प्रतियोगिता के इस दौर में कोचिंग एक आवश्यक शर्त बन गई है. पिछले लगभग 25 सालों में तो इस क्षेत्र में बहुत उबाल आया है. कोचिंग की बढ़ती मांग को देखते हुए लोगों ने अपनी मोटी तनख्वाह वाली नौकरी छोड़ कर कोचिंग सैंटर शुरू कर दिए हैं. अनगिनत मातापिता के ख्वाब पलते हैं इन कोचिंग सैंटर के तले, क्योंकि ख्वाब दरअसल बच्चों के नहीं मातापिता के होते हैं, जिन्हें अंजाम तक पहुंचाने का माध्यम बच्चे होते हैं. मगर उन का क्या, जिन्होंने अपने पैसे लगाए और बच्चा भी खो दिया.
मौत का गलियारा बने कोटा शहर को ही ले लीजिए. यहां कोचिंग सैंटरों की भरमार है. पूरा शहर तैयारी करने वाले छात्रों से अटा पड़ा है. छात्र अपने घर से दूर चाहेअनचाहे माहौल में रहने को मजबूर हो जाते हैं. अधिकांश 15-16 साल की उम्र यानी 10वीं के बाद ही वहां के स्कूलों में प्राइवेट एडमिशन ले लेते हैं, मगर समय कोचिंग संस्थान में बिताते हैं. बननेबिगड़ने की इस उम्र में छात्र भावनात्मक रूप से संवेदनशील होते हैं. महीनेमहीने में होने वाले टैस्ट में बेहतर करने का प्रैशर तो होता ही है, फोन पर मातापिता की हिदायतें भी, “हम इतने पैसे खर्च कर रहे हैं, तुम्हें अच्छी रैंक ले कर आनी है.” जैसी ही कई प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष बातें उन्हें समझनी होती हैं. यहां से शुरू होता है दबाव में आने का सिलसिला. हर तरह के छात्र यहां पर होते हैं, जिन का आर्थिक स्तर भी भिन्नभिन्न होता है. दूसरे से तुलना करने पर खुद को कमजोर पाना भी इस उम्र में कहीं न कहीं सालता है.
कुछ व्यवहार से इतने भावुक होते हैं कि वे मातापिता को शतप्रतिशत न दे पाने के बाद से तनावग्रस्त हो जाते हैं और कई बार मौत को गले लगा लेते हैं. मलाल के सिवा कुछ नहीं बचता पेरेंट्स के पास. कई मातापिता अपनी पूंजी, चलअचल संपत्ति को बंधक रख कर भी बच्चों को पढ़ाना चाहते हैं.
बच्चे की मरजी हमें समझनी होगी. यदि बच्चे की रुचि मैडिकल, इंजीनियरिंग फील्ड में नहीं है तो क्यों बनेगा जबरन डाक्टर या इंजीनियर? वह संगीत या प्रशासनिक सेवा के क्षेत्र में बेहतर कर सकता है. आजकल कक्षा 7-8 से बच्चों को प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी की कोचिंग, कोडिंग कराना एक शौक बन गया है. इस की इतनी जरूरत नहीं है, जितनी हम समझते हैं.
विदेशों का उदाहरण लें, तो वहां बच्चों को इन मामलों में स्वतंत्र छोड़ा जाता है. उस की अभिरुचि को परखने के बाद ही उसे किसी क्षेत्र विशेष में भेजा जाता है.
उत्तराखंड की राजधानी देहरादून तो शुरू से ही ऐजूकेशन हब रही है. यहां अनेक कोचिंग सैंटर विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करवाते हैं. इन कोचिंग सैंटर में नोट्स तैयार करवाना, परीक्षा की तैयारी वाले वीडियो लैक्चर, फैकेल्टी के साथ लाइव क्लासेज चैट सुविधा भी उपलब्ध होती है. दैनिक टैस्ट सीरीज भी यहां पर करवाए जाते हैं. सिविल सेवा के अंतर्गत आईएएस, पीसीएस सेवाओं में इन संस्थानों के मार्गदर्शन में छात्रों का चयन भी हुआ है. लेकिन शिक्षा का व्यवसायीकरण पिछले कुछ सालों में बेहिसाब हुआ है. बैंकिंग, एसएससी, रेलवे, एनडीए, सीडीएस जैसी कई परीक्षाएं हैं, जहां कोचिंग का सहारा लिया जाता है. कई कोचिंग संस्थान ऐसे हैं, जहां पर शिक्षक काबिल नहीं होते. छात्रों को कुछ समझ में नहीं आता. केवल समय बरबाद होता है. कुछ खास छात्रों पर खास ध्यान देना भी कमजोर छात्रों के साथ नाइंसाफी है. ज्यादातर संस्थाओं का उद्देश्य पैसा कमाना है.
उत्तराखंड लोक सेवा आयोग की ओर से आयोजित पटवारी भरती परीक्षा का प्रश्नपत्र लीक होने के बाद जांच से बचने के लिए कई कोचिंग सैंटर संचालक भूमिगत हो गए थे. इन आरोपियों के संबंध कोचिंग सैंटर संचालकों से होने की बात सामने आई.
हरिद्वार और आसपास के क्षेत्रों में मोटी फीस ले कर चलने वाले कोचिंग सैंटर के संचालक घेरे में आए. ये संचालक बड़ीबड़ी संपत्तियों के मालिक हैं. 8 जनवरी को पटवारी परीक्षा हुई थी, पर पेपर पहले ही लीक हो गया था.
सैल्फ स्टडी का महत्व आज भी बरकरार है. पर, एकदूसरे से आगे निकलने की होड़ ने कोचिंग के व्यापार को फलनेफूलने में मदद की है. इस से छात्रों का स्ट्रैस लैवल बढ़ता है. दिनचर्या बहुत कष्टकारी हो जाती है. बड़े शहरों के कई प्राइवेट स्कूल जो कोचिंग कराते हैं, उन का भी यही हाल है. स्कूल से छुट्टी के एक घंटे बाद फिर से कोचिंग की ओर कदम. दिमाग कितना ग्रहण कर पाएगा आखिरकार? हर घर में एक या 2 बच्चे हैं. मातापिता का एकमात्र उद्देश्य कमाना और बच्चे को बेहतर ऐजूकेशन देना है. ऐसे बचपन को जब स्नेह, दुलार और संबल नहीं मिलता तो वह संवेदनशील हो जाता है. समय बीतने के साथ उन के लिए घर से बाहर भी एडजैस्ट करना मुश्किल हो जाता है. बीते 12 फरवरी को गुजरात के रहने वाले इंजीनियरिंग प्रथम वर्ष के छात्र ने आईआईटी, मुंबई में आत्महत्या कर ली थी, जहां पर प्रवेश पाना ही बहुत बड़ी बात है.
ऐसे क्या कारण रहे होंगे, क्या तनाव रहा होगा इस बच्चे को. हमारी मौजूदा परीक्षा प्रणाली तनाव को बढ़ावा देने वाली है. आईएएस परीक्षा सब से कठिन परीक्षा मानी जाती है, उस के बाद आईआईटी विश्वविद्यालय में प्रवेश के लिए आयोजित होने वाली परीक्षा. निर्धारित कटऔफ भी तनाव का कारण बनती है. 90 फीसदी से अधिक अंक न आ पाने पर भविष्य अंधकारमय लगता है.
समाज का नजरिया ही कुछ ऐसा है. छात्र अलगअलग कारणों से आत्महत्या कर रहे हैं. भारत में हर एक घंटे में एक छात्र आत्महत्या कर रहा है. 130 करोड़ से अधिक आबादी वाले देश में महज 5,000 ही मनोचिकित्सक हैं. हमारा दुर्भाग्य है, मानसिक बीमारी को हमारे देश में बीमारी ही नहीं समझा जाता है. वर्ष 2014 से 2016 तक 26,000 से ज्यादा छात्रों ने आत्महत्या की थी.
हैरानी तो यह कि सब से समृद्ध राज्य महाराष्ट्र इन में पहले स्थान पर था. मनचाहे कालेज में प्रवेश न मिलना भी एक बहुत बड़ा कारक है. मातापिता समझदारी से काम लें. अपनी उम्मीदों का बोझ अपने बच्चों पर न लादें.
भारत में कोचिंग व्यवसाय के बारे में पुणे स्थित कंसलटैंसी फर्म इन्फिनियम रिसर्च की सूचना के अनुसार, भारत का मौजूदा कोचिंग बाजार राजस्व 58,000 करोड़ रुपए से अधिक है, जो आने वाले 5-6 वर्षों में बढ़ कर 1 लाख, 34 हजार करोड़ रुपए तक पहुंचने की संभावना है.
अगर आज से 25-30 वर्ष पीछे जाएं, तो देश में कोचिंग सैंटरों की संख्या काफी कम थी. धीरेधीरे गलाकाट प्रतिस्पर्धा होने लगी, कालेज में सीट कम और अभ्यर्थियों की संख्या बढ़ने लगी. एक अनार सौ बीमार वाली स्थिति में इन कोचिंग सैंटरों ने कमान संभाली. बस फिर समय के साथ यह हर छात्र की आवश्यकता बन गई. इस की आड़ में छोटे कसबाई इलाकों में कुकुरमुत्ते की तरह कोचिंग सैंटर खोल दिए गए, जहां पर गुणवत्ता नगण्य थी. लेकिन छात्र उन्हें भी मिल रहे हैं, क्योंकि अभिभावक आंख बंद किए हुए हैं या गुणवत्ता की उन्हें पहचान नहीं.
कई कोचिंग सैंटर तो छात्रों से भी सौदा कर देते हैं. इश्तिहार में सफल छात्रों की तसवीर अपने पासआउट छात्रों के तौर पर लगा देते हैं, ताकि दूसरे छात्र भी संस्थान से प्रभावित हो कर वहां प्रवेश ले लें. तरहतरह के हथकंडे कुछ संस्थानों द्वारा अपनाए जाते हैं.
मगर कोचिंग सैंटरों की इतनी आवश्यकता क्यों पड़ी? अगर इस बारे में गौर करें तो देखते हैं कि किसी भी परीक्षा में बैठने के लिए न्यूनतम अहर्ता तो छात्र प्राप्त कर ही लेता है. उस के बावजूद भी उसे कोचिंग लेनी होती है. इस का एक स्पष्ट और साधारण कारण यही है कि स्कूली और विश्वविद्यालय शिक्षा में संपूर्ण और अपेक्षित ज्ञान अर्जित नहीं कर पाता है. हिंदी बैल्ट के छात्र अंगरेजी में पढ़ाई नहीं समझ पाते तो मन में हीन भावना घर कर जाती है. शिक्षा के निजीकरण ने भी इस समस्या को काफी हद तक बढ़ाया है.
वैधअवैध हर तरह के सैंटर हैं, जहां सुरक्षा मानकों की अनदेखी की जाती है और दुर्घटना की आशंका बनी रहती है. बिजली उपकरणों को सुरक्षित और मानकों के अनुसार लगाने की आवश्यकता है. पर कई जगह ये सैंटर बिना एनओसी पर चलते हैं, जब तक धरपकड़ न हो जाए. दुकानों, छोटे कमरों, बेसमैंट में तक में कोचिंग का व्यवसाय फलफूल रहा है. कोटा में लगभग 150 कोचिंग सैंटर हैं, जो जेईई और नीट के लिए प्रशिक्षण दे रहे हैं. हर साल लगभग 2 लाख छात्र यहां पर आते हैं. एकेडमी और फिजिक्स वाला, औनलाइन कोर्स देने वाले 2 संस्थान भी अब औफलाइन मोड में आ कर कोटा पहुंचे हैं. बंसल, एलन, फिटजी, एकलव्य, श्री चैतन्य जैसे सैंटर वर्षों पहले आए, कुछ सफल रहे और कुछ बोरियाबिस्तर बांध कर वापस चले गए.
श्री चैतन्य, नारायण दक्षिण भारत के इंस्टिट्यूट थे, जो 5-6 वर्षों में ही निबट गए. एलन, रिजोनेंस, मोशन, आकाश, बायजू, कैरियर प्वाइंट, वाईब्रैंट जैसे संस्थान आज भी अच्छे चल रहे हैं. कारण इन की गुणवत्ता है.
कोटा शहर में तो यह आलम है कि देश के अलगअलग हिस्सों से मांएं अपने बच्चों के साथ कमरा ले कर यहां रह रही हैं. पर यह शिक्षा प्रणाली का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि आत्महत्या के मामले बढ़ रहे हैं. वर्ष 2022 में 20 छात्रों की मौत हुई, जिन में से 18 ने आत्महत्या की थी. छात्र में तनाव का होना एक गंभीर मुद्दा है. यह बात अलग है कि काउंसलिंग की नाममात्र की सुविधा हमारे छात्रों को प्राप्त है. वर्ष 2019 से 2022 तक 53 आत्महत्या के मामले आए हैं.
छात्रों की काउंसलिंग बहुत आवश्यक है. कोचिंग के मंथली टैस्ट में पिछड़ जाना, आत्मविश्वास की कमी, पढ़ाई संबंधित तनाव, आर्थिक तंगी या किसी तरह का भावनात्मक टूटन जैसे कई कारण हो सकते हैं, जो बच्चे को आत्मघाती कदम उठा लेने की ओर धकेलते हैं.
शारीरिक गतिविधियां, खेलकूद, योग, मनोरंजन इन होस्टलर्स के लिए जरूरी है. होम सिकनैस भी एक बहुत बड़ा कारण है. इस उम्र में बच्चा अपनी परेशानी मांबाप से कह नहीं पाता. कई बार संस्थान में ब्रेक के दौरान भी वे घर नहीं जाते, क्योंकि उन्हें पढ़ाई में पिछड़ने का डर रहता है, लेकिन घर की याद मन ही मन उस का पीछा करती है. बच्चा घर से बाहर रह रहा हो तो उस के रैगुलर संपर्क में रहें. समझने की कोशिश करें कि उसे कोई समस्या तो नहीं है. उसे बताएं कि जीवन और स्वास्थ्य पहली जरूरत है. हर कोई पढ़ाई पर विशेष मुकाम हासिल नहीं कर सकता. सब की अपनीअपनी क्षमता है और समाज में हर तरह के लोगों की जरूरत है. समयसमय पर अपने बच्चे से जा कर जरूर मिलें. उस की क्षमताओं को पहचानें. उसे किसी भी तरह के दबाव में आ कर काम न करने को कहें. मातापिता का सकारात्मक व्यवहार एनर्जी बूस्टर का काम करता है.
मैं खुद एक आईआईटियन की मां हूं. समय रहते समझ में आ गया था कि बच्चे को प्रैशराइज नहीं करना है. यह सुखद संयोग रहा कि उस ने इंटरमीडिएट में भी कोई कोचिंग नहीं ली. अपने पिता और सैल्फ स्टडी के बल पर जेई एडवांस की परीक्षा पास की, लेकिन हर बच्चे का मानसिक लैवल बराबर नहीं होता और न ही मेहनत करने का रुझान और दक्षता. हां, प्रोत्साहित कर के उचित माहौल बना कर काफी मदद जरूर की जा सकती है.
आज कोटा मौत की नगरी बनता जा रहा है. कई छात्र आत्महत्या कर रहे हैं. इतनी मेहनत के बाद उच्च तकनीकी संस्थानों में प्रवेश पाने के बावजूद भी छात्र आत्महत्या कर रहे हैं. इस प्रवृत्ति को देखते हुए कई कालेजों के होस्टल में तो पंखे तक हटा दिए गए हैं, ताकि इन का दुरुपयोग न हो. इस बीच नई तकनीकी से बने पंखों के बारे में भी पढ़ रही थी, जिस पर ज़रा भी जोर देने पर वह पहले ही नीचे आ जाएगा.
बच्चा जितना भी कर रहा है, उसे प्रोत्साहित करें. अगर वह काबिल नहीं है तो उसे हतोत्साहित न करें. कोई न कोई काम उस के लिए अवश्य नियत है. रटाने और पटाने दोनों की प्रवृत्ति घातक है.
अन्य व्यवसायों की तरह कोचिंग भी एक व्यवसाय बन गया है और संस्थान के अधिकारी अधिक से अधिक मुनाफा कमाना अपना उद्देश्य समझते हैं, जिस से बेवजह मातापिता की जेब कटती है. लेकिन इस प्रवृत्ति पर रोक लगा पाना तभी संभव होगा, जब स्कूली और विश्वविद्यालयी शिक्षा ठोस हो और 12वीं के बाद प्रवेश पाने की प्रक्रिया थोड़ी सरल बना दी जाए और छात्रों को बेवजह कोचिंग की सहायता की आवश्यकता न हो.