कितना छोटा सा ही था अंकुर तब, पर उस की शिकायतें आनी शुरू हो गई थीं. उस की मां सुभाषिनी उसे कभी कुछ न कहती. बच्चा है, बड़े हो कर समझ आ जाएगी, हमेशा यही लगता रहा. टीचर, दोस्त, रिश्तेदार, महल्ले वालों की शिकायतों को हमेशा अपनी ममता की चादर तले ढंकती रही वह.

बमुश्किल अंकुर ने बड़े महंगे अमीर लोगों के स्कूल से पढ़ाई पूरी की. इतनी खानदानी प्रौपर्टी है, भला उसे डिग्रियों की बैसाखियों की क्या जरूरत. पर आएदिन उस के पास पैसों की कमी रहती. कभी पिता से मांगता, कभी मां से. जवान होते जरूरतें भी तो पूरी बड़ी हो गईं. कई लड़कियां दोस्त बन गईं. आएदिन ड्रिंक पार्टी होने लगी.

अंकुर शायद 14 वर्ष का रहा होगा जब एक लडक़ी और उस की मां ने घर पर आ कर सुभाषिनी से अंकुर की शिकायत की थी.

‘‘अपने बेटे को कृपया मना कर दें उस ने इस का स्कूल जाना दूभर कर दिया है. अपने दोस्तों संग गंदेगंदे कमैंट्स करता रहता है.’’

उस की मां का मन पहली दफा अंकुर के लिए आक्रोशित हुआ था. पर उसी दिन वह अपने नई बाइक से गिर ऐसा चोटिल हुआ कि वह कह ही नहीं पाई उसे कुछ. अंकुर के पिता अपने बिजनैस में कुछ ज्यादा ही व्यस्त रहते थे. उस दिन बिना लाइसैंस बाइक चला रहे अवयस्क बेटे के चलते थाना का चक्कर लग गया था, सो, एक शर्मिंदगीभरी क्रोधाग्नि भडक़ी थी.

‘‘खबरदार जो अब मोटरसाइकिल को हाथ लगाया, गलती की मैं ने जो तुम्हारी जिद के आगे झुक गया.’’ पिता ने यह कहा पर अंकुर ने अनसुना कर दिया. वे 8-10 लडक़े थे जो उसी आयु के थे और सडक़ों पर बाइकों से करतब दिखाने व ट्रैफिक को खराब करते.

शायद और डांटें पड़तीं पर उस की मां डेटौल-पट्टी इत्यादि ला उसे लगाने लगी. उस दिन के बाद से मां हमेशा अंकुर और बाप के बीच खड़ी रहती एक दीवार बन और उसी दीवार की आड़ में कब अंकुर की शरारतें अपराध की श्रेणी में आ गईं, सुभाषिनी जान ही न पाई. अजीबअजीब से उस के दोस्त बन गए थे और अंकुर को लगता, वे ही उस के सही हमदर्द हैं.

अंकुर की शैतानियां अब बचपना छोड़ चुकी थीं. पर बाप को अंकुर की करतूतें मालूम नहीं थीं. एक न एक दिन तो कलई खुलनी ही थी. एक दिन अंकुर ने मांग की कि वह गोवा 8 दिनों के लिए दोस्तों के साथ जाना चाहता है. उसे 2 लाख रुपए चाहिए. उसी दिन पिता के पास अटैची में 5 लाख रुपए थे. अंकुर अटैची खोलने लगा.

‘‘नहीं, मैं इतने पैसे नहीं दे सकता. क्या जरूरत है तुम्हें गोवा जाने की. अटैची छोड़ दे, किसी को भुगतान करना है, वही पैसे इस में हैं,’’ अंकुर के पिता सीढिय़ों से उतरने लगे और बोल रहे थे. अंकुर उतरता हुआ लगातार उन के हाथ से ब्रीफकेस छीनने का प्रयास करने लगा था. इस छीनाझपटी में भला 22-23 बरस के युवक से अधेड़ होता बाप कैसे जीतता.

रुपयों से भरे उस अटैची को छीन कर भागते वक्त अंकुर ने पलट कर भी नहीं देखा कि उस के पिता इस के बाद सीढिय़ों से लुढक़ते चले गए. पिता तो सिर्फ सीढ़ी से लुढक़े पर वह अब मां के आंखों से टपटप आंसुओं संग भी लुढक़ गया. पिता की न सिर्फ हड्डियां टूटीं बल्कि मन भी टूट गया. बचपन में अंकुर पर अंकुश न लगाने का ही यह नतीजा था.

अंकुर को अपने इकलौते होने का बड़ा गरूर था. पर थोड़ा ठीक होते ही उस के पिता ने एक पुराने वकील को बुलवा कर कानूनी तौर से उस के साथ संबंध विच्छेद कर लिया.

मां ने कुछ न कह अपनी सहमति ही जताई और शायद कोई राह शेष नहीं थी. अब आएदिन अंकुर की कुख्याति से अखबार पटने लगे क्योंकि घर से कुछ न मिलने पर वह राहजनी, लूट, रंगदारी करने लगा.

‘अंकुर ने एक लडक़ी को अगवा किया’

‘अंकुर पर बलात्कार का आरोप’

‘ड्रग रखने का आरोपी अंकुर’

आएदिन घर पर पुलिस व पत्रकारों के चक्कर लगते रहते. हालांकि, वह घर में आता ही नहीं था. वह कभी एक ठिकाना ढूंढ़ता, कभी दूसरा.

एक दिन उस के पिता की सहनशीलता की सीमा समाप्त हो गई और अपनी लाइसैंसी बंदूक से अपनी इहलीला समाप्त कर ली. अब मां अकेली थी जीवन प्रांगण में. खुद को जिम्मेदार मान लोहा लेती रही. कुपुत्र की कुख्याति से जाने कितने बरस गुजर गए, अंकुर का नाम अब खबरों से बाहर निकल गया था.

वह क्या सुधर गया था. मां के मन का एक कोना आशान्वित होता पर अगले ही क्षण दूसरे कोने जोरशोर से इसे नकारने लगते. मां पति की बचीखुची जमापूंजी को सहेज कर काम चलाती मनो बेटे के कुकर्मों का प्रायश्चित्त कर रही हो.

उधर, अंकुर ने अपनी तरफ से मांबाप दोनों को मरा मान लिया था. उस ने पता किया कि मां अकेली रह रही है तो एक योजना बनाई. और फिर एक रात अचानक वह मां के दरवाजे पर खड़ा था एक लडक़ी के साथ. सुभाषिनी ने मिचमिचाती आंखों से अधेड़ हो चले बेटे को देखा, मानो करंट लग गया उसे. विश्वास और अविश्वास की चौखट पर कुछ पल झूलती रही सुभाषिनी कि पुत्र को पार करने दे या नहीं.

आखिरकार ममता सब पर भारी पड़ी और विवेक हार गया.

‘‘मां, इस से मेरी शादी करा दे.’’

शुरूशुरू में वह सुभाषिनी की गोद में जब सिर रख कहता तो सुभाषिनी की आंखों में रसधार फूट पड़ते मानो पुराने दिन लौट आए हों. कुछ दिनों के लिए सुभाषिनी यह भूल गर्ई कि गया वक्त कभी नहीं लौटता. फिर धीरेधीरे अंकुर की हरकतें संदिग्ध लगने लगीं, वह कहीं आताजाता नहीं, अलबत्ता, वह लडक़ी बेबाक बाहर आतीजाती. कुछ ही दिनों में वह समझ गई कि अंकुर के रहते बच्चियां सुरक्षित नहीं हैं, बंदर ने गुलाटी मारना नहीं छोड़ा है.

सुभाषिनी परेशान रहने लगी. वह साए की तरह उन के साथसाथ रहती. फिर भी अंकुर की कुचेष्टाएं फन काढ़े उस का जीना हराम किए रहतीं.

रात को महरी और नौकर चले जाते तो सुभाषिनी ऊपर के कमरे में सोती. उस रात उस को खांसी का दौर ऐसा शुरू हुआ कि रुकने का नाम ही नहीं ले रहा था. सो, वह दवाई लेने सीढिय़ों से उतर रही थी कि अंकुर के साथ आई लडक़ी की आवाज उसे सुनाई दी.

‘‘उफ. और कितने दिनों तक यहां छिपे रहोगे. तुम ने तो कहा था, तुम करोड़ों के वारिस हो. अब मैं और नहीं रह सकती यहां. उस ड्रग डीलर के फोन से भी मैं परेशान हो चुकी हूं.’’

‘‘अरे यार, आज ही मैं बुढिय़ा को टपकाता हूं और प्रौपर्टी के सारे कागजात व जेवर समेट अब यहां से निकला जाए.’’

अंकुर को एहसास नहीं था कि मां यह सब सुन रही है. सुभाषिनी जड़ हो गई उस की बातों को सुन. अंकुर बोला, “तुम रोजरोज मेरे पीछे न पड़ो. मैं देखता हूं कि कैसे वे करोड़ों मिलते हैं. मां ने कहीं गाड़ कर रखे हैं.

“यह पुलिस भी तो कुत्ते की तरह मेरे पीछे पड़ी है. दुनिया में अभी यहां से सुरक्षित कोई जगह नहीं है. पर मम्मीजी ने अब तक इतना माल दबाए रखा है कि छोड़ते नहीं भी नहीं बन रहा. इस घर के अलावा और भी कितने घरजमीन की यह मालकिन है, सब मेरा ही तो है. अब जो यहां से निकले तो देश वापस नहीं आना है. बस, किसी तरह निकल जाऊं उस ड्रग डीलर के मुंह पर पैसे मार कर.”

अंकुर ने ऐसा कहा तो उस लडक़ी ने कहा, ‘‘जो करना है, जल्दी करो, वरना पुलिस तो बाद में आएगी. वह ड्रग डीलर सूघंते यहां पहुंच गया तो न प्रौपर्टी बचेगी, न तुम्हारी मम्मी और न ही ये जेवर.’’

मां को अंदर कमरे की यह बातचीत और हलचल बेचैन करने लगी, जी किया कि उसी मनहूस रिवौल्वर से खुद को वह भी गोली मार ले पर इस से तो अंकुर को आसानी ही हो जाएगी. ऊपर कमरे से आ रही खांसी की आवाज ने उस की तंद्रा को भंग किया. वर्षों पहले पिता को सीढिय़ों से गिराने वाला बेटा आज मां को भी तर्पण दे कर ही जाएगा. खांसी की आवाज लगातार अपनी उपस्थिति जता रही थी.

सुभाषिनी चेयर पर झूल रही थी. अंकुर को नहीं मालूम था कि विचारों की अंधड़ मन में चल रही थी, थपेड़ों से उन का शरीर कांप रहा था. आंखों से क्रोधाग्नि से तप्त अश्क, गंगाजमना बन कलेजे पर बरछियां चला रहे थे. अंकुर का बचपन बारबार मानस पर चलचित्र की भांति चल रहा था.

शादी के बरसों बाद अंकुर गोद में आया था. काफी इलाज के बाद शारीरिक कमियों को हराते हुए उसे पाया था. शायद संकेत था कि निपूती रहना ही श्रेस्कर होगा. इतने वर्षों बाद गोद हरी हुई तो अंकुर की कोई गलती कभी महसूस ही नहीं हुई. कैसा कुलतारण कपूत निकला जैसे कोई वैर निकालने ही पैदा हुआ.

तभी दरवाजे पर किसी ने खटखटाया. अंकुर ने खिडक़ी से झांका और घबराते हुए दौड़ कर हौल में आया. सुभाषिनी को बैठा देख वह झट से उस की गोदी में सिर घुसा शुतुरमुर्ग बन कहने लगा, ‘‘मां, दरवाजा मत खोलना, पुलिस आई है तेरे बेटे को पकड़ कर ले जाएगी.’’

बेटे से यह नजदीकी और प्यारभरे बोल मां का मन फिर भरमाते कि सुभाषिनी जोर से बोल पड़ी, ‘‘दरवाजा खुला है, अंदर चले आएं. फोन मैं ने ही किया था.’’ गला भर्रा चुका था, कंठ अवरुद्ध हो चुका था.

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