मणिपुर में कुकी व मैतेई समुदायों के बीच जो आग भगवा गैंगों ने बरसों पहले बड़ी मेहनत से जरा सी शुरू की थी, वह अब दावानल बन गई है. पूर्वोत्तर राज्यों में बसे आदिवासियों को हिंदुओं ने सैकड़ों सालों से अछूत और जाति से बाहर माना था. पर जब यूरोपीय भारत आए तो उन्हें उन में इंसानियत का प्रचार करने का अवसर दिखा.

पहले तो हिंदू विचारक खुश हुए कि चलो बला टली पर जब वे आदिवासी ईसाई प्रचारकों की शिक्षा पा कर शहरी और मैदानी लोगों से बेहतर साबित होने लगे व पैसा कमाने लगे तो पांडित्यपन उभरने लगा. पैसे वाले बिना दानदक्षिणा के भारतभूमि में रह सकें, यह कैसे स्वीकार किया जा सकता है.

जो उन्होंने पुद्दुचेरी और गोवा में किया वही मणिपुर में किया कि बाहर से ला कर लोगों को बासाना शुरू किया और आदिवासियों के मुकाबले में मंदिरनिर्माण शुरू हो गए. महाबलि मंदिर, गोविंदजी मंदिर, कृष्णा मंदिर, सनमाही मंदिर, नित्यानंद नरसिम्हा मंदिर और राधाकृष्ण चंद्रमोहन जैसे विशाल मंदिर बनने लगे. इन में मैतेई लोग ही ज्यादा जाते हैं. इन मंदिरों में जो पुजारी हैं उन में से अधिकांश के पुरखे देश के पश्चिमी हिस्सों से आ कर पिछली 3-4 सदियों में बसे थे.

शिक्षा पाने के बाद जब कुकी आदिवासी अपने अधिकारों को जानने लगे और जंगलों का सदुपयोग करने लगे तो हिंदू परिवार कम होने लगे. यह हिंदूवादियों को खला और पिछले 4-5 दशकों से लगातार हिंदू बनाम ईसाई द्वंद्व को मैतेई बनाम कुकी नाम दिया जा रहा है.

लगता है कि अब सरकार इस मूड में है कि आधुनिक हथियारों से लैस देश के मैदानी इलाकों से भेजी गईं फौजें ईसाई समर्थक कुकी समुदाय को उसी तरह दबा दें जैसे मैदानी इलाकों में पिछड़ों और दलितों को काबू में किया जाता है. यह विवाद जमीन या सत्ता का नहीं, दानदक्षिणा का है. हिंदू पुरोहित, जो ईसाई पुरोहितों के आने से पहले एकक्षत्र राज करते थे, अब पैसा पाने में पिछड़ रहे हैं.

इस की कमी मणिपुर को जला कर पूरी की जा रही है ताकि मैतेई हिंदू मंदिरों में शरण लें और कुकी सरकार के आगे समर्पण कर दें व चर्चों को बंद कर दें. जब तक ऐसा न होगा, मणिपुर की आग जलती रहेगी, कभी ज्यादा, कभी कम.

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