अंजाम तक पहुंचाने का माध्यम बच्चे होते हैं. मगर उन का क्या जिन्होंने अपने पैसे लगाए और बच्चा भी खो दिया.

 

भारत लगभग 1,000 विश्वविघालयों और 40,000 कालेजों के साथ दुनिया की सब से बड़ी उच्च शिक्षा प्रणाली होने का दावा करता है पर वास्तविकता यह है कि इतनी बड़ी चेन होते हुए भी अधिकतर छात्र उन कालेजों या कोर्सों में एडमिशन नहीं ले पाते जिन में वे लेना चाहते हैं और उन्हें अपने भविष्य व सपनों के साथ समझौता करना पड़ता है.

 

स्टूडैंट हो रहे तनाव का शिकार

मौत का गलियारा बने कोटा शहर को ही ले लीजिए. यहां कोचिंग सैंटरों की भरमार है. पूरा शहर तैयारी करने वाले छात्रों से अटा पड़ा है. छात्र अपने घर से दूर चाहेअनचाहे माहौल में रहने को मजबूर हो जाते हैं. अधिकांश 15-16 साल की उम्र यानी 10वीं के बाद ही वहां के स्कूलों में प्राइवेट एडमिशन ले लेते हैं, मगर समय कोचिंग संस्थान में बिताते हैं. बननेबिगड़ने की इस उम्र में छात्र भावनात्मक रूप से संवेदनशील होते हैं. महीनेमहीने में होने वाले टैस्ट में बेहतर करने का प्रैशर तो होता ही है, फोन पर मातापिता की हिदायतें भी, ‘हम इतने पैसे खर्च कर रहे हैं, तुम्हें अच्छी रैंक ले कर आनी है.’ इस जैसी ही कई प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष बातें उन्हें सम   झनी होती हैं. यहां से शुरू होता है दबाव में आने का सिलसिला. हर तरह के छात्र यहां पर होते हैं, जिन का आर्थिक स्तर भी भिन्नभिन्न होता है. दूसरे से तुलना करने पर खुद को कमजोर पाना भी इस उम्र में कहीं न कहीं सालता है.

कुछ व्यवहार से इतने भावुक होते हैं कि वे मातापिता को शतप्रतिशत न दे पाने के बाद से तनावग्रस्त हो जाते हैं और कई बार मौत को गले लगा लेते हैं. मलाल के सिवा कुछ नहीं बचता पेरैंट्स के पास. कई मातापिता अपनी पूंजी, चलअचल संपत्ति को बंधक रख कर भी बच्चों को पढ़ाना चाहते हैं.

आजकल कक्षा 7-8 से बच्चों को प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी की कोचिंग, कोडिंग कराना एक शौक बन गया है. इस की इतनी जरूरत नहीं है, जितनी हम सम   झते हैं.

विदेशों का उदाहरण लें तो वहां बच्चों को इन मामलों में स्वतंत्र छोड़ा जाता है. उस की अभिरुचि को परखने के बाद ही उसे किसी क्षेत्र विशेष में भेजा जाता है.

शहरशहर बनते कोचिंग हब

उत्तराखंड की राजधानी देहरादून तो शुरू से ही एजुकेशन हब रही है. वहां अनेक कोचिंग सैंटर विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करवाते हैं. उन कोचिंग सैंटरों में नोट्स तैयार करवाना, परीक्षा की तैयारी वाले वीडियो लैक्चर, फैकल्टी के साथ लाइव क्लासेज, चैट सुविधा भी उपलब्ध होती है. दैनिक टैस्ट सीरीज भी वहां पर करवाई जाती हैं. सिविल सेवा के अंतर्गत आईएएस, पीसीएस सेवाओं में इन संस्थानों के मार्गदर्शन में छात्रों का चयन भी हुआ है. लेकिन शिक्षा का व्यवसायीकरण पिछले कुछ सालों में बेहिसाब हुआ है. बैंकिंग, एसएससी, रेलवे, एनडीए, सीडीएस जैसी कई परीक्षाएं हैं, जिन के लिए कोचिंग का सहारा लिया जाता है. कई कोचिंग संस्थान ऐसे हैं जहां शिक्षक काबिल नहीं होते. छात्रों को कुछ सम   झ में नहीं आता. केवल समय बरबाद होता है. कुछ खास छात्रों पर खास ध्यान देना भी कमजोर छात्रों के साथ नाइंसाफी है. ज्यादातर संस्थाओं का उद्देश्य पैसा कमाना होता है.

उत्तराखंड लोक सेवा आयोग की ओर से आयोजित पटवारी भरती परीक्षा का प्रश्नपत्र लीक होने के बाद जांच से बचने के लिए कई कोचिंग सैंटर संचालक भूमिगत हो गए थे. इन आरोपियों के संबंध कोचिंग सैंटर संचालकों से होने की बात सामने आई.

हरिद्वार और आसपास के क्षेत्रों में मोटी फीस ले कर चलने वाले कोचिंग सैंटर के संचालक घेरे में आए. ये संचालक बड़ीबड़ी संपत्तियों के मालिक हैं. 8 जनवरी को पटवारी परीक्षा हुई थी पर पेपर पहले ही लीक हो गया था.

 

एनईपी 2020 (नई शिक्षा नीति) कहती है, हमें अपनी जीडीपी का कम से कम 6 प्रतिशत शिक्षा पर खर्च करना चाहिए. सरकार शिक्षा पर अपने सकल घरेलू उत्माद का केवल 2.9 प्रतिशत ही खर्च कर रही है, जबकि, काफी समय से शिक्षाविदों की मांग रही है कि शिक्षा बजट को 10 प्रतिशत तक बढ़ाए जाने की जरूरत है.

 

गलाकाट प्रतियोगिता

सैल्फ स्टडी का महत्त्व आज भी बरकरार है. लेकिन एकदूसरे से आगे निकलने की होड़ ने कोचिंग के व्यापार को फलनेफूलने में मदद की है. इस से छात्रों का स्ट्रैस लैवल बढ़ता है, दिनचर्या बहुत कष्टकारी हो जाती है. बड़े शहरों के कई प्राइवेट स्कूल जो कोचिंग कराते हैं, उन का भी यही हाल है. स्कूल से छुट्टी के एक घंटे बाद फिर से कोचिंग की ओर कदम. दिमाग कितना ग्रहण कर पाएगा आखिरकार?

हर घर में एक या 2 बच्चे हैं. मातापिता का एकमात्र उद्देश्य कमाना और बच्चे को बेहतर एजुकेशन देना है. ऐसे बचपन को जब स्नेह, दुलार और संबल नहीं मिलता तो वह संवेदनशील हो जाता है. समय बीतने के साथ उन के लिए घर से बाहर भी एडजस्ट करना मुश्किल हो जाता है. बीती 12 फरवरी को गुजरात के रहने वाले इंजीनियरिंग प्रथम वर्ष के छात्र ने आईआईटी, मुंबई में आत्महत्या कर ली थी, जहां पर प्रवेश पाना ही बहुत बड़ी बात है.

ऐसे क्या कारण रहे होंगे, क्या तनाव रहा होगा इस बच्चे को. हमारी मौजूदा परीक्षा प्रणाली तनाव को बढ़ावा देने वाली है. आईएएस परीक्षा सब से कठिन परीक्षा मानी जाती है, उस के बाद आईआईटी विश्वविद्यालय में प्रवेश के लिए आयोजित होने वाली परीक्षा. निर्धारित कटऔफ भी तनाव का कारण बनती है. 90 फीसदी से अधिक अंक न आ पाने पर भविष्य अंधकारमय लगता है.

समाज का नजरिया ही कुछ ऐसा है. छात्र अलगअलग कारणों से आत्महत्या कर रहे हैं. भारत में हर एक घंटे में एक छात्र आत्महत्या कर रहा है. 130 करोड़ से अधिक आबादी वाले देश में महज 5,000 ही मनोचिकित्सक हैं. मानसिक बीमारी को हमारे देश में बीमारी ही नहीं सम   झा जाता है. वर्ष 2014 से 2016 तक 26,000 से ज्यादा छात्रों ने आत्महत्या की थी.

हैरानी तो यह कि सब से समृद्ध राज्य महाराष्ट्र इन में पहले स्थान पर था. मनचाहे कालेज में प्रवेश न मिलना भी एक बहुत बड़ा कारक है. मातापिता सम   झदारी से काम लें. अपनी उम्मीदों का बो   झ अपने बच्चों पर न लादें.

भारत में कोचिंग व्यवसाय के बारे में पुणे स्थित कंसलटैंसी फर्म इन्फिनियम रिसर्च की सूचना के अनुसार, भारत का मौजूदा कोचिंग बाजार राजस्व 58,000 करोड़ रुपए से अधिक है, जिस के आने वाले 5-6 वर्षों में बढ़ कर 1 लाख, 34 हजार करोड़ रुपए तक पहुंचने की संभावना है.

अगर आज से 25-30 वर्ष पीछे जाएं तो देश में कोचिंग सैंटरों की संख्या काफी कम थी. धीरेधीरे गलाकाट प्रतिस्पर्धा होने लगी. कालेज में सीटें कम और अभ्यर्थियों की संख्या बढ़ने लगी. ‘एक अनार सौ बीमार’ वाली स्थिति में इन कोचिंग सैंटरों ने कमान संभाली. बस, फिर समय के साथ यह हर छात्र की आवश्यकता बन गई.

इस की आड़ में छोटे कसबाई इलाकों में कुकुरमुत्ते की तरह कोचिंग सैंटर खुल गए, जहां पर गुणवत्ता नगण्य थी. लेकिन छात्र उन्हें भी मिल रहे हैं, क्योंकि अभिभावक आंख बंद किए हुए हैं या गुणवत्ता की उन्हें पहचान नहीं. दिल्ली में कई बस्तियां कोचिंग हब बन चुकी हैं. जगहजगह दुकानों की जगह कोचिंग सैंटर ले रहे हैं.

 

इस साल करीब 3,04,699 विद्यार्थियों ने डीयू के केंद्रीय विश्वविद्यालय सीयूईटी के माध्यम से डीयू की प्रवेश परीक्षा में भाग लिया. यहां हम केवल स्नातक या बीए की बात कर रहे हैं जबकि डीयू में केवल 59,554 सीटें ही हैं. ऐसे में जिन छात्रों का एडमिशन नहीं हो पाएगा, वे कहां जाएंगे ?

 

जरूरत क्यों बने कोचिंग सैंटर

कई कोचिंग सैंटर तो छात्रों से भी सौदा कर लेते हैं. इश्तिहार में सफल छात्रों की तसवीर अपने पासआउट छात्रों के तौर पर लगा देते हैं ताकि दूसरे छात्र भी संस्थान से प्रभावित हो कर वहां प्रवेश ले लें. तरहतरह के हथकंडे कुछ संस्थानों द्वारा अपनाए जाते हैं.

मगर कोचिंग सैंटरों की इतनी आवश्यकता क्यों पड़ी? अगर इस बारे में गौर करें तो देखते हैं कि किसी भी परीक्षा में बैठने के लिए न्यूनतम अहर्ता तो छात्र प्राप्त कर ही लेता है. उस के बावजूद उसे कोचिंग लेनी होती है. इस का एक स्पष्ट और साधारण कारण यही है कि छात्र स्कूली और विश्वविद्यालय शिक्षा में संपूर्ण और अपेक्षित ज्ञान अर्जित नहीं कर पाता है. हिंदी बैल्ट के छात्र इंग्लिश में पढ़ाई नहीं सम   झ पाते तो उन के मन में हीनभावना घर कर जाती है. शिक्षा के निजीकरण ने भी इस समस्या को काफी हद तक बढ़ाया है.

वैधअवैध हर तरह के सैंटर हैं, जहां सुरक्षा मानकों की अनदेखी की जाती है और दुर्घटना की आशंका बनी रहती है. बिजली उपकरणों को सुरक्षित और मानकों के अनुसार लगाने की आवश्यकता है पर कई जगह ये सैंटर बिना एनओसी पर चलते हैं, जब तक धरपकड़ न हो जाए. दुकानों, छोटे कमरों, बेसमैंट तक में कोचिंग का व्यवसाय फलफूल रहा है.

कोटा शहर में तो यह आलम है कि देश के अलगअलग हिस्सों से मांएं अपने बच्चों के साथ कमरा ले कर यहां रह रही हैं पर यह शिक्षा प्रणाली का दोष ही कहा जाएगा कि आत्महत्या के मामले बढ़ रहे हैं. वर्ष 2022 में 20 छात्रों की मौत हुई, जिन में से 18 ने आत्महत्या की थी. छात्रों में तनाव का होना एक गंभीर मुद्दा है. यह बात अलग है कि काउंसलिंग की नाममात्र की सुविधा हमारे छात्रों को प्राप्त है. वर्ष 2019 से 2022 तक 53 आत्महत्या के मामले आए हैं.

 

सरकार के अनुसाल, 2014 के बाद से भारत में 5709 कालेज, 320 नए विश्वविद्यालय खोले गए, अब देश में कुल 23 आईआईटी, 25 आईआईआईटी, 20 आईआईएम और 22 एम्स हैं. शिक्षा का बजट दोगुना कर दिया गया. ये सब कागजों में दिखाई पड़ते हैं, धरातल पर नहीं और कितने सरकारी कितने निजी इस का स्पष्ट आंकड़ा जारी नहीं किया जाता.

 

छात्रों की काउंसलिंग बहुत आवश्यक है. कोचिंग के मंथली टैस्ट में पिछड़ जाना, आत्मविश्वास की कमी, पढ़ाई संबंधित तनाव, आर्थिक तंगी या किसी तरह की भावनात्मक टूटन जैसे कई कारण हो सकते हैं, जो बच्चे को आत्मघाती कदम उठा लेने की ओर धकेलते हैं.

शारीरिक गतिविधियां, खेलकूद, योग, मनोरंजन इन होस्टलर्स के लिए जरूरी है. होम सिकनैस भी एक बहुत बड़ा कारण है. इस उम्र में छात्र अपनी परेशानी मांबाप से कह नहीं पाता. कई बार संस्थान में ब्रेक के दौरान भी वे घर नहीं जाते, क्योंकि उन्हें पढ़ाई में पिछड़ने का डर रहता है. लेकिन घर की याद मन ही मन उन का पीछा करती है. बच्चा घर से बाहर रह रहा हो तो उस के रैगुलर संपर्क में रहें. सम   झने की कोशिश करें कि उसे कोई समस्या तो नहीं है. उसे बताएं कि जीवन और स्वास्थ्य पहली जरूरत है. हर कोई पढ़ाई पर विशेष मुकाम हासिल नहीं कर सकता. सब की अपनीअपनी क्षमता है और समाज में हर तरह के लोगों की जरूरत है.

कोई लड़का या लड़की जितना भी कर रहा है, उसे प्रोत्साहित करें. अगर वह काबिल नहीं है तो उसे हतोत्साहित न करें. कोई न कोई काम उस के लिए अवश्य नियत है.

अन्य व्यवसायों की तरह कोचिंग भी एक व्यवसाय बन गया है और संस्थान के अधिकारी अधिक से अधिक मुनाफा कमाना अपना उद्देश्य सम   झते हैं, जिस से बेवजह मातापिता की जेब कटती है. लेकिन इस प्रवृत्ति पर रोक लगा पाना तभी संभव होगा जब सरकार की स्कूली और विश्वविद्यालयी शिक्षा ठोस हो और 12वीं के बाद प्रवेश पाने की प्रक्रिया थोड़ी सरल बना दी जाए और छात्रों को बेवजह कोचिंग की सहायता की आवश्यकता न हो.

 

भारत सरकार की एक रिपोर्ट बताती है कि 2015 और 2019 के बीच विदेश में पढ़ाई करने वाले केवल 22 प्रतिशत भारतीय छात्र घर लौटने पर रोजगार सुरक्षित करने में सफल रहे.

 

सरकार है कठघरे में

अभी हम ने जिस ‘कोटा मौडल’ का पोस्टमार्टम किया है, वहां सरकार से ज्यादा कोटा के कोचिंग संस्थान और छात्रछात्राओं के मांबाप ही कुसूरवार नजर आ रहे हैं पर इन हालात की जड़ में सरकार की वे योजनाएं हैं जो शिक्षा का व्यावसायीकरण करने की जिम्म्मेदार हैं. कोटा में युवाओं की मौत में गुनाहगार के तौर पर सरकार को कठघरे में खड़ा होना चाहिए था पर उसे तो कोचिंग संस्थानों और मांबाप ने बाइज्जत बरी कर दिया है.

ऐसा नहीं है कि पहले देश में प्राइवेट शिक्षा का चलन नहीं था पर अपने समय में कांग्रेस ने खूब सरकारी स्कूल और कालेज बनवाए थे. वहां शिक्षा का स्तर भी बहुत अच्छा था और अब भी है पर पिछले कुछ वर्षों से देश में शिक्षा का जो निजीकरण हुआ है, उस से देश में एक असंतुलन सा बढ़ गया है.

आप भगवाई चश्मा पहन कर दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की नीतियों में कितनी भी कमियां निकाल दीजिए पर जिस तरह उन्होंने दिल्ली के सरकारी स्कूलों और वहां की पढ़ाई का स्टैंडर्ड बढ़ाया है, वह तारीफ के काबिल है.

पर यह सफलता ऊंट के मुंह में जीरा है. कड़वी सचाई तो यह है कि शिक्षा अपनेआप में विभाजन पैदा करने का एक माध्यम बन गई है. एक अमीर मातापिता के बच्चे को अच्छी शिक्षा मिलेगी और गरीब मातापिता का बच्चा बुनियादी शिक्षा भी नहीं पा सकता है.

कोढ़़ पर खाज यह है कि सरकार के बढ़ावे पर प्राइवेट स्कूलों, कालेजों, यूनिवर्सिटियों की देश में बाढ़ सी आ गई है और शिक्षण संस्थानों को चलाना एक लाभदायक व्यवसाय बन गया है. सरकारी शिक्षण संस्थानों में कम सीटें होती हैं तो मजबूरी के चलते छात्र प्राइवेट शिक्षा संस्थानों में दाखिला लेते हैं, जहां वे अपने लाभ के अनुसार छात्रों से फीस लेते हैं.

देश में हर साल 12वीं पास करने वाले छात्रों की तादाद 1 करोड़ से ज्यादा है. साल 2022 में 1 करोड़, 43 लाख बच्चे 12वीं के एग्जाम में बैठे थे और उन में से 1 करोड़, 24 लाख छात्र पास हो गए थे. अब सरकार के पास क्या इन 1 करोड़, 24 लाख छात्रों को आगे मुफ्त या कम खर्च के हिसाब से पढ़ाई जारी रखने का इंफ्रास्ट्रक्चर है? नहीं है.

सरकारें इन छात्रों की बातें ही नहीं करती हैं क्योंकि देश चलाने वाले अब बिलकुल नहीं चाहते कि ज्यादातर गरीब तबके के ये सब छात्र पढ़लिख कर अमीरों की बराबरी कर लें, इसलिए डाक्टरी की ऊंची पढ़ाई में सिर्फ 8,500 सीटें सरकारी मैडिकल कालेजों में हैं. प्राइवेट कालेजों में और 47,415 सीटें हैं, जिन में खर्च लाखों का है. मैडिकल पोस्ट ग्रेजुएशन की फीस तो करोड़ों में जा पहुंची है. इंजीनियरिंग कालेजों में सरकारी कालेजों की 15,53,809 सीटें हैं पर आईआईटी जैसे इंस्टिट्यूटों की सीटें मुश्किल से 10,000-12,000 हैं जहां फीस 10-15 लाख रुपए तक होती है.

आर्ट्स स्ट्रीम की बात करते हैं. मान लो किसी सरकारी कालेज में पूरे साल की फीस 15,000 रुपए है तो प्राइवेट कालेज में यह फीस एक लाख सालाना से भी ज्यादा हो सकती है. चूंकि ये संस्थान शहर से थोड़ा दूर होते हैं तो वहां होस्टल आदि में रहने का खर्च डेढ़ से 2 लाख रुपए सालाना तक पड़ जाता है. अगर कोई प्रोफैशनल कोर्स कर रहा है तो कम से कम 10 लाख से 15 लाख रुपए का खर्च आ सकता है पर वहां की समस्या ही दूसरी है. वहां के ज्यादातर छात्र हिंदी लिखने में तकरीबन सिफर होते हैं और इंगलिश भी उन की माशाअल्लाह होती है.

सस्ती शिक्षा क्यों नहीं

सरकार की गलत नीतियों का असर है कि हर राज्य में जितने भी प्राइवेट शिक्षा संस्थान हैं, वे ज्यादातर नेताओं या उन के नातेरिश्तेदारों के हैं. दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने कई साल पहले एक मुद्दा उठाते हुए कहा था कि जनता को पता चलना चाहिए कि पूरे देश में कितने प्राइवेट स्कूल नेताओं के हैं और किनकिन स्कूलों के बोर्ड में नेता और अफसर हैं.

जाहिर है सरकारी शिक्षा की क्वालिटी और उपलब्धता बेहतर कर दें तो शिक्षा का निजीकरण अपनेआप कम होने लगेगा, यानी सरकार को शिक्षा का स्तर बेहतर बनाने की जरूरत है. इस के लिए केंद्र व राज्यों की सभी सरकारों को जिम्मेदारी लेनी पड़ेगी. स्कूल में, क्लास में क्वालिटी एजुकेशन का माहौल तैयार करना पड़ेगा.

सरकारी स्कूलों में एकएक क्लासरूम में 100-100 छात्रों को बैठ कर पढ़ाई करनी पड़ती है. ऐसी व्यवस्था करने की जरूरत है जहां हर क्लासरूम में ज्यादा से ज्यादा 40 बच्चे हों, तभी लोगों का भरोसा सरकारी स्कूलों के प्रति बढ़ेगा. सरकारी स्कूलों के बच्चों के अंदर वही आत्मविश्वास भरने की जरूरत है जैसा आत्मविश्वास भरने का दावा प्राइवेट स्कूल वाले करते हैं, तब लोग अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूलों की जगह सरकारी स्कूलों में भेजना शुरू करेंगे.

नीयत में खोट

अगर भारत के संविधान की बात करें तो अनुच्छेद 21-क सरकार को निर्देशित करता है कि शिक्षा मौलिक अधिकार है और यह सरकार की जिम्मेदारी है कि वह राज्य में 6 से 14 वर्ष के आयु समूह में सभी बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करे, जिस के लिए सरकार ने सरकारी स्कूल खुलवाए भी हैं पर पिछले कुछ सालों में मामला पूरी तरह बिगड़ गया है. शिक्षा माफिया ने राजनीतिक और सरकारी तंत्र से गठजोड़ कर नियोजित ढंग से सरकारी स्कूलों की कमर तोड़ दी है ताकि इन की दुकान चलती रहे.

वर्तमान सरकार दावा करती है कि पिछले 9 साल में देश में सड़कों का जाल बिछ गया है, हाईवे ही हाईवे दिखाई देने लगे हैं पर सवाल है कि उन पर चलेगा कौन? बड़ीबड़ी गाडि़यों वाले ही न? पर उन साइकिल वालों का क्या होगा जो देश की रीढ़ की हड्डी हैं? वे जो कारखानों, मिलों और बड़ीबड़ी इंडस्ट्री में मेहनतकश हैं, क्या वे इन सड़कों से कोई फायदा ले पाएंगे? एकदम न के बराबर. अगर वे और उन के होशियार युवा डाक्टर या इंजीनियर बनने का सपना देखते हैं तो इस में गलत क्या है? उन्हें सस्ती शिक्षा क्यों नहीं दे पाती है सरकार?

दरअसल सरकार की नीयत ही नहीं है कि गरीब का बेटाबेटी ऊंचे दर्जे का हाकिम बन जाए. भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का तो एजेंडा ही यह है कि वंचित समाज ‘मंदिर बनाओ’ अभियान में ही बिजी रहे. वह उन का परमानैंट कारसेवक बन जाए, जिसे एक आवाज पर सड़क पर उतार दिया जाए बवाल मचाने के लिए. तभी तो जब जी-20 सम्मेलन हुआ, तब दिल्ली से आम आदमी नदारद हो गया और किसी नूंह दंगे जैसी साजिश रचने की जरूरत ही नहीं पड़ी.

– साथ में अमृता पांडे

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